Sheikh Naseeruddin Chiragh-e-Dehli
ग़यासपुर स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह-
गर्मियों का मौसम था और दिल्ली गर्म तवे की तरह तप रही थी । दोपहर की इस चिलचिलाती धूप में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह के जमआत खाने में यह समय ख़ादिमों, मुरीदों और राहगीरों के सुस्ताने का समय होता था । जमआत खाना लोगों से खचाखच भरा हुआ था । ख़ानक़ाह में जमआत खाना एक बड़ा हाल था जो कई मजबूत खंभों पर टिका था। लोग खभों की ओट लेकर आराम फरमा रहे थे ।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया पहली मंज़िल पर स्थित अपनी आरामगाह से बाहर निकले और सीढ़ियाँ उतरते हुये लंगरखाने के बगल मे स्थित अपनी निजी कक्ष की सम्त बढ़े । हज़रत ने चलते चलते एक नज़र जमआत खाने मे आराम फरमा रहे मुरीदों और राहगीरों पर डाली और जमआत खाने के बगल में बढ़ रहे बरगद के पेड़ पर भी जो धीरे धीरे बढ़ रहा था और एक दिन जमआत खाने में राहगीरों को छाया देगा । तभी उनकी नज़र 40-45 साल के एक युवक पर पड़ी जो उसी बरगद के बगल में खड़ा था । हज़रत की पारखी नज़रों ने उस युवक की आँखों मे ज्ञान पिपासा देख ली थी । हज़रत बहाउद्दीन ज़क्रिया मुलतानी भी तो अपने मुरशिद शेख़ शहाबुद्दीन सुहरावर्दी के पास वर्षों की साधना और शिक्षा के बाद पहुंचे थे । शेख़ शहाबुद्दीन सुहरावर्दी ने उन्हें देख कर फरमाया था कि ज़क्रिया सुखी लकड़ियाँ लाया है जो तुरंत आग पकड़ती हैं और इन्हें सुखना नहीं पड़ता। हज़रत ने अपने हुजरे कि दहलीज़ पर कदम रखा और एक मुरीद को हुक्म दिया कि जाकर उस युवक को बुला लाओ।
युवक हज़रत के पास आकर खड़ा हो गया । उसकी लाल, नींद में अलसाई आँखों ने हज़रत के चुनाव को पहले ही मौन स्वीकृति दे दी थी ।
बैठ जाओ ! हज़रत ने उस नए मुरीद से कहा ।
क्या चाहते हो ? तुम्हारा लक्ष्य क्या है ? तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं ?
हज़रत कि ख़ानक़ाह में मुरीदों से अच्छी तरह पड़ताल की जाती थी कि किसी तरह उनका संबंध राजदरबार से तो नहीं है । हज़रत के मुरीदों को सख़्त हिदायत थी कि राजकार्य से वह अपने आप को दूर रखें । हज़रत के पूर्व सूफ़ी बुज़ुर्गों ने जीवन यापन के सिर्फ दो तरीकों को स्वीकृति प्रदान की थी । 1॰ ज़मीन ए अहया – किसी बंजर ज़मीन को जोत कर उसकी आमदनी से जीवन यापन ( इस्लामी कानून के मुताबिक बंजर ज़मीन को जो जोतता है वह ज़मीन उसकी होती है ) और 2॰ फ़ुतूह – वह दान जो मांगा न गया हो । लेकिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने पहले प्रकार के जीवन यापन को स्वीकृति नहीं दी क्योंकि इसके लिए कर अधिकारी पर निर्भर रहना पड़ता था ।
नया मुरीद ( शेख़ नसीरुद्दीन महमूद ) पूरी तरह तैयार होकर आया था । मेरे पिता के पास कुछ ग़ुलाम हैं जो उनके लिए ऊनी कपड़ों का व्यापार करते हैं । मेरी ज़िंदगी का मकसद शेख़ की लंबी उम्र के लिए दुआ करना, दरवेशों के जूते साफ करना और उन्हें अपने सिर पर रखकर उनकी सेवा करना है ।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को यह जवाब सुनकर अपने पुराने दिन याद आ गए जब वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के पश्चात अच्छी नौकरियों के तमाम प्रस्ताव ठुकरा कर हज़रत बाबा फ़रीद के पास अजोधन आ गए थे और सूफ़ी पथ पर चलने का निश्चय किया था । उन दिनों उनके अपना कहने को कुछ भी नहीं था । एक दयालु महिला ने उन्हें एक चादर कमर पर लपेटने के लिए दी थी ताकि वह उनके एक मात्र जोड़ी कपड़े धो सके । उनके पास एक तांबे का सिक्का तक नहीं था कि वह कुछ कागज़ खरीद सकें और अपने मुरशिद की बातों को लिख सकें । हज़रत ने इस नए मुरीद मे अपना सच्चा वारिस देख लिया था ।
बहुत ख़ूब ! अब सुनो ! हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने फरमाया – अपनी पढ़ाई पूरी करने के पश्चात जब मैं बाबा शेख़ फ़रीद की ख़िदमत में अजोधन पहुंचा, तो अजोधन में मुझे दिल्ली का एक दोस्त मिल गया । हम दोनों ने साथ साथ पढ़ाई की थी । उसके यहाँ एक नौकर था और किसी चीज़ की कमी न थी । जब उसने मेरे मैले और फटे हुये कपड़े देखे तो उसने कहा – मौलाना निज़ामुद्दीन ! तुम पर यह क्या विपदा आन पड़ी ? तुम अगर दिल्ली मे शिक्षण कार्य करते तो अपने वक़्त से सबसे आलिम मुजतहिद (विद्वान) होते । तुम्हारा ख़ासा नाम होता और जीवन यापन के पर्याप्त साधन होते । मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और वापस बाबा साहब की ख़ानक़ाह में आ गया । बाबा साहब को जब इसका इल्म हुआ तो उन्होने फ़रमाया की ख़्वान में खाना रख कर अपने दोस्त के लिए ले जाओ ! और अगर तुम्हारा दोस्त तुम्हारी मौजूदा हालत पर अफ़सोस करे तो तुम क्या कहोगे ? मैंने सर झुका कर अर्ज़ किया – जो मखदूम फरमाएँ !
बाबा साहब ने इरशाद किया – उससे कहना – तुम्हें मरतबे मुबारक हो और मुझे ख़ाकसारी ! मैंने अपने दोस्त को जाकर यह वाकया सुनाया । वह इतना मुतासिर और शर्मिंदा हुआ कि ख़ुद ख़ानक़ाह पर आकर माफ़ी मांगी और बाबा साहब का मुरीद हो गया ।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुख से इसी प्रकार अनवरत गंगा बहती रही और उनकी आँखें जमुना बहाती रहीं। उनका यह प्यारा मुरीद अपने कर्म कमंडल में गंगा जमुना भरता जा रहा था ।
शेख नसीरुद्दीन के परिवार के विषय में हमें थोड़ी सी जानकारी ख़ैर उल मजालिस (हामिद क़लंदर लिखित ) में मिलती है । उनके पूर्वज हिंदुस्तान आए थे और उनके दादा हज़रत अब्दुल लतीफ़ यज़दी का जन्म लाहौर में हुआ था । बाद में यह परिवार अवध जाकर बस गया और शेख़ नसीरुद्दीन का जन्म हिंदुओं के पवित्र शहर अयोध्या में हुआ था । नौ साल की अल्पायु में ही इनके ऊपर से पिता का साया उठ गया लेकिन चूंकि परिवार की माली हालत ठीक थी इसलिए वालिदा ने इनकी अच्छी शिक्षा का इंतज़ाम किया । इन्होने मौलाना अब्दुल करीम शेरवानी एवं मौलाना इफ़्तिख़ारूद्दीन गिलानी से शिक्षा ग्रहण की । 25 साल की उम्र में इन्होने आध्यात्मिक पथ पर चलने का मन बना लिया था ।
कई सालों बाद (1353 AD ) इन्होने अयोध्या के उन दिनों का ज़िक्र किया है – ‘’ अवध में ख़ूबसूरत मस्जिदें और घने आम के बाग़ थे । आजकल दोनों नहीं मिलते ‘’ ।
अपनी माँ के देहांत तक नसीरुद्दीन अयोध्या में ही रहे । इनकी वालिदा की मज़ार अयोध्या की ईदगाह के पीछे स्थित है । अपनी वालिदा के देहांत के पश्चात 43 वर्ष की उम्र में नसीरुद्दीन दिल्ली आ गए और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के जमआत खाने में सेवा करने लगे लेकिन इनके परिवार ने इन्हें अभी भी अवध से जोड़ रखा था । इनकी छोटी बहन बीबी लाहौरी के देहांत के पश्चात उनके बेटे कमालुद्दीन की परवरिश का पूरा भार इनकी बड़ी बहन बीबी बड़ी बुआ ने अपने ऊपर ले लिया था और अपने बेटे ज़ैनुद्दीन अली के साथ साथ कमालुद्दीन की परवरिश मे भी उन्होने कोई कमी न की । यह दोनों भांजे शेख़ के साथ जीवन के आख़िरी दिनों तक रहे । शेख़ अक्सर अपनी बड़ी बहन से मिलने जाया करते थे । इन यात्राओं का बहुत थोड़ा वृतांत हमें कुछ किताबों में मिलता है । एक यात्रा वृतांत यूं है –
मैं अवध से अपने भाइयों और ख़्वाजा युसुफ़ के वालिद के साथ दिल्ली वापस आ रहा था। उन दिनों मैंने अल्पाहार अपना रखा था । मेरे भाई ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ादिम ख़्वाजा मुबस्सिर से शिकायत की – इसने आजकल खाना पीना त्याग दिया है । बात सुल्तान उल मशायख़ तक भी पहुँच गयी । हज़रत ने मेरे लिए काक और हलवा भिजवाया और साथ में निर्देश भी कि मुझे इन्हें खाना चाहिए। मेरे पेट की हालत उन दिनों ठीक नहीं थी लेकिन पीर का हुक्म हर हाल में मानना था इसलिए मैंने दोनों चीज़ें खा लीं ।
एक अन्य मौक़े पर जब शेख़ नसीरुद्दीन दिल्ली पहुंचे तो बड़ी ठंड थी और जमआत ख़ाना पूरी तरह भरा हुआ था । हज़रत ने उन्हें अपने पास बुलाया और फ़रमाया – मौलाना ! तुम्हें अपने साथ रखकर मुझे ख़ुशी होती है और कभी बोझ का एहसास नहीं होता लेकिन अभी जमआत ख़ाना पूरी तरह भरा हुआ है और अवध में तुम्हारा परिवार भी तुमसे मिलने को आतुर होगा । अंतिम वाक्य में हज़रत का इशारा शायद तरगी मुग़ल के आक्रमण की ओर था । हज़रत ने अपने आप को ख़ानक़ाह में पूरी तरह समेट लिया था लेकिन एक हफ्ते बाद ही सुल्तान अलाउद्दीन का आदेश आ गया कि शहर के हर आदमी को सेना मे शामिल होना है । शेख़ नसीरुद्दीन ने हज़रत बुरहानुद्दीन ग़रीब के घर पर पनाह ली और किसी तरह इस मुश्किल वक़्त से निज़ात पायी। इस बीच दोनों के बीच बड़े प्रगाढ़ संबंध बन गए ।
एक अन्य वाक़ये के अनुसार – अवध से लौटते वक़्त शेख़ ने गोमती नदी के किनारे एक टूटी हुयी ड्योढ़ी देखी । उन्होने उस ड्योढ़ी को तोड़कर उससे जो ईटें निकली उससे वहाँ एक मस्जिद बनाई । इस जगह का नाम तो नहीं मिलता पर यह जगह अनुमानतः जौरस थी जहां मस्जिद आज भी है और वहाँ के कुछ मुसलमान परिवार अपने आप को शेख़ की बहन के वंशज बताते हैं । इस मस्जिद को बनाने में शेख़ को कुछ महीने का वक़्त लगा लेकिन इससे पहले कि मस्जिद तैयार हो पाती, शेख़ को अपनी बड़ी बहन बड़ी बुआ की मृत्यु का दुखद समाचार मिला और हज़रत अपने ख़ादिम क़ाज़ी आरिफ़ को मस्जिद की तामीर का भार सौपकर ख़ुद अवध के लिए रवाना हो गए । बड़ी बुआ की दरगाह अयोध्या में ही है और उन्हें अपने समय की राबिया कहा जाता है । अवध में 40 दिन की रस्में पूरी करके हज़रत अपने भांजों के साथ दिल्ली आ गए । शायद यह उनकी अवध की आखिरी यात्रा थी ।
वापस लौटने पर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया – ‘’तुमने अपने भांजों को अपने साथ लाकर बहुत अच्छा किया’’
अपने भांजों के साथ शेख़ नसीरुद्दीन, ख़्वाजा बुरहानुद्दीन ग़रीब के घर पर रहने लगे । उनका घर ख़ानक़ाह से थोड़ी ही दूरी पर स्थित था । वह हज़रत की ख़ानक़ाह पर कभी कभी जाया करते थे जैसा कि हज़रत ख़ुद कहा करते थे कि मुरीद का अपने मुरशिद से बार बार मिलना ज़रूरी नहीं ।
शेख़ नसीरुद्दीन ने करीब 15 साल सादगी भरा जीवन व्यतीत किया है इस बीच दिल्ली के सूफ़ियों में उनका नाम काफ़ी मशहूर हो गया । अपने शेख़ और उनके बुज़ुर्गों का अनुसरण करते हुये उन्होने भी राज दरबार से कोई संबंध नहीं रखा । शेख़ के अनुसार एक सूफ़ी के लिए दो शब्द गालियों के समान हैं – मुक़ल्लिद और ज़ुर्त।
मुक़ल्लिद वह सूफ़ी है जिसका कोई मुरशिद न हो और ज़ुर्त वह सूफ़ी है जो ख़िर्का और कुलाह पहन कर लोगों से धन की याचना करता है ।
शेख़ नसीरुद्दीन हामिद क़लंदर को एक कहानी द्वारा यह समझाते हैं –
बहुत पहले एक न्यायप्रिय बादशाह था । उसने यह नीयम बनाया कि जब वह दरबार में बैठता हैं तो प्रजा में से कोई भी उससे बे रोक-टोक आकर मिल सकता है । याचक अपनी अर्ज़ी लेकर आते थे और हाजिब को दे देते थे । हाजिब वह अर्ज़ियाँ बादशाह के समक्ष रखता था । महल के मुख्यद्वार पर दरबान खड़े होते थे लेकिन वह किसी को अंदर जाने से नहीं रोकते थे । एक दिन दरवेशों का ख़िर्का पहने एक फ़क़ीर आया और महल में अंदर जाने लगा ।
वापस जाओ ! दरबान उसे रोकता हुआ चिल्लाया ।
दरवेश भौचक्का रह गया । उसने दरबान से पूछा – ख़्वाजा ! यह इस दरबार कि प्रथा है कि किसी को भी अंदर जाने से रोका नहीं जाता है । फिर तुम मुझे क्यों रोक रहे हो ! क्या यह मेरे मैले परिधान कि वजह से है ?
जी हाँ ! दरबान से जवाब दिया । बिलकुल यही वजह है । तुमने सूफ़ियों का लिबास पहन रखा है और इस पोशाक को पहनने वाले राजदरबार में याचना करने नहीं आते । वापस जाओ और अपनी दरवेशी पोशाक उतरकर सांसरिक व्यक्ति के लिबास में आओ तब मैं तुम्हें भीतर जाने दूंगा ! इस पोशाक का सम्मान मुझे तुम्हें अंदर जाने देने से रोक रहा है ।
दरवेश ने अपनी याचिका वापस ले ली और कहा – मैं अपना ख़िर्का नहीं उतरूँगा । यह कहकर वह वापस चला गया ।
आने वाले वर्षों में शेख़ नसीरुद्दीन कि दरबार से यह दूरी उनके लिए कड़ी परीक्षा का सबब बनने वाली थी लेकिन अभी यह अपने मुरशिद की सेवा के पल थे । सालों उन्होने अपने मुरशिद की बताई शिक्षाओं पर अमल किया और साधना की । इन्होने अपने परम मित्र हज़रत अमीर ख़ुसरौ से यह गुज़ारिश की कि वह सुल्तान उल मशायख़ से विनती करें कि ज़िक्र और मुराक़बे (ध्यान ) के लिए उन्हें ख़ानक़ाह में ही एक कोना दे दिया जाये । हज़रत अमीर ख़ुसरौ रोज़ रात खाना खाने के पश्चात हज़रत के दर्शनार्थ ख़ानक़ाह तशरीफ ले जाया करते थे । सिर्फ़ उन्हें ही इजाज़त थी कि वह हज़रत के हुजरे में कभी भी जा सकते थे और कुछ भी कह सकते थे । हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने जब शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को शेख़ नसीरुद्दीन कि विनती सुनाई तो हज़रत ने साफ़ मना कर दिया । हज़रत जो शेख़ नसीरुद्दीन को अपना प्रधान ख़लीफ़ा बनाने का मन बना चुके थे, ने फ़रमाया –शेख़ नसीरुद्दीन से कहो वह लोगों के बीच रहे और उनके दर्द की दवा करे ।
अमीर ख़ुर्द जिन्होने सियर उल औलिया लिखी फ़रमाते हैं – हज़रत के मुरीदों में शेख़ नसीरुद्दीन का वही स्थान है जो तारों के मध्य चाँद का होता है ।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने मार्च 1325 में इस जहान ए फ़ानी को त्याग दिया और जगती के पालने से कूच कर गए । उनकी नमाज़ ए जनाज़ा शेख़ बहाउद्दीन ज़क्रिया मुलतानी के पोते शेख़ रुकनुद्दीन सुहरावर्दी ने पढ़ी । अपने देहांत से तीन महीने पहले ही हज़रत ने ख़िलाफ़त नामे तैयार करने का हुक्म दे दिया था । सबसे पहला ख़िलाफ़तनामा शेख़ जमालुद्दीन हांस्वी के पोते शेख़ क़ुतुब ऊद्दीन मुनव्वर को प्रदान किया गया । शेख़ नसीरुद्दीन को उसके बाद ख़िलाफ़त मिली । हालांकि हज़रत ने यह साफ़ कर दिया था कि सारे ख़लीफ़ा बराबर हैं और सबको आपस में सौहार्द एवं प्रेम बनाए रखना है । हज़रत ने अपने ख़लीफ़ाओं को देश के कोने कोने मे जाकर लोगों की सेवा करने और चिश्ती सिलसिले का प्रचार करने भेजा । शेख़ बुरहानुद्दीन ग़रीब को गुलबर्ग भेजा गया । आखी सिराज को उनके अपने वतन बंगाल रवाना किया गया । शेख़ क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर हांसी गए जहां उनके दादा की ख्याति दूर दूर तक फैली थी । शेख़ नसीरुद्दीन महमूद अपने सह खलीफा शेख़ शम्स अल दीन याहया के साथ दिल्ली में ही रहे और उन्हें शेख़ के मुरीदों का मार्गदर्शन करने का निर्देश दिया गया ।
शेख़ के जमआत खाने की ज़िम्मेदारी हज़रत की वसीयत के अनुसार उनकी बहन के बच्चों ने सम्हाली । शेख़ नसीरुद्दीन ने अपना निवास ख़ानक़ाह से अलग उस जगह पर बनाया जहां आज उनकी दरगाह स्थित है । वह वहाँ ग़रीबी और दुर्भाग्य का सामना करते रहे । 1353 AD में शेख़, हामिद क़लंदर से फरमाते हैं –
आज मेरे कई मुरीद हैं और खाने पर कई मेहमान भी परंतु उस समय मैं ने पूरा दिन उपवास किया था (बिना इफ़्तार ) और अगले दिन भी भूखा ही रहा था । उन दिनों मेरा एक दोस्त था नाथू । वह दो रोटियाँ लेकर आया। रोटियाँ शायद उरद या जौ की थी । उसने एक रोटी के ऊपर थोड़ी सी सब्ज़ी रखी और उसी के ऊपर दूसरी रोटी रख दी ।फिर उसने दोनों रोटियों को एक कपड़े में लपेटा और मेरे सामने रख दिया । आह ! क्या लज़ीज़ खाना था वह ! और क्या आनंद भरे दिन थे जब मेरे घर में एक चिराग़ तक नहीं था और न ही रसोई में आग थी । मेरे कई रिश्तेदार यहाँ रहते थे और सब बड़े समृद्ध थे । वह मुझ जैसे दस लोगों को भोजन करवा सकते थे लेकिन धीरे धीरे मैंने उन्हें समझा दिया और उन्होने भी मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया । अगर कोई मुझसे मिलने आता तो मैं अपने मुरशिद का ख़िर्क़ा ओढ़कर अपनी ग़रीबी छुपा लेता था ।
ऐसा ही चल रहा था कि उन्ही दिनों शेख़ नसीरुद्दीन को सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के साथ विवाद में घसीट लिया गया ।
चिश्तीया सिलसिले के सूफ़ियों के लिए राज दरबार वर्जित रहा था । शेख़ नसीरुद्दीन ने एक मजलिस में भाव मूलक राज्य और सत्ता मूलक राज्य में अंतर स्पष्ट किया है । उनके अनुसार भाव मूलक राज्य हज़रत मुहम्मद (PBUH) के समय था जब राजकीय पद लोगों की सेवा हेतु समर्पित होते थे । लेकिन सत्ता मूलक राज्य शक्ति प्रदर्शन और दमन की नीतियों द्वारा स्थापित किए जाते हैं । आजकल चूंकि सत्ता मूलक राज्य ही बच गए हैं इसलिए एक सूफ़ी के लिए अपने आप को इनसे अलग रखना अनिवार्य हो गया है । सत्ता मूलक राज्य के शासक कि आत्मा मर चुकी होती है और पदाधिकारी राजकीय सेवक न होकर एक राजकीय बंदी होता है । नाथू की रूखी सूखी रोटी स्वीकार्य थी क्योंकि वह सहज थी । राजकीय उपहार कभी भी सहज नहीं होता ।
शेख़ नसीरुद्दीन के पूर्ववर्ती चिश्ती बुज़ुर्गों ने भी यही किया था । हज़रत शेख़ फ़रीद गंज ए शकर ने ग़यासुद्दीन बलबन द्वारा उपहार में दिये गए चार गावों की भेट अस्वीकार कर दी थी । हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और उनके मुरीद जब कठिन समय से होकर गुज़र रहे थे उस समय सुल्तान जलालुद्दीन ने एक गाँव के अनुदान कि पेशकश की थी , लेकिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने यह अनुदान अस्वीकार कर दिया था ।
सुल्तान मुबारक शाह ख़िलजी तक आते आते परिस्थितियां बहुत ज़्यादा प्रतिकूल हो चली थीं । ख़िज़्र ख़ान, जिसका ग्वालियर के क़िले में उसने क़त्ल करवा दिया था, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मुरीद था। हालांकि हज़रत शहज़ादों और उनकी आंतरिक राजनीति से कोई मतलब नहीं रखते थे परंतु दुर्भाग्यवश हज़रत का ही एक मुरीद शेख़ज़ादा जाम, जिसकी तरबियत हज़रत की ख़ानक़ाह में हुयी थी, हज़रत के ख़िलाफ़ बादशाह को भड़का रहा था और खुद को हज़रत का विरोधी समझने लगा था । उसने बादशाह से हज़रत कि चुग़ली करनी शुरू कर दी । कहते हैं कि शेखज़ादा जाम की दुआओं कि बदौलत ही मुबारक शाह को राजगद्दी मिली थी । हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया इस तरह की दुआओं कि पेशकश अस्वीकार कर देते थे । इस प्रकार एक रंजिश दूसरी रंजिश से मिलती चली गयी और मुबारक शाह के हृदय में हज़रत के लिए कड़वाहट बहुत बढ़ गयी । उसने एक विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया जिसका नाम उसने मस्जिद ए मीरीं रखा । उसकी ख़्वाहिश थी कि हज़रत जुमे कि नमाज़ इस मस्जिद में पढ़ें परंतु हज़रत ने वहाँ जाने से इंकार कर दिया और पहले कि तरह ही ख़ानक़ाह के पास स्थित किलोखड़ी मस्जिद में जाते रहे । दोनों में तकरार इतनी बढ़ गयी कि हज़रत को दरबार में पेश होने का हुक्म जारी कर दिया गया । शेख़ के जामआत ख़ाने में खलबली मच गयी मगर हज़रत शांत थे । वह सीधा अरचनी अपनी माई साहिबा कि दरगाह पर गए और प्रार्थना की । उनकी आँखों में आँसू थे । हज़रत की दुआएं रंग लाईं और दरबार में पेशी से ठीक एक दिन पहले मुबारक शाह को उसके अपने ही महल में क़त्ल कर दिया गया ।
मुहम्मद बिन तुग़लक़ की ताजपोशी के बाद परिस्थितियों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुये । सुल्तान, बाबा फ़रीद के पोते शेख़ अलाउद्दीन अजोधनी का मुरीद था । शेख़ अलाउद्दीन ने अपना पूरा जीवन अपने घर और दादा की दरगाह के बीच गुज़ार दिया । उन्होने कभी किसी को अपना मुरीद नहीं बनाया । वह बाबा फ़रीद कि दरगाह पर ही कुलाह और ख़िर्क़ा पेश करते थे और लोगों को दे दिया करते थे । शेख़ अलाउद्दीन को बादशाह और उच्च पदाधिकारियों से सख़्त चिढ़ थी । एक बार जब शेख़ रुकनुद्दीन दिल्ली दरबार से होकर मुल्तान जा रहे थे और बीच में अजोधन आए तो शेख़ अलाउद्दीन ने उनसे मुलाक़ात तो की पर मुलाक़ात के बाद घर जाकर उन्होने स्नान किया और कपड़े बदले । फरमाया – यह आदमी मेरी ख़ानक़ाह में दरबार की गंदगी ले आया !
हज़रत अलाउद्दीन की शिक्षाओं का मुहम्मद बिन तुग़लक़ की नीतियों पर कोई असर नज़र नहीं आता । बादशाह अपने पूर्व के तमाम बादशाओं से ज़्यादा सख़्त और क्रूर था । क़ाज़ियों और उलेमाओं के लिए भी उसकी नीतियाँ बहुत सख्त थीं ।
उसने आदेश ज़ारी किया कि सूफ़ी अपना खिर्क़ा छोड़कर रेशमी लबादा धारण करें । सियर उल औलिया के अनुसार बाबा फ़रीद के सारे वंशज राजकीय कार्यों में शामिल हो गए । सैयद महमूद किरमानी जो बाबा फरीद के प्रिय मुरीद थे, उनके बच्चों ने भी आधिकारिक पद हासिल किए । लेकिन बाद में जब दक्कन में मुहम्मद शाह तुग़लक के साम्राज्य का पतन हुआ तो इन सब की हालत दयनीय हो गयी । इनका सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन बर्बाद हो गया । समकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बर्नी के शब्दों में – सांसरिक इच्छाओं का इस्पात इनके हृदय के भीतर गहरा समा चुका था ।
दूसरी तरफ़ अमीर ख़ुर्द जैसे लोग थे जो पुनः आध्यात्मिक पथ पर लौट आए ।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के सिर्फ तीन ख़लीफ़ा थे जिन्होंने सुल्तान की नीतियों को अनदेखा करने का साहस किया । वह थे – शेख़ शम्सुद्दीन याहया, शेख़ क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर एवं शेख़ नसीरुद्दीन महमूद। सत्ता और ख़ानक़ाहों के बीच इस जंग की चिंगारी शेख़ नसीरुद्दीन पर गिर पड़ी ।
सबसे पहले हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के सबसे उम्रदराज़ ख़लीफ़ा शेख़ शम्स अल दीन याहया को दरबार में बुलाया गया । आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? आप कश्मीर जाएँ और वहाँ पर इस्लाम का प्रचार करें ! सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने कहा ।
ग़ैर मुसलमानों को इस्लाम में दाख़िल करना अब सिलसिला चिश्तीया की नीतियों में नहीं है । सुल्तान उल मशायख़ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने भी किसी का धर्म परिवर्तन नहीं करवाया । शेख़ शम्स अल दीन ने जवाब दिया ।
शेख़ शम्स अल दीन ने चूंकि कश्मीर जाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई इसलिए सुल्तान ने अपने अधिकारियों को निर्देश दिया कि शेख़ को दिल्ली से कश्मीर ले कर जाया जाये । उसी रात शेख़ शम्स अल दीन ने ख्व़ाब में देखा कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया उन्हें अपने पास बुला रहे हैं । उनकी पीठ में एक फोड़ा निकल आया । सुल्तान को जब यह बात पता चला तो उसे लगा कि शेख़ बहाना बना रहे हैं । उसने शेख़ को पालकी में बुला भेजा । जब उसे यकीन हो गया कि शेख़ के पास अब सिर्फ चंद दिन ही शेष हैं तो उसने हज़रत को अपना आख़िरी समय शांति पूर्वक दिल्ली में ही गुज़ारने की इजाज़त दे दी ।
अब बारी शेख़ नसीरुद्दीन की थी ।
सुल्तान ने क़रीब 3,70,000 घुड़सवारों कि सेना ख़ुरासान पर आक्रमण के लिए तैयार रखी थी । फ़ारस के सुल्तान अबू सैयद की मृत्यु के पश्चात ख़ुरासान का राज्य कमज़ोर पड गया था और बहुत से बादशाह उस तख़्त पर आँखें गड़ाए बैठे थे । सुल्तान को अपेक्षा थी कि शेख़ नसीरुद्दीन उससे मशवरा करेंगे लेकिन शेख़ ने राजकीय मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । सुल्तान अपने इस अभियान के लिए प्रजा की सहमति जुटा रहा था और यही कारण था कि शेख़ को अपने विश्वास में लेना उसकी मजबूरी बन गयी थी ।सुल्तान ने शेख़ को दरबार में बुलवाया । शेख़ दरबार में गए पर उन्होने अपना मन बना लिया था कि इस बार बादशाह की ऐसी बेइज़्ज़ती की जाये जैसी पूर्व में किसी बादशाह की नहीं हुयी ।
बादशाह शेख़ का स्वागत करने के लिए तैयार बैठा था लेकिन उसे शायद मालूम नहीं था कि इस दफ़ा उसका पाला ऐसे सूफ़ी से पड़ा है जो अलग ही मिट्टी का बना है ।
उसने शेख़ को अपनी दाहिनी तरफ़ आसन पर बैठाया और अपनी योजनाएँ बतानी शुरू कीं लेकिन शेख़ तो आज सब कुछ अनसुना करने का इरादा करके आए थे ।
‘’मैं ख़ुरासान पर आक्रमण करना चाह रहा हूँ । मैं चाहता हूँ कि इस महत्वाकांक्षी अभियान में आप भी मेरे साथ चलें !”
इंशाअल्लाह !(अगर खुदा ने चाहा !)- शेख़ ने जवाब दिया ।
सुल्तान को यह जवाब नकारात्मक लगा क्योंकि यह मुहावरा चीजों को टालने के लिए भी उपयोग किया जाता है । शेख़ और सुल्तान दोनों विद्वान थे । दोनों के बीच इस मुहावरे को लेकर बहस होने लगी और धीरे धीरे वहाँ का माहौल बिगड़ने लगा । आख़िरकार शेख़ ने यह कहकर इस बहस को ख़त्म कर दिया कि कोई भी योजना इस मुहावरे के बिना पूरी नहीं हो सकती । यह स्वीकारोक्ति है, नकारात्मक जवाब नहीं !
अपने इस मेहमान का बर्ताव सुल्तान के लिए एक पहेली से कम न था । उसने शेख़ को भोजन का निमंत्रण दिया । शेख़ से पहले किसी चिश्ती शेख़ ने बादशाह के साथ भोजन नहीं किया था ।
भोजन के बीच में ही सुल्तान ने शेख़ से आग्रह किया – मुझे कृपया कुछ ऐसी सलाह दें जिस पर मैं अमल कर सकूँ !
शेख़ नसीरुद्दीन ने जवाब दिया – अपने नफ़्स पर अधिकार कर चुकी जंगली वासनाओं के जानवर से ख़ुद को मुक्त करो !
सुल्तान बुरी तरह चिढ़ गया । वह हज़रत का सिर क़लम करने का आदेश दे सकता था, लेकिन इस कार्य के लिए उसने उन्हें नहीं बुलाया था । इधर शेख़ पूरी तरह निर्भीक थे जैसे कि आज सब कुछ समाप्त करने का इरादा करके आए हों ! आगे वार्तालाप संभव नहीं था ।
जब बादशाह और शेख़ भोजन समाप्त कर चुके तब सुल्तान के आदेशानुसार टंकों की एक थैली, और दो रेशमी कपड़ों की थान हज़रत के समक्ष रखे गए, लेकिन हज़रत ने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया । उस वक़्त ख़्वाजा निज़ाम नाम का हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का एक मुरीद जो बादशाह का सेवादार था आगे आया । उनसे शेख़ के जूते उठाकर उनके पैरों से पास रखे । वह उपहारों को उठाकर बाहर ले गया और शेख़ के ख़ादिम को सौंप दिया जिसने दिल्ली के ग़रीबों में बांटने के लिए यह उपहार रख लिए । उसने वापस आकर शेख़ की क़दमबोसी की और बादशाह के पास आकर खड़ा हो गया ।
बादशाह क्रोध से बिलबिला उठा । मूर्ख ! तुमने मेरे सामने इन उपहारों और शेख़ के जूतों को छूने की हिम्मत कैसे की ? सुल्तान का हाथ अपनी तलवार पर चला गया ।
क्या मैंने उपहारों को नहीं उठाया ? ख़्वाजा निज़ाम जो आज शहीद होने का मन बना चुका था कहने लगा – शेख़ इन उपहारों को कभी नहीं छूते और यह आपकी दुलचा (क़ालीन) पर ही पड़े रहते ! जहां तक जूते उठाने की बात है तो ये मेरे लिए सम्मान की बात है । अगर आप मुझे क़त्ल करना चाहते हैं तो मैं तैयार हूँ । इससे मुझे आपकी यातनाओं से मुक्ति ही मिलेगी । हमें यह बताया जाता है कि सुल्तान ने अपने इस सेवादार को कोई दंड नहीं दिया ।
एक सूफ़ी पूरी सल्तनत के ख़िलाफ़ खड़ा था ।
इसके दुष्परिणाम होने थे सो हुये । मुहम्मद तुग़लक़ ने निश्चय किया कि सूफ़ियों से दरबार के कार्य कराये जाएँ । शेख़ नसीरुद्दीन को बादशाह के दरबार में जाने से पूर्व उसकी दस्तार बांधने का कार्य सौपा गया । शेख़ ने यह करने से मना कर दिया और इसके परिणाम स्वरूप उन्हें जेल में बंद कर दिया गया । हालांकि कुछ ही समय बाद उन्हें आज़ाद कर दिया गया ।
ख़्वाजा क़िवामुद्दीन जो शेख़ के मुरीद थे और सरकारी नौकरी करते थे उन्होने स्वीकारा है – मैं एक बहुत ही मुश्किल वक़्त से गुज़रा । मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। जब मैं अपने दोस्तों से बात करना चाहता था तो वह अपना मुंह फेर लेते थे । मैं बाज़ार मे जब कुछ बेचने जाता था तो कोई उसे ख़रीदता नहीं था । परिस्थितियों ने मुझे पूरी तरह असहाय बना दिया था ।
सिर्फ़ एक ही व्यक्ति उन्हें अपना सकता था और वह थे शेख़ नसीरुद्दीन । क़िवामुद्दीन को जामआत ख़ाने में बुलाया गया । लेकिन उससे पहले कि वह अपनी समस्या शेख़ से कह पाता शेख़ ने फ़रमाया –
Duniya cho muqaddar ast nakharoshi beh, Rizq-e-toa rasad kum-o-beshi-beh.
Cheez-e-ke nami kharand nafaroshi beh, Gufta toa nami kunund khamoshi beh
हर चीज़ नियति ने पहले ही तय कर रखी है । नियति पर शोर मचाना उचित नहीं है । तुम्हारा रोजगार तुम तक उचित समय पर पहुँच जाएगा। अगर लोग कुछ नहीं ख़रीदना चाहते तो बेहतर है कि उन्हें न बेचा जाये । अगर वह तुमसे बात नहीं करते तो बेहतर है कि ख़ामोश रहो !
क़िवामुद्दीन लिखते हैं – शेख़ ने मेरा मन पढ़ लिया था और बिना कहे मेरी समस्या का समाधान भी कर दिया था । शेख़ ने जो कुछ फ़रमाया वही मेरे मन मे भी चल रहा था ।
शेख़ को बंदी बनाए जाने के बारे में किसी दस्तावेज़ में उल्लेख नही है । ख़ैर उल मजालिस में शेख़ ने मुहम्मद शाह तुग़लक़ का कोई ज़िक्र नहीं किया है न उन दिनों का कोई उल्लेख आया है । उनके मन में किसी के लिए कोई दुर्भाव नहीं था । बादशाह आते रहते हैं और जाते रहते हैं । उनके विषय में सोचना व्यर्थ है । केवल ख़ुदा ही स्थायी है । जो आज ख़ुदा है, कल भी वही ख़ुदा होगा।
अमीर ख़ुर्द जो उस वक़्त दक्कन में सरकारी मुलाज़िम था लिखता है – अपने शासन के शुरुआती दिनो में सुल्तान ने शेख़ को ख़ूब घाव दिये । आम जनता शेख़ का बहुत आदर करती थी पर एक बार जब शेख़ से पूछा गया कि आपने सुल्तान का विरोध क्यूँ नहीं किया तो उन्होने फ़रमाया – यह मेरे और ख़ुदा के आपस की बात है । उन्होने इस बात को कभी तूल नहीं दिया ।
अपनी बादशाहत के आखिरी दिनों में सुल्तान मुहम्मद शाह तुग़लक़ ठट्टा गया और बिना किसी ज़रूरत के उसने दिल्ली के कई सूफ़ियों को भी अपने साथ चलने का आदेश दिया जिसमे शेख़ नसीरुद्दीन भी थे । उन्हें 2000 मील का सफ़र तय करना पड़ा । ठट्टा पहुँचने से चौदह कोस पहले ही सिंध नदी के किनारे बादशाह का निधन हो गया । बादशाह के आकस्मिक निधन से सेना का हौसला टूट गया। एक तरफ से सिंधी और दूसरी तरफ से मंगोलों का हमला हो रहा था । ऐसे में शेख़ नसीरुद्दीन ने अगुआई कर फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ को बादशाह बनाने का प्रस्ताव रखा । फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के बादशाह घोषित होते ही सेना कि स्थिति पुनः सुधर गयी । 1353 AD में ठट्टा से वापस आकर शेख़ ने पुनः ख़ानक़ाह में फ़न ए शेख़ी का कार्यभार सम्हाल लिया । उनके जमआत ख़ाने में हर तरह के लोगों की भीड़ रहती थी और ऐसा महसूस होता था कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दोबारा जीवित हो गए हों । फ़वाईद उल फ़ुवाद में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की मजलिसों से जो ख़ुशबू आती है वही ख़ुशबू ख़ैर उल मजालिस मे शेख़ नसीरुद्दीन की मजलिसों में से आती है ।
हमारे लिए यह सौभाग्य का विषय रहा कि किलोखरी के मौलाना ताजुद्दीन के बेटे हामिद क़लंदर ने शेख़ से उनकी मजलिसों को एकत्र करने कि गुज़ारिश की जिसे शेख़ ने ख़ुशी ख़ुशी मान लिया । मौलाना ताजुद्दीन और उसका बेटा हामिद दोनों शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद थे जिन्होने एक बार पिता से कहा था – तुम्हारा बेटा क़लंदर बनेगा । शुरुआत मे हामिद पहले दक्कन गया जहां वह शेख़ बुरहानुद्दीन ग़रीब के मलफ़ूज़ात पर काम कर रहा था लेकिन feb 1341 में शेख़ का विसाल हो जाने की वजह से वह काम अधूरा रह गया । 12 साल बाद हामिद ने शेख़ नसीरुद्दीन से उनकी 100 मजलिसों का संग्रह करने की इजाज़त मांगी जो शेख़ ने ख़ुशी ख़ुशी दे दी । हामिद इस किताब में लिखता है – मैंने मजलिसों का संग्रह सही सही किया है और शेख़ ने मेरी इस किताब को पढ़ा है । शेख़ के देहांत के पश्चात हामिद ने इस किताब मे उनका एक संक्षिप्त जीवनवृत भी जोड़ दिया ।हामिद लिखता है – पूरे संसार का दर्द शेख़ नसीरुद्दीन के हृदय मे दिखता है ।
शेख़ नसीरुद्दीन फ़रमाते है – किसी सूफ़ी सिलसिले के ख़लीफ़ा के लिए तीन चीज़ें आवश्यक है –
1. धन – ताकि वह ज़रूरतमन्द लोगों की मदद कर सके ! आज कल ख़ानक़ाह में आने वाले क़लंदर शर्बत मांगते हैं । अगर दरवेश के पास कुछ नहीं होगा वह दूसरों को कैसे कुछ दे पाएगा ।
( ख़ैर उल मजालिस में इस विषय पर हज़रत एक कहानी सुनाते हैं – शेख़ नजीब अल दीन मुतवक्किल एक बार नमाज़ पढ़कर वापस लौट रहे थे । लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर रखा था और लोग दस्त बोसी और क़दमबोसी कर रहे थे । उस तरफ़ से मलंगों का एक समूह गुज़रा । यायावर मलंगों ने पहले शेख़ को नहीं देखा था। उन्होने लोगों से पूछा – यह कौन शेख़ हैं जिनके पास लोगों की भीड़ लगी हुयी है ? लोगों ने बताया – यह शेख़ नजीब अल दीन मुतवक्किल हैं । मलंगों ने कहा – यह बड़े सूफ़ी संत मालूम पड़ते हैं । हम इनकी कंदूरी में भोजन करेंगे ! शेख़ ने फरमाया – मरहबा ! मलंग उनके साथ आ गए । शेख़ का एक कमरे का बहुत छोटा घर था । शेख़ अपनी पत्नी के साथ ऊपर हरम में रहते थे । शेख़ हरम में पहुंचे और अपनी पत्नी से कहा – मलंग आए हैं । क्या हमारे घर में खाने को कुछ है ?
पत्नी ने जवाब दिया – आप घर के मालिक हैं । ढूंढिए ! अगर आपने कुछ दिया हो तो उसकी मांग करें !
शेख़ ने कहा – मुझे अपना लहँगा दे दो ताकि मैं उसे बाज़ार में बेच कर कुछ रोटियाँ और यख़नी ले आऊँ । शेख़ की पत्नी ने अपना लहँगा लाकर उन्हें दे दिया । लहँगा फटा हुआ था और जगह जगह से उसे सिलकर किसी तरह पहनने लायक़ बनाया गया था । शेख़ ने उसे देखकर कहा – यह कोई नहीं खरीदेगा । शेख़ ने फिर अपने कपड़ों पर नज़र डाली, वह भी उससे बेहतर न थे ! शेख़ बाहर आ गए । उन दिनों रिवाज यह था कि अगर मेज़बान के घर में खाने को कुछ नहीं है तो वह एक ग्लास में पानी लेकर मजलिस में सबसे पीछे खड़ा हो जाता था । शेख़ ने भी ऐसा ही किया । मलंग दिल के भले थे । उन्होने सारा हाल समझ लिया । वह उठे और थोड़ा थोड़ा पानी पीकर सब चले गए । )
2.ज्ञान – ताकि अगर विद्वान उसकी ख़ानक़ाह पर आयें तो वह उनसे विभिन्न विषयों पर बात कर सके ।
3. जज़्बा –ताकि वह दरवेशों को प्रोत्साहित कर सके.
लेकिन शेख़ नसीरुद्दीन का मानना था कि धन ज़रूरी नहीं । ज्ञान और जज़्बा पर्याप्त हैं । शेख़ का मानना था कि एक दरवेश में दो ख़ूबियाँ होनी चाहिए –एक तो यह कि वह हर इंसान के हृदय के भीतर झांक सके और दुखी आत्माओं को राहत पहुंचा सके और दूसरी यह कि उसका अनुभव क्षेत्र इतना विशाल हो कि हर मनुष्य की परिस्थितियों को समझ सके । पहले के सूफ़ी संत ख़ूब भ्रमण करते थे लेकिन चिश्ती संतों ने हिंदुस्तान मे आने के पश्चात भ्रमण का त्याग कर दिया । बाबा फ़रीद कभी हिंदुस्तान से बाहर नहीं गए । हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया भी बदायूं, दिल्ली और अजोधन के अलावा कहीं नहीं गए । शेख़ नसीरुद्दीन ने भी सिंध की अवांछनीय यात्रा को छोडकर दिल्ली और अयोध्या के अलावा कहीं का सफ़र नहीं किया ।
ख़ानक़ाह आने वाले दानिशमंद चाहे कुछ कहें या न कहें शेख़ को उनके दिल का हाल पता चल जाता था । ख़ैर उल मजालिस की 65 वीं महफिल में हामिद लिखता है – एक दरवेश ख़ानक़ाह में आया । उसके साथ किसी ने बुरा बर्ताव किया था । शेख़ ने फ़रमाया – दरवेश ! धैर्य रखो ! अगर किसी ने तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव किया है तो तुम दरवेशों की तरह व्यवहार करो और उसे माफ़ कर दो ! पर दरवेश जब संतुष्ट नहीं हुआ तब शेख़ ने फ़रमाया – दरवेशी का मार्ग यही है जो मैंने कहा है आगे तुम बेहतर जानते हो !
शेख़ नसीरुद्दीन अब वृद्ध हो चले थे । ख़ानक़ाह के दरवाज़े 24 घंटे लोगों के लिए खुले रहते थे परंतु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दिनचर्या का अनुसरण करना अब मुश्किल हो चला था । हामिद लिखता है की सुबह जब वह शेख़ से मिलने जाता था तो उनकी हालत शिकस्ता होती थी। एक दिन का ज़िक्र आया है जब हज़रत ने क्या कहा वह हामिद की समझ में नहीं आया ।
हामिद के साथ एक वार्तालाप से हमें शेख़ की अवस्था का पता चलता है –
उसके बाद शेख़ ने एक आह भरी ! मैं और तुम ! हम ऐसे भूखे दरवेश की तरह हैं जो एक रसोइये की दुकान के पास होकर गुज़रता है । वह दुकान मे लज़ीज़ पकवानों को देखता है। वह रुकता है और कहता है – कम से कम जिसके पास भोजन है उसे तो खाना चाहिए ! अब मेरे पास भक्ति और साधना के लिए वक़्त नहीं बचता । मुझे लगातार लोगों से मिलना होता है और मैं दोपहर को भी आराम नहीं कर सकता । कभी कभी मैं दिन में आराम करने की कोशिश करता हूँ लेकिन तभी ये मुझे जगा देते हैं कि कोई आगंतुक आया है ! उठ जाइए ! हामिद तुम्हारे पास वक़्त है तुम अपना समय साधना में क्यूँ नही लगाते ?
मैंने जवाब दिया – लोगों के साथ बात करते हुये भी क्या हृदय को ईश्वर के साथ जोड़कर रखा जा सकता है ?
रात को मुझे साधना और पढ़ने का थोड़ा समय मिलता है, लेकिन दिन में तो यह लगभग नामुमकिन है । मैंने फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ी है ।
ख़ैर उल मजालिस किताब पूरी होने के कुछ ही समय बाद शेख़ पर एक जानलेवा हमला हुआ । एक क़लंदर जिसका नाम तुराब था वह हज़रत के कमरे में घुस आया जब हज़रत हुजरे में अकेले थे । उसने हज़रत पर चाक़ू से ग्यारह घाव किए । हज़रत के शरीर मे कोई हरकत नहीं हो रही थी । जब खून बहता हुआ हुजरे में पानी की नाली से बाहर आने लगा तो हज़रत मे मुरीदों को आशंका हुई । जब वह कमरे में दाखिल हुये तब क़लंदर हज़रत के पास ही था । क़लंदर को वहीं सज़ा दी जा सकती थी लेकिन शेख़ ऐसा करने कि इजाज़त नहीं देते । उन्होने अपने ख़ास मुरीद क़ाज़ी अब्दुल मुक़्तदिर (थानेश्वर ) के साथ हकीम शेख़ सदरुद्दीन और अपने भांजे ज़ैनुद्दीन अ’ली को बुलवाया और उनसे कहा कि मुरीदों से यह क़सम लें कि उनमे से कोई इस क़लंदर को नुक़सान नहीं पहुंचाएगा । उन्होने क़लंदर से कहा – तुम्हारे छुरे ने कहीं तुम्हारा हाथ तो घायल नहीं किया ? उन्होने क़लंदर को बारह टंके दिये और उसे जल्दी से वहाँ से चले जाने का निर्देश दिया । इस घटना के क़रीब तीन साल के बाद शेख़ नसीरुद्दीन ने 18 रमज़ान 1356 AD को इस जहां ए फ़ानी को अलविदा कह दिया ।
यह कहना सही नहीं है कि शेख़ ने ख़िलाफ़त नामा किसी को नहीं दिया । हामिद ने मौलाना हिसामुद्दीन को ख़िलाफ़त नामा दिये जाने का उल्लेख किया है । लेकिन लोगों ने उम्मीद की थी कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की तरह शेख़ नसीरुद्दीन भी कई मुरीदों को ख़िलाफ़त नामा देंगे । उनके भांजे ज़ैनुद्दीन अली ने हज़रत से आग्रह किया की लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि उनके बाद चिश्ती सिलसिले का अग्रणी ख़लीफ़ा कौन होगा । ज़ैनुद्दीन अली ने मुरीदों कि एक सूची बनाई और उसे हज़रत के समक्ष पेश किया । हज़रत ने यह सूची देखकर ही उन्हें वापस लौटा दी । उन्होने फ़रमाया – मौलाना ज़ैनुद्दीन ! उन्हें अपने दीन का बोझ उठाना है , उनके लिए यह संभव नहीं है कि वह दूसरों का बोझ उठाएँ ।
इसके बाद हामिद लिखता है –
शेख़ नसीरुद्दीन ने यह वसीयत की कि मुझे दफ़्न करते समय मेरे मुरशिद शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया का ख़िर्क़ा मेरी छाती पर रख दिया जाये, मेरे मुरशिद की तसबीह (सिमरनी ) मेरी उँगलियों में डाल दी जाएँ । उनका कशकोल मेरे सिर के नीचे रखा जाये, उनके जूते मेरे बग़ल में रख दिये जाएँ और उनका असा मेरे बग़ल में लिटा दिया जाये !
नमाज़ ए जनाज़ा के वक़्त जो लोग थे उन्होने उनकी इस इच्छा पर अमल किया । सय्यद मुहम्मद गेसू दराज़ ने हज़रत के पार्थिव शरीर को स्नान करवाया । जिस चारपाई पर लिटा कर हज़रत के पार्थिव शरीर को स्नान करवाया गया था उसी के कुछ धागे तोड़ कर हज़रत गेसू दराज़ ने अपने गले में लपेट लिया और ऐलान किया कि मेरे लिए यही सबसे बड़ा ख़िर्क़ा है ! हज़रत की नमाज़ ए जनाज़ा भी ख़्वाजा गेसू दराज़ बंदा नवाज़ ने ही पढ़ी ।
बगुज़ार ता बगोयम चूँ अब्रे नौ बहाराँ
कज़ संग गिर्या आयद रोज़े विदाअ याराँ
( मुझे छोड़ दे कि मैं बसंत के मेघ की भांति रोऊँ क्योंकि मित्र से विदाई के समय पत्थर को भी रोना आ जाता है ! )
नोट – शेख़ नसीरुद्दीन को चिराग़ ए दिल्ली कहे जाने के पीछे कई कहानियाँ प्रचलित है –
1.सबसे मशहूर क़िस्सा सुल्तान ग़यासुद्दीन तुग़लक़ और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के बीच विवाद का है । हज़रत ने चबूतरा ए याराँ के पास एक बाउली बनवाने का आदेश दिया, जिसमे दिल्ली की जनता ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । जब बादशाह को यह ख़बर लगी तो उसने लोगों को काम करने से माना कर दिया । लोगों की अक़ीदत हज़रत से इतनी ज़्यादा थी कि लोग रात में बाउली का काम करने लगे । सुल्तान के कानों मे जब यह ख़बर पहुंची तो उसने शहर में तेल कि बिक्री पर रोक लगा दी । हज़रत ने आदेश दिया कि चिराग़ों में पानी भर कर जलाया जाये । शेख़ नसीरुद्दीन ने इसकी शुरुआत की और चमत्कार की तरह पानी से ही चिराग़ जल उठे । हज़रत ने शेख़ नसीरुद्दीन से कहा – तुम तो चिराग़ ए दिल्ली हो !
2.हज़रत की ख़ानक़ाह में कुछ मलंग आए हुये थे । शेख़ नसीरुद्दीन को भी बुलाया गया । वहाँ पहुँचकर शेख़ ने अर्ज़ किया कि वह अगर बैठते हैं तो उनकी पीठ मलंगो की ओर हो जाएगी । इसपर हज़रत ने फ़रमाया – चिराग़ की कोई पीठ नहीं होती वह सब तरफ़ से रोशनी देता है ।
3. ख़्वाजा मख़दूम ए जहानियाँ जहांगश्त एक बार मक्का पहुंचे । वहाँ उनकी मुलाक़ात एक सूफ़ी से हुयी जिसने बातों बातों में उनसे कहा कि अभी शेख़ नसीरुद्दीन चिराग़ ए दिल्ली हैं ।
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