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उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरे की एक झलक

सुमन मिश्रा

उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरे की एक झलक

सुमन मिश्रा

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    सूफ़ी दरगाहों पर उर्स के दौरान कई रस्में होती हैं जिनका ज़िक्र गाहे-ब-गाहे होता रहता है. उर्स अक्सर दो या तीन दिनों तक मनाया जाता है जिसमें सूफ़ी मुशायरों का आयोजन भी आ’म है . कुछ दरगाहों पर तरही मुशायरों का आयोजन भी किया जाता था जिसमे एक तरही मिसरा शायरों को दिया जाता था जिस ज़मीन पर शायर अपनी शायरी पढ़ते थे. अब इस प्रकार के आयोजन कम या के बराबर होते हैं . तरही मुशायरों की एक बड़ी पुराना रिवायत रही है तथा इन मुशायरों के बा’द चंद पन्नों के गुलदस्ते भी छपते थे जिनमे उस मुशायरे में पढ़ी जाने वाली ग़ज़लें संकलित होती थीं. ये गुलदस्ते इस लिए भी ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व के हैं क्यूंकि इन मुशायरों में पढ़ने वाले कुछ शायरों का एकमात्र यही दस्तावेज़ मौजूद है. सूफ़ीनामा में हमें अपने शोध के दौरान ऐसे ही कुछ नायाब गुलदस्ते मिले जिन्हें देवनागिरी में साझा करते हुए हमें बेहद ख़ुशी है .इन शायरों की ग़ज़लें कहीं से भी ख्यातिप्राप्त शायरों से कम नहीं हैं और दुखद है कि कालचक्र में इनका नाम कहीं खो गया. इन गुलदस्तों का मिलना हमें एक उम्मीद की किरण भी लगती है क्योंकि इन शायरों के नाम और जहाँ इन्होने मुशायरे पढ़े थे, सौभाग्य से वह सुरक्षित रह गया.सूफ़ी नामा पर ऐसे और भी दुर्लभ सूफ़ी साहित्य को आप तक पहुंचाने के लिए हम हैं .पेश है उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरों की एक झलक

    मुशाएरा-ए-महायम शरीफ़ (1913)

    मिसरा-ए-तरह- ‘अहल-ए-दौलत भी फ़क़ीराना बसर करते हैं’

    A.मुंशी मुहम्मद हसन

    ना वो भूले से इनायत की नज़र करते हैं

    मेरे नाले नहीं अफ़सोस असर करते हैं

    क्यों मलक हंसते हैं इस्याँ जो बशर करते हैं

    शर बशर ही में निहाँ है तो वो शर करते हैं

    देखते हम हैं उधर ठोकरें खाते हैं इधर

    इस तरह कूचा-ए-जानाँ में गुज़र करते हैं

    इस्तिआ’रे ना सनाए’ ना बदाए’ समझें

    शाएरी किसलिए बे-इल्म-ओ-हुनर करते हैं

    वो हैं मुहताज ज़्यादा जो ग़नी हैं मशहूर

    अहल-ए-दौलत भी फ़क़ीराना बसर करते हैं

    दिल शब-ए-हिज्र की ज़ुल्मत से जो घबराता है

    हम तिरे रुख़ के तसव्वुर में सहर करते हैं

    इश्क़ उस जान-ए-जहाँ का हमें ‘अहसन’ है नसीब

    हुस्न पर जिसके नज़र अहल-ए-नज़र करते हैं

    B. मौलवी अहमद ख़ान ख़ाइफ़ देहलवी

    ख़ौफ़ करते हैं ख़ुदा का ना ख़तर करते हैं

    कैसे बंदे हैं जो ग़फ़लत में बसर करते हैं

    जिनको दुनिया के सिवा दीन से कुछ काम नहीं

    कभी उक़्बा की तरफ़ भी वो नज़र करते हैं

    शान इस में भी निकलती है रिया-कारी की

    ख़ैर से दीन का कुछ काम अगर करते हैं

    एक वो थे कि नमाज़ों में सहर करते थे

    एक हम हैं कि तमाशों में सहर करते हैं

    अब ना तौबा है ना तक़्वा है ना पास-ए-मज़हब

    दीनदारी से मुस्लमान हज़र करते हैं

    बा-अ’मल उ’ल्मा अगर हों तो वली हो जाएं

    मगर ऐसा ये कहाँ और किधर करते हैं

    जो समझते हैं कि दुनिया ही है जन्नत ‘ख़ाइफ़’

    ऐसे बे-ख़ौफ़ कहीं ख़ौफ़-ए-सक़र करते हैं

    C. मुंशी मुहम्मद सिद्दीक़ सिद्दीक़ी

    ग़म नहीं हम जो गुनाहों में बसर करते हैं

    अपने अल्लाह की रहमत पे नज़र करते हैं

    जो तिरे इश्क़ में दुनिया से सफ़र करते हैं

    मंज़िल-ए-आ’लम-ए-लाहूत में घर करते हैं

    जान देते नहीं जान जो उल्फ़त में तिरी

    ज़िंदगी अपनी वो बे-लुत्फ़ बसर करते हैं

    तेरे जाँ-बाज़ तेरी तेग़ से होते हैं शहीद

    जान पर खेल के मैदान को सर करते हैं

    कुछ मज़ा इश्क़-ओ-मोहब्बत का उठाते हैं वही

    क़ुर्ब अल्लाह का हासिल जो बशर करते हैं

    क़िस्सा-ए-हज़रत-ए-आदम से हुआ ये साबित

    अहल-ए-दौलत भी फ़क़ीराना बसर करते हैं

    बा-ख़ुदा होते हैं बाज़ आके ख़ुदी से ‘सिद्दीक़’

    क़ुद्सियों से नहीं होता जो बशर करते हैं

    D.हेचमदान रावी अजमेरी

    कूच इस बज़्म से बा-दीदा-ए-तर करते हैं

    हम बरसते हुए पानी में सफ़र करते हैं

    गर किसी और तरफ़ भी वो नज़र करते हैं

    देखने वाले समझते हैं इधर करते हैं

    पास जब तक कि वो बैठे हैं ना उठना लिल्लाह

    मिन्नतें हम तेरी दर्द-ए-जिगर करते हैं

    इक ठिकाने से पड़ा हूँ मैं हवा के झोंके

    क्यों मेरी ख़ाक इधर और उधर करते हैं

    उनके ही नक़श-ए-क़दम बन गए उनके जासूस

    वो जहाँ जाते हैं ये सबको ख़बर करते हैं

    ख़ाक उड़ती नज़र आती नहीं अब राहों में

    ख़ूब छिड़काओ मेरे दीदा-ए-तर करते हैं

    क्या कहें क्या ना कहें सामने उनके ‘रावी’

    काट लेंगे वो ज़बाँ बात अगर करते हैं

    E.मुहम्मद इस्माईल ज़बीह

    दिन को याद-ए-रुख़-ए-जानाँ में बसर करते हैं

    गिन के तारे शब-ए-हिज्राँ की सहर करते हैं

    खून-ए-दिल पी के मदावा-ए-जिगर करते हैं

    ज़िंदगी के दिन इस तरह बसर करते हैं

    मुँह को फेरे हुए ठुकराते हुए जाते हैं

    मेरी मरक़द पे जो भूले से गुज़र करते हैं

    आह-ए-सोज़ाँ को जो कर लेता हूँ मुश्किल से मैं ज़ब्त

    राज़-ए-दिल फ़ाश मेरे दीदा-ए-तर करते हैं

    बख़्त उसका नसीब उसका है क़िस्मत उस की

    जिसकी जानिब वो इनायत की नज़र करते हैं

    अपनी कानों पे ख़फ़ा हो के वो रख लेते हैं हाथ

    मेरे नाले कभी उन तक जो गुज़र करते हैं

    हेच होता है जहाँ उस की निगाहों में ‘ज़बीह’

    अह्ल-ए-दिल जिसकी तरफ़ एक नज़र करते हैं

    2.उर्स-ए-इमदाद अ’ली शाह कलंदर हैदराबाद

    मिसरा-ए-तरह- ‘ज़िक्र-ए-उलवी करती है बुलबुल मेरे गुलज़ार की’

    A.मोहम्मद नादिर अ’ली बरतर

    आज फिर तक़दीर चमकी तालिब-ए-दीदार की

    फिर हुईं पुर-नूर आँखें रौज़न-ए-दीवार की

    हो गई तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ की शायद हदफ़

    आज क्यों रंगत नहीं उड़ती रुख़-ए-बीमार की

    क्या कहूँ यारब तरीक़-ए-इश्क़ की मजबूरियाँ

    मिन्नतें करनी पड़ीं हैं अब मुझे अग़्यार की

    यूं भी पर्दा रह गया उफ़्तादगान-ए-ख़ाक का

    ओढ़ ली चादर किसी के साया-ए-दीवार की

    आईना पेश-ए-नज़र आराइश-ए-गेसू में है

    बेड़ियाँ बनती हैं अब पा-ए-निगाह-ए-यार की

    फूल हैं बिखरे हुए जितने अ’दु की बज़्म हैं

    धज्जियाँ हैं सब ये मेरे ज़ख़्म-ए-दामन-दार की

    पैरवी-ए-मोमिन-ओ-ग़ालिब का है ‘बरतर’ ये फ़ैज़

    है रविश सबसे जुदागाना मेरे अश्आर की

    B.मुहम्मद नूर ख़ान अजमेरी

    भूल कर भी अब नहीं होतीं वो बातें प्यार की

    गालियों पर खुलती जाती है ज़बाँ सरकार की

    जल्वागर है इस तरह जैसे हो शीशा में परी

    दिल के आईना में सूरत उस बुत-ए-अ’य्यार की

    उस में ये शोख़ी कहाँ ये नाज़ ये चितवन कहाँ

    क्यों ना झपके आँख तुझसे नरगिस-ए-बीमार की

    तुम हसीँ हो क्या हसीँ घर से ना निकले जो कभी

    हुस्न तो वो है नज़र जिस पर पड़े दो-चार की

    तेरी बे-मेहरी अ’दु का रश्क और रंज-ए-फ़िराक़

    जान किन किन आफ़तों में है तिरे बीमार की

    उल्फ़त-ए-दुश्मन छुपाओ तुम मगर क्या फ़ाएदा

    कहती है ख़ुद चाह की चितवन निगाहें प्यार की

    आँख मिलते ही मेरी जाँ हाल खुल जाता है सब

    ये नज़र ग़ुस्सा की है और ये निगाहें प्यार की

    C.सफ़दर अ’ली जाह

    हर जगह है रौशनी शम्अ-ए-जमाल-ए-यार की

    हैं मुनव्वर उस से आँखें तालिब-ए-दीदार की

    चश्म की उल्फ़त में मिज़गां के सितम सहता हूँ मैं

    गुल के छूने से पहुँचती है अज़ीयत ख़ार की

    हो सका तुझसे ना मक़्तल में सर-ए-आ’शिक़ जुदा

    आबरू अब क्या रही क़ातिल तेरी तलवार की

    आँख के डोरे ने तेरे ख़ूब दम धागा दिया

    इस से है सूरत नुमायाँ सुब्हा–ओ-ज़ुन्नार की

    वाह क़ातिल तिरा क्या वार मुझ पर पड़ गया

    ये सफ़ाई हाथ की है या तिरी तलवार की

    रात-दिन है मश्ग़ला उस का यही बाग़बाँ

    ज़िक्र-ए-उलवी करती है बुलबुल मेरे गुलज़ार की

    कुछ नहीं ख़ौफ़-ओ-ख़तर ‘जाह’ रोज़-ए-हश्र का

    मैं हूँ उम्मत में जनाब-ए-अहमद-ए-मुख़्तार की

    D.शाह ज़मान ख़ान

    मसीहा हो इजाज़त शर्बत-ए-दीदार की

    हालत अब अच्छी नहीं है आपके बीमार की

    फ़रिश्तो सोच कर मद्दाह से करना सवाल

    वर्ना मैं दूँगा दुहाई अहमद-ए-मुख़्तार की

    मैं गुनाहों से सज़ावार-ए-जहन्नम था मगर

    सू-ए-जन्नत ले चली रहमत मेरे ग़फ़्फ़ार की

    हिचकियों की डाक बैठी है जो वक़्त-ए-वापसीं

    है यक़ीँ इस दम सवारी आएगी सरकार की

    रात-दिन तड़पा रहा है आप ही का इश्तियाक़

    क्या करूँ मजबूर हूँ ताक़त नहीं रफ़्तार की

    फिर मुझे रुया में मुखड़े की झलक दिखलाइए

    फिर लगी बे-चैन करने आरज़ू दीदार की

    फिर तुझे तैबा में हज़रत ने बुलाया है ‘ज़माँ’

    है इनायत की नज़र तुझ पर तिरे सरकार की

    E.राजा किशन प्रशाद

    दास्ताँ है हर जगह उस आतशीं रुख़्सार की

    है जिनाँ में धूम जिसकी गर्मी-ए-बाज़ार की

    ढूंढती हैं क्यों निगाहें दैर-ओ-का’बा में उसे

    है तमन्ना पुतलियों को यार के दीदार की

    उस के आ’रिज़ का तसव्वुर है यहाँ आठों पहर

    रात-दिन यूँ है तिलावत मुसहफ़-ए-रुख़्सार की

    हो गया जिस रोज़ से मैं काफ़िर-ए-इश्क़-ए-सनम

    क़द्र करते हैं बहुत मोमिन मेरे ज़ुन्नार की

    जितना जी चाहा जलाया तूने अब होश्यार हो

    अब फ़लक बारी है मेरी आह-ए-आतिश-बार की

    तौबा की है शैख़ ने पीर-ए-मुग़ाँ के हाथ पर

    अब उसे हाजत नहीं है जुब्बा-ओ-दस्तार की

    जी उठे लाखों तो लाखों हो गए पामाल भी

    क्या करामत है तेरी गुफ़्तार की रफ़्तार की

    हूँ नौ-आमोज़-ए-फ़ना मसकन मिरा लाहूत है

    शान-ओ-शौकत और ही कुछ है मिरे दरबार की

    क्यों ना हो काविश जिगर में क्यों ना हो दिल में ख़लिश

    रह गई है टूट कर बरछी निगाह-ए-यार की

    हसरत-ओ-अरमाँ जिलौ में है मेरी मय्यत के साथ

    क़ाफ़िला से है ये रौनक क़ाफ़िला-सालार की

    हो गई है उस की हस्ती में मेरी हस्ती फ़ना

    भूल कर भी याद अब आती नहीं अग़्यार की

    उलवी-ए-पीर-ए-मुग़ाँ का हो गया क़ायम-मुक़ाम

    क्या ही इज़्ज़त बढ़ गई अब मय-कश-ए-मय-ख़्वार की

    ख़ौफ़ क्या है लाख दुश्मन दुश्मनी मुझसे करें

    है इनायत मेरी हालत पर मेरे सरकार की

    कहती है ‘शाद’ मुझको ख़ल्क़ मद्दाह-ए-रसूल

    ना’त लिखता हूँ हमेशा अहमद-ए-मुख़्तार की

    F.शम्सुलहक़ सज्जाद अ’ली मैकश

    मुद्दतों खाईं हवाएं हमने बाग़-ए-यार की

    पत्ता पत्ता डाली डाली सैर की गुलज़ार की

    सुर्ख़ रंगत क्यों ना हो उस दीदा-ए-ख़ूँबार की

    ख़ून हो कर बहती है हसरत तेरी दीदार की

    घोट कर दम अपना गहरी नींद सो जाते वहीं

    हाथ जाती जो परछाई तेरी तलवार की

    नाला-ओ-शोर-ओ-फ़ुग़ां-ओ-आह पर पिघलेंगे कब

    हुस्न के बहरे ये हैं वो क्या सुनेंगे चार की

    गिर के उन नज़रों से हम सबकी नज़र से गिर गए

    कब ख़बर थी यूं बदल जाएँगी आँखें यार की

    उस पे साया पड़ गया किस गुल की चश्म-ए-मस्त का

    आँख तक खुलती नहीं है नर्गिस-ए-बीमार की

    मय-कशी के फ़न में भी ‘मय-कश’ ना तू कामिल हुआ

    मय-कदे में आके नाहक़ भीड़ मेरे यार की

    3.मुशाएरा-ए-उर्स सालाना-ए-हज़रत हाफ़िज़

    मिसरा-ए-तरह- ‘मो’तक़िद उस्ताद का मेरे ज़माना हो गया’

    A.क़ाज़ी अहमद क़ाज़ी

    फ़ैज़ बख़्शी का ज़माने में फ़साना हो गया

    पीर-ओ-मुर्शिद आपका भी क्या ज़माना हो गया

    दीदा-ए-दूं का नया कुछ कारख़ाना हो गया

    दाना दीवाना हुआ दीवाना दाना हो गया

    होते होते और क्या होती है आगे देखिए

    इश्क़ पहले ही ना होना था सो जाना हो गया

    बिजलियाँ ऐसी बहुत चमकीं तो क्या चमका करें

    ये भी क्या उस नाज़नीँ का मुस्कुराना हो गया

    उल्फ़त-ए-मुर्ग़ान-ए-जन्नत ज़ाहिदों के दिल में है

    घर ख़ुदा का ताएरों का आश्याना हो गया

    फ़ैज़ के दरबार को अब छोड़कर जाएं कहाँ

    हम फ़क़ीरों का ये ‘क़ाज़ी’ आस्ताना हो गया

    B.मौलवी मुहम्मद हफ़ीज़ उद्दीन पास

    तय करम के साथ हातिम का ज़माना हो गया

    रायगाँ बे-सूद क़ारूँ का ख़ज़ाना हो गया

    नातवाँ ज़ो’फ़ अ’नासिर से नहीं है जिस्म-ए-ज़ार

    चार तिनकों का पुराना आशियाना हो गया

    शैख़ का’बा से चले आते हैं काफ़िर दैर से

    मा’बद-ए-आ’लम तुम्हारा आस्ताना हो गया

    अपना लिखा है फ़रामोशी का उनके मो’जिज़ा

    ख़त हमारा भूल कर क़ासिद रवाना हो गया

    शैख़ के दस्तार में इक तार भी बाक़ी नहीं

    धज्जियाँ रिंदों की पेचों से बताना हो गया

    फ़स्ल-ए-गुल आई है साक़ी ला कटोरा फूल का

    बाग़ में आग़ाज़ बुलबुल का तराना हो गया

    ‘पास’ हो सकती नहीं तफ़्सील इस इज्माल की

    मो’तक़िद उस्ताद का मेरे ज़माना हो गया

    C.मुंशी समीउल्लाह नाम

    का’बा-ए-मक़्सूद में जिस रोज़ जाना हो गया

    ख़ाना-ए-दिल में मेरे बुत का ठिकाना हो गया

    हो गए रंजीदा ख़ातिर कल से वो आए नहीं

    दर्द-ए-दिल उनको सुनाना इक बहाना हो गया

    जब से वो रश्क-ए-चमन पहलू से मेरे दूर है

    बाग़ भी नज़रों में मेरे क़ैद-ख़ाना हो गया

    हाथ से क़ासिद के लेते ही उन्हें नींद गई

    मेरा ख़त पढ़ना उन्हें गोया फ़साना हो गया

    की है बैअ’त हमने इक पीर-ए-मुग़ाँ के हाथ पर

    दिल जो दीवाना था अपना फिर सियाना हो गया

    अहल-ए-दिल जितने हैं उनका फ़ैज़ जारी है मुदाम

    मो’तक़िद उस्ताद का मेरे ज़माना हो गया

    थे जनाब-ए-फ़ैज़ जब तक शाएरी का लुत्फ़ था

    लुट गया मुल्क-ए-सुख़न ख़ाली ख़ज़ाना हो गया

    D.बरकत अ’ली नजीब

    उनको आसाँ अब हर इक का ख़ूँ बहाना हो गया

    एक आ’शिक़ के लिए अच्छा बहाना हो गया

    इब्तिदा में इश्क़ को इक दल-लगी समझे थे हम

    इंतिहा में आफ़त-ए-जाँ दिल लगाना हो गया

    ख़ाना-ए-दिल से जो अपने दूर उसने कर दिया

    ये दिल-ए-वह्शी हमारा बे-ठिकाना हो गया

    मलते हैं बदले हिना के ख़ूँ शहीद-ए-नाज़ का

    सह्ल हाथों में उन्हें मेहंदी लगाना हो गया

    इश्क़ में उस शो’ला-रू के गया आँखों में दम

    रिंद के शम्अ-ए-सहर का झिलमिलाना हो गया

    सैर करने आज निकला जो वो रश्क-ए-चमन

    ख़ार सब गुल हो गए जंगल सुहाना हो गया

    ग़ुंचा-ए-दिल खिल गया मारे ख़ुशी के ‘नजीब’

    बाइस-ए-तफ़रीह उनका मुस्कुराना हो गया

    E.मिर्ज़ा रसूल बेग करम

    दर्द इक पैदा हुआ दिल बे-ठिकाना हो गया

    किस ख़दंग-ए-नाज़ का या-रब निशाना हो गया

    आफ़त-ए-जाँ शोख़ से आँखें लड़ाना हो गया

    हर तरह से दिल का अब मुश्किल बचाना हो गया

    मार डाले है किसी का वक़्त-ए-रुख़्सत ये कलाम

    चुप रहो जाने दो अब रोना रुलाना हो गया

    रही है जान होटों पर तिरे बिस्मिल के अब

    आब-ए-ख़ंजर बस चुआ दी आज़माना हो गया

    बा’द देने के गिलौरी बोसा जब लब का लिया

    मुस्कुरा के कहते हैं ये मेहनताना हो गया

    बार क्यों तुझको हुआ ये आशयाँ बाग़बाँ

    चार तिनकों से मिरा तो ये आशियाना हो गया

    नफ़्स-ए-अम्मारा को जिसने मार रखा ‘करम’

    बस समझ लो काम उस से रुस्तमाना हो गया

    4.उर्स-ए-चीता शाह

    मिसरा-ए- तरह- ‘आने लगी निकहत-ए-गुल से हया मुझे’

    A.सय्यद अहमद अहमद

    आया नज़र जो बाग़ में गुल-गूं क़बा मुझे

    मसरूफ़-ओ-मह्व-ए-सूरत-ए-ज़ेबा क्या मुझे

    बर्बाद उस की इश्वा-गरी ने किया मुझे

    तड़पा रही है यार की नाज़-ओ-अदा मुझे

    दिल दे दिया है जान का फिर ख़ौफ़ क्या मुझे

    दो आप बद-दुआ’ मुझे या अब दुआ’ मुझे

    होती है जब फ़ना ही से हासिल बक़ा मुझे

    क्यूँ-कर ना ज़िंदगी में हो शौक़-ए-फ़ना मुझे

    लेते हैं चुटकियाँ वो कलेजे में बैठ कर

    मिलती है दिल लगाने की अच्छी सज़ा मुझे

    मैं ने जो अपने आप बुराई पे की नज़र

    आया नज़र नहीं कोई इंसाँ बुरा मुझे

    मुद्दत हुई है जान तो नज़्र-ए-अदा हुई

    क्यों फिर रही है ढूंढती ‘अहमद’ क़ज़ा मुझे

    B.मौलवी मुहम्मद फ़ख़रुद्दीन अरमान

    देता वो देने वाला भला और क्या मुझे

    जो रश्क-ए-काएनात था वो दिल दिया मुझे

    याँ भी यही दुआ’ है इलाही क़ुबूल हो

    वो हाथ उठा के देते हैं जो बद-दुआ’ मुझे

    नाकामी-ए-फ़िराक़ में वो मातम-ए-उमीद

    क़ाबू रहा ना दिल पे तो रोना पड़ा मुझे

    उफ़ आ’लम-ए-ख़्याल में महवियत-ए-जमाल

    ख़ामोश सोचता था कि क्या हो गया मुझे

    इन ना-शकेबयों से तरीक़-ए-वफ़ाएं हाय

    हर हर क़दम पे ठोकरें खाना पड़ा मुझे

    जब से मिली है क़ैद-ए-क़फ़स की सज़ा मुझे

    आने लगी है निगहत-ए-गुल से हया मुझे

    बस रहने दीजिए यूंही अरमाँ ना पूछिए

    वो किस वफ़ा पे कहने लगे बे-वफ़ा मुझे

    C.ग़ुलाम मुहीउद्दीन हम्द सिद्दीक़ी

    दिल ले के तुमने दिल से भुला ही दिया मुझे

    अब ख़ैर दिल तो फेर दो बे-वफ़ा मुझे

    पूरा वो करने वादा-ए-वस्ल आज आए हैं

    सद-हैफ़ कैसे वक़्त में आई क़ज़ा मुझे

    चाहे जिसे पिया वो सुहागन मसल है सच्च

    क्यों चाहते हो ग़ैर को ये है गिला मुझे

    बोसे तुम्हारे लब के लिए क्या पान की नसीब

    हूँ कम नसीब पत्ते से भी क्या हुआ मुझे

    रहमत की शान देखिए कहती है मुझसे यूं

    बंदा करे गुनाह पर आए हया मुझे

    मैं रास्ती पे जो हूँ तो पर्वा किसी की क्या

    मानूँ ना मैं बुरा जो कहें सब बुरा मुझे

    काफ़ी फ़लाह को हैं दो-आ’लम के दो सबब

    हम्द-ए-ख़ुदा-ओ-ना’त शह-ए- दूसरा मुझे

    D.मौलवी अब्दुल हमीद ख़्याली

    क्यों जी रहा हूँ किसलिए जीना पड़ा मुझे

    बद-गुमान तू ही बता दे ज़रा मुझे

    दुनिया जहान कहती है सब आपका मुझे

    अल्लाह जाने आप समझते हैं क्या मुझे

    करतूत ऐसे हाय रे फिर मेरी सादगी

    हूँ जानता कि कोई नहीं जानता मुझे

    ये हुक्म है कि नाज़ अ’दु के अठाईए

    ये और एक ख़्वाब पड़ा है नया मुझे

    फिर उस की याद आई मुझे हाय दोस्तो

    देखो कि फिर चला मैं कोई ले चला मुझे

    बद-नाम-ए-ख़ल्क़ हूँ मगर इतना बताइए

    मा’शूक़ लोग आपको कहते हैं या मुझे

    मैं बे-ख़बर था इस से ‘ख़्याली’ ख़ुदा-गवाह

    दुश्मन है अब बग़ल में दिल-ए-मुब्तला मुझे

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