ईद वाले ईद करें और दीद वाले दीद करें
ईद का शाब्दिक अर्थ सूफ़ी किताबों में कुछ यूँ मिलता है- (मुसलमानों के त्यौहार का दिन; हर्ष; ख़ुशी) ׃सूफ़ी के हृदय पर जो तजल्लियाँ वारिद होती हैं, वह उसके लिए ‘ईद’ हैं.
सूफ़ी-संतों के प्रतीकों में ईद का एक महत्वपूर्ण स्थान है. ईद का दिन पूरे महीने रोज़े रखने और ईश्वर पर भरोसा करने के बाद की ख़ुशी का है. सूफ़ी इस भरोसे को तवक्कुल कहते हैं. इसके दो प्रकार हैः- पहला तवक्कुल, अपनी ओर से कोई साधन न जुटा कर, केवल ज़ात (परमसत्ता) ही पर निर्भर रहना, वे अपने पास एक पैसा तक रखना भी अवैध समझते हैं. दूसरा तवक्कुल, अपनी ओर से साधन तो जुटाए जाएँ, परंतु ईश्वर पर भी भरोसा हो.
सूफ़ी संतों ने इस भरोसे को प्रार्थना की रूह कहा है. हज़रत मौलाना रूमी के उपदेशों की किताब फिही-मा-फिही की एक मजलिस में मौलाना फ़रमाते हैं – हर शै जिसका नाम है, उसका एक जिस्म है और उसकी रूह भी है. प्रार्थना का जिस्म सारे कर्म-काण्ड, रोज़े नमाज़ आदि हैं लेकिन प्रार्थना की रूह यक़ीन है. किसी जायज़ वजह से सारे कर्मकाण्डों को छोड़ा जा सकता है पर जब तक इंसान ज़िन्दा है तब तक यक़ीन का दामन नहीं छूटता है. फ़वायद उल फ़ुवाद में एक और शिक्षाप्रद कहानी मिलती है –
“लाहौर में एक आदमी थे। उनको शेख़ ज़िन्दा दिल कहते थे। बहुत बुजुर्ग आदमी थे. एक दफ़ा ईद के दिन लोग नमाज़ पढ कर वापस आए तो शेख़ ने आसमान की तरफ़ रुख कर के कहा कि आज ईद है। हर ग़ुलाम को अपने मालिक से ईदी मिलेगी। मुझे भी ईदी दे !
जब यह बात उन्होंने कहीं तो रेशम का एक टुकड़ा आसमान से गिरा जिस पर लिखा था कि हमने तेरी ज़ात को दोज़ख़ की आग से निज़ात दी। जब लोगों ने उसे देखा तो उनका बड़ा सम्मान किया और तबर्रुकन उनके हाथ चूमने लगे। इसी दर्मियान शेख़ के दोस्तों में से कोई शख़्स आया और उनसे कहने लगा कि तुमको तो अल्लाह से ईदी मिल गई (अब) तुम मुझको ईदी दो ! शेख़ ने सुना तो रेशम का वह टुकड़ा उसे देकर कहा कि जाओ यह तुम्हारी ईदी है।
कल मैं जानूं और दोज़ख !”
हज़रत शैख़ ज़िन्दा दिल यह जानते थे कि उस महादानी के दरबार में ऐसे रेशम के कपड़ों की कोई कमी नहीं है और यही यक़ीन की दौलत उनकी ईदी थी.
हज़रत शैख़ शरफुद्दीन अहमद याह्या मनेरी र.अ. ने अपनी एक मजलिस में फ़रमाया है –
“सूफ़िया दर दमे दो ईद कुनद” अर्थात सूफ़ी एक सांस में दो ईद मनाता है.
जब हज़रत से इसका अर्थ पूछा गया तब हज़रत ने फ़रमाया कि सब से पहले सूफ़ी किसी को बुरे रास्ते से बचा लेता है, यह उस व्यक्ति और सूफ़ी की पहली ईद होती है. वहीँ उसके बाद वह उसे अच्छी और सीधी राह पर डाल देता है- यह उस व्यक्ति की दूसरी ईद होती है.
इस बारे में एक और कहानी मिलती है –
एक बार हज़रत शैख़ शरफुद्दीन अहमद याह्या मनेरी र.अ. कहीं किसी दावत से वापस लौट रहे थे. रमज़ान का महिना था. चलते चलते रास्ते में एक छोटा सा गाँव पड़ा. ज़ोहर की नमाज़ का वक़्त हो चला था.उन्होंने देखा कि एक आदमी नमाज़ कायम कर रहा है और उसके पीछे दो-तीन लोग और भी नमाज़ पढ़ रहे हैं. हज़रत ने भी वहीँ मुसल्ला बिछाया, नमाज़ पढ़ी और आगे बढ़ गए. थोड़ी दूर ही चले थे कि उन्होंने महसूस किया कि पीछे से एक आदमी भागता हुआ आ रहा है. उन्होंने पीछे मुड़कर देखा और वह आदमी जब पास आया तो तो उन्होंने इस तरह आने का मक़सद पूछा. उस आदमी ने पहले हज़रत के सलाम किया और फिर अर्ज़ किया – हज़रत ग़ज़ब हो गया. आप ने जिस आदमी के पीछे नमाज़ पढ़ी थी वह शराब पीता है!
हज़रत एक पल को ठिठके और फिर जवाब दिया – दिन में नहीं पीता होगा ! और आगे बढ़ गए.
वह आदमी देखता रह गया. फिर उसने दोबारा हिम्मत की और भागता हुआ हज़रत के पास आया. उसने अर्ज़ किया – हज़रत! वह दिन में भी शराब पीता है!
हज़रत ने उसकी तरफ़ देखा और फिर फ़रमाया – रमज़ान में नहीं पीता होगा !
यह कहकर हज़रत ने अपनी राह ली और वह आदमी भी लौट गया. यह बात जंगल में आग की तरह फ़ैल गई. जब यह बात उस आदमी के कानों में पड़ी जो नमाज़ पढ़ा रहा था तो वह भाग कर लोगों के पास पहुंचा – कहने लगा – यह किसने कहा! सब ने हज़रत का पूरा क़िस्सा बयान किया. वह आदमी बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने उसी पल से शराब छोड़ दी.
सूफ़ी संतों के यहाँ ईद का उल्लेख कई अर्थों में हुआ है. चाहे वह समाअ’ को साबित करने के लिए हज़रत मुहम्मद(PBUH) की उस हदीस का बार-बार वर्णन हो जिस में हज़रत अबू बक्र (र.अ.) से यह फ़रमाया गया कि आज इन लड़कियों को गाने से मत रोको. आज इनकी ईद है, या चाहे अपने मुर्शिद के चेहरे को देख कर ईद की ख़ुशी ज़ाहिर करना हो. सूफ़ी संतों ने ईद के इतने आयाम खोल दिए हैं कि एक पूरी किताब ईद और सूफ़िया-ए-किराम पर लिखी जा सकती है.
हज़रत बेदम शाह वारसी अपने महबूब के दीद को ही ईद समझते थे-
मुझ ख़स्ता-दिल की ईद का क्या पूछना हुज़ूर
जिन के गले से आप मिले उन की ईद है
सूफ़ी संतों ने महबूब के दीदार को शाश्वत बना लिया. उन्होंने अपने दिल में ही यार की तस्वीर बसा ली. एक सूफ़ी कहता है –
दिल के आईने में है तस्वीर ए यार
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली.
और इस प्रकार हर लम्हा सूफ़ी के लिए ईद का जश्न होता है. वह अपने दिल में महबूब की छवि लेकर फिरता है और उसी से शिकवे-शिकायत, इसरार-ओ-मोहबत सब करता है. पुरनम इलाहाबादी लिखते हैं –
सब से हुए वो सीना-ब-सीना हम से मिलाया ख़ाली हाथ
ई’द के दिन जो सच पूछो तो ईद मनाई लोगों ने
हज़रत अमीर ख़ुसरौ कहते है –
ऐ ईद-ए-रोज़गार निहाँ कुन रुख़ चू माह
बर आशिक़ान-ए-ख़्वेश म-कुन रोज़ः रा हराम
(ऐ ज़माने की ईद ! अपना चाँद जैसा चेहरा छुपा लो और अपने आशिक़ों पर रोज़ा हराम न करो.)
महबूब का आना, महबूब का दर्शन, महबूब की बातें सब सूफ़ी के लिए ईद है. इब्राहीम आजिज़ लिखते हैं –
ईद से भी कहीं बढ़ कर है ख़ुशी आलम में
जब से मशहूर हुई है ख़बर-ए-आमद-ए-यार
धीरे-धीरे ईद के आयाम और गहरे हो गए. सूफ़ी ख़ुद महबूब बन गया. यहाँ से बातिन का सफ़र शुरूअ’ होता है. रंग खुद रंगरेज़ बन जाता है.
सूफ़ी-संतों के यहाँ हिज्र की भी उतनी ही लज्जत है जितनी विसाल की. सूफ़ी ऐसा मानते हैं कि जब तब जुदाई की सच्ची पीड़ा का अनुभव न किया जाए तब तब विसाल की ख़ुशी का भी अनुभव नहीं किया जा सकता. सूफ़ी ईश्वर से दूरी के विरह में आँसू बहाता है और विरह के गीत गाता है. वह अपने आप को सब से कमतर जानता है और लोगों से अपने दिल का दर्द बांटता है. हज़रत औघट शाह वारसी लिखते हैं –
करें आह-ओ-फ़ुग़ाँ फोड़ें-फफोले इस तरह दिल के
इरादा है कि रोएँ ईद के दिन भी गले मिल के
कुल मिला कर दूसरों का दर्द को अपना दर्द समझना और दिल से सांसारिक इच्छाओं को निकाल कर उस में ईश्वर को स्थापित करने की ख़ुशी ही सूफ़ी-संतों की ईद है. सैफ़ी सरौंजी ने बहुत ख़ूब लिखा है –
अपनी ख़ुशियाँ भूल जा सब का दर्द ख़रीद
‘सैफ़ी’ तब जा कर कहीं तेरी होगी ईद
पूरे भारत की ख़ानक़ाहों में ईद का जश्न बड़ी धूम से मनाया जाता था. जौनपुर को इब्राहीम शाह शर्की के शासनकाल में शीराज़ ए हिंद भी कहा जाता था । कहते हैं ईद और दूसरे अवसरों पर सूफ़ियों की चौदह सौ पालकियाँ निकलती थी और लोग दूर-दूर से देखने आते थे । दिल्ली के अलावा और किसी दूसरे शहर में सूफ़ियों का इतना बड़ा जमावड़ा नहीं देखने मिलता था । आज भी सूफ़ी ख़ानक़ाहों में ईद अपनी उसी धज के साथ मनाई जाती है. आप सब को ईद की दिली मुबारकबाद !
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