Malangs of India
हिन्द में सूफ़ियों और संतों के बीच एक कहानी बहुत प्रचलित है –
एक संत किसी शहर के जानिब बढ़ा जा रहा है . उसके आने की खबर जब उस शहर में रहने वाले एक दूसरे संत को होती है तो वह उसके लिए पानी से भरा एक प्याला भेज देता है .यह देखकर पहला संत मुस्कुराता है और उस प्याले में एक फूल डाल कर वापस भेज देता है.
यह कहानी कम ओ बेस हर सूफ़ी संत के साथ जोड़ी जाती है , जिसका अर्थ है कि जिस प्रकार एक भरे हुए बर्तन में फूल तैर जाता है और उस से पानी बिलकुल नहीं छलकता, उसी प्रकार संत होते हैं, जो अपनी ख़ुश्बू से रूह को महकाते हैं .
एक सूफ़ी का पैदा होना बड़ी अनोखी घटना हैं,.वो शै जो सदा से थी, आज पैदा हो गयी. सूफ़ी की मौत भी बड़ी अनोखी होती हैं,..कुछ भी नहीं मरता. फ़ूल मिट जाता हैं ,.खुशबू शेष रह जाती है . एक सूफ़ी का सफ़र ख़ुशबू का सफ़र है.. रास्ते में पड़ने वाली हर शै महकती जाती है. अलग अलग सिलसिले अलग अलग बाग़ हैं, ख़ुशबू का सफर चलता रहता है.
सातवी हिजरी में लिखी हुई प्रसिद्द किताब फ़वायद उल फ़ुवाद ( जिसमे हज़रत निजामुद्दीन औलिया के मलफ़ूज़ात संग्रहित है ) में से तीसरी मजलिस एक नयी ख़ुशबू का पता देती है-
“ उसी वर्ष शाबान के मुबारक महीने कि पंद्रहवी तारीख़ जुमे को नमाज़ के बाद हज़रत के क़दम बोसी की दौलत हासिल हुई. एक ज़ौलकी अंदर आया . कुछ देर बैठा और फिर उठ कर चला गया . ख़्वाजा हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया कि इस क़माश के लोग शेख़ बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाह अलैह की ख़िदमत में कम बार पाते थे . अलबत्ता शैख़ उल इस्लाम फ़रीद उद्दीन रहमतुल्लाह अलैह की ख़िदमत में हर तरह के दरवेश और ग़ैर पहुच जाते थे .
इसके बाद फ़रमाया कि हर मजमा ए आम में एक ख़ास भी होता है. हज़रत ने एक हिकायत बयान फरमाई कि शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सैयाहत बहुत करते थे . एक दफ़ा ज़ौलकियों के गिरोह में पहुचे और उनके बीच जा कर बैठ गए. इस मजमे से एक नूर पैदा हुआ . जब ग़ौर से देखा तो लोगों को एक शख़्स नज़र आया जिसका चेहरा चमक रहा था . शैख़ आहिस्ता से उसके पास गए और कहा कि तू इन लोगों में क्या कर रहा है ? उसने जवाब दिया – ज़करिया ! ताकि तुझे मालूम हो जाए कि हर आम में एक ख़ास भी होता हैं .
ज़ौलकी का ज़िक्र गाहे बेगाहे अक्सर तसव्वुफ़ की किताबों में आता रहा है. अपने आम पहनावे और उच्च आध्यात्मिक विचारों की वजह से ये ज़ौलकी या मलंग बड़े बड़े सूफ़ी संतों को भी चकित करते दिखे हैं.
मलंगों का ज़िक्र आते ही हमारे जहन में किसी मस्तमौला फ़क़ीर की छवि उभरकर सामने आ जाती हैं जो संसार से विरक्त होकर ईश्वर के उपासना में अपनी छवि भुलाए बैठा हैं . मलंगों को लेकर बहुत सारी भ्रांतियां हैं जो दूर होनी चाहिए . मलंगों पर बात करने से पहले हम तसव्वुफ़ के इतिहास पर एक सरसरी नज़र डाल लेते हैं .
तसव्वुफ़ की शुरुआत और विकास दो क्षेत्रों में सबसे ज़ियादा हुआ और वो थे प्राचीन ख़ुरासान और इराक़. इन दोनों क्षेत्रों पर हिंदुस्तानी दर्शन का व्यापक प्रभाव था. पूरा ख़ुरासान चीनी यात्री ह्वान सांग के अनुसार बौद्ध मठों से आच्छादित था . इराक़ , दमिश्क़ और बग़दाद में हिन्दू जोगियों और मुसलमान विचारकों के बीच विचारों का आदान प्रदान भी बहुत आम था.
हिंदुस्तान में सूफ़ियों का उदय चार पीरों और चौदह ख़ानवाड़ों से हुआ . चार पीर चार प्रतिनिधयों (हसन, हुसैन, कुमैल बिनज़ियाद, और ख़्वाजा हसन बसरी ) के अनुयायी थे . ख़्वाजा हसन बसरी के दो प्रतिनिधि हुए – हबीब अज़मी, जिनसे पहले नौ ने आध्यात्मिक लाभ उठाया और दूसरे अब्दुल वाहिद बिन ज़ैद, जिनसे बाकी के पाँच सिलसिले बावस्ता हैं . ये चौदह सिलसिले हैं – १. हबीबी २. तैफ़ूरी ३. करखी ४. सक़ती ५. जुनैदी ६. गाज़रूनी ७.तूसी ८. फ़िरदौसी ९.सुहरावर्दी १०. ज़ैदी ११.इयाली १२.अधमी १३.हुबैरी १४.चिश्ती .
मलंगों का सिलसिला जाकर सैयद बदीउद्दीन शाह मदार से जुड़ता है जो शैख़ मुहम्मद तैफ़ूर बुस्तामी के मुरीद थे . मदारिया सिलसिले से पहले भी सूफ़ियों में कुछ फ़िर्क़े थे जो आम सूफ़ियों से अलग प्रतीत होते थे . इनमे से सबसे प्राचीन सिलसिला मलामतियों का है, जो आत्म निंदा को ज्यादा महत्व देते थे .दूसरा सिलसिला क़लंदरों का था जो अपनी धुन में मस्त रहा करते थे और हज़रत ख़िज़्र रूमी को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे .
मलामतियों और क़लंदरों से इतर मदारिया सिलसिला चौदहवी शताब्दी के दूसरे भाग में उभरा .मदारिया सिलसिले के बारे में ज्यादा नहीं लिखा गया और मिरत उल मदारी और मिरत ए बदी व मदारी जैसी कुछ किताबों और पांडुलिपियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. मदारिया सिलसिला के बानी हज़रत शाह बदीउद्दीन ज़िंदा शाह मदार का सबसे पहले ज़िक्र मिरत उल मदारी में आता है. इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम के अनुसार शाह मदार का जन्म 250 AH या 864 AD में हुआ था .तज़किरात उल मुत्तक़ीन के अनुसार यह 442 AH या 1051 AD है, जबकि मिरत उल मदारी के अनुसार यह 715 AH या 1315 AD है जो सबसे सही प्रतीत होता है .
गुलज़ार ए अबरार में भी शाह मदार और उनके मुरीदों का विस्तृत वर्णन है. भारत में यह सिलसिला कैसे फैला और कहाँ कहाँ फैला इसका ज़िक्र भी इस किताब में मौजूद है.इसकी हस्तलिखित प्रति सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन, काज़ी मुहम्मद कंटूरी, काज़ी शियाबुद्दीन दौलताबादी, क़ादिर अब्दुल मलिक बहराइच, सैयद ख़स्सा, सैयद राज़ी देहलवी , शैख़ अल्ला और शैख़ मोहम्मद के जीवन पर भी प्रकाश डालती है.
शाह मदार पानी के जहाज से हिंदुस्तान तशरीफ़ लाये थे और उन्होंने कानपुर के निकट स्थित मकनपुर में क़याम किया . शाह मदार के हज़ारों मुरीद थे लेकिन उन्होंने अपना खलीफ़ा सैयद अबू मुहम्मद अरगुन को बनाया और उन्हें अपना ख़िर्क़ा सौपा. शाह मदार ने सैयद अबू मोहम्मद अरगुन , सैयद अबू तुराब ख़्वाजा फ़सूर और सैयद अबुल हसन तैफ़ूर को गोद लिया था . दो और लोगों की तरबियत शाह मदार की देख-रेख में हुई, वो थे सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन और उनके छोटे भाई सैयद अहमद . ये दोनों प्रसिद्द क़ादरी संत हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी ग़ौस उल आज़म के भांजे थे .
मदारिया सिलसिले की ही उपशाखा दीवानगान हैं जिन्हें मलंग कहा जाता है. मलंग अपने बाल नहीं कटाते और इनके बालों की लंबाई भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती रहती है. मलंग अपना सम्बन्ध हज़रत सैयद जमालुद्दीन जानेमन जन्नती से जोड़ते है . ये शहर से बाहर अपनी झोपडी बनाते है और ताउम्र अविवाहित रहकर ख़िदमत ए ख़ल्क़ करते है . इनके बाल न कटवाने के पीछे एक मनोरंजक वाक़या है- एक दफा हज़रत शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती हब्स ए दम ( सूफ़ियों के ध्यान का एक तरीका जिसमे ला इलाहा बोलकर सांस अंदर खींच ली जाती हैं और फिर उसे अंदर ही रोक लिया जाता है और फिर काफी देर बाद इल्ललाह बोलकर सांस बाहर छोड़ी जाती है.) में बैठे थे . सांस अंदर रोकने की वजह से उनकी धमनियों पर असर पड़ा और उनके माथे से खून रिसने लगा . इसी बीच हज़रत शाह मदार का उनकी कुटिया में आगमन हुआ. शैख़ ने जब देखा कि मुरीद के सर से ख़ून रिस रहा है तो उन्होंने बगल में धूनी में पड़ी राख उठाकर उनके सर पर मल दी जिस से खून का बहाव रुक गया. थोड़ी देर पश्चात जब हज़रत जानेमन जन्नती ने आँखें खोली तो उन्हें बताया गया कि उनके पीर ने उनके सर पर हाथ रखा था. यह सुनकर उन्होंने आह्लादित शब्दों में ऐलान किया कि जिन बालों पर मेरे मुर्शिद ने हाथ लगाया उनको मैं कभी नहीं काटूंगा . तभी से मलंगों में बाल न कटवाने की परम्परा चल निकली जो आज भी कायम है. मलंगों में नए सदस्य के आगमन पर एक पक्षी की क़ुरबानी दी जाती हैं और शाह मदार की दरगाह के पास के ही एक पेड़ की शाखों पर लोहे की कील ठोकी जाती है.
मलंगों के विषय में भी काफी विवाद है. कुछ विद्वान् मलंगों को शैख़ जलालुद्दीन बुखारी मखदूम जहानियाँ जहाँगश्त के अनुयायी मानते हैं जब की तज़किरों में इन्हें शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती का अनुयायी माना गया है.
सैयद हसन असकरी के अनुसार जो अपने आप को छोड़कर बाहर आ चुका है वो मलंग है. अकबर के दरबारी कवि फ़ैज़ी ने अपनी एक मसनवी में मलंग का ज़िक्र किया है-
बे अदब हरगिज़ मा बाशी बा मलंग
हस्त दो दरिया ई वहदत रा निहंग .
(अर्थात मलंगों के पास बेअदबी से न पेश आओ क्योंकि वह अद्वैत की नदी का मगरमच्छ है )
दीवानगान तरीक़ा हज़रत जमालुद्दीन जानेमन जन्नती से शुरू हुआ जो हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी की बहन बीबी नसीबा की औलाद थे . सैयद मोहम्मद जलालुद्दीन शाह मदार के ख़लीफ़ा थे .जमा दिल मदरियात के लेखक के अनुसार सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन को 522 AH में शाह मदार से ख़िलाफ़त मिली.
कहते हैं कि एक बार शेर शाह ने इनके हाथ से आम खाना अस्वीकार कर दिया था जिसपर क्रोधित होकर इन्होंने उसके साम्राज्य के जल्द ही विनष्ट होने कि भविष्यवाणी कर दी . फ़ारसी कवि शैख़ सादी ने इनके जंगली जानवरों के साथ आध्यात्मिक संबंधों पर कई कवितायेँ लिखी हैं . पुराने चित्रों में इन्हें शेर पर सवार भी देखा जा सकता हैं . इन्होंने शैख़ मखदूम जहानियाँ जहाँगश्त का साक्षात्कार भी किया था. इनका देहांत 951 AH में हुआ और इनकी दरगाह बिहार के हिलसा में स्थित है.
हज़रत शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती के प्रसिद्द ख़लीफ़ाओं में एक हज़रत शाह फ़क़रुद्दीन जमशेद थे . नवाब अब्दुर रहीम ख़ानेख़ाना इनका बहुत सम्मान करते थे . इनका देहांत 970 AH में हुआ और इनकी दरगाह उत्तर प्रदेश के अकबराबाद में दरवाज़ा ए मदार के निकट स्थित है.
सैयद अहमद बदपा शैख़ जमालुद्दीन के भाई थे और सैयद बदीउद्दीन के मुरीद थे . इन्होंने अपनी ख़ानक़ाह आजमगढ़ के कोल्हुआबन में स्थापित कि थी . सैयद अहमद बदपा के विषय में सामग्री मिरातुल मदारी और बह्र ए ज़खार में उपलब्ध हैं . जन्म के तुरंत बाद ही शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी RA ने इन्हें शाह मदार को सौंप दिया. शाह मदार के साथ साथ ये समरकंद के रास्ते हिंदुस्तान आये . शाह मदार से शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी की भेंट 488 AH में हुई थी .
दीवानगान सिलसिले की 72 उप शाखाएं हैं जिनमे से प्रमुख हैं –
दीवानगान ए सुल्तानी
दीवानगान ए जमशेदी
दीवानगान ए आतिशी
दीवानगान ए आबी
दीवानगान ए अर्ज़ी
दीवानगान ए मग़रबी
दीवानगान ए सुमाली और
दीवानगान ए समदी.
इनमे से दो उपशाखाओं ने आग और पानी को टोटम रखा है.
मलंगों ने सिर्फ अपने आप को ज़िक्र और इबादत तक ही महदूद नहीं रखा वरन उन्होंने हिंदुस्तान के समाज के निर्माण में भी अपना सक्रिय योगदान दिया है. आज़ादी की पहली लड़ाई में एक डंडी सन्यासियों के साथ मजनू शाह जैसे मलंगों ने भी 1776 के सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन में अपना मुखर योगदान दिया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब का एहसास मलंगों ने ही करवाया. इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मलंग दीवानगान ए आतिशी से बावस्ता थे . कहा जाता है की मशहूर फ़क़ीर मजनू शाह मलंग जो अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दहशत का सबब बना हुआ था, लड़ाई पर जाने से पूर्व कुछ रहस्यमयी अग्नि क्रियाएं करता था .यह आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुश्किल कई कारणों से था. पहला कारण तो यह था कि इन फ़क़ीरों के बीच सूचना का आदान प्रदान बड़ी ही तीव्र गति से होता था . दूसरा कारण था इन फ़क़ीरों के पास अपना कोई ठिकाना नहीं था इसलिए इन्हें ढूंढना बड़ा मुश्किल था . इन फ़क़ीरों और सन्यासियों की जनता में भी बहुत इज़्ज़त थी और इनका डर भी व्याप्त था इसलिए इनके बारे में मालूमात हासिल करना ख़ासा मुश्किल था .मजनू शाह के मुरीदों ने आगे चलकर एक आंदोलन को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने “पागलपंथी” रखा . इस आंदोलन का नेतृत्व टीपू शाह कर रहा था . बहुत जल्द ही यह ज़ुल्मी ज़मींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ एक मशहूर आंदोलन की शक्ल में उभर का सामने आया .इस आंदोलन में मजनू शाह मलंग के मुरीदों में करीम शाह प्रसिद्द हुए . करीम शाह अपने सहयोगियों को भाईसाहब के नाम से संबोधित करते थे ताकि बड़े छोटे और ऊंच नीच का भेद समाप्त हो.बाद में 1813 में उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्र टीपू शाह ने इस आंदोलन की कमान संभाली .करीम शाह की पत्नी चाँदी बीबी का भी इस आंदोलन में सक्रिय योगदान था और उन्हें पीर माता कह कर संबोधित किया जाता था .1852 में टीपू शाह के देहांत के पश्चात जनकु और दोबराज पाथोर ने आंदोलन की कमान सम्हाली. बर्मा में अंग्रेजों की लड़ाई के बाद उत्पन्न स्थितियों के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ था जो अंग्रेजों और ज़मींदारों द्वारा लगाए गए करों के विरोध में था. आखिरकार यह आंदोलन मज़दूरों और अंग्रेजों के बीच बातचीत और करों की वापसी के समझौते के पश्चात ख़त्म हुआ .
दीवानगान सिलसिला कभी हिंदुस्तान के सबसे अमीर सिलसिलों में शुमार होता था. इस सिलसिले के पास सबसे ज्यादा ज़मीनें थीं. ऐसा इसलिए था क्योंकि ये फ़क़ीर विवाह नहीं करते थे इसलिए ज़मीनों का बटवारा नहीं होता था और फ़ुतूह में आने वाली ज़मीनें पीढ़ी दर पीढ़ी यूँ ही रहती थीं और उनमे मुसलसल इज़ाफ़ा होता रहता था.
मलंग कुछ प्रतीक चिन्हों को अपने साथ रखते है जिनमे से माही ओ मरातिब सबसे प्रमुख है.इसके अलावा डंका, निशान, कस्ता, मोरछल भी ये अपने पास रखते है जो इनका इनके पीर शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती के प्रति सम्मान इंगित करता है. मलंग जो झंडा और निशान रखते है उनमे माही या मीन का चिन्ह सबसे मुखर होता है. मलंग माही ओ मरातिब को अपना सबसे निकटतम सहयोगी मानते है और कभी मछली नहीं खाते. ऐसा कहा जाता है कि एक बार पैगम्बर यूनुस को एक बड़ी मछली ने निगल लिया था लेकिन वो उसके पेट से सही सलामत निकल आये थे. यही कारण हैं कि मदारी मलंग यह मानते है कि मछली की आलौकिक शक्ति उनकी रक्षा करेगी.
माही और मरातिब के अलावा मलंग अपने साथ पंजतन, छड़ी( जो कभी कभी नुकीली भी होती है ) सोंटा, नगारा और छुरी भी रखते है .पंजतन मनुष्य के हाथ की शक्ल का होता हैं और यह हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद (PBUH), हज़रत अली, बीबी फातिमा, इमाम हसन और इमाम हुसैन की याद में रखा जाता हैं .
नगारा दो प्रकार का होता था पहला दलमादल और दूसरा कारक बिजली जो क्रमशः ग्वालियर के शहज़ादे और मुग़ल बादशाह शाह जहाँ द्वारा दान में दिया गया था .इनका प्रयोग उर्स के समय होता हैं जब इन्हें बजाया जाता हैं और मलंग इसकी धुन पर धमाल करते हैं.
मलंग सामान्यतया बिना बाजू की कमीज (अल्फ़ा ) , कमरबंद (कटिवस्त्र ), कफनी , लंगोटी, सर पर पगड़ी, तस्बीह, कंठा, सेली और दूसरे आभूषण धारण करते हैं .इन्हें अपने मुर्शिद से तबर्रुक़ात हासिल होती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती हैं .
मलंगों की तज्हीज़ ओ तकफ़ीन बाकी मदारिया फ़क़ीरों से अलग होती हैं . मदारिया की दूसरी शाखाओं जैसे ख़ादिमान, आशिक़ान और तालिबान में मृत शरीर को दफ़नाया जाता है, जबकि मलंगों में उनकी जटा या भीक को काट कर उसे अलग दफनाया जाता हैं और शरीर को अलग दफ़न किया जाता है. उदाहरणार्थ – मजनू शाह मलंग की दो क़ब्रें हैं जो मकनपुर में स्थित हैं . एक में उनकी जटा दफ़न हैं और दूसरे में शरीर . कहा जाता है की मजनू शाह ने खुद कई मलंगों को इस तरीके के दफ़नाया था जो सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे .
1440 AD में शाह मदार के देहांत के पश्चात उनके सबसे प्रसिद्द शिष्यों में शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती थे जिनकी दरगाह हिलसा में हैं जिसका निर्माण 1593 AD में दरभंगा के जुम्मन मदारी ने करवाया था .तज़्किरात उल मुतक़्क़ीन में इनका हवाला है. यहाँ इनकी दरगाह के आठ गुम्बद हैं ,.दरगाह के अलावा गौर से देखने पर ख़ानक़ाह और नौबत खाना के अवशेष स्पष्ट परिलक्षित होते है .
मलंगों ने हिंदुस्तान की संस्कृति में घुलकर अपने आप को इसी का अंग बना लिया है. इनके योगदानों के विषय में लिखने बैठा जाए तो एक उम्र भी कम है. ये मलंग इतिहास की भाँति हैं. इन्हें शब्दों में व्यक्त करना बेमानी हैं. इतिहास की ही तरह इन्हें तो बस जीया जा सकता है. ये तसव्वुफ़ के जीवित जीवाश्म हैं,..रूह आज भी उतनी ही सच्ची और ख़ूबसूरत हैं जितनी एक विकारों से रहित इंसान की होती हैं.
खुशबू का ये सफर युगों से चल रहा हैं ,.अलग अलग नामों में, अलग अलग रंगों में लिपटा हुआ.
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.