जौनपुर की सूफ़ी परंपरा
जौनपुर के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से पता चलता है कि श्री राम चन्द्र जी के काल में यहाँ कुछ ऋषि निवास करते थे. महाभारत में इसका प्राचीन नाम यमदग्नि पुरा था जो संभवतः प्रख्यात ऋषि यमदग्नि के नाम पर आधारित है. वह वर्तमान जमैथा नामक स्थान पर निवास करते थे जो जफ़राबाद और जौनपुर के बीच गोमती नदी के तट पर स्थित है.
गज़ेटियर जौनपुर के लेखक ने लिखा है कि यहाँ का प्राचीन नाम अयोध्यापुरा हो सकता है क्यूंकि श्री राम चन्द्र जी के काल में जौनपुर पर करारबीर का राज्य था जो बड़ा निर्दयी था . रामचंद्र जी उसे परास्त करने जौनपुर आये थे. संभव है कि जौनपुर वासियों ने उनके जाने के बा’द यहाँ का नाम अयोध्यापुरा रखा हो.
जौनपुर को फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने सन 1361 में अपने चचेरे भाई मुहम्मद बिन तुग़लक़ उ’र्फ़ जूना ख़ान के नाम पर बसाया और दुर्ग का निर्माण किया था ताकि बंगाल और दिल्ली में शान्ति बनाये रखने में सुविधा हो. जौनपुर बंगाल और दिल्ली के बीच में स्थित है .यह नगर चौदहवीं शताब्दी में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ द्वारा बसाये हुए शहरों में सर्वाधिक महत्त्व का है . शर्क़ी बादशाहों के काल में जौनपुर उन्नति के शीर्ष पर था. पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में ऐसी दो बड़ी घटनाएं हुईं जिन्होंने जौनपुर को एक समृद्ध शहर के रूप में स्थापित कर दिया –
1 . दिल्ली पर तैमूर का आक्रमण
जब दिल्ली पर तैमूर का आक्रमण हुआ, उस समय पूरे देश में अराजकता का माहौल था.तुग़लक़ साम्राज्य की नीव हिल चुकी थी. सन 1393 में महमूद शाह तुग़लक़ ने ख्व़ाजा जहाँ मलिक सरवर को विद्रोहियों के दमन के लिए भेजा. उसने विद्रोह दमन करने के पश्चात दिल्ली से अलग होकर अपना एक स्वतंत्र राज्य शर्क़ी शासन के नाम से स्थापित कर लिया और जौनपुर को अपनी राजधानी घोषित कर जौनपुर का बादशाह बन बैठा.
जौनपुर अपनी विशेष भौगोलिक स्थिति के कारन पूर्वी सीमा की अभेद्य दीवार समझा जाता था .
2. दूसरी बड़ी घटना इब्राहीम शाह के बादशाह हो जाने के बा’द हुई. इब्राहीम शाह ने सन 1402 ई. से लेकर 1444 ई. तक राज किया. इतिहासकारों ने उसे बड़ा विद्वान और न्याय प्रिय शासक बताया है .तैमूर के आक्रमण के समय दिल्ली से बहुत सारे विद्वानों का पलायन हुआ और वह दिल्ली से जौनपुर आ गए. इसका परिणाम यह हुआ कि जौनपुर ज्ञान और कला का प्रमुख केंद्र बन गया. विद्वानों ने जौनपुर को शीराज़-ए- हिंद भी कहा है .
जौनपुर की ख्याति उस समय इतनी बढ़ गयी थी कि मिस्र, अ’रब, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों से बड़ी संख्या में विद्यार्थी जौनपुर का रुख़ करने लगे .
शर्क़ी शासन जौनपुर का स्वर्ण युग था. विद्यापति ने कीर्तिलता में इब्राहीम शाह शर्क़ी और जौनपुर के मनोहारी दृश्यों का चित्रण बड़े ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में किया है. हम कुछ पदों का भावार्थ यहाँ दे रहे है –
जूनापुर नामक यह शहर बड़ा ही नयनाभिराम था और यहाँ धन दौलत का भण्डार था. .जौनपुर देखने में सुन्दर और हर प्रकार से सुसज्जित था .यहाँ कुओं और तालाबों का बाहुल्य था .पत्थरों का फ़र्श, पानी निकलने के लिए भीतरी नालियाँ, उन्नत कृषि और हरे भरे लहलहाते आम और जामुन के बाग़, भवरों की गूँज मन मोह लेती थी. यहाँ गगनचुम्बी और मज़बूत इ’मारतें थी.रास्ते में ऐसी ऐसी गलियां थी जहाँ बड़े बड़े लोग रुक जाते थे और रुक कर देखते थे .चमकदार और बड़े बड़े स्वर्ण कलश युक्त सैंकड़ों शिवाले नगर की शोभा बढ़ाते थे.कमल के पत्तों जैसी बड़ी आँखों वाली स्त्रियाँ जिन्हें पवन भी स्पर्श करने को लालायित रहता है, जिनके लम्बे लम्बे केश उत्तरी ध्रुव से बातें करते प्रतीत होते थे वहां टहल रही थी. उनकी आँखों में लगा काजल ऐसा प्रतीत होता था मानो चन्द्रमा में दाग़ हो. पान का बाज़ार,नानबाई की दुकान, मछली बाज़ार, यदि इन वास्तविकताओं पर प्रकाश डाला जाए तो इसपर विश्वास होगा. व्यवसाय से जुड़े लोग इतने व्यस्त थे कि हर समय भीड़ रहती थी. ऐसा लगता था कि मानो जन समुद्र अपना स्थान छोड़कर जौनपुर आ गया है .दोपहर की भीड़ को देख कर ज्ञात होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी की वस्तुएं यहाँ बिकने आ गयी हैं.एक के माथे का तिलक छूट कर दुसरे के माथे में लग जाता था.रास्ता चलने में औ’रतों की चूड़ियाँ टूट जाती थीं.घोड़े हाथियों की बड़ी भीड़ थी.प्रायः लोग पिस जाते थे .इब्राहीम शाह अपने महल के ऊपरी भाग में निवास करता था. अपने घर में आये अतिथि को देख कर जिस प्रकार लोगों को प्रसन्नता होती है वैसी ही प्रसन्नता बादशाह को होती थी .
इब्राहीम शर्क़ी, महमूद शाह, मुहम्मद शाह तथा हुसैन शाह सभी ने ज्ञान और कलाओं पर इतना ध्यान दिया कि थोड़े ही समय में जौनपुर अपनी इ’मारतों, मंदिरों, मस्जिदों, मदरसों, ख़ानक़ाहों,आ’लिमों , सूफ़ियों और भक्तों के लिए अन्य प्रदेशों में प्रसिद्ध हो गया.हुसैन शाह शर्क़ी स्वयं एक नायक था, उसने अनेक रागों और ख़याल का आविष्कार किया था.
सूफ़ी, विद्वान् तथा विद्यार्थी शहर के अलग अलग क्षेत्रों में जीवन व्यतीत कर रहे थे.इनमें अधिकतर ऐसे लोग थे जो इ’राक़, अ’रब और ईरान से आकर भारत में बस गए थे .यहाँ सूफ़ियों और विद्वानों की चौदह सौ पालकियां एक साथ निकला करती थी और लोग जुमा’ एवं ई’द के दिन इनका दर्शन करते थे. ये लोग राजनीति से बिलकुल अलग थे और राजदरबार से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे.
जौनपुर शहर को शर्क़ी शासन काल में शीराज़ ए हिन्द कहा जाता था.मुल्ला मुहम्मद अस्फ़हानी का कथन है कि यहाँ सैकड़ों मदरसे, ख़ानक़ाहें, और मस्जिदें निर्मित हुईं. सूफ़ी संत यहाँ दूर दूर के देशों से आए और उनके लिए वज़ीफ़े और जागीरें तय हुईं.जौनपुर का स्थान मुग़लों के समय तक बड़ा महत्वपूर्ण रहा.शाहजहाँ के शासन काल में अहमदाबाद, दिल्ली, जौनपुर शिक्षा के ऐसे केद्र थे कि यहाँ भारत के बाहर हेरात, अफ़ग़ानिस्तान आदि से लोग शिक्षा हेतु आया करते थे .
मुग़लों के अंतिम काल तक जौनपुर में ख़ानक़ाहों की अधिकता रही. प्रोफ़ेसर अ’ली मेंहदी ख़ान ने कहा है –
जौनपुर विद्या का केंद्र नहीं बल्कि विद्वानों और कलाकारों का केंद्र था. ये या इनके पूर्वज या गुरु अधिकतर ऐसे थे जिन्होंने अ’रब, इ’राक़, ईरान एवं अन्य स्थानों पर पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बा’द जौनपुर को अपना स्थायी निवास बनाया था. इसलिए हम बिना किसी झिझक के कह सकते हैं कि जौनपुर की सभ्यता वास्तव में सम्पूर्ण भारत की सभ्यता का सम्मिश्रण थी .
सिकंदर लोदी की विनाश लीला ने जौनपुर की उन्नति को तहस नहस कर दिया. इस के बा’द जौनपुर के इस स्वर्णिम सूफ़ी अध्याय का मानो अंत हो गया और धीरे धीरे इस शहर ने अपना वह अद्वितीय गौरव भी खो दिया. आज भी जौनपुर में कई महान सूफ़ी संतों की दरगाहें और ख़ानक़ाहों के अवशेष हमें जौनपुर के उस गौरवमयी अतीत की याद दिलाते हैं . जौनपुर के सूफ़ी संतों पर लिखने बैठा जाय तो एक पूरी किताब बन जायेगी . एक लेख में सविस्तार इस परम्परा का वर्णन लगभग असंभव कार्य है फिर भी हम उस काल के प्रमुख सूफ़ी संतों पर एक दृष्टि डालते है –
शैख़ सा’दुल्लाह कीसा दराज़
शैख़ सा’दुल्लाह कीसा दराज़, मुहम्मद मुतवक्किल कन्तूरी के पुत्र थे और हज़रत अशरफ़ जहाँगीर समनानी के ख़लीफ़ा थे .शैख़ मुहम्मद कन्तूरी ने सैयद अशरफ़ से प्रर्थना की और उनके अनुरोध पर मख़दूम साहब ने इन्हें क़स्बा बुला लिया. शैख़ सा’दुल्लाह, मख़दूम साहब के पास किछौछा उपस्थित हुए और वहाँ ख़िदमत करने लगे. जब वह वापस जौनपुर जाने लगे तब मख़दूम साहब ने उन्हें अपना खिरक़ा प्रदान किया .
शैख़ साहब की ख़ानक़ाह भरतपुर जनपद में है.
हज़रत क़ाज़ी शहाबुद्दीन
आप का जन्म दौलताबाद में हुआ था और आप ने दिल्ली के महान विद्वान् क़ाज़ी अ’ब्दुल मुक़तदर और मौलाना ख़्वाजगी से शिक्षा प्राप्त की थी .उनके गुरुओं ने उनके विषय में फ़रमाया था – हमारे यहाँ एक शिष्य आया है जिसका चमड़ा, गूदा और हड्डी सब ज्ञान ही है .
अमीर तैमूर के समय मौलाना ख़्वाजगी ने दिल्ली का परित्याग कर दिया और उनके साथ क़ाज़ी शहाबुद्दीन भी चले आये. मौलाना ख़्वाजगी ने कालपी में निवास किया और आप सुलतान इब्राहीम शर्क़ी के बुलावे पर जौनपुर चले आये. सुल्तान ने आप का ख़ूब आदर सत्कार किया और सभा में बैठने के लिए चांदी की कुर्सी प्रदान की. क़ाज़ी शहाबुद्दीन में फ़क़ीरी और दर्वेशी का अद्भुत संगम था. आप मौलाना ख़्वाजगी के सबसे बड़े ख़लीफ़ा थे. आप ने सैयद अशरफ़ जहाँगीर समनानी की सोहबत से भी लाभ कमाया था.
सुल्तान इब्राहीम शाह शर्क़ी आप का बड़ा मुरीद था . कहते हैं कि एक बार आप बीमार पड़े और यह ख़बर जब सुल्तान तक पहुंची तो वह आप के पास पहुँचा और उसने एक पानी का प्याला आप के सर से घुमा कर यह कहते हुए पी लिया कि हे ईश्वर ! इनपर जो बलाएं हैं वह तू मुझे दे दे और इन्हें स्वस्थ कर दे . तारीख़-ए- फ़िरिश्ता के अनुसार क़ाज़ी साहब का देहांत सन 1446 ई. में हुआ . आप के देहांत के दो साल पहले ही बादशाह का निधन हो गया .
क़ाज़ी शहाबुद्दीन जौनपुर में मोहल्ला रिज़वी खाँ में रहते थे . मृत्यु के पश्चात इन्हें मोहल्ला रिज़वी खाँ में अटाला मस्जिद के दक्षिणी द्वार के पास दफ़्न किया गया. आप की मज़ार राज कॉलेज के घेरे के भीतर स्थित है .
मख़दूम ख्व़ाजा शैख़ अ’बुल फ़त्ह सोंबरी
आप अपने दादा क़ाज़ी अ’ब्दुल मुक़्तदिर के मुरीद थे और उन्हीं के समान योग्य थे. आप हज़रत क़ाज़ी शहाबुद्दीन के समकालीन थे और अ’रबी एवं फ़ारसी में शाइ’री करते थे .आप का जन्म दिल्ली में हुआ और वहीं शिक्षा दीक्षा हुई . अमीर तैमूर के उपद्रव के समाय अन्य अमीरों के साथ आप भी जौनपुर आये और यहीं बस गए .
जौनपुर आने के बहुत दिनों बा’द तक आप एक छायादार दीवार के पास रहकर ज़िक्र -ओ -मुराक़बा में तल्लीन रहते थे. खाने पीने का कोई प्रबंध न होने के कारण प्रायः कमज़ोरी का एहसास होता और हाथ पैर कांपने लगते थे. आप के घर वालों और मुरीदों ने आप के रहने का प्रबंध करना चाहा पर आप ने मना’ कर दिया . कुछ दिनों बा’द आप ने अपने निवास स्थान और ख़ानक़ाह का निर्माण करवाया. गंज -ए -अर्शदी में एक वाक़िआ’ आया है – एक दिन क़व्वाल आये और महफ़िल- ए –समाअ’ शुरू हुई. शैख़ झूमने लगे . आप के पास क़व्वालों को पुरस्कार में देने के लिए कुछ नहीं था .आप ने उसी हालत में ऊपर देखा और आसमान से अशर्फ़ियाँ बरसनी शुरू हो गईं. उसी दिन से आप सोंबरिस के नाम से प्रसिद्द हुए और उस स्थान का नाम सोनवर्षा पड़ गया.
आप का देहांत सन 1453 ई. में हुआ और आप का मज़ार मुहल्ला सिपाह में स्थित है.
मख़दूम ख्व़ाजा ई’सा ताज चिश्ती
आप का शुमार जौनपुर के प्रसिद्ध सूफ़ियों में होता है . आप के पिता शैख़ अहमद ई’सा दिल्ली के प्रसिद्द विद्वान् थे. अमीर तैमूर के आक्रमण के समय वह अपने परिवार के साथ जौनपुर आ गए. उस समाय आप की अवस्था 7 -8 साल की थी . इसी उ’म्र में आप शैख़ अ’बुल फ़त्ह जौनपुरी के मुरीद हो गए. आप हमेशा ज़िक्र में लीन रहते थे. आप ने इतनी घोर साधना की कि गर्दन की हड्डी सीने से चिपक गयी .कहते हैं कि आप ने 12 वर्ष तक पृथ्वी से पीठ नहीं लगाई. प्रार्थना और नमाज़ का समय जब आप को बताया जाता तब आप अपने हुज्रे से बाहर निकलते थे . ईश्वर के अ’लावा कुछ नहीं जानते थे कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ. आप कभी अपना सर तक नहीं उठाते थे .एक दिन आप के बैठने के स्थान पर कुछ पत्तियां गिरी हुई थीं.आप ने अपने मुरीद से पूछा यह पत्तियां कहाँ से आयीं? मुरीद ने उत्तर दिया – उस पेड़ से जो आप के पास है . उस दिन आप को ज्ञात हुआ कि आप के निकट कोई पेड़ भी है .आप ने 40 वर्षों तक एकांत जीवन व्यतीत किया . आप बादशाहों से कोई उपहार स्वीकार नहीं करते थे. एक बार इब्राहीम शाह शर्क़ी ने आप के लिए कुछ रूपये और कपड़े भेजे. आप ने उन्हें अस्वीकार कर दिया और उत्तर में यह फ़रमाया –
मन दल्क़-ए-ख़ुद ब-अतलस-ए- शाहाँ नमी-देहम
मन फ़क़्र –ए- ख़ुद ब -मुल्क ए सुलैमाँ नमी-देहम
अज़ रंज-ए- फ़क़्र दर दिलम गंजे कि याफ़्तम
ईं रंज रा ब-राहत-ए- शाहाँ नमी-देहम
अर्थात – मैं अपनी गुदड़ी शाहों के अतलसी लिबास के बदले नहीं दे सकता और अपनी फ़क़ीरी को सुलैमान के राज्य के बदले भी नहीं दे सकता.मैंने अपने ह्रदय के भीतर जो दुःख और फ़क़ीरी का ख़ज़ाना एकत्र किया है उसे बादशाही भोग विलास के बदले नहीं दे सकता.
आप की फ़क़ीरी का आ’लम यह था कि आप की ख़ानक़ाह में दीप तक न जलता था, जो कुछ आता था उसपर आप नज़र तक न डालते थे और संध्या तक उसे मुरीदों द्वारा ग़रीबों में बाँट दिया जाना अनिवार्य था .
शैख़ अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी ने आप के देहांत का वर्ष 1468 ई. लिखा है. जौनपुर के प्रशासक जुनैद बिरलास ने बाबर के शासन काल में आप की दरगाह मोहल्ला अरजन में बनवाई .
शैख़ वजीहुद्दीन अशरफ़ उ’र्फ़ शैख़ फ़रीद
आप के पूर्वजों में से शैख़ ख़लील अ’रब से हिंदुस्तान आये और यहीं बस गए. शैख़ फ़रीद ने अपनी शिक्षा बनारस से हासिल की. आप ख्व़ाजा मुबारक बनारसी जो शैख़ ई’सा ताज जौनपुरी के ख़लीफ़ा थे, के मुरीद थे .कुछ दिनों तक आप शर्क़ी शासन काल में राज्य के परामर्शदाता रहे पर उनका मन तो फ़क़ीरी में रमा था .थोड़े ही दिनों में उन्होंने पद छोड़ दिया और एकांतवासी हो गए. आप का मज़ार शकर मंडी में स्थित है .
शैख़ मख़दूम रुकनुद्दीन सुहरवर्दी
आप के पिता मख़दूम सदरुद्दीन हिन्दुस्तान आये और दिल्ली में बस गए. अमीर तैमूर के उपद्रव के समय आप अन्य सूफ़ियों के साथ जौनपुर आ गए.सुहरवर्दिया सिलसिले में बाबा ताजुद्दीन अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से दो पीढ़ियों में हज़रत मख़दूम जलाल बुख़ारी सुर्ख़ पोश तक आप का सम्बन्ध पहुँचता है. आप हज़रत मख़दूम जहानियाँ की सोहबत में भी रहे.
आप में फ़क़ीरी कूट कूट कर भरी थी . कई दफ़ा’ आप ने घर की सारी चीज़ें ग़रीबों में बाँट दी .एक दिन एक क़लन्दर आया और उसने सवाल किया कि हमने सुना है कि हज़रत ने ईश्वर की याह में अपना घर लुटा दिया है अतः जो भी बचा हो वह हमें दे दो . हज़रत मख़दूम के एक मात्र पुत्र थे जिनका नाम शैख़ जलाल था. उस समय उनकी उ’म्र दस – बारह वर्ष की थी. क़लन्दर के प्रश्न को सुनकर उन्होंने अपने एक मात्र पुत्र का हाथ क़लन्दर के हाथ में दे दिया और कहा आप इसे ले जाएँ और आज से इस पर मेरा कोई हक़ नहीं है . यह समाचार जब इब्राहीम शाह के मंत्री मालिक ए’मादुल मुल्क को मा’लूम पड़ा तो वह दौड़े आये . उन्होंने पाँच सौ तनके क़लंदरों को दिए और शैख़ जलाल को अपने घर लेकर आये . उन्होंने अपनी बेटी का विवाह शैख़ जलाल से कर दिया .
हर दिन लगभग एक लाख तुनका हज़रत मख़दूम के यहाँ फुतूह के रूप में आता था , जो वह फ़क़ीरों और ग़रीबों में वितरित कर देते थे . दूसरे दिन के लिए कुछ भी नहीं बचाने का सख़्त निर्देश था .
हज़रत मख़दूम का विसाल सन 1469 ई. में हुआ . आप की दरगाह गोमती तट पर मस्जिद के भीतर मोहल्ला ताड़ तला में स्थित है .
मख़दूम शैख़ मुहम्मद
आप फ़ारुक़ी शैख़ थे . आप के पिता मख़दूम शैख़ रुकनुद्दीन सुहरवर्दी के ख़लीफ़ा थे और दिल्ली में निवास करते थे .मख़दूम शैख़ मुहम्मद का जन्म दिल्ली में ही हुआ और तैमूर के उपद्रव के समय आप दिल्ली छोड़ कर सपरिवार जौनपुर आ गए और मोहल्ला सिपाह के मैदान में निवास किया. कुछ दिन पेड़ के नीचे रहे. उस समय बारिश का मौसम था, लेकिन बारिश नहीं हुई. लोग बड़े परेशान हुए और ख़बर बादशाह तक पहुंची. उस समय क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी बड़े सूफ़ी माने जाते थे . बादशाह उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उसने जनता की व्यथा बयान की .क़ाज़ी ने फ़रमाया – ईश्वर के एक मित्र बिना छायादार पेड़ के नीचे जीवन व्यतीत करे तो मित्र की मित्रता कैसे यह सहन करेगी कि पानी बरसा कर मित्र को कष्ट पहुंचाए.
बादशाह ने इस के बा’द ढूंढना प्रारंभ किया और बहुत ढूँढने के बा’द उसे ज्ञात हुआ कि एक सूफ़ी अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ एक मैदान में ठहरे हुए हैं . इब्राहीम शाह मुहम्मद साहब की सेवा में उपस्थित हुआ और आनन फ़ानन में छप्पर का मकान तैयार करवाया गया. जैसे ही शैख़ ने परिवार सहित घर में प्रवेश किया बारिश आरम्भ हो गयी .
हज़रत का विसाल सन 1512 ई. में सिकंदर लोदी के शासन काल में जौनपुर में हुआ . आप की दरगाह मोहल्ला सिपाह में ख्व़ाजा सोंबरिस के दक्षिण में है .
सैयद अ’लाउद्दीन लाजोरी
आप चिश्तिया सिलसिले के बुज़ुर्ग थे और ख्व़ाजा गेसू दराज़ बंदनावाज़ के ख़लीफ़ा थे. कभी आप के ऊपर सलूक का प्रभाव रहता था और कभी जज़्ब का, कभी जब होश में आते तो मुरीदों को शिक्षा भी देते थे . आप हिन्दुस्तानी संगीत के बड़े विद्वान् और शाए’र थे .
सैयद अ’लाउदीन की उम्र 100 साल से अधिक थी. यही कारण है कि आज भी बच्चों की जन्म तिथि पर आप का फ़ातिहा तिल के दाने पर दिलाते हैं क्यूंकि आप को तिल बड़ा प्रिय था.
आप ने सम्पूर्ण जीवन एकांत में व्यतीत किया. आप का विसाल सन 1472 ई. में हुआ और आप की दरगाह बलुआ घाट जौनपुर में स्थित है .
मख़दूम शाह इस्माई’ल
आप अमीर तैमूर के आक्रमण के समय जौनपुर आये. आप अपने समय के प्रसिद्द सूफ़ी थे.
ऐसी मान्यता है कि आप हज़रत ख़िज़्र की संतान में से थे और आप ने उन्हीं से शिक्षा ग्रहण की. आप ने आजीवन घोर साधना की और आप का विसाल भी इसी अवस्था में हुआ . आप का मज़ार मोहल्ला मुल्ला टोले में स्थित है. मोहल्ला शाह इस्माई’ल आप ने ही आबाद किया था.
शाह अजमेरी
आप चिश्तिया सिलसिले के सूफ़ी बुज़ुर्ग थे. आप शर्क़ी काल में जौनपुर आये और जहाँ आप ने निवास किया वह अजमेरी के नाम से प्रसिद्द हुआ. आप की दरगाह भी इसी मोहल्ले में स्थित है .
सैयद मख़दूम शाह मुहम्मद
आप के पूर्वज अ’रब से ग़यासुद्दीन तुग़लक़ के शासन काल में दिल्ली आए और वहीँ बस गए. आप के बड़े भाई सैयद इ’स्माईल भी अमीर तैमूर के समय में जौनपुर आए थे जिनका मज़ार गढ़ी में स्थित है . दोनों भाइयों ने तसव्वुफ़ का ज्ञान दिल्ली के बड़े सूफ़ियों से प्राप्त किया. आप मख़दूम जहानियाँ की सोहबत में भी रहे.
1884 में अटाला मस्जिद से सड़क निकल रही थी पर क्यूंकि आप की समाधी बीच में थी इसलिए सड़क वहां से टेढ़ी निकाली गई . आप का देहांत महमूद शाह शर्क़ी के शासन काल के पूवार्ध में सन 1445 ई. में हुआ . अटाला मस्जिद के पूर्व में आपकी दरगाह स्थित है. प्रत्येक बृहस्पतिवार को यहाँ चादर चढ़ती है और लोग दुआ’ करते हैं .
मख़दूम बंदगी शाह लुत्फ़ुल्लाह
आप हज़रत मख़दूम सैयद जहाँगीर समनानी के ख़लीफ़ा थे . ख़िलाफ़त-नामा प्राप्त करने के पश्चात आप जौनपुर आये और यहाँ निवास किया. जब आप वज्द की हालत में होते तो आप बड़े खिन्न होते, मस्ती में जिसकी तरफ़ ध्यान जाता वह बेहोश हो जाता था.आप की दरगाह मोहल्ला हम्माम दरवाज़ा शहर जौनपुर में है
शैख़ मख़दूम दानियाल ख़िज़री
आप के एक ख़लीफ़ा शैख़ मीर सैयद अहमद बिन अ’ब्दुल्लाह चिश्ती ने अपनी किताब मक़ालात- ए- ख़िज़री में आप का जन्म स्थान बल्ख़ बताया है .कुछ ही वर्षों बा’द आप अपना देश छोड़ कर भारत चले आये और दिल्ली में निवास किया. बादशाह इनका बड़ा आदर करता था, लेकिन कुछ ही समय बा’द इनकी संसार से विरक्ति हो गयी और आप मानिकपुर चले आये.वहां भी आप का जी न लगा और आप बनारस आ गए. एक दिन एक व्यक्ति जो देखने में बड़ा ही साधारण प्रतीत हो रहा था, आप से मिलने आया. शैख़ को उसने तसव्वुफ़ के ज्ञान से अवगत करवाया और ख़िरक़ा प्रदान किया. उस व्यक्ति ने बताया कि मैं ख्व़ाजा ख़िज़्र हूँ और तुम्हें मैंने ईश्वर की राह दिखा दी. इस के बा’द हज़रत दानियाल जौनपुर पधारे और यहीं उनका विसाल हुआ.
ख़ज़ीनतुल अस्फ़िया के लेखक तहरीर करते हैं कि शैख़ दानियाल हज़रत हामिद शाह मानिकपुरी के ख़लीफ़ा थे. आप को एक दिन ख़्वाजा मुइ’नुद्दीन चिश्ती का स्वप्न आया जिन्होंने आप को ख्व़ाजा ख़िज़्र को समर्पित किया. उनके एक पद में भी इस बात का ज़िक्र आता है –
जुग जुग उमर हज़रत जी ख्वाजी, हज़रत बिनती रसूल निवाजी
दानियाल ज्यूँ परघट कीना, हज़रत ख्वाजा खिजिर पता दीना .
आप की दरगाह आप के हुज्रे के ही आँगन में हौज़ ख़ास के टीले के निकट स्थित है .
शैख़ सदरुद्दीन साबित मदारी
आप जौनपुर के निवासी थे और हज़रत शाह मदार के ख़लीफ़ा थे. जनश्रुति है कि जब शाह बदीउ’द्दीन मदार जौनपुर पहली बार पधारे तो सब से पहले शैख़ सदरुद्दीन ही आप के मुरीद हुए थे. जब तक क़ुतुब शाह मदार जौनपुर में रहे आप ने निरंतर उनकी ख़िदमत की .जौनपुर से विदाई’ के समय क़ुतुबुल मदार ने फ़रमाया – ‘सदरुद्दीन ! तेरा काम देखने में मलामती रहेगा लेकिन वह वास्तविकता का परिचायक होगा . तू दीवाना बन कर जंगलों में फिरता रहेगा!’
आप आजीवन जंगलों में फिरते रहे. अंतिम समय में जौनपुर वापस आ गए और हज़रत क़ुतुबुल मदार के गुम्बद में मृत्यु हुई. आप का काल इब्राहीम शाह शर्क़ी से हुसैन शाह शर्क़ी के बीच का है.
क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी
आप अपने समय के प्रसिद्ध सूफ़ी थे .आप तैमूर के आक्रमण के समय दिल्ली से जौनपुर आये .क़ाज़ी अ’ब्दुल मुक़्तदर आप से बड़ा स्नेह करते थे. आप अपने समय के मशहूर क़ाज़ी हुए लेकिन अंत में आप को सांसारिक मोह माया से नफ़रत हो गयी और आप हुज्रे में बैठे तो कभी बाहर नहीं आये.यही कारण है कि आप को गुम्बदी कहते है .आप कई कई दिन बिना अन्न जल के रह जाते थे .कई दफ़ा’ ऐसा होता कि मुरीद चौखट की ज़ंजीर हिलाते रहते आप उठ भी नहीं पाते थे. आप का देहांत सन 1423 ई. में हुआ और आप अपने हुज्रे में दफ़्न हुए .आप की दरगाह रेलवे लाइन के निकट मोहल्ला चाचकपुर के निकट मौजूद है .
मुल्ला शैख़ जैन ज़ाहिद
आप जौनपुर के प्रसिद्ध शैख़ थे.आप मुल्ला अफ़ज़ाल उस्ताद -उल-मुल्क के मुरीद और शैख़ मा’रूफ़ के अनुयायी थे .आप ने बड़ा सादा जीवन व्यतीत किया. सम्पूर्ण जीवन अपने घर के अतिरिक्त उन्होंने कहीं भोजन नहीं किया और न ही किसी की भेंट स्वीकार की .आप के भोजन के ऊपर केवल एक रुपया ख़र्च होता था.सन 1508 ई. में आपका देहांत हुआ.आप की दरगाह ग्राम बरौना, जिला जौनपुर में है .
हज़रत हमज़ा चिश्ती
आप हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी की संतानों में से थे . आप बहलोल लोदी से लेकर इस्लाम शाह के शासन काल तक जीवित रहे .शुरुआ’त में बादशाह के यहाँ नौकरी करते थे . एक दिन विचार आया कि मैं दूसरों की रक्षा करता हूँ पर अपनी नहीं करता. यह सोचकर उन्होंने शाही नौकरी छोड़ दी और अजमेर शरीफ़ चले गए . वहां दीवाना हमज़ा के नाम से प्रसिद्द हुए.आप की शैख़ अहमद मोजद्दिद और ख्व़ाजा गेसू दराज़ के प्रति अपार श्रद्धा थी .
शैख़ हमजज़ा चिश्ती को ईश्वर ने बड़ी शक्ति प्रदान की थी .कहते हैं कि स्वप्न में हज़रत अ’ली ने आप को बड़ा बल प्रदान किया था. यही कारण है कि कुश्ती लड़ने वाले पहलवान आप में बड़ी श्रद्धा रखते हैं . आप का देहांत सन 1567 ई. में अकबर के शासन काल में हुआ. आप की दरगाह शहर से थोड़ी दूरी पर ग्राम विशेषपुर में स्थित है .
हज़रत क़ुतुबुद्दीन बीना-ए- दिल क़लन्दर
आप के पूर्वज अ’लाउद्दीन शैखुल इस्लाम बड़े सूफ़ी संत थे . वह जौनपुर आये और ग्राम सुरहुर पुर में निवास किया . आप का जन्म सुरहुर पुर में सन 1374 ई. में हुआ .
मख़दूम सैयद नजमुद्दीन क़लन्दर सन 1422 ई. में इब्राहीम शाह के काल में जौनपुर आये और सुरहुर पुर में निवास कर आप को अपना मुरीद किया. क़लन्दर साहब ने आप को अपना ख़लीफ़ा नियुक्त किया और ख़िरक़ा प्रदान किया. ‘मनाक़िब –ए-क़लन्दरिया’ के अनुसार – सैयद ग़ौस धार क़क़लंदर जिस वर्ष सुलतान इब्राहीम शाह शर्क़ी ने कंतित दुर्ग पर्वत पर दुर्ग बनाया और उसका नाम जन्नाताबाद रखा, सुरहुर पुर पधारे. जब मांडू पर्वत का पक्का निश्चय कर लिया तब जौनपुर पधारे और तेरह दिन क़ाज़ी अरशद के यहाँ निवास किया. आ’रिफ़ नामक व्यवसायी जो मांडू जा रहे थे उन्होंने हज़रत ग़ौस धार का सामान अपने साथ ले लिया और हज़रत के साथ मांडू की यात्रा की .हज़रत क़ुतुब बीनाये दिल क़लन्दर ने कुछ दिनों तक साधना करने के पश्चात सुरहुर पुर से जौनपुर जाने का निश्चय किया. रास्ते में सोंगर नाम का एक बड़ा मनभावन स्थान आया इसलिए वहीं रुक गए और एक हुज्रा बना कर ज़िक्र- ए – ग़ौसिया और दायरा-ए- हू के काम में लाग गए .
इसी काल में शैख़ अ’ब्दुल्ला शत्तारी हिन्दुस्तान पधारे . वह जिस सूफ़ी से मिलते उन से तीन प्रश्न पूछते थे और जवाब न देने पर उसे झूठा सूफ़ी बता कर आगे बढ़ जाते थे . जब शत्तारी साहब जौनपुर पधारे तो हज़रत क़ुतुब के ख़लीफ़ा हज़रत दाउद सरमस्त क़लन्दर एक दिन उनसे मिलने पहुंचे. दरबानों ने उन्हें बहुत रोका मगर वह नहीं माने और कीचड़ सने क़दमों से शत्तारी साहब के निकट आ कर बैठ गए. शत्तारी साहब को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने कहा – कोई अशिष्ट आदमी ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता. इसपर दाउद साहब ने फ़रमाया – कोई अशिष्ट व्यक्ति ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता मगर जब प्रेम हो तो अशिष्टता कहाँ ? शत्तारी साहब ने पूछा – किस से निस्बत है ? आप ने जवाब दिया – हज़रत क़ुतुब बीना-ए- दिल का तुच्छ सेवक हूँ . इसके बा’द अब्दुल्लाह शत्तारी हज़रत क़ुतुब साहब की सेवा में प्रस्तुत हुए और पूछा – सत्य और संसार में क्या अंतर है ? आप ने शाह नसीरुद्दीन क़लन्दर की ओरर संकेत करते हुए बताया कि इस प्रश्न का उत्तर ये देंगे . शाह नसीरुद्दीन ने फ़रमाया – सत्य और संसार में ऐसा ही सम्बन्ध है जैसे ताक़ और दीवार में है . अ’ब्दुल्लाह शत्तारी संतुष्ट होकर वापस लौट गए .
मनाक़िब –उल- अस्फ़िया में लिखा है – एक दिन क़ुतुब बीना-ए- दिल क़लन्दर सुल्तान इब्राहीम शाह शर्क़ी के साथ थे . बादशाह ने कहा कि सुफ़ियों को दुर्बल होना चाहिए और इस के उलट आप मोटे हैं . आप ने फ़रमाया – मेरा मोटापा मेरी असावधानी नहीं है.
आप का देहांत सन 1519 ई. में हुआ . आप की दरगाह जेल के बाहर मोहल्ला अल्लनपुर में स्थित है जिस से लोग लाभान्वित होते है .
शाह मख़दूम सैयद कलां
मख़दूम सैयद कलां की दरगाह परगना ऊँगली तहसील शाह गंज में स्थित है .जौनपुर गज़ेटिअर का कथन है कि इस परगने पर पहले भरों का राज्य था इस परगने का ऊँगली नाम पड़ने का कारण है कि एक बूढी महिला भरों के राजा के लिए घी ले जा रही थी और रास्ते में मख़दूम कलां की कुटिया पड़ती थी. आप ने बूढी महिला से घी दिखाने को कहा मगर उस महिला ने इन्कार कर दिया . इन्कार के बा’द भी हज़रत ने घी में ऊँगली डाल दी इस पर क्रोधित होकर बुढ़िया ने उनकी ऊँगली काट ली . मख़दूम साहब के अनुयाइयों ने उस ऊँगली को वहीँ दफ़्न कर दिया. मख़दूम साहब ने वसिय्यत की कि उन्हें मृत्यु के उपरान्त उसी जगह पर दफ़्न किया जाए . चुनांचे उनकी वसिय्यत के अनुसार आप को वहीं दफ़्न किया गया .इस घटना के बा’द से इस परगने का नाम ऊँगली पड़ गया. मख़दूम साहब की दरगाह पर हर साल उ’र्स होता है जिसमे हिन्दू- मुसलमान दोनों सम्मिलित होते हैं.
मख़दूम शाह अ’ब्दुल क़ुद्दूस क़लन्दर
आप हज़रत क़ुतुब बीना-ए- दिल क़लन्दर की संतान में से हैं . आप को फ़क़ीरी विरासत में मिली. सिवाय ईश्वर भक्ति के आप और कोई काम नहीं करते थे . जीविकोपार्जन के लिए घास छील कर बाज़ार में बेचते थे और अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यय करते थे. जो बच जाता था उसे फ़क़ीरों पर ख़र्च कर देते थे .सदैव यह प्रयास करते थे कि आप के विषय में किसी को मा’लूम न पड़े,मगर ऐसा न हो सका. आप संसार भर में प्रसिद्ध हुए और लोग आप की ओर टूट पड़े .
आप की मृत्यु सन 1648 ई. में हुई और आप मोहल्ला जोगियापुर में दफ़्न हुए .
शाह फ़तेह क़लन्दर
आप भी हज़रत क़ुतुब बीना-ए-दिल क़लन्दर की संतान में से थे .आप हज़रत अब्दुल क़ुद्दूस के मुरीद और ख़लीफ़ा थे . कहते हैं कि आप दीवाने की हालत में दिल्ली पहुंचे और दारा शिकोह से ईश्वर भक्ति और अन्य विषयों पर बह्स की .बा’द में उसी हालत में जौनपुर पधारे .अपने मुर्शिद की आज्ञा से जौनपुर छोड़ कर आप ने सोंगर में निवास किया . कुछ साल बा’द जिला आ’जमगढ़ में एक नवीन ग्राम क़लन्दरपुर में आबाद हुए .
मख़दूम दीवान अ’ब्दुर्रशीद
आप के पिता मख़दूम शाह जमाल मुस्तफ़ा ग्राम बरौना जौनपुर जनपद में निवास करते थे. वह अपने समय के क़ुतुब थे .हज़रत अ’ब्दुर्रशीद ग्राम बरौना में पैदा हुए .मुल्ला महमूद जौनपुरी आप के समकालीन थे .बादशाह शाहजहाँ ने जब आप के विषय में सुना तो आप के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ. वकील द्वारा आप को बुलावा भेजा गया पर आप अपने हुज्रे से बाहर नहीं निकले.आप ने अपने सूफ़ी सफ़र की शुरुआ’त अपने पिता के मुरीद बन कर की जो हज़रत निज़ामुद्दीन अमेठवी के मुरीद थे . आगे चल कर हज़रत मख़दूम तैय्यब बनारसी के शिष्य और ख़लीफ़ा बने .
आप ने अपना मूल निवास बरौना छोड़ कर जौनपुर में अपनी ख़ानक़ाह का निर्माण किया और अपने मुर्शिद की आज्ञानुसार उपदेश देना शुरूअ’ किया.आप ने कई रचनायें भी की है .
सन 1672 में आप का देहांत हुआ. आप की मृत्यु उस समय हुई जब आप प्रातः काल की नमाज़ पढ़ते समय सज्दे में झुके हुए थे . आप की दरगाह रशीदाबाद में है. रशीदाबाद का नाम भी आप के नाम पर ही पड़ा है .
ए’वज़ अ’ली शाह पीर दमकी
ए’वज़ अ’ली शाह पीर दमकी मख़दूम शाह मन्सूर जहानियाँ के मुरीद और ख़लीफ़ा थे .आप को पीर बाबा दमक शाह भी कहते हैं .आप का उ’र्स 5 मोहर्रम को मनाया जाता है .
शम्सुल हक़ बड़े हक़्क़ानी
आप जौनपुर के बड़े प्रसिद्ध सूफ़ी थे और हज़रत ई’सा ताज के ख़लीफ़ा थे .
कहते हैं कि एक बार आप के यहाँ आयोजित होने वाली महफ़िल–ए- समाअ’ में क़व्वाल ने वियोग का एक कलाम पढ़ा. आप झूमने लगे और झूमते झूमते बेहोश हो गए . लोगों ने समझा कि आप का देहांत हो गया. स्रोतागण आप के स्वाभाव के परिचित थे, उन्होंने क़व्वाल से कहा कि अब तुम ऐसा कलाम पढ़ो जो महबूब के विसाल से सम्बंधित हो . क़व्वालों ने ऐसा ही किया और कुछ ही पलों में शैख़ को होश आ गया. आप का देहांत हुमायूं बादशाह के शासन काल में सन 1547 ई. में हुआ . आप की दरगाह मोहल्ला पुराना बाज़ार जौनपुर में स्थित है .
शैख़ बहाउद्दीन चिश्ती
आप की गणना जौनपुर के प्रसिद्ध सूफ़ियों में होती है .आप क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी के वंशज थे . आप शैख़ मुहम्मद ई’सा के मुरीद थे और सैयद राज़-ए- हामिद शाह से आप को ख़िलाफ़त मिली थी .
एक बार शैख़ हुसैन गुजराती नामक एक सूफ़ी मुहम्मद ई’सा जौनपुरी से मिलने जौनपुर तशरीफ़ लाए. उन्हें किमियागरी आती थी . जब उन्होंने देखा कि एक नौजवान फ़क़ीरी में जीवन व्यतीत कर रहा है तो वह बहाउद्दीन साहब को जंगल लेकर गए और उन्हें कीमियागरी सिखा दी और फ़रमाया अब जब चाहो सोना बना लेना . शैख़ बहाउद्दीन ने फ़रमाया मुझे दुसरे कीमिया की तलाश है .शैख़ हुसैन उनके इस सादे दृष्टिकोण से बड़े प्रभावित हुए . इसी समय शैख़ हुसैन ने हज़रत ई’सा से ख़िलाफ़त प्राप्त की और वापस गुजरात चले गए .
शैख़ हुसैन की वापसी के पश्चात शैख़ ई’सा के मुरीद हो गए और उनके ख़लीफ़ा हुए . मृत्यु के समाय हज़रत ई’सा ने फ़रमाया कि तुम्हें सूफ़ियों का ख़िरक़ा हामिद से मिलेगा जो मानिकपुर में रहते हैं .कुछ ही दिनों बा’द सैयद राज़-ए- हामिद शाह जौनपुर पधारे और उन्होंने ख़िलाफ़त का ख़िरक़ा शैख़ बहाउद्दीन को पहनाया .
शैख़ बहाउद्दीन का विसाल सन 1540 ई. में हुआ और आप की दरगाह मोहल्ला शाह अढहन जौनपुर में मौलवी इमाम हुसैन के घर में है .
मख़दूम शाह अढहन चिश्ती
आप अपने पिता हज़रत मख़दूम बहाउद्दीन चिश्ती के मुरीद थे .आप का देहांत अकबर बादशाह के काल में सन 1562 ई. में हुआ . आप की दरगाह मोहल्ला शाह अढहन जौनपुर में है . मूनइम ख़ाँ ख़ानख़ाना ने मीर ज़ाहिद बेग की देख रेख में आप की दरगाह बनवाई थी. प्रसिद्ध क़व्वाल शैख़ मंझू आप का ही मुरीद था .
मख़दूम शाह कबीर सुहरवर्दी
आप मख़दूम जहाँगीर के पुत्र तथा उन्ही के मुरीद थे . गंज- ए- अर्शदी के लेखक तहरीर करते है – मैंने शैख़ नासिर और दुसरे प्रमुख लोगों से सुना है कि हज़रत मख़दूम के शरीर का प्रत्येक अंग पृथक होकर साधना करता है . सन 1554 ई. में आप का देहांत हुआ. आप की दरगाह मुहल्ला ताड़ तला में पत्थर की मस्जिद के दरवाज़ के पूर्व में स्थित है .
बंदगी शैख़ फ़ख़्रुद्दीन फ़ख्र -ए –आ’लम सुहरावर्दी
आप शैख़ कबीर के बेटे और ख़लीफ़ा थे. आप ईश्वर की इटबादत में अपने आप को ऐसे भूल जाते थे कि शरीर का ध्यान भी नही रहता था. चीटियाँ एकत्रित होकर आप के दाहिने हाथ का माँस और चमड़ा खा गयी थी और आप को इसका आभास तक न हुआ .एक दिन जब आप की माता रोती हुई आप से मिलने हुज्रे में पहुंची तब उन्होंने आप का हाथ देखा और आप को बाहर लेकर आयीं .आप पर साधना का इतना प्रभाव था कि आप किसी को पहचान नहीं रहे थे. एक दिन शाह अढहन के यहाँ महफ़िल- ए- समाअ’ का आयोजन किया गया. आप भी वहां पहुंचे. आप को देखकर मख़दूम ने फ़रमाया मियां फ़ख़्रुद्दीन आप के ह्रदय से ईश्वर भक्ति की सुगंध आ रही है .आप का देहांत सन 1586 ई. में हुआ और आप की दरगाह हज़रत कबीर के दाहिनी और स्थित है .
शाह फ़ज़्लुल्लाह मदारी
आप अपने पिता के मुरीद थे. आप अपने समय के प्रसिद्ध सूफ़ी थे. आप के कई स्थानों पर चिल्लाकशी की (40 दिनों की सूफ़ी साधना ) . लोग आप से इतनी श्रद्धा रखते थे कि इन चिल्ला-गाहों को स्मरण चिन्ह के रूप में निर्मित किया गया है .आप के चिल्ले बनारस, शेख़पुरा, ग़ाज़ीपुर और सैदपुर में स्थित हैं . आप के पास ख़ूब संपत्ति थी . मदारिया सिलसिले को भारत के सबसे अमीर सिलसिलों में गिना जाता है .एक दिन जुम्मन बिहारी ने आप से कहा कि हालांकि मैं अच्छे लिबास ख़रीद सकता था पर मैं एक लुंगी में संतोष करता हूँ. फिर आप के इस गौरवमय वस्त्र धारण करने का क्या कारण है ? आप ने हंस कर जवाब दिया – यह ईश्वर का समुदाय है जैसे चाहे रखे . आप का देहांत सन 1563 में हुआ. आप की दरगाह गुम्बद शाह मदार जौनपुर के निकट है .
मख़दूम बदरुल-हक़ मुहम्मद अरशद
आप दीवान अ’ब्दुर्रशीद के बड़े बेटे थे . आप का जन्म सन 1531 ई. में हुआ. आप ने मुल्ला अ’ब्दुशकूर मुहम्मदी तथा मुल्ला नुरुद्दीन मदारी से ज्ञान प्राप्त किया .आप अपने पिता के मुरीद थे और आप को चिश्तिया, सुहरवर्दिया और क़लन्दरिया तीनो सिलसिलों में मुरीद बनाने की आज्ञा प्राप्त थी .
आप के यहाँ हिन्दू और मुसलमानों की भीड़ लगी रहती थी . आप का देहांत सन 1731ई . में हुआ और आप की दरगाह रशीदाबाद में है .
मीर मुहम्मद ताहिर तेज़रौ
आप बड़ी सज धज के साथ बदख़्शां से घोड़ों, ऊँटों और सेवकों के साथ सत्य की खोज में भारत आये और जहाँ जहाँ सूफ़ियों का पता चला वहां वहां जाकर उनके सत्संग का लाभ लिया . मगर अब तक दिल संतुष्ट नहीं हुआ था .उन दिनों हज़रत शाह अ’ब्दुल जलील लखनवी जौनपुर में निवास करते थे. जब आप हज़रत के समक्ष पेश हुए तो उन्होंने फ़रमाया –ज्ञान बिना कर्म कथन, बिना मनन प्राप्त नहीं होता . अगर ऐसा मुमकिन होता तो प्रत्येक लोभी इस ख़ज़ाने को प्राप्त कर लेता .आप हज़रत जलील के मुरीद बन गए. चूँकि आप का ह्रदय अपने मुर्शिद के कारण जल्द ही रौशन हो गया था इसलिए आप तेज़रौ (तेज़ चलने वाले ) कहलाये.आप ने अपनी पूरी संपत्ति फ़क़ीरों में लुटा दी और जौनपुर में ख़ास हौज़ के निकट ख़ानक़ाह बना कर रहने लगे. कुछ दिनों के बा’द अपने मुर्शिद की आज्ञा से पंजाब गए और मख़दूम शैख़ अहमद सरहिंदी से नक्सबन्दिया नक़्शबन्दिया सिलसिले में मुरीद हुए .
आप का देहांत सन 1637 ई. में हुआ. आप की दरगाह ख़ास हौज़ के टीले के पश्चिम में स्थित है .
शैख़ आ’रिफ़ शेर सवार
आप शैख़ बुख़ारी की संतान में से थे. जब भी आप क़व्वाली सुनते, आत्मविभोर हो जाते थे . संगीत में इतने लीन हो जाते थे कि अपना ध्यान भी नहीं रहता था .प्रायः जंगलों और पर्वतों की ओर निकल जाते थे. कभी लोगों को शेर की सवारी करते दिखाई पड़ते थे . आप बाद में जौनपुर आ गए और यहीं बस गए . यहीं आप का देहांत भी हुआ . आप की दरगाह जौनपुर से प्रयागराज जाने वाली सड़क पर पोखरियापुर में है .
मीर हयात तेज़ क़दम
आप जौनपुर के ही निवासी थे और चिश्तिया सूफ़ी बुज़ुर्ग थे . आप अक्सर समाअ’ की महफ़िलों में जाते थे और संगीत सुनकर आत्मविस्मृत हो जाते थे. उसी अवस्था में आप जंगले की ओर निकल पड़ते . आप चलते समय इतनी तेज़ पग बढ़ाते थे कि कोई पीछा न कर पाता था . आप ने कभी भी किसी से सहायता नहीं मांगी. आप की दरगाह मोहल्ला कटघरा जौनपुर में ई’दगाह के पीछे है .
मुल्ला नासिर मदारी
आप जौनपुर के प्रसिद्ध विद्वानों में से थे और शाह बदीउ’द्दीन जिंदा शाह मदार के मुरीद और ख़लीफ़ा थे .बहुत दिनों तक आप ख़ानक़ाह मदारिया में पढ़ाते रहे . सन 1665 ई. में उनका देहांत हुआ और ख़ानक़ाह शाह मदर में दफ़्न हुए .
मुल्ला नूर मुहम्मद मदारी
आप मुल्ला नासिर मदारी के पुत्र थे . ख़ानक़ाह मदारिया के निवास स्थान पर जो मस्जिद थी उसकी इमामत आप ख़ुद करते थे .आप को चिश्तिया और क़ादरिया सिलसिले में भी ख़िलाफ़त प्राप्त थी.आप का देहांत सन 1640 ई. में हुआ और आप की दरगाह डाकघर के पीछे ख़ानक़ाह मदारिया में है .
मुल्ला नुरुद्दीन मदारी
आप का जन्म सन 1630 ई. में हुआ. आप ने पहले नूर मुहम्मद मदारी से शिक्षा प्राप्त की और आगे चलकर मुल्ला दीवान अ’ब्दुर्रशीद के मुरीद हुए . आप अपने समय के बड़े सूफ़ी बुज़ुर्ग थे. आप अपने भोजन के लिए कोई व्यवस्था नहीं करते थे. एक लुंगी पहनते थे और जौ की रोटी खाया करते थे .आप धनी व्यक्तियों से दूर रहते थे और उनसे घृणा करते थे .आप शाए’र भी थे .
सन 1664 में आप का देहांत हुआ . आप की दरगाह डाकघर के पीछे ख़ानक़ाह मदरिया के पास स्थित है .
मुल्ला मुहम्मद मांह देव ग्रामी
आप जौनपुर के प्रसिद्ध संत थे और आस पास के क्ष्रेत्र में बड़े प्रसिद्ध थे . आपने मुल्ला रुकनुद्दीन से आरंभिक शिक्षा ग्रहण की और बा’द में मुल्ला नुरुद्दीन मदारी के मुरीद हो गए . आप क़स्बा देव ग्राम के निवासी थे, मगर आप ने जौनपुर में 25 वर्षों तक निवास किया .आप के कई मुरीद बड़े प्रख्यात सूफ़ी हुए जिनमे मुल्ला अ’ब्दुर्रसूल सतरखी , हाफ़िज़ अमानुल्लाह बनारसी और अ’ब्दुल बक़ा जौनपुरी उल्लेखनीय हैं .अपने जीवन के उत्तरार्ध में आप रक्त के रोग से पीड़ित हुए और कुछ दिनों की बीमारी के बा’द आप का विसाल हो गया . आप की दरगाह देव ग्राम आ’ज़मगढ़ जनपद में है .
मुफ़्ती सैयद अ’ब्दुल बक़ा
आप ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की . बा’द में मुहम्मद मांह देव ग्रामी के मुरीद हुए .
कहते हैं कि एक बार रोम के बादशाह ने एक किताब शाहजहाँ के पास भेजी जो बड़ी अनमोल थी . यह पुस्तक जब हिंदुस्तान पहुंची तो पाया गया कि रास्ते में इसके कुछ पन्ने क्षतिग्रस्त हो गए हैं . शाह जहाँ ने इस पुस्तक को संशोधन हेतु मुफ़्ती अ’ब्दुल बक़ा के पास भेजा. जब छः महीने बीत गए तो दरबार से अनुरोध शुरूअ’ हो गया .आप ने अपने हुज्रे में किताब को ढूंढा मगर किताब कहीं नहीं मिली . मुफ़्ती साहब ने यह किताब जब आई थी उसी समय इसे पढ़ लिया था अतः आपने अपनी याददाश्त के बल पर दूरी किताब तैयार कर दी और दरबार में भिजवा दी . दरबार में किसी को पता नहीं चल पाया कि यह मूल पुस्तक है या नहीं .
मुफ़्ती साहब का देहांत जौनपुर में हुआ और इनकी दरगाह मुफ़्ती मोहल्ला में स्थित है .
लुक्का शाह
आप बहुत पहुंचे हुए सूफ़ी थे . हमेशा ईश्वर की उपासना में लीन रहते थे .आध्यात्मिक ज्ञान में आप का मक़ाम बड़ा ऊँचा था . आप अक्सर स्वयं से ही वार्तालाप करते रहते थे . अक्सर जंगलों में निकल जाते . संध्या से प्रातः काल तक आप हुसैनाबाद के शिवाले में निवास करते थे . लोगों में आप के प्रति बड़ी श्रद्धा थी . आप की दरगाह जौनपुर में जेल के पीछे स्थित है . आप का विसाल सन 1693 ई. में हुआ .
जौनपुर में तुग़लक़ काल से मुग़ल काल तक की ख़ानक़ाहें
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के शासनकाल की ख़ानक़ाहें
ख़ानक़ाह क़िला फ़िरोज़ शाह . सज्जादानशीन – हज़रत मख़दूम शैख़ अ’ली
मुल्ला क़ाज़ी ख़लीलुल्लाह.- आप की ख़ानक़ाह दरीबा में थी .
ख़ानक़ाह मख़दूम मुल्ला नुरुद्दीन हरवी – मोहल्ला फ़िरोज़ शाहपुर में ख़ानक़ाह थी.
हज़रत मख़दूम मुल्ला निजामुद्दीन – मोहल्ला फ़िरोज़ शाहपुर में ख़ानक़ाह थी
शैख़ुल मुल्क मुबारक ख़ैर मुहम्मदी – मोहल्ला फ़त्तुपुर सिपाह में ख़ानक़ाह थी
मुल्ला याक़ूब समरकंदी – मोहल्ला आदमपुर में ख़ानक़ाह थी
शर्क़ी शासन काल की ख़ानक़ाहें
ख़ानक़ाह हज़रत मख़दूम क़ुतुब बीना-ए- दिल क़लन्दर – मोहल्ला अल्लान्पुरा –वर्तमान शेख़पुरा
ख़ानक़ाह मुहम्मद शाह – मोहल्ला मियांपुर
ख़ानक़ाह क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी – मोहल्ला चाचकपुर
ख़ानक़ाह मुल्ला सदर जहाँ अजमल – मोहल्ला सिपाह
ख़ानक़ाह अ’बुल फ़त्ह सोंबरसी – मोहल्ला सिपाह
ख़ानक़ाह मख़दूम ई’सा ताज –मोहल्ला अरजन
ख़ानक़ाह शैख़ अ’ली दाऊद – मोहल्ला लाल दरवाज़ा
ख़ानक़ाह नूरुद्दीन मदारी – मोहल्ला मदार तला
ख़ानक़ाह मीर माहिर तेज़ रौ – मोहल्ला डढ़ीयाना टोला
ख़ानक़ाह अ’ब्दुल जलील –ताड़ तला
अकबर के शासनकाल की ख़ानक़ाहें
ख़ानक़ाह मुल्ला महामिद – मोहल्ला शैख़ महामिद
ख़ानक़ाह ख्व़ाजा अजमेरी – मोहल्ला अजमेरी
ख़ानक़ाह ख्व़ाजा दोस्त – मोहल्ला ख्व़ाजा दोस्त
ख़ानक़ाह अ’ब्दुल ग़नी – मोहल्ला सिपाह
ख़ानक़ाह मुल्ला जमील – मोहल्ला हम्माम दरवाज़ा
ख़ानक़ाह शाह मुज़फ़्फ़र – मोहल्ला रिज़वी ख़ान
मख़दूम शाह अढहन – मोहल्ला शाह अढहन
ख़ानक़ाह कबीर सुहरावर्दी- मोहल्ला ताड़ तला
ख़ानक़ाह अ’ब्दुल बारी – मुल्ला टोला
ख़ानक़ाह मुल्ला शम्स नूर – मोहल्ला सिपास
शाहजहाँ, आ’लमगीर, मुहम्मद शाह और शाह आ’लम के काल की ख़ानक़ाहें
ख़ानक़ाह मुल्ला महमूद – मोहल्ला शैख़ महामिद
ख़ानक़ाह दीवान अ’ब्दुर्रशीद – मोहल्ला मीर मस्त
ख़ानक़ाह मौलाना रुकनुद्दीन सोहरवर्दी- मोहल्ला शाह कबीर
ख़ानक़ाह क़ादरिया – मोहल्ला बाग़ हाशिम
ख़ानक़ाह सनाउल्लाह – मोहल्ला तकिया जान अ’ली शाह
ख़ानक़ाह मुफ़्ती सैयद मुबारक – मोहल्ला सिपाह
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