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कबीर और शेख़ तक़ी सुहरवर्दी

सुमन मिश्रा

कबीर और शेख़ तक़ी सुहरवर्दी

सुमन मिश्रा

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    कबीर भारतीय संस्कृति के एक ऐसे विशाल वट वृक्ष हैं जिसकी छाया में भारतीय संस्कृति, दर्शन एवं परंपरा को फलने फूलने का अवसर मिला तथा जिसकी इस शीतल छाया के कारन ही भारतीय संस्कृति धर्मान्धता की प्रचंड गर्मी से बची रही और आपसी भाईचारे, धर्म-सहिष्णुता एवं मानव मूल्यों के महत्व को जान पायी, उसे अंगीकार कर पायी.

    कालचक्र जैसे जैसे आगे बढ़ता जा रहा है,कबीर का दर्शन और उनकी शिक्षाएं और भी नूतन और प्रासंगिक होती जा रही हैं .एक कुशल जुलाहे की तरह कबीर ने जो ताना-बाना बुना है , उसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ता .कबीर की रचनाएं ही हैं जिनसे हमे उनके विषय में जानकारी मिलती है . बाकी का पूरा इतिहास कयासों एवं मिथ्या आरोपों से भरा है जो समाज के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा कबीर पर मढ़े गए.

    रहनुमा हिन्द के लेखक नारायण प्रसाद वर्मा लिखते हैं

    कबीर की सवाने उमरी एक मुख़फ़ी इसरार है . हम उनके दौरान ज़िन्दगी के हालात से बिलकुल नावाकिफ हैं.

    कबीर के जन्म से लेकर मृत्यु तक कई अवधारणाएं प्रचलित हैं. कबीर पंथी साहित्य के अनुसार सत्य पुरुष का तेज काशी के लहर तालाब में उतरा था (कबीर चरित्र बोध) अथवा उस ताल में पुरइन के एक पत्ते पर पौढा हुआ बालक नीरू जुलाहे की पत्नी को काशी नगर के समीप ( सं.- अनुराग सागर ) मिला था जो आगे चलकर कबीर के नाम से विख्यात हुआ .वहीं बनारस डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर के अनुसार कबीर आज़मगढ़ जिले के बेलहरा गाव में पैदा हुए थे. आज भी पटवारी के कागज़ों में बेलहरा अथवा बेलहर पोखर लिखा मिलता है. साथ ही साथ वहां पर जुलाहों की बस्ती के भी अवशेष मिलते हैं. (सं.- विचार विमर्श -चन्द्रबली पाण्डेय- हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, सं. २००२, पृष्ठ 5.)

    इसी प्रकार कबीर की मृत्यु के विषय में भी काफी विवाद है. कबीर स्पष्ट शब्दों में अपने आप को काशी का जुलाहा कहते हैं . कबीर की मृत्यु के संबंध में भी अनेक अवधारणाएं प्रचलित हैं . इनकी स्वयं की रचनाओं से यह विदित है कि इन्होने अपना लगभग सारा वक़्त काशी में बिताया और मृत्यु से कुछ समय पूर्व मगहर गए यथा

    मरती बार मगहर उठि आइया.

    अथवा मरनु भइया मगहर को बासी

    अथवा जउ तुनु काशी तजहि कबीरा, रमईये कहाँ निगोरा .

    कबीर कि दो समाधियाँ जगन्ननाथ पुरी एवं रतनपुर(अवध )में भी विद्यमान हैं. इन दोनों समाधियों का उल्लेख आइना अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने किया है. विशेष कर रतनपुर वाली समाधि की चर्चा खुलासा उत तवारीख़ (दिल्ली पेज -४३) तथा शेर अ’ली की किताब आराइश महफ़िल (विचार विमर्श , पृष्ठ 93) के आधार पर कहा जाता है कि-

    कबीर मुलालमानी तौर तरीके से दफनाए ज़रुर गए लेकिन मगहर में नहीं —(उनका ) शव रतनपुर में दफनाया गया .

    मगहर कि कब्र को सच्ची ना मानने का एक कारण धनी धरमदास जी एक पद है

    खोदि के देखि कबर

    गुरु देह पाइया

    पान फूल लै हाथ

    सेन फिर आइया

    इस पद के अनुसार वीर सिंह बघेल को उक्त समाधि में कबीर साहब का शव प्राप्त नहीं हुआ था. ऐसा प्रतीत होता है कि उनके शिष्यों ने उनका शव पहले ही निकाल कर कहीं अन्यत्र दफना दिया था.

    एक अन्य परम्परा के अनुसार कबीर साहब द्वारा मरने से पहले एक चादर ओढ़ लेने का ज़िक्र आता है और उसके उठाये जाने के समय उनके हिन्दू मुसलमान शिष्यों का उपस्थित होना भी बताया जाता है .

    इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर के जन्म काल और मृत्यु के समय निर्णय का प्रयास बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गया था और प्रायः वैसे ही प्रमाण भी प्रस्तुत किये जाने लगे .यही कारण है कि इनके पूर्व जीवन या केवल जन्म-मृत्यु का पता देने वाले कम से कम चार मत प्रमुख रूप से दिखाई पड़ते हैं

    1. जन्म काल को संवत 1575 में ठहराकर अलग अलग जन्म संवत बताने वालों का मत

    2. मृत्यु काल को संवत 1505 या 1507 में निश्चित बताकर अनुमान लगाने वालों का मत

    3. मृत्यु काल को संवत 1552 या 1551 में निश्चित बताकर अनुमान लगाने वालो का मत

    4.जन्म एवं मृत्यु अथवा पूरे जीवन काल को ही भिन्न भिन्न संवतों के मध्य स्थिर करने वालों का मत

    इन सबके अतिरिक्त एक अन्य मत उन कबीर पंथियों का कहा जा सकता है जो कबीर साहब को अजर-अमर मानते हुए उनका हर युग में किसी किसी रूप में वर्तमान होना बताते हैं.

    कबीर का किसी किसी रूप मे परिचय देने वाली आज तक कि उपलब्ध सामग्रियों को हम निम्न वर्गों में विभाजित कर सकते हैं.-

    1. कबीर एवं उनके समकालिक संतों यथा सेन नाई, धन्ना , रैदास, पीपाजी, कमाल आदि के फुटकर उल्लेख .

    2. कबीर के परवर्ती संतों यथा- नानक ,मीरा बाई, अमर दास , मलूक दास, व्यास जी, रज्जब, दरिया, दादु, ग़रीब दास आदि कि वाणियों में उपलब्ध विविध संकेत .

    3. कबीर पंथी रचनायें जैसे- अमरसुख निधान, अनुराग सागर, निर्भय ज्ञान, द्वादश पंथ, भवतारण, कबीर कसौटी, कबीर परिचय इत्यादि जिनमे इनकी स्तुति के साथ साथ चमत्कारों एवं पौराणिक उल्लेख भी देने की चेष्टा की गयी है.

    4. वह ग्रन्थ जिनमे भक्तों के गुणगान के साथ साथ उनका संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है जैसे- नाभादास, मुकुंद कवि आदि की भक्तमालें , अनन्तदास की परचयी, रघुराज सिंह की राम रसिकवली, भक्तमाल की टीकाएँ, ग़ुलाम सरवर की ख़ज़ीनतुल अशफिया, मम्बा उल अनसाब आदि .

    5. वे ऐतिहासिक ग्रन्थ जिनमे प्रसंगवश महापुरुषों की सामान्य आलोचना एवं परिचय मिलता है.यथा -अबुल फज़ल की आइना अकबरी, मोहद्दस देहलवी की अख़बार उल अख्यार, खुलासा उत्त तवारीख़ , वील एवं डॉ. क्युर्ट आदि की किताबें .

    6. उन इतिहास ग्रंथों के विवरण जिनके रचियता इन्हें किसी ख़ास संप्रदाय से सम्बद्ध मानकर चलते हैं यथा डॉ. भंडारकर , मेकेलिफ, वेस्टकार्ट , फर्कुहर, की, विल्सन, फानी, दत्त ,राय एवं सेन आदि के ग्रन्थ .

    7. कबीर साहब पर आलोचनात्मक एवं शोध परक निबंध जैसे हरिऔध, श्यामसुन्दर दास, डॉ. मोहन सिंह, डॉ. वर्त्वाल , डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी, पंडित चन्द्रबली पाण्डेय आदि

    कबीर जाति से मुस्लमान थे यह बात निर्विवाद है .दबिस्तान मज़ाहिब के पृष्ठ 200 पर जैसा वर्णित है कबीर जुलाहज़ाद कि अज़्मो वहिदान मशहूर हिन्द अस्त .

    गुरु ग्रन्थ साहिब में भी

    जाके ईदि बकरीदि कुल गऊ रे वधु करहि

    मनियाहि सेख सहीद पीरा

    जाके बाप वैसी करी पूत ऐसी करी

    तिहुरे लोक परसिद्ध कबीरा

    गुरु ग्रन्थ साहेब राग मलार -२

    कबीर साहेब ने अपने गुरु का नाम कहीं उल्लेख नहीं किया है , परन्तु जनसाधारण में यह धारणा रही है कि स्वामी रामानंद इनके गुरु थे . स्वामी रामानंद सीता राम भक्ति के अनुपालक थे और इनके निर्गुणी संत होने का प्रमाण कहीं उपलब्ध नहीं है . रामानंद उस समय काफी प्रसिद्द थे और उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता,जात पात से ऊपर उठकर उपदेश दिए .

    जात पात पूछे नहीं कोई

    हरि को भजे सो हरि का होई .

    उनके एकांतिक प्रेम पुष्ट वेदान्त कि शिक्षाओं ने कबीर को प्रभावित किया होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता. परन्तु कबीर के निर्गुणी स्वभाव की नीव तब पड़ी जब कबीर सूफ़ियों के संपर्क में आये. सूफ़ी संतों ने आपसी भाईचारे और निर्गुण ब्रह्म की जो सलिल बहाई थी उसका प्रभााव कबीर पर भी पड़ा. मुहम्मद ग़ुलाम सरवर अपनी किताब ख़जीनतुल अशफिया में लिखते हैं शेख़ कबीर जोलाहा शेख़ तक़ी के मुरीद और ख़लीफ़ा थे. वह पहले मनुष्य थे जिन्होंने ईश्वर और उनकी सत्ता के विषय में हिंदी में लिखा.धार्मिक सहिष्णुता के कारण हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ने उन्हें मान दिया .हिन्दुओं ने उन्हें भगत और मुसलामानों ने उन्हें पीर कहा .उनकी मृत्यु सन 1564 में हुयी. उनके पीर शेख़ तक़ी का देहांत सन- १५७५ में हुआ .

    शेख़ तक़ी के नाम से दो सूफ़ी पीर प्रसिद्ध हैं जिनमे से एक कड़ा मानिकपुर और दूसरे झूँसी के रहने वाले थे .कड़ा मानिकपुर के शेख़ तक़ी चिश्तिया सिलसिले से वावस्ता थे और उनकी मृत्यु का समय 1546 मन जाता है. परन्तु बीजक की 48 वीं रमैनी से यह जान पड़ता है की कबीर जब माणिकपुर गए थे तब वहां उन्होंने शेख़ तक़ी की प्रसंशा सुनी थी.

    मानिकपुर हि कबीर बसेरी. मद्दति सुनी सेख तक़ी केरी - (विचार दास संस्करण )

    मानिकपुर वाले शेख़ तक़ी से इनकी अक्सर नोक झोक चलती रहती थी जैसा की कबीर के दोहों से भी स्पष्ट होता है.

    नाना नाच नचाय के, नाचे नट के भेख

    घट घट अविनाशी अहै, सुनहु तक़ी तुम सेख .

    मानिकपुर में किसी शेख़ तक़ी की कब्र का होना आइना अकबरी से भी सिद्ध होता है. मानिकपुर के शेख़ तक़ी जाति के नज़फ अर्थात जुलाहे थे और चिश्तिया संप्रदाय से थे.आइना-ए-अवध में इनकी मृत्यु 1545 में भण्डरपुर में होनी बतायी गयी है . इन्हें शेख़ नाथन दान का मुरीद और ख़लीफ़ा बताया गया है जो खुद शेख़ ख्वाजा कड़क शाह के ख़लीफ़ा थे.जमाल बोध में इन शेख़ तक़ी और कबीर के बीच सिकंदर लोदी के दरबार में काफी आरोप प्रत्यारोप दिखाए गए हैं. शेख़ तक़ी के बाद उनका बेटा माकन उनका ख़लीफ़ा बना जिसने फ़तेहपुर जिले में एक गाँव बसाया जो उनके नाम पर ही मकनपुर के नाम से प्रसिद्द हुआ .

    दूसरे अर्थात झूंसी वाले शेख़ तक़ी सुहरवर्दिया संप्रदाय के थे और उनकी दरगाह आज भी झूंसी में है. उनका समय इलाहाबाद गज़ेटियर में सन 1320 : 1384 ई. दिया हुआ है.आइना अवध में शेख़ तक़ी सुहरवर्दी के पिता के जन्म का समय 1261 दिया हुआ है. परन्तु वेस्टकॉट ने किसी अन्य ग्रन्थ के प्रमाण के आधार पर शेख़ तक़ी की मृत्यु का समय सन १४२९ में ठहराया है और लिखा है कि कबीर साहेब जब उनसे मिलने गए थे तब उनकी अवस्था ३० साल की थी.कबीर उन्हें अपना पीर बनाना चाहते थे जो उन्हें तमाम बुराइयों से बचाएँ और उनका मार्गदर्शन करें.शेख तक़ी सुहरावर्दी ने उन्हें अपना मुरीद स्वीकार किया और बल्ख तथा बुखारा की यात्राओं के दौरान कबीर ने अपने पीर का मार्गदर्शन हमेशा पाया . जब कबीर अपनी यात्रा से लौटे तो सीधा झूंसी पहुंचे और अपने पीर की कदमबोसी की.कबीर ने भूख लगने पर जब कुछ खाने की इच्छा प्रकट की तो उनके पीर ने उबाले हुए चावल और कुछ सब्जी उनके समक्ष रख दी .कबीर यह देखकर निराश हुए और उन्होंने यह दोहा पढ़ा

    साग भात जिरवानी माठा

    हमरे पीर के एहि हाथा !

    इस पर शेख़ तक़ी क्षुब्ध हुए और उन्होंने कहा

    एहि छोड़ और क्या खाह है माटी

    तोह ऊपर पांडेय छह मॉस की टाटी

    कहते हैं कि उसके बाद कबीर छह महीनों तक हैजा से ग्रस्त रहे.पेट दर्द से आहात हो ज़मीन पर लौटने लगे. आज भी झूंसी में दो नाले कबीर नाला और लोटन नाला के नाम से प्रसिद्द हैं जो इस घटना की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं.

    (सन्दर्भ वेस्टकॉट कबीर एंड कबीर पंथ कानपूर 1907)

    कबीर मंसूर नमक किताब में कबीर साहेब के दूर दूर के देशों की यात्रा का उल्लेख आया है.नर्मदा तट के पास भड़ौंच से 13 मील की दूरी पर शुक्र तीर्थ के पास एक द्वीप पर एक विशाल वट वृक्ष है जिसे कबीर वट कहते हैं .उस पेड़ के लिए प्रसिद्द है कि अपनी गुजरात यात्रा के दौरान उसे छू कर कबीर साहेब ने हरा कर दिया था.इसी प्रकार एक ऐतिहासिक रचना में आये प्रसंग से भी यह विदित होता है कि कबीर पंढरपुर भी आये थे . (किंकेड मार्सनिस- हिस्ट्री ऑफ़ मराठा पीपल, भाग- २, पृष्ठ- 107 )

    कबीर ने अन्य सूफ़ी संतों की तरह गृहस्थ आश्रम को प्राथमिकता दी और परिवार के साथ रहकर ईश्वर उपासना में लीन रहे. कबीर ने अपने कलाम में कई सूफ़ियों से मुलाक़ात का भी ज़िक्र किया है.

    कबीर का जीवन भले ही रहस्य की परतों में दबा हो और उनका जीवन कयासों की चादर ओढ़ कर वक़्त की स्याह रात में कहीं गुम हो गया हो परन्तु उनके कलाम उनके उपदेश आज भी किसी हीरे की भांति जगमगा रहे हैं. कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वो कई सौ वर्ष पूर्व थे. उनके जीवन के प्रति भ्रांतियां उत्पन्न करके तथाकथित मुल्लाओं एवं पंडितों ने भरसक प्रयास किया किया की लोग उनकी शिक्षाओं से दूर हो जाएं और इस घृणित कार्य में कबीर को नाजायज़ तक कह दिया गया.परन्तु उनकी शिक्षाओं और उनके विचारों ने कबीर को ही एक विचार बना दिया. कबीर एक सोच का नाम हो गया जो एक बेहतर भविष्य, एक बेहतर समाज और सबसे बढ़कर एक बेहतर इंसान होने का नाम है.यही कारन है कि आज भी कबीर नाम का यह वट वृक्ष तमाम आंधियों के बावजूद खड़ा है और हमे अपनी छाया दे रहा है. कबीर एक पेड़ था जो बीज बन गया, और वह बीज असंख्य लोगों के ह्रदय में बस गया, प्रेम की माटी से पुनः अंकुरित होने के लिए

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