मौलाना जलालुद्दीन रूमी
मौलाना जलालुद्दीन रूमी (1207-1273 ई.) विश्व के सर्वाधिक पढ़े और पसंद किये जाने वाले सूफ़ी शाइर हैं। इनकी शाइरी में रचनात्मक और भावनात्मक रस का प्रवाह इतना बेजोड़ है कि इसकी समता सूफ़ी शाइरी का कोई शाइर न कर पाया। प्रसिद्ध है –
मसनवी–ए-मौलवी-ए-मा’नवी
हस्त क़ुरआन दर ज़बान-ए-पहलवी
(अर्थात –मौलाना रूमी की मसनवी पहलवी भाषा की क़ुरआन है)
इनका नाम मुहम्मद,लक़ब जलालुद्दीन उर्फ़ मौलाना एवं उपनाम रूम था। इनके पिता मुहम्मद बिन हुसैन थे जिनका लक़ब बहाउद्दीन था । उनके दादा दादा शैख़ हुसैन भी सूफ़ी थे। मुहम्मद ख़्वारिज़्म शाह ने अपनी बेटी का ब्याह उनसे किया था और मुहम्मद बहाउद्दीन का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध से सुल्तान ख़्वारिज़्म शाह बहाउद्दीन का मामा और मौलाना रूम का नाना था।
शैख़ बहाउद्दीन का शुमार अपने समय के बड़े सूफ़ियों में होता था और उनके घर सूफ़ी संतों का आना जाना लगा रहता था। उनकी लोकप्रियता जब बहुत बढ़ गयी तो बादशाह को इर्ष्या होने लगी। यह बात जब शैख़ बहाउद्दीन को पता चली तो उन्होंने बल्ख़ शहर का परित्याग कर दिया और सन 1213 ई. में निशापुर तशरीफ़ ले आये। वहां शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार उनके दर्शनार्थ तशरीफ़ लाये। उस समय बालक जलालुद्दीन की आयु 6 वर्ष की थी। शैख़ अ’त्तार ने अपनी मसनवी ‘असरार नामा’ जलालुद्दीन को भेंट की।
शैख़ बहाउद्दीन अपने पुत्र सहित निशापुर से बग़दाद आ गए। बग़दाद से हिजाज़ और शाम होते हुए वह आक़ शहर पहुंचे जहाँ उन्होंने एक साल निवास किया। एक साल बा’द उन्होंने आक़ भी छोड़ दिया और आगे लारंदा शहर में सात वर्षों तक निवास किया।
इस बीच बालक जलालुद्दीन की शिक्षा अनवरत चलती रही। जलालुद्दीन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शैख़ बहाउद्दीन के मुरीदों में सय्यद बुरहानुद्दीन बड़े ख़ास थे। पिता के आदेश पर जलालुद्दीन ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ ही समय पश्चात्त उन्हें मौलाना की उपाधि मिल गयी। 18 वर्ष की आयु में मौलाना रूम का विवाह संपन्न हुआ और सन-1226 में उनके पुत्र सुल्तान वलद का जन्म हुआ।
रूम के बादशाह, कैक़ुबाद की प्रार्थना पर शैख़ बहाउद्दीन पुत्र –पौत्र सहित क़ून्या आ गए। सन 1231 में शैख़ बहाउद्दीन का विसाल हो गया। मौलाना रूमी के जीवन के सबसे उज्ज्वल काल की शुरुआत क़ून्या में उनकी हज़रत शम्स तबरेज़ी से मुलाक़ात के बा’द होती है। मौलाना हज़रत शम्स के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना मुर्शिद बना लिया। उसके बा’द की ज़िन्दगी ख़ुद एक मिसाल बन गयी .मौलाना ने अपनी रचनाओं में बारहा शम्स का नाम लिया है। सन 1247 ई. में हज़रत शम्स को अचानक खो देने के पश्चात, मौलाना के सच्चे साथी शैख़ सलाहुद्दीन ज़रकोब थे जिन्होंने मौलाना को इस विकट परिस्थिति में संभाला।
शैख़ सलाहुद्दीन ज़रकोब (वरक़ बनाने वाला ) पहले सोने-चांदी के वरक़ कूटा कारते थे। एक दिन मौलाना का गुज़र उनकी दूकान के सामने से हुआ। मौलाना पर हथौड़ी की लयबद्ध आवाज़ ने मस्ती पैदा कर दी। मौलाना वहीं खड़े हो गए और झूमते रहे। शैख़ ने जब यह देखा तो वह भी बिना रुके लगातार वरक़ कूटते रहे। यहाँ तक कि बहुत सारे वरक़ नष्ट हो गए परन्तु उन्होंने हाथ नहीं रोका। आख़िरकार,शैख़ ज़रकोब बाहर आये। उन्होंने खड़े होकर अपनी पूरी दुकान लुटवा दी और मौलाना के संग हो लिए।
शैख़ सलाहुद्दीन ले विसाल के पश्चात मौलाना ने शैख़ हुसामुद्दीन चिल्पी को अपना साथी बनाया। मौलाना रूम की मृत्यु तक यह साथ बराबर बना रहा। शैख़ हुसामुद्दीन सदा उनके साथ रहे और अपने मुर्शिद की देखभाल करते रहे। इन्हीं के आग्रह पर मौलाना ने मसनवी लिखना प्रारंभ किया। जब वह आख़िरी (छठे) दफ़्तर पर पहुंचे तो मौलाना ऐसे रोग –ग्रस्त हुए कि बचने की कोई आशा शेष न रही। उनके ज्येष्ठ पुत्र ने कहा – दफ़्तर अधूरा रह गया है। मौलाना ने फ़रमाया –इसे कोई और पूर्ण करेगा। ईश्वर की कृपा हुई और मौलाना स्वस्थ हो गए। उन्होंने आख़िरी दफ़्तर भी स्वयं पूर्ण किया। मौलाना ने मसनवी शैख़ हुसामुद्दीन चिल्पी को समर्पित की। मसनवी के बाद मौलाना ने अपने ‘दीवान’ को अंतिम रूप दिया और अपने प्रिय मुर्शिद हज़रत शम्स तबरेज़ी को समर्पित करते हुए इस दीवान का नाम ‘दीवान ए शम्स’ रखा।
अपने जीवन के आख़िरी दिनों में मौलाना काफ़ी कमज़ोर और रोग ग्रस्त हो गए। उनके उपचार में कोई कसर न छोड़ी गयी परन्तु विधि के सामने किसी की नहीं चली और सन 1273 ई. में मौलाना रूमी जगती के पालने से कूच कर गए। उनको अपने पिता की कब्र के समीप ही खाक़ के सिपुर्द किया गया। उनके दो पुत्रों में सुल्तान वलद बड़ा शाइर था। मौलाना रूमी के तीन ग्रन्थ मशहूर हैं – मसनवी,दीवान एवं फ़िही मा फ़िही (इसमें मौलाना के उपदेशों का संग्रह है ) । इनकी ख्याति का आधार इनकी मसनवी है जो छः दफ्तरों में है।
मौलाना शिब्ली के शब्दों में –
“मसनवी को जिस क़द्र मक़बूलियत और शोहरत हासिल हुई, फ़ारसी की किसी किताब को आज तक नहीं हुई। साहिब-ए-मजमऊल-फ़ुसहा ने लिखा है कि ईरान में चार किताबें जिस क़द्र मशहूर हुईं, उस क़द्र और कोई किताब नहीं हुई। शाहनामा, गुलिस्ताँ, मसनवी-ए-मौलाना रूम और दीवान-ए-हाफ़िज़ – इन चारो किताबों का मुवाज़ना किया जाए तो मक़बूलियत के लिहाज़ से मसनवी को तरजीह होगी। मक़बूलियत की एक बड़ी दलील यह है कि उलमा व फुज़ला ने मसनवी के साथ जिस क़द्र ए’तिना किया, और किसी किताब के साथ नहीं किया” ।
मौलाना रूमी की मसनवी उनके विसाल के एक साल बाद हिंदुस्तान आई। यहाँ भी सूफ़ी संतों के बीच यह किताब जल्द ही प्रचलित हो गयी और इसकी कई शरहें और अनुवाद मिलते हैं। हिंदुस्तान में शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी, ख्व़ाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी आदि सूफ़ी संत मौलाना रूमी के समकालीन थे। तेरहवीं सदी के उत्ररार्ध मे तुर्की से विद्वानों का आना जाना लगा रहता था और दिल्ली के सुल्तान रूमी की लोकप्रियता से भली भँति परिचित थे। मौलाना रूमी की मृत्यु के उपरांत ‘मौलविया’ सिलसिले की स्थापना हुई परंतु यह सिलसिला भारत में प्रचलित नहीं हो पाया।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया तक आते-आते मसनवी हिंदुस्तान में पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी।
अकबर का काल (1556-1605) हिंदुस्तान में फ़ारसी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। अकबर के काल से पहले मसनवी की व्याख्या हसन-अल-अ’रबी के वहदतुल वजूद के आधार पर की जाती थी। अकबर के शासनकाल में ही शैख़ अहमद सरहिंदी ने वहदतुश शुहूद का सिद्धांत दिया। इस से मसनवी के पठन पाठन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। अबुल फ़ज़ल ने एक जगह शिक़ायत की है कि रूमी की मसनवी अब दुर्लभ हो गई है।
अब्दुल लतीफ़ अब्दामी ने शाह जहाँ (1628-1658) के शासनकाल के दौरान अपना पूरा जीवन लगाकर मसनवी का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने मसनवी का प्रामणिक पाठ तैयार किया। उनकी किताब लताईफ़-ए-मानवी मसनवी के कठिन पदों की व्याख्या करती है। उन्होंने मसनवी के कठिन शब्दों का एक कोष भी तैयार किया जिसका नाम लताईफ़ुल-लुग़ात है।
औरंगज़ेब (1660-1707) के शासन काल में भी मसनवी को बड़ी ख्याति मिली। आक़िल ख़ान राज़ी और उनके दामाद शुक्रउल्लाह ख़ान ख़ाकसार इस काल के प्रसिद्ध लेखको में से थे जिन्हों ने मसनवी की शरह लिखी।
इस समय के कुछ प्रसिद्ध लेखक जिन्होंने मसनवी पर कार्य किया हैं इस प्रकार हैं –
1. मुहम्मद आ’बिद
2. शाह अफ़ज़ल इलाहाबादी
इस समय के प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे शाह इमदादुल्लाह। उर्दू में मसनवी पर उनके प्रवचन बड़े प्रसिद्ध थे। लोग सैकड़ों की संख्याँ में उनके उपदेश सुनने थाना भवन में एकत्रित होते थे। मसनवी की उनकी व्याख्या सरल और रोचक थी। उनकी किताब शरह-ए-मसनवी मौलाना रूमी अपनी तरह की पहली किताब है। हाजी इमदादुल्लाह स्वतंत्रता सेनानी थे। अंग्रेज़ों के आतंक की वजह से यहाँ इस किताब पर कार्य करना मुश्किल हो रहा था। उन्होंने कुछ महीनों तक मक्के में रहने का निश्चय किया और वहीं यह किताब पूर्ण की।
मध्यकालीन भारत में रूमी पर अध्ययन का आख़िरी सिरा अब्दुल अ’ली मुहम्मद इब्न निज़ामुद्दीन से जुड़ता है वो लखनऊ के थे। उनकी किताब ‘बह्र-उल-उलूम’ को मसनवी का सबसे प्रमाणित अनुवाद माना जाता है। उनका देहांत सन 1819 ई० में हुआ।
अँग्रेज़ी शासनकाल के दौरान रूमी पर दो प्रमुख कार्य हुए जिनमें पहला हज़रत शिबली नोमानी और दूसरा मौलाना अशरफ़ थानवी का है। अशरफ़ थानवी ने मसनवी की शरह छह भागों में प्रकार्शित की।
आज़ादी के उपरान्त सज्जाद हुसैन साहब का काम मिलता है जिन्होंने पूरी मसनवी का तर्जुमा उर्दू में किया. यह किताबें पहले हिंदुस्तान में छपी और बाद में यही किताब को पाकिस्तान में भी छपी जो आज पुस्तकालयों में मिल जाती हैं .
मौजूदा दौर में संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान श्री बलराम शुक्ल का कार्य उल्लेखनीय है जिन्होंने रूमी की सौ ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद निःशब्द नुपुर के नाम से किया है।निः शब्द नुपुर कई मायनों में महत्वपूर्ण है. रूमी के शुरूआती अनुवादों में वहदत उल वजूद सहजता से दिख जाता है और बाद के अनुवादों में वहदत उल शुहूद मत का प्रभाव अधिक मिलता है जो इसकी वेदान्तिक व्याख्या को खारिज़ करता है . पुनः रूमी की वेदान्तिक व्याख्या जो आचार्य बलराम शुक्ल जी ने की है वह रूमी को भारतीय तसव्वुफ़ के और नज़दीक लाकर खड़ा कर देती है.सूफ़ी नामा स्टूडियो में बलराम शुक्ल जी ने रूमी की कुछ ग़ज़लों की व्याख्या की है. पाठकों के लिए हम उन ग़ज़लों के लिंक लेख के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं –
मौलाना रूमी की किताबें सूफ़ी नामा में इस लिंक पर जा कर पढ़ी जा सकती हैं – मौलाना रूमी की मसनवी कहानियों का पिटारा है. सूफ़ी नामा पर हमने मसनवी के सौ के करीब हिकयतों का संग्रह पेश किया है . एक हिकायत पाठकों के लिए प्रस्तुत है –
एक मुक़य्यद तूती का हिंदुस्तान के तूतियों को पैग़ाम भेजना (दफ़्तर-ए-अव्वल)
एक सौदागर के पास हिन्दोस्तान का ख़ूबसूरत तूती था। एक मर्तबा सौदागर ने सामान-ए-सफ़र तैयार कर के हिन्दोस्तान जाने का क़स्द किया। रुख़स्त होते वक़्त घर के सब नौकरों तक से पूछा कि हर एक के लिए क्या-क्या तोहफ़े लाए जाएं।हर एक ने अपनी अपनी पसंद अ’र्ज़ किया। उसने सबसे वा’दा किया और तूती से भी दरयाफ़्त किया कि मुझे मुल्क-ए-हिन्दोस्तान जाना पड़ गया है तू बता तेरी फ़रमाइश क्या है? तूती ने कहा जब तू वहाँ के तूतियों को देखे तो मेरा हाल यूं बयान कर कि तुम्हारी क़ौम का फ़ुलां तूती जो तुम्हारी मुलाक़ात का मुश्ताक़ है, गर्दिश-ए-आसमान से हमारी क़ैद में है। तुमको उसने सलाम कहा और अपनी ख़लासी का मश्वरा तलब किया है। कहना, मुम्किन है कि मैं तुम्हारे इश्तियाक़ ही इश्तियाक़ में ख़त्म हो जाऊं और फ़िराक़ में जान दे दूं। क्या ये इन्साफ़ है कि मैं क़ैद-ए-सख़्त में गिरफ़्तार रहूँ और तुम कभी सब्ज़े पर और कभी दरख़्त पर मज़े उड़ाओ। क्या दोस्तों के आईन-ए-वफ़ा ऐसे ही होते हैं कि मैं इस क़ैद में गिरफ़्तार और तुम ख़ुशबू के बाग़ों में आज़ाद फिरो।
सौदागर ने वा’दा किया कि उस का पयाम-ओ-सलाम उस की क़ौम तक पहुंचा देगा। जब हिन्दोस्तान की हुदूद में पहुंचा तो जंगल में चंद तूतियों को देखा। घोड़ा रोक कर आवाज़ दी और अपने तूती का सलाम और पैग़ाम जो अमानत था उन्हें पहुंचा दिया। इन तूतियों में से एक तूती थर-थर काँप कर गिर पड़ा और उस का सांस उखड़ गया। मालिक-ए-तूती ये ख़बर देकर बहुत पशेमान हुआ और जी में कहने लगा कि मैंने ना-हक़ एक जान ली शाएद ये हमारे तूती का अ’ज़ीज़ था मैंने अपनी बे-मौक़ा बात से इस ग़रीब को फूंक दिया। अल-क़िस्सा जब सौदागर कार-ओ-बार-ए-तिजारत से फ़ारिग़ हो कर अपने वतन वापस आया तो हर ग़ुलाम के लिए तोहफ़ा लाया और हर लौंडी को हदिया दिया कि तूती ने पूछा कि मेरी फ़रमाइश भी पूरी की, क्या कहा और क्या देखा बयान कर। सौदागर ने कहा नहीं मेरा जी नहीं चाहता, मैं ख़ुद कह कर पशेमान हूँ, अपना हाथ चबाता और उंगलियां काटता हूँ कि बेहूदगी से ऐसा बुरा पैग़ाम बिलकुल बे-समझी और बोलेपन से क्यों ले गया। तूती ने कहा ऐ मेरे मालिक पशेमानी काहे की। वो ऐसी कौन सी पशेमानी है जिसने इस क़दर ग़ुस्सा और ग़म पैदा कर दिया है। सौदागर ने कहा कि तेरे हम-जिंस तूतियों के गिरोह से मैंने तेरी दास्तान बयान की। उनमें एक तूती तेरा दर्द-आश्ना निकला। पैग़ाम सुनते ही उस का पित्ता फट गया, काँप कर गिरा और मर गया। मैं अज़-हद पशेमान हुआ कि पैग़ाम ही क्यों दिया लेकिन जब मुँह से निकल गया तो पशेमानी बे-फ़ाएदा है। सौदागर के तूती ने जब ये क़िस्सा सुना तो वो भी थरथरा कर गिरा और ठंडा हो गया। मालिक ने तूती को इस हाल से गिरा हुआ पाया तो खड़ा हो गया और टोपी ज़मीन पर पटख़ दी। रंज-ओ-ग़म के मारे अपना गिरेबान चाक कर दिया। मैं कहता था कि ऐ ख़ूबसूरत और ख़ुश-आवाज़ तूती, अरे ये तुझे क्या हो गया, तू ऐसा क्यों हो गया। हाय हाय तू ऐसा था और तू वैसा था। आख़िर जब रो पीट चुका तो उस को पिंजरे से बाहर फेंक दिया फ़ौरन तूती उड़ कर एक बुलंद डाली पर जा बैठा। उस मुर्दा तोता ने इस तरह की परवाज़ की जैसे आफ़्ताब मशरिक़ से धावा करता है। मालिक परिंदे की इस हरकत पर हैरान रह गया। भुलावे में पड़ा हुआ था कि यकायक परिंदे के चलित्तर जो देखे तो सर ऊंचा कर के उस से मुख़ातिब हुआ और कहा कि ऐ मेरे बुलबुल अपने हाल की तफ़्सील में से कुछ हिस्सा हमको भी दे। हिन्दोस्तान के तूती ने क्या रम्ज़ किया जिस को तू भाँप गया और हमारी आँखों पर अपने मक्र से पर्दा डाल दिया। तूने वो चाल खेली कि हमको जलाया और ख़ुद रौशन हो गया। तूती ने कहा कि उसने अपने अ’मल से मुझे ये नसीहत की कि नग़्मा, आवाज़, ख़ुश-दिली को तर्क कर क्योंकि तू अपनी सदा के बाइ’स ही गिरफ़्तार हुआ है, सिर्फ़ नसीहत की ग़रज़ से उसने अपने को मुर्दा बना लिया। या’नी ऐ परिंदे तू जो आ’म-ओ-ख़ास का दिल बहलाने वाला गवय्या है तो मुर्दा बन जा ताकि क़ैद से ख़लासी पाए। फिर तूती ने सलाम कर के कहा बस अब ख़ुदा-हाफ़िज़ ऐ मरे मालिक अलविदा’अ। तूने बड़ी मेहरबानी की कि मुझे अँधेरी क़ैद से आज़ाद कर दिया। मालिक ,सौदागर ने कहा, ख़ुदा की अमान, जा। तू जाते-जाते मुझको एक नया रास्ता दिखा गया। तूती ने वतन-ए-अस्ली का रुख़ किया। एक मुद्दत सऊ’बत-ए-सफ़र उठाने के बा’द आसाईश-ओ-आराम से रहने लगा। उधर मालिक ने अपने जी में कहा, मेरे लिए अब मस्लिहत यही है कि तूती का रास्ता इख़्तियार करूँ कि वो बिल्कुल रौशन और साफ़ है।
तूती के मरने से मुराद नफ़्स को मारना है। देख मौसम-ए-बहार में भी पत्थर सरसब्ज़ नहीं हुआ लिहाज़ा तू ख़ाक हो जा ताकि तुझसे रंग ब-रंग के फूल खिलें । साल-हा-साल तू सख़्त पत्थर बना रहा, थोड़ी सी देर के लिए ख़ाक हो कर भी आज़माइश कर।
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