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मयकश अकबराबादी जीवन और शाइरी

सुमन मिश्रा

मयकश अकबराबादी जीवन और शाइरी

सुमन मिश्रा

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    हिंदुस्तान में सूफ़ी ख़ानक़ाहों का एक लम्बा और प्रसिद्ध इतिहास रहा है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह हिंदुस्तान भर में प्रसिद्ध है जहाँ पर योगियों, सूफ़ियों और मलंगों का जमघट लगा रहता था। लंगर का चलन भी सूफ़ियों के द्वारा ही हिंदुस्तान में आया।

    ख़ानक़ाहें हिंदुस्तानी गंगा जमुनी तहज़ीब की ध्वजवाहक रही हैं। यहाँ हमारी संस्कृति के सिर्फ़ रंग-बिरंगे रूप देखने को मिलते हैं बल्कि इन्होंने इसे सहेज कर भी रखा है। कई रस्में आज भी सूफ़ी ख़ानक़ाहों में नियमित होती हैं जो वर्षों से चली रही हैं जनमें हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब के कुछ ऐसे अनोखे रंग मिलते हैं जो हमें और कहीं नहीं मिलते। सूफ़ी ख़ानक़ाहें हमारी संस्कृति की जीवित जीवाश्म हैं। इनकी रूह आज भी वही है जो सदियों पहले हुआ करती थी। आज जहाँ कुछ ख़ानक़ाहें अपने गौरवशाली अतीत को सहेज कर रख पाने में सफल हुई हैं वहीं कुछ ख़ानक़ाहें ऐसी भी हैं जो इस परंपरा को आगे लेकर चल रही हैं। आगरा के मेवा कटरा इलाक़े में स्थित ख़ानक़ाह-ए-क़ादरिया,आस्ताना-ए-मयकश एक ऐसा ही अज़ीम रूहानी मरकज़ है जहाँ से तसव्वुफ़, इश्क़-ए-हक़ीक़ी और अदब का पैग़ाम तीन सदियों से दिया जा रहा है। ये आगरा में उर्दू के फ़रोग़ का मरकज़ भी रहा है। आज भी यहाँ इश्क़-ए-ख़ुदा और अज़मत-ए-इंसान का दर्स दिया जाता है।

    इस ख़ानक़ाह की शुरुआत हज़रत शैख़ सय्यद अहमदुल्लाह शाह क़ादरी ने की थी जो अपने समय के जाने-माने सूफ़ी बुज़ुर्ग थे। इस ख़ानक़ाह के बुज़ुर्गों में सय्यद अमजद अ’ली असग़र, सय्यद मुनव्वर अ’ली शाह, सय्यद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह और सय्यद असग़र अली शाह जैसी हस्तियाँ थीं जिन्हों ने अपने इ’ल्म से आगरा को सूफ़ी तालीम का मस्कन बना दिया था।

    इसी ख़ानदान में हज़रत मयकश अकबराबादी का जन्म 3 मार्च सन्1902 ई. में आगरा में अपने आबाई मकान में हुआ। वालिद का नाम सय्यद असग़र अ’ली शाह जा’फ़री क़ादरी निज़ामी था। बचपन में ही हज़रत मयकश अकबराबादी के पिता का देहान्त हो गया। मयकश अकबराबादी ने हज़रत शाह नियाज़ अहमद नियाज़ बे-नियाज़ के दूसरे सज्जादानशीन हज़रत शाह मुहीउद्दीन अहमद क़ादरी चिश्ती नियाज़ी को अपना मुर्शिद बनाया और उन से बै’अत हुए।उन्होंने ख़ानक़ाह-ए-नियाज़िया बरेली में रह कर अपनी रूहानी शिक्षा पूरी की और तसव्वुफ़ को समझा।बाईस वर्ष की उम्र में उन्हें अपने मुर्शिद से ख़िलाफ़त मिली। उसके बाद मयकश साहब आगरा गए और दर्स-ए-निज़ामिया की शिक्षा मदरसा आ’लिया जामे’ मस्जिद आगरा से पूरी की।

    मोहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी को सूफ़ियाना संस्कार विरासत में मिला और आपका ख़ानदान क़ादरी सिलसिले से वाबस्ता रहा है।आपके बुज़ुर्ग सय्यद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह बड़े बा-कमाल सूफ़ी बुज़ुर्ग थे और सिलसिला-ए-क़ादरिया चिश्तिया निज़ामिया नियाज़िया से तअ’ल्लुक़ रखते थे।

    हज़रत मयकश अकबराबादी के पिता का जब देहान्त हुआ तब उनकी उम्र महज़ 2 साल थी। यह ख़ानक़ाह अपने अदबी और रूहानी शिक्षाओं के लिए आगरे भर में मशहूर थी। अपनी रूहानी और अदबी शिक्षा पूरी करने के बाद हज़रत मयकश अकबराबादी पर इस ख़ानक़ाह की बड़ी ज़िम्मेदारी गई। उन्होंने यह ज़िम्मेदारी पूरी निष्ठा से निभाई। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया है -“दरवेशी पर्दापोशी अस्त” अर्थात दरवेशी छुपाने का नाम है। इस छुपाने को सूफ़ियों ने कई प्रकार से समझाया है। दूसरों के ऐब छुपाना और अपने अहवाल छुपाना भी पर्दापोशी कही जाती है। मयकश साहब पूरी ज़िन्दगी इसी की शिक्षा देते रहे।

    हज़रत मयकश अकबराबादी की जितनी पकड़ गद्य लेखन पर है उतनी ही संजीदगी और फ़िक्र उनकी ग़ज़लों में मिलती है। अ’ल्लामा नियाज़ फ़तहपुरी फ़रमाते हैंः

    “मयकश आगरे की अदब ख़ेज़ सर-ज़मीन से तअ’ल्लुक़ रखते हैं और वहाँ की तमाम फ़न्नी वज़्न रखने वाली अदबी रिवायात से वाक़िफ़ हैं इसीलिए उनके कलाम में वज़्न है, फ़िक्र है, मतानत है, संजीदगी है। और इसी के साथ शगुफ़्तगी और तरन्नुम भी। उनके जज़बात जितने सुथरे हैं उतना ही ठहराव उनके इज़हार में भी पाया जाता है।”

    आपकी आगरा की अदबी समाजी-ओ-ता’लीमी अंजुमनों में भी सक्रिय भागीदारी थी। जामिआ’ उर्दू अ’लीगढ़ का क़ियाम आगरा ही में हुआ था और उस के क़ियाम के वक़्त जामिआ’ उर्दू में मयकश साहब ने अपना सहयोग दिया। ये सहयोग बा’द के वर्षों में भी जारी रहा। बज़्म-ए-इक़बाल और बज़्म-ए-नज़ीर की आपने ता-हयात सर-परस्ती फ़रमाई।

    हज़रत मयकश अकबराबादी साहब वहदतुल-वुजूद के पैरोकार थे। शैख़ इब्न-ए-अ’रबी के हवाले से वह फ़रमाते हैं:

    “सूफ़ी, ख़ुसूसन शैख़-ए-अकबर इब्न-ए-’अरबी के मानने वाले सूफ़िया का मस्लक ये है कि ज़ाहिर-ओ-बातिन ख़ुदा के सिवाए कोई मौजूद नहीं है। ये दिखाई देने वाला आ’लम जो ख़ुदा का ग़ैर महसूस होता है और जिसे मा-सिवा कहते हैं, मा-सिवा नहीं है। ख़ुदा के अ’लावा और ग़ैर है बल्कि ख़ुदा का मज़हर है। ख़ुदा अपनी ला-इंतिहा शानों के साथ इस आ’लम में जल्वा-गर है। ये ग़ैरत-ओ-कसरत जो महसूस होती है हमारा वह्म और सिर्फ़ हमारी अ’क़्ल का क़ुसूर है। या’नी हमने उसे ग़ैर समझ लिया है दर-हक़ीक़त ऐसा नहीं है। हज़रत इब्न-ए-अ’रबी ने कहा है “अल-हक़्क़ु महसूसुन-अल-ख़ल्क़ु मा’क़ूलुन” या’नी जो कुछ महसूस होता है और हमारे हवास जिसको महसूस करते हैं वो सब हक़ ही है। अलबत्ता हम जो कुछ समझते थे वो मख़्लूक़ है या’नी मख़्लूक़ हमारी अ’क़्ल ने फ़र्ज़ कर लिया है दर-हक़ीक़त ऐसा नहीं है।”

    हज़रत मयकश अकबराबादी ने जीवन भर इन सिद्धांतों पर अमल किया। उन्होंने हिन्दू धर्म का भी गहन अध्ययन किया था। वेदांत पर अपने एक लेख में हज़रत मयकश अकबराबादी फ़रमाते हैंः

    “हिंदू तहज़ीब दुनिया की क़दीम-तरीन तहज़ीबों में से एक है। हिंदू क़दीम अदब के मुताले’ से ये वाज़िह हो जाता है कि एक क़ौम किस तरह अपना ज़ेहनी सफ़र शुरू करती है और हैरत, इस्ति’जाब,शक और ख़ौफ़ बहुत सी हालतों से गुज़र कर सदाक़त और हक़ के एहसास तक पहुँच जाती है।वेदों से ले कर उपनिषदों तक हमें उन सारे मराहिल और मंज़िल के निशान वाज़िह तौर से मिल जाते हैं। उपनिषद चूँकि वेदों का आख़िरी हिस्सा है इसलिए उन्हें वेदांत कहते हैं।

    संहिता या’नी चारों वेदों के बा’द जो किताबें वेदिक अदब में क़ाबिल-ए-एहतिराम हैं वो बरहमन हैं और उसके बा’द आरण्य और उपनिषद।बरहमनों में ख़ास कर शतपथ बरहमन में ब्रह्म ने बे-हद अहमियत हासिल कर ली थी।ब्रह्म ब-तौर-आ’ला उसूल के है जो देवताओं के पस-ए-पर्दा क़ुव्वत-ए-मुतहर्रिका है। बरहमनों के बा’द आरण्य एक मख़्सूस ज़ेहनी तरक़्क़ी का इज़्हार करते हैं।उन में यज्ञ वग़ैरा वेदिक रस्मों के ख़िलाफ़ रद्द-ए-अ’मल शुरूअ’ हो गया है और ज़ाहिरी रस्मों की बजाए फ़िक्र और मुराक़बों की तरफ़ रुजहान हो चला है। आरण्य के-बा’द उपनिषद आते हैं जिनमें से अकसर तौहीद पर और बा’ज़ सन्वियत और बा’ज़ कसरत पर मुश्तमिल हैं। उपनिषद इल्हामी वेद के आख़री हिस्से हैं इसलिए वेदांत कहलाते हैं।”

    इसी लेख में हज़रत मयकश अकबराबादी आगे लिखते हैं

    “वेद का रास्ता फ़राईज़ और अ’मल का रास्ता है जिसे कर्म मार्ग कहते हैं लेकिन उपनिषद राह-ए-मा’रिफ़त की तरफ़ हिदायत करते हैं जिसे ज्ञान मार्ग कहते हैं। उपनिषदों की रू से आ’बिद-ओ-मा’बूद के दर्मियान कोई तअ’ल्लुक़ नहीं है।इ’बादत ख़ुदा के हुज़ूर में पेश नही होती है बल्कि सिर्फ़ सदाक़त-ए-आ’लिया की तलाश ही आ’ला-तरीन और इंतिहाई मक़्सद है।श्री शंकर ने कहा कि उपनिषद ऐसे आ’ला-तरीन इंसानों के लिए हैं जो दुनियावी और आसमानी बरकतों से बाला-तर हैं और जिनको वैदिक फ़राईज़ में कोई दिल-चस्पी नहीं रही। इसी क़िस्म के ख़यालात गीता में भी ज़ाहिर किए गए हैं।”

    हज़रत मयकश अकबराबादी ने सत्तर से ज़्यादा विषयों पर लेख लिखे हैं। आप का दीवान भी प्रकाशित हो चुका है।

    हज़रत मयकश अकबराबादी ने एक सच्चे सूफ़ी की तरह अपनी ज़िन्दगी गुज़ारी।उनकी जीवनशैली में कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं था। यही सच्चाई उनके कलाम में दिखती है

    आज़ाद है कौनैन से वो मर्द-ए-क़लंदर

    मयकश को दे ताज-ए-बुख़ारा-ओ-समर्क़ंद

    हज़रत मयकश अकबराबादी की शायरी एक सूफ़ी के अनुभवों का आईना-ख़ाना मालूम होती है। सूफ़ी जीवन भर महाचेतना और महाचेतन को जोड़ने वाले धागे की गिरहें सुलझाने में लगा रहता है और जब ये गिरहें सुलझ जाती हैं तब उसका जीवन और दर्शन दोनों सरल हो जाते हैं। मयकश साहब के इस शेर में यही सरलता दिखती है

    जिस को तुम ख़ुद भी समझो वो ज़ुबाँ है माना

    सब समझते हों जिसे वो भी ज़ुबाँ है कि नहीं

    हज़रत मयकश अकबराबादी ने 25 अप्रैल सन् 1991 ई’स्वी को आगरा में अपने हुज्रे में विसाल फ़रमाया।

    आप ने 12 साल पहले ही अपनी तारीख़-ए-विसाल लिख कर मज्मूआ’-ए-कलाम “दास्तान-ए-शब’’ कत्बा-ए-क़ब्र के उ’न्वान के साथ शाए’ कर दिया था।

    जो फ़र्श-ए-गुल पर सो सका जो हँस सका जो रो सका

    इस ख़ाक पे इस शोरीदा-सर ने आख़िर आज आराम किया

    आपके अ’क़ीदत-मंदों और मुरीदों की बड़ी ता’दाद पूरी दुनिया में मौजूद है। आप के प्रमुख ख़ुलफ़ा हैं

    हज़रत सय्यद मुअ’ज़्ज़म अ’ली शाह उ’र्फ़ मोहम्मद शाह क़ादरी नियाज़ी

    हज़रत सय्यद चिराग़ अ’ली क़ादरी (सज्जादा–नशीन, हज़रत शाह अ’ब्दुल्लाह बग़दादी रहमतुल्लाह अ’लैह)

    जनाब प्रोफ़ेसर उ’न्वान चिश्ती (प्रोफ़ेसर जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली, मशहूर अदीब–ओ–शा’इर)

    जनाब प्रोफ़ेसर मस्ऊ’द हुसैन निज़ामी (बरेली शरीफ़, यू.पी)

    जनाब क़ासिम अ’ली नियाज़ी (हैदराबाद, पाकिस्तान) आदि

    हज़रत की याद में आपके जाँनशीन हज़रत अमजल अ’ली शाह साहिब क़ादरी नियाज़ी ने सन् 1994-1995 ई. में बज़्म-ए-मयकश की स्थापना की जो उर्दू अदब की ख़िदमत करने वाली शख़्सियात को सम्मानित करता है। यह इदारा किताबें भी प्रकाशित करता है।

    मयकश अकबराबादी अपने समकालीन शा’इरों की नज़र में

    “उनके चेहरे पर, पाकीज़गी-ए-अख़्लाक़ और तहारत-ए-नफ़्स की इस क़द्र शीरीनी है कि जब उनकी तरफ़ निगाह हो तो मेरे मुँह में क़ंद की डलियाँ घुलने लगती हैं।

    वो मशाइख़-ए-आगरा में से हैं। किसी को मुरीद बनाते हैं किसी की नज़्र क़ुबूल करते हैं।

    दुनिया की दो तारीख़ी हकलाहटें हैं एक तो मूसा की हकलाहट थी जिस पर अल्लाह मियाँ को प्यार आता था। एक मसीह-ए-मय-कश की हकलाहट है, जिस पर मुझे अल्लाह मियाँ के नुमाइंदा-ए-ख़ुसूसी को प्यार आता है। मेवा कटरे में उनका घर है। बाला-ख़ाने पर रहते हैं। ज़ीना दिन के वक़्त भी घुप रहता है।क्यूँ हो कि ज़ुलमात तय कर के हैवान-ए-नातिक़ तक रसाई होती है।”

    जोश मलीहाबादी

    (जोश मलीहाबादी, हज़रत मयकश अकबराबादी के समकालीनों में उनके सब से क़रीबी थे। जब भी जोश साहब का आगरा आना होता था, वह हज़रत मयकश अकबराबादी के घर पर ही ठहरते थे)।

    जोश साहिब ने अपने एक ख़त में मयकश अकबराबादी को बिरादर-ए-ज़ेहनी और रफ़ीक़-ए-रुहानी कह कर मुख़ातिब किया है। बाग़-ए-लखनऊ से 7 मई 1941 ई’स्वी को लिखे जाने वाले एक ख़त में जोश साहिब कहते हैं-

    “उनका नाम है मोहम्मद अ’ली शाह, और तख़ल्लुस है मयकश, लेकिन मय को हाथ लगाने की तौफ़ीक़ उन्हें आज तक नहीं हुई।मैंने उन पर जो रुबाई’ कही थी आप भी सुन लें-

    हज़रत का है ,दुनिया से निराला दस्तूर

    बातिन में तही-दस्त, ब-ज़ाहिर फ़ग़्फ़ूर

    मय-कश है तख़ल्लुस, और मय से है गुरेज़

    बर-अ’क्स नेहंद नाम-ए-ज़ंगी काफ़ूर

    उनका बेटा फ़ल्सफ़े का एम.ए. है, लेकिन सद-हैफ़ कि बाप का तसव्वुफ़, बेटे की तफ़लसुफ़ को निगल चुका है। तंसीख़-ए-ज़मीन-दारी ने, लाखों ज़मीन-दारों के मानिंद, उनके दिल को भी बुझा कर रख दिया है मगर मुँह से उफ़ तक नहीं करते हैं और अपनी क़दीम वज़्अ’-दारी को निभाते चले जा रहे हैं।

    1967 ई’स्वी में, उनसे मिलने आगरे गया था। अब रह क्या गया है आगरे में। ताज-महल और मयकश के अ’लावा। दोनों को जी भर के देखा और इस तरह देखा कि शायद ये आख़िरी दीदार हो।”

    “जिस महफ़िल में मयकश मौजूद हों उस में, मैं सदारत करूँ ये मुझे गवारा नहीं।”

    जिगर मुरादाबादी

    “आज मयकश से मुलाक़ात में महसूस हुआ हिंद में साहिब-ए-इ’रफ़ान अभी बाक़ी हैं।लाख बर्बाद सही फिर भी ये वीराँ तो नहीं।इस ख़राबे में कुछ इन्सान अभी बाक़ी हैं।”

    आल अहमद सुरूर

    हज़रत मयकश अकबराबादी का कलाम पहली बार देवनागरी में हिन्दी पाठकों के समक्ष पेश करते हुए हमें अत्यंत ख़ुशी हो रही है।हमें उम्मीद है कि सूफ़ीनामा की यह पेशकश आप को पसंद आएगी।

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