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ज़फ़राबाद की सूफ़ी परंपरा

सुमन मिश्रा

ज़फ़राबाद की सूफ़ी परंपरा

सुमन मिश्रा

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    जौनपुर से पूरब की ओर पांच मील की दूरी पर क़स्बा ज़फ़राबाद है . यह शहर जौनपुर से भी पुराना है और एक समय था जब यह एक बहुत बड़ा नगर था और इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी .यहाँ कन्नौज के राजा जयचंद और विजयचंद की सैनिक छावनियाँ थीं . उस काल में इसका नाम मनहेच था जिसे गुप्त वंशी राजाओं ने आबाद किया था .मनहेच का संस्थापक कन्नौज का राजा विजय चंद राठौड़ था . उसने अपने बेटे जयचंद को मनहेच जागीर के रूप में दिया था .जब मुसलमानों का आगमन हुआ और क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने बनारस और मनहेच पर आक्रमण किया, साथ ही साथ मख़्दूम चिराग़-ए-हिन्द और मख़्दूम आफ़्ताब-ए-हिन्द तथा ग़यासुद्दीन तुग़लक़ के शहजादे ज़फर ने इस पर विजय प्राप्त की तब इस शहर का नाम ज़फ़राबाद रखा गया. इस के बाद आफ़ताब-ए-हिन्द और चिराग़-ए-हिन्द ने यहीं निवास किया जिस के कारण कुछ ही समय में ज़फ़राबाद सूफ़ी संतों का गढ़ बन गया. ज़फ़र ख़ान ने यहाँ अनेक भवनों का निर्माण कराया और ज़फ़राबाद को सफलता के शीर्ष पर पहुंचाने के लिए बड़ा श्रम किया. ज़फ़र ख़ान ने थोड़े दिन शासन किया और उसके बाद संतो से प्रभावित हो गया.उसने अपना राज पाट त्याग दिया और एकांत वास करने लगा. यहाँ तक कि इसी दशा में उसकी मृत्यु हुई.

    शहजादा ज़फ़र तुग़लक़

    मख़्दूम चिराग़-ए-हिन्द के रौज़े के पास ही उसकी क़ब्र है .फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ की सूफ़ियों में श्रद्धा थी इसलिए जब वह ज़फ़राबाद गया तो इसका नाम शहर अनवर रखा.मगर यह नाम लोकप्रिय हो पाया.यहाँ बहुत पहले से उच्च कोटि का काग़ज़ बनता था और यह स्थान कागज के लिए प्रसिद्ध था इसलिए इस शहर को काग़ज़ का नगर भी कहा जाता था लेकिन ज़फ़राबाद के आगे सारे नाम मद्धिम पड़ गए .यहाँ के भग्न भवन चिन्हों को देख कर आभास होता है कि यह स्थान आरम्भ में बड़ा रमणीक तथा आबाद था. मीलों तक इसकी आबादी फैली हुई हैं .प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के शासनकाल में इस शहर को केन्द्रीय महत्ता प्राप्त थी .जौनपुर के आबाद होने के बाद इसका का पतन हो गया और इसका वैभव समाप्त हो गया .यहाँ के अधिकांश कुओं का पानी खारा होता है जबकि नदी का पानी स्वादिष्ट और मीठा है .

    मख़्दूम चिराग़-ए-हिन्द के साथ कई सूफ़ी ज़फ़राबाद आये थे, जिनमे से कई तो यहीं रुक गए और कई सूफ़ी देश के अन्य भागों में अपनी यात्रा पर निकल पड़े .

    ज़फराबाद के कुछ प्रमुख सूफ़ी संतों के विषय में जो सीमित जानकारी मुझे मिली, वह प्रस्तुत है

    मख़्दूम आफ़ताब-ए-हिन्द सुहरवर्दी

    आप शैख़ रुक्न-ए –आ’लम मुल्तानी सुहरवर्दी के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे और आप का जन्म इराक़ के बासित शहर में सन 1262 ई. में हुआ था.आप जब छोटे थे उसी समय आप का परिवार भारत गया. परिवार कुछ दिनों तक दिल्ली में रहा और फिर बाद में कड़ा मानिकपुर तहसील मंझनपुर इलाहबाद चला आया.आप ने 20 वर्ष की आयु तक सांसारिक ज्ञान प्राप्त किया. हाफ़िज़ कुरआन होने के साथ-साथ आप सात विभिन्न स्वरों से कुरआन का पाठ कर सकते थे .आप की रचनाओं में इश्क़िया प्रसिद्द है जो ईश्वर भक्ति से परिपूर्ण है .आप अपने नाना मख़्दूम ज़ियाउद्दीन कढ़ी के मुरीद थे और आपने शुरूआती आध्यात्मिक ज्ञान उन्ही से प्राप्त किया. उस के बाद मुल्तान जा कर आप शैख़ रुक्नुद्दीन सुहरवर्दी के मुरीद हुए. शैख़ मुल्तानी ने आप को अपना खिरक़ा और खिलाफ़तनामे के साथ साथ आफ़ताब-ए-हिन्द की पदवी से भी सम्मानित किया .आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद हज़रत मुल्तान से दिल्ली तशरीफ़ लाए और दिल्ली में उनकी मुलाक़ात हज़रत निजामुद्दीन औलिया से हुई जिनके साथ हुई अध्यात्मिक चर्चाओं से भी उन्हें बड़ा लाभ हुआ .दिल्ली से आप मिर्ज़ापुर होते हुए ज़फ़राबाद आये. ज़फ़राबाद में आप की मुलाक़ात हज़रत चिराग़-ए-हिन्द से हुई जो इस काल के प्रसिद्ध सूफ़ी थे .

    आप के सत्रह मुरीद थे . सन 1391 ई. में चार बजे दिन की नमाज़ के बाद एक महफ़िल में शैख़ सादी के एक शे’र पर झूमते झूमते आप वज्द में गए . इसी दिन आधी रात को आप का देहांत हो गया .आप की औलादें ज़फराबाद में आबाद थीं पर जब नवाब सआदत अली ख़ान ने शाही माफ़ी आदि छीन लिए तब परिवार के लोग ज़फ़राबाद छोड़कर जौनपुर के मुफ़्ती मोहल्ले में आबाद हो गए.

    मख़्दूम शैख़ सदरुद्दीन चिराग़-ए-हिन्द सुहरवर्दी

    आप हज़रत शैख़ रुक्नुद्दीन मुल्तानी सुहरवर्दी के मुरीद ख़लीफ़ा और शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी के नवासे थे .आप मूल रूप से मक्का के निवासी थे . आप के परदादा कमालुद्दीन शाह परिवार सहित पहले ख़्वारजम और बाद में मुल्तान आये और यहीं सन 1291 ई. में आप का जन्म हुआ .

    आप आरंभिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात मख़्दूम शैख़ रुक्नुद्दीन मुल्तानी के मुरीद हो गए. मुर्शिद ने आप को खिरक़ा, खिलाफ़तनामा और चिराग़-ए-हिन्द की पदवी से सम्मानित किया.इस के पश्चात आप सूफ़ी विचारों के प्रचार के लिए पूर्व की और चल पड़े .आप प्रायः जंगलों में निवास करते थे और एकान्तिक जीवन बिताते थे . कई बार आप इबादत में इतने लीन हो जाते थे कि कई दिनों तक बिना भोजन के ही रह जाते थे . हज़रत अशरफ़ जहाँगीर समनानी से भी आप की मुलाक़ात प्रसिद्ध है .

    आप के छः मुरीद थे जो सदैव आप के साथ रहते थे .कहते हैं कि आप ने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि मेरी संतान में क़यामत तक कोई आलिम हो और अगर हो तो भी जवान ही मर जाए . ऐसा ही हुआ भी .हज़रत शाह वारिस अली ने आँखों देखी घटना यूँ बयान की है

    ‘हज़रत चिराग़-ए-हिन्द की संतान में शैख़ मुजाहिद, निवासी मख़दूमपुर परगना केराकत थे . उन्होंने इराक़ जाकर उच्च कोटि की साधना की थी मगर घर आते ही उनका देहांत हो गया’

    आप का देहांत सन 1391 ई. में हुआ. खजीनतुल अस्फ़िया के लेखक मुफ़्ती गुलाम सरवर साहब ने मृत्यु का साल सन 1372 ई. लिखा है. यह दोनों तिथियाँ ग़लत हैं क्यूंकि हज़रत अशरफ़ जहाँगीर दूसरी बार शाह इब्राहीम शर्की के शासन काल में ज़फराबाद गए थे और इब्राहीम शाह शर्की सन 1399 ई. में गद्दी पर बैठा था. हज़रत अशरफ़ जहाँगीर समनानी ज़फ़राबाद दो बार पधारे थे.प्रथम बार तुग़लक़ शासन काल में और दूसरी बार शर्की शासन काल में.इस विवरण के लिए लतायफ़ अशर्फ़ी और मिरअतुल असरार का अध्ययन किया जा सकता है. स्पष्ट है कि हज़रत चिराग़-ए-हिन्द की मृत्यु सन 1399 ई. के बाद हुई कि उस से पहले .

    मख़्दूम कयामुद्दीन सुहरवर्दी

    आप हज़रत आफ़ताब-ए-हिन्द के मुरीद थे और उन्ही के साथ ज़फ़राबाद आये थे. आप हज़रत निजामुद्दीन औलिया से भी मिले थे. हज़रत आफ़ताब-ए-हिन्द के दो बेटों सैयद नूरुद्दीन मदनी और सैयद सदरुद्दीन मक्की ने आप से शिक्षा प्राप्त की थी.सन 1414 ई. में इब्राहीम शाह शर्की के शासन काल में आप का विसाल हुआ. आप की दरगाह मोहल्ला अहद में स्थित है.

    सैयद नूरुद्दीन मदनी

    आप मख़्दूम आफ़ताब-ए-हिन्द के बड़े बेटे, और उनके मुरीद ख़लीफ़ा थे.आप का जन्म सन 1332 ई. में हुआ. आप ने मुल्ला कयामुद्दीन और मौलाना निजामुद्दीन अल्लामी ने ज्ञान प्राप्त किया. आप के जीवन का अधिकांश भाग भ्रमण में व्यतीत हुआ. आप ने 15 वर्षों तक अपने पिता की सेवा की और उनसे तसव्वुफ़ का गूढ़ ज्ञान प्राप्त किया.आप का विसाल सन 1491 ई. में हुसैन शाह शर्की के शासन काल में हुआ. आप की दरगाह आफ़ताब-ए-हिन्द की दरगाह के परिसर में स्थित है .

    सैयद सदरुद्दीन मक्की

    आप मख़दूम आफ़ताब-ए -हिन्द के छोटे बेटे, मुरीद ख़लीफ़ा थे. आप का जन्म सन 1387 ई. में मक्का में हुआ था. आप हमेशा ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे और एकांत जीवन व्यतीत करते थे. प्रसिद्ध है कि आप शेर का घोड़ा और सांप का कोड़ा बना कर जंगलों में घूमा करते थे. मान्यता है कि मख़्दूम आफ़ताब-ए-हिन्द की संतान को सांप कभी नहीं काटते और अगर काटते भी हैं तो विष का असर नहीं होता. आप आजीवन अविवाहित रहे. आप का विसाल सन 1403 ई. में हुआ और आप की दरगाह हज़रत आफ़ताब-ए-हिन्द की दरगाह के परिसर में स्थित है .

    मख़्दूम बंदगी शैख़ जलालुल्हक़ क़ाज़ी खां नासेही

    आप का जन्म 1402 ई. में बल्ख में हुआ था. उस समय जौनपुर में शर्की शासन स्थापित हो चुका था.आप के पूर्वज क़ाज़ी ताजुद्दीन इब्राहीम नासेही मख़दूम आफ़ताब-ए-हिन्द के साथ ज़फ़राबाद आये और यहाँ निवास किया.जब आप 6 महीने के हुए तब आप के पिता अपने स्वसुर के पास जौनपुर चले गए.रात को 12 बजे जब वह रात की नमाज़ के बाद शब बेदारी में लीन थे कि उसी समय शैख़ बहाउद्दीन जौनपुरी पधारे और उन्होंने फ़ारसी में एक शेर पढ़ा जिसका आशय था

    यदि आप सुनने को तैयार हों तो आप के पास कुछ कहने के लिए आया हूँ . आप का दरबार बहुत बड़ा है. सांसारिक विषय प्राप्ति में कोई विघ्न नहीं है . यदि आप को वास्तव में ईश्वर से प्रेम है तो मकान को छोड़ दीजिये और मजनूँ की तरह जंगल और पहाड़ों की राह लीजिये.

    यह सुनना था कि क़ाज़ी युसूफ ने एक ठंडी सांस खीची और जंगल की और चल पड़े. बड़ी खोज हुई लेकिन कुछ पता नहीं चला .

    हज़रत बंदगी ने सांसारिक ज्ञान दिल्ली जाकर प्राप्त किया और अठारह वर्ष की अवस्था में शैख़ हसन ताहिर चिश्ती जौनपुरी के मुरीद हुए और उन्ही से खिलाफ़त प्राप्त की. आप बड़े संतोषी थे और अपनी ख़ानक़ाह से कभी बाहर नहीं निकलते थे.

    हुमायूँ बादशाह जब जौनपुर आया तो जफराबाद मख़दूम बंदगी की सेवा में उपस्थित हुआ. बहुत इंतज़ार करने के बाद भी जब उसे ख़ानक़ाह में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली तो निराश होकर वापस लौट गया. मिर्ज़ा अस्करी को उसने आप की सेवा में इसलिए भेजा कि जितने देहातों को आप की इच्छा हो माफ़ी में दे दिया जाए. छः महीने बीत गए मगर उसे ख़ानक़ाह में उपस्थित होने का अवसर ही नहीं मिला और अंत में मिर्ज़ा अस्करी ने विवश होकर काजी सदरुद्दीन वकील शाही के माध्यम से जो आप के रिश्ते में चचा लगते थे, हुमायूँ की इच्छा व्यक्त की पर आप से साफ़ मना कर दिया .हुमायूँ खुद छः बार उपस्थित हुआ पर मुलाक़ात हो सकी. शैख़ बंदगी को जब ज्ञात हुआ तो उन्होंने कहलवा भेजा कि मेरा हुजरा मेरी क़ब्र है. जिस प्रकार क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ने का नीयम है, उसी प्रकार मेरे हुजरे के दरवाज़े पर भी फ़ातिहा पढ़ कर चले जाओ !

    इस घटना के बाद तो हुमायूँ ने जिद पकड़ ली. उसे मालूम पड़ा कि शैख़ सुबह नमाज़ के बाद हुजरे से बाहर निकलते हैं और कुछ देर अपने मुरीदों को शिक्षा देकर वापस चले जाते हैं. हुमायूँ सराय बीबी में रुका हुआ था. सुबह सुबह ही मुलाक़ात के लिए चल पड़ा.आख़िरकार सातवीं बार सफलता मिली. बादशाह ने देहात की माफ़ी का फर्मान प्रस्तुत किया पर शैख़ ने वापस कर दिया और फ़रमाया मुझे इनकी आवश्यकता नही है. मैंने अपने मुर्शिद से प्रतिज्ञा की है कि मैं सिर्फ़ ईश्वर से ही लूँगा.

    शैख़ बंदगी क़ाज़ी खां,मीर अली आशिकां सराय मीरी, शैख़ अढहन जौनपुरी और गयासुद्दीन मुहम्मद दरवेश इन चारो सूफ़ियों में बड़ी दोस्ती थी.आपस में कोई भेद नहीं रखते थे.एक दिन चारों ने आपस में निश्चय किया कि चारो में जो पहले मरेगा वह बाकियों को यह सूचना देगा कि ईश्वर के यहाँ किस काम को प्रार्थमिकता दी जाती है.सब से पहले शैख़ बंदगी का विसाल हुआ .जैसा तय हुआ था, बाकी तीनो सूफ़ी आप की दरगाह पर आये और कहा कि सूफ़ियों की शान अपनी बात पूरी करना है.आधी रात को दरगाह पर शैख़ बंदगी के हाथ का लिखा हुआ हाफ़िज़ शीराज़ी का शेर मिला

    ईजाँ फुनूने शैख़ यर्जद नीम ख़स

    राहत बदिल रसां कि हमीं मी खरंदो बस

    अर्थात यहाँ (क़ब्र में ) शेखों की शिक्षा की कोई कीमत नहीं है. दिलों को आराम पहुँचाओ कि बस इसी वस्तु की कीमत है )

    आप का देहांत सन 1537 ई. में हुआ. आप की दरगाह मोहल्ला नासेही में स्थित है .

    सैयद क़ुतुबुद्दीन अबुल ग़ैब मदनी

    आप मख़दूम आफ़ताब हिन्द के सबसे छोटे बेटे और मुरीद थे. उनके विसाल के बाद उनके ख़लीफ़ा बने. आप का जन्म मदीना में हुआ था इस लिए आप को मदनी भी कहते हैं.

    पिता के देहांत के पश्चात आप के बड़े भाई सैयद रुक्नुद्दीन उत्तराधिकारी होना चाहते थे. उसी रात को आप के स्वप्न में हज़रत मुहम्मद (pbuh) की आमद हुई और उन्होंने फ़रमाया कि ख़ानक़ाह के उत्तराधिकारी सैयद क़ुतुबुद्दीन मदनी हैं. सुबह होते ही बड़े भाई ने उन्हें अपने हाथों से खिरका पहनाया. शुरू शुरू में आप लोगों को मुरीद नहीं बनाते थे . कहा करते थे कि फ़क़ीर में इतनी शक्ति कहाँ कि किसी को अपना मुरीद बनाए.

    एक दिन जौनपुर में सूफ़ी बुजुर्गों की दरगाह पर हाजिरी देने आप जा रहे थे कि रस्ते में शैख़ बदीउद्दीन मदार से आप की मुलाक़ात हुई.कुछ देर बाद कहा कि आकाश की ओर देखो. इस के बाद दोनों ही ईश्वर भक्ति में डूब गए. फिर गर्दन उठाई तो हज़रत शाह मदार ने अपने बगल से एक वस्त्र निकाल कर उनकी गर्दन में लपेट दिया और फरमाया- तुम्हारे दादा की दी हुई अआनत तुम्हे वापस देता हूँ. उस दिन से आप ने लोगों को मुरीद बनाना शुरू कर दिया.

    आप का देहांत सन 1452 ई. में हुआ और आप की दरगाह मख़्दूम आफ़ताब-ए-हिन्द की दरगाह के परिसर में है .

    सैयद गयासुद्दीन अबू मुहमम्द दुर्वेश

    आप अपने पिता सैयद जियाउद्दीन के मुरीद ख़लीफ़ा थे. आप ने अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर उपासना में बिताया. आप का भोजन केवल जौ की सूखी रोटी थी. आप क़ाज़ी खां नासेही के समकालीन थे और उन्ही की विचारधाराओं पर चलते थे .

    आप का यह सिद्धांत था कि दोनों समय अपने लंगरखाने से दीन दुखियों को स्वयं भोजन वितरित करते थे .आप का विसाल हुमायूं बादशाह के शासन काल में सन 1537 ई. में हुआ. आप की दरगाह मख़्दूम आफ़ताब-ए-हिन्द के रौज़े में उनकी मज़ार से दक्षिण की और दस पग की दूरी पर है .

    सैयद इस्माईल अबू मुहम्मद दरवेश

    आप ज़फराबाद के प्रसिद्ध सूफ़ी थे. तीस वर्षों तक सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद दस वर्षों तक इधर उधर भटकने के बाद फ़क़ीरों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया . 41 वर्ष की अवस्था में अपने पिता सैयद अब्दुल वहाब के मुरीद बने और बाद में उन्ही से खिलाफ़तनामा भी प्राप्त हुआ.उनके देहांत के बाद आप सज्जादानशीन हुए.आप की बड़ी ख्याति थी. लोग ख़ाली हाथ आते और भरे हाथों वापस जाते थे .आप का विसाल सन 1658 ई. में हुआ. आप की दरगाह हज़रत आफ़ताब-ए-हिन्द के रौज़े के अन्दर है .

    शाह चाँद सुहरवर्दी

    आप जीविका की खोज में घर से निकले थे, रास्ते में एक सूफ़ी संत से भेंट हो गयी. उनके उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि सब कुछ त्याग कर मुल्ल्तान चले गए. बाद में मखदूम आफ़ताब-ए-हिन्द मुरीद बन गए .हज़रत मख़्दूम के साथ ही आप ज़फ़राबाद पधारे और यहीं सन 1408 ई. में आप का देहांत हुआ .आप की मज़ार भी आफ़ताब-ए-हिन्द के रौज़े में स्थित है .

    शाह फ़ज़लुल्लाह दरगाही

    आप मौलना गुलाम रुक्न-ए-आ’लम की संतान में से हैं. बीस साल तक सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात सूफ़ी हो गए.

    आप का देहांत सन 1816 ई. में हुआ. आप की दरगाह क़स्बा घोसी जिला आजमगढ़ में हैं . जिस बाग़ में आप की दरगाह है वहां प्रायः चिड़ियाँ अपना घोंसला बनाती है. आप की दरगाह होने के कारण वहां कोई चिड़ियों को नहीं पकड़ता.

    शाह सम्मन(सुमन ) सुहरवर्दी

    आप जाति के ब्राह्मण थे. मनाकिब दुर्वेशिया के अनुसार एक बार हज़रत मख़्दूम चिराग़-ए-हिन्द एक बार बिहार में घूम रहे थे . एक ब्राह्मण के घर के पास से उनका गुजर हुआ तो ब्राह्मण ने प्राथना की कि वह संतानहीन है. आप ने ईश्वर से प्रार्थना की और उस से कहा कि तुम्हारे सात पुत्र होंगे. पर जो सबसे बड़ा पुत्र होगा वह हमें दे देना. ब्राह्मण ने ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार कर लिया. सात साल बाद जब मख़्दूम वहां से गुजरे तो ब्राह्मण के सात बेटे थे. जब उन्होंने बड़े बेटे की मांग की तो पुत्र मोह में उस ने मना कर दिया. मख़्दूम ने फरमाया अगर यह हमारा लड़का होगा तो खुद चला आएगा. यह कह कर आप ने अपनी राह ली. कुछ ही दूर पहुंचे होंगे कि वह लड़का जिस का नाम सुमन था वह भागता हुआ उनके पास गया. आप उसे अपने साथ ज़फ़राबाद ले गए, उसे तसव्वुफ़ का ज्ञान दिया और अपने देहांत के पूर्व उसे सैदपुर भीतरी की विलायत प्रदान की. आप की दरगाह वहीं स्थित है. हर साल आप की दरगाह पर उर्स होता है जिसमे हिन्दू –मुसलमान दोनों सम्मिलित होते हैं. यह मेला एक महीने तक रहता है. यह उर्स रामनवमी के ठीक बाद मनाया जाता है . सम्मन बाबा के विषय में प्रचलित है कि एक बार कोई राजा कोढ़ की बीमारी से पीड़ीत था हर उपाय कर आखिरकार थक कर काशी में देह त्यागने की इच्छा रख कर नाव से काशी जा रहा था . रात में नाविक को आग की ज़रुरत पड़ी और उस ने नाव नदी के किनारे लगायी . उसने देखा कि एक फकीर अपनी साधना में लिप्त है और आग जल रही है। नाविक ने फकीर के तेज से प्रभवित हो कर राजा को उनसे मिलने की सलाह दी. राजा ने चाहते हुए भी नाविक की बात पर फकीर के सामने जा कर अपनी व्यथा कहने लगा.उन्होने राजा को पास पड़ी राख उठा कर दी और फ़रमाया कि इसे लगा कर देखना। राजा को पहले विश्वास हुआ मगर उसने बाबा के कहे अनुसार किया और कोढ़ मुक्त हो गया। सम्मन बाबा के बार में अनेक किस्से प्रचलित है। आप के रौज़े पर बहुत से कबूतर निवास करते हैं. चूँकि सुमन और समन उर्दू में एक ही तरह से लिखे जाते हैं इसलिए ऐसा मेरा मत है कि कालांतर में सुमन शब्द ही सम्मन बन गया.

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