बिहार के प्रसिद्ध सूफ़ी शाइर – शाह अकबर दानापुरी
सूफ़ी-सन्त नदी के घाटों की तरह होते हैं जिन से हो कर ईश्वरीय कृपा का पानी हर पल बहता रहता है और इस पानी से हर प्यासे की प्यास बुझती है। इन घाटों के नाम अलग-अलग होते हैं, इनकी सजावट अलग अलग होती है परन्तु बहने वाला पानी सब घाटों पर एक ही होता है, और इस तरह सूफ़ियों के प्रेम सन्देश घाट-घाट बहते हुए समुन्दर में मिल जाते हैं।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी ऐसे ही एक महान सूफ़ी सन्त और शाइर हुए हैं जिन्होंने तसव्वुफ़ की इस नदी में अपनी शाइरी के अनगिनत दीए बहाए जो घाट-घाट जगमग करते आज भी बह रहे हैं।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी की वंशावली बिहार के शुरूआती सूफ़ियों में से एक हज़रत इमाम मुहम्मद ताज फ़क़ीह से जा कर मिलती है। बिहार में तसव्वुफ़ के विकास में इस ख़ानदान की बड़ी अहम भूमिका है। इमाम ताज फ़क़ीह के पुत्र मख़दूम अब्दुल अज़ीज़ हुए जिनके पुत्र हज़रत सुलैमान लंगर ज़मीन बड़े प्रसिद्ध सूफ़ी हुए और उनकी शादी बिहार की राबिया कही जाने वाली प्रसिद्ध महिला सूफ़ी मख़दूमा बीबी कमाल से हुई। बीबी कमाल बिहार के प्रसिद्ध सुहरावर्दी सूफ़ी हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत की बेटी थीं। यह ख़ानदान पहले मनेर में बसता था पर बाद में काको नाम की बस्ती में आकर बस गया। हज़रत सुलैमान लंगर ज़मीन के पुत्र हज़रत शाह अताउल्लाह हुए जो काको से कंजावाँ नामक गाँव में जा कर बस गए। कंजावाँ से यह ख़ानदान नवा बादा पहुँचा, नवा बादा से मोड़ा तालाब और मोड़ा तालाब से यह ख़ानदान शाह टोली, दानापुर में आ कर बस गया।
यह खानदान इल्म ओ अदब के लिए पूरे बिहार में मशहूर था। हज़रत शाह अकबर दानापूरी के चचा हज़रत शाह क़ासिम दानापूरी पहली बार घर से बाहर नौकरी करने निकले। वो कचहरी में पेशकार थे। सदर दीवानी जो पहले कलकत्ता में हुआ करती थी, अब इलाहाबाद आ गई थी। कुछ ही दिनों में यह ख़बर फैली कि सदर दीवानी अब आगरा भी जाने वाली है। यह सुन कर हज़रत क़ासिम दानापूरी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। आगरे के प्रसिद्ध सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत सय्यदना अमीर अबुल उला में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। वह सिर्फ़ 50 रूपये मासिक तनख़्वाह पर आगरा आ गए और वहीं हज़रत अमीर अबुल उला की दरगाह पर रहने लगे। कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने भाई हज़रत मख़दूम शाह सज्जाद को भी वहीं बुला लिया और इस तरह आगरा की नई बस्ती में 1843 ई. में शाह अकबर दानापूरी का जन्म हुआ।
हज़रत शाह क़ासिम दानापूरी ने स्वाधीनता संग्राम में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। जब अंग्रेजों को इस बात का पता चला तब उन पर मुक़दमा चलाया गया और मुरादाबाद जेल में उन्हें छह महीनों तक क़ैद मैं रखा गया।
देश और समाज दिन-ब-दिन बदल रहा था। ऐसे परिवेश में शाह अकबर दानापूरी की प्रारम्भिक शिक्षा शुरू हुई। शाह अकबर दानापूरी बचपन से ही शाइरी में रूचि रखते थे। अपनी शाइरी के लिए वह वहीद इलाहाबादी से इस्लाह लिया करते थे। वहीद इलाहाबादी के पिता मौलाना अमरुल्लाह की शाह अकबर दानापूरी के पिता मख़दूम शाह सज्जाद पाक के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वहीद इलाहाबादी के दो शागिर्द बड़े मशहूर हुए – अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापूरी। स्वयं वहीद इलाहाबादी फ़रमाया करते थे कि उन्हें अपने दोनों शागिर्दों पर गर्व है।
अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापूरी दोनों सूफ़ी सन्त हज़रत शाह क़ासिम दानापूरी के मुरीद थे। नज़्र-ए-महबूब में एक ख़त अकबर इलाहाबादी का हज़रत शाह अकबर दानापूरी के नाम शाए हुआ जिसकी तहरीर यूँ है:-
“सरताज–ए–बिरादारान–ए–तरीक़त, मसनद आरा–ए–बज़्म–ए–मारिफ़त ज़ादल्लाहु इरफ़ानुहु।
तस्लीम।
आपकी तहरीर के वरूद ने इज़्ज़त बख़्शी। आप का ख़याल निहायत उम्दा है। आप ही के घर का फ़ैज़ है कि इस ज़माने में और इन हालात में भी मेरे अक़ाइद महफ़ूज़ हैं ।”
आगे चलकर हज़रत शाह अकबर दानापूरी दानापुर में ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल उलाइया के सज्जादा नशीं बने और उन्होंने बिहार की सूफ़ी परम्परा को समृद्ध किया। आप का पूरा जीवन सादगी की एक मिसाल है। आप हमेशा एक ख़ालता-दार पायजामा, नीचा कुर्ता, कांधे पर एक बड़ा रुमाल, पल्ले की टोपी और अंगरखा पहनते थे।
अपने दीवान में शाह अकबर दानापूरी लिखते हैं –
फ़क़ीर–ख़ाना के देखो तकल्लुफ़ात आ कर
कि फ़र्श–ए–ख़ाक है उस पे बोरिया भी है
एक सूफ़ी का जीवन विशाल वटवृक्ष की तरह होता है जिस की छाँव में सब को सुकून मिलता है। हज़रत अकबर दानापूरी का जीवन भी ऐसा ही था। आप लोगों को कर्ज-ए-हसना दिया करते थे। यह ऐसा कर्ज होता था जिसे लौटाना ज़रूरी नहीं होता था।
शाह अकबर दानापूरी की ख़ानक़ाह के दरवाज़े सब के लिए खुले थे। यहाँ महफ़िल-ए-समाअ भी हुआ करती थी जिस में पटना और आगरा के प्रसिद्ध क़व्वाल कलाम पढ़ते थे। हज़रत की ख़ानक़ाह में कलाम पढ़ने वाले प्रमुख क़व्वालों में मदार बख़्श ख़ाँ, मोहम्मद याक़ूब ख़ाँ और मुहम्मद सिद्दीक़ ख़ाँ थे जिनके विषय में हमें बहुत मालूमात मिलती हैं।
याक़ूब ख़ाँ फुलवारी शरीफ़ में रहा करते थे। दूर-दूर तक उनकी शोहरत थी। सितार ला-जवाब बजाते थे। जब क़व्वाली पढ़ना शुरू करते थे तो पहले सिर्फ़ सितार बजाते और ऐसा बोल काटते कि लोग अचम्भित रह जाते थे। फिर वह कलाम पढ़ते थे। बदन पर शेरवानी, काँधे पर पटका और दो पल्ले की टोपी पहनते थे। बिहार की तक़रीबन तमाम ख़ानक़ाहों में कलाम पढ़ा करते थे। आज भी इनकी औलाद ने इस फ़न को जारी रखा है। याक़ूब ख़ाँ बीसवीं सदी में बिहार के प्रमुख क़व्वालों में से एक हैं। इनके साथ अबदुर्रहीम ख़ाँ क़व्वाल भी गाया करते थे जो उनके छोटे भाई थे। इस तरह एक पूरी टीम आपके पास तय्यार रहती थी। मुहम्मद याक़ूब ख़ाँ क़व्वाली की शुरुआत ज़ियादा-तर शाह अकबर दानापूरी द्वारा लिखित इस हम्द से करते थे-
ऐ बे–नियाज़ मालिक मालिक है नाम तेरा
मुझको है नाज़ तुझ पर मैं हूँ ग़ुलाम तेरा
मदार बख़्श ख़ाँ बिहार के एक कामयाब और बेहतरीन क़व्वाल थे। उनकी आवाज़ बड़ी मधुर थी। उनका ज़माना वह था जब बिहार में सूफ़ियों का बड़ा प्रभाव था। उस ज़माने में कव्वालों को नज़राना दूसरी तरह दिया जाता था। अगर कोई कलाम या शेर पसन्द आता तो सूफ़ी अपनी कोई पसन्दीदा चीज़ क़व्वाल को नज़्र कर दिया करते और उसे नवाब लोग अच्छी क़ीमत देकर ख़रीद लिया करते थे। तज़किरतुल-अबरार में भी मदार बख़्श का ज़िक्र आता है जिसमें छपरा के करीम चक में हज़रत हकीम शाह फ़रहत हुसैन मुनएमी की ख़ानक़ाह में उर्स की मजलिस का वाक़िया दर्ज है।
सिद्दीक़ ख़ाँ इस्लामपुर के रहने वाले थे। वह सितार ला-जवाब बजाते और बिला मिज़्राब बोल काटते और राग बजाते थे। उनका ख़ानदान गवैयों का था। वो पहले मुलाज़िम थे फिर हज़रत शाह अकबर दानापूरी के मुरीद हो गए और क़व्वाली भी पढ़ने लगे। क़व्वाली में अक्सर अपने पीर-ओ-मुर्शिद के कलाम पढ़ते थे ।
धीरे-धीरे उनकी शोहरत में इज़ाफ़ा होता गया और लोग आपके उस अनोखे अंदाज़ की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ करते गए। जब शोहरत ख़ासी बढ़ गई तो आगरा के फ़क़ीरों से दूर हैदराबाद के निज़ाम की जानिब माइल हुए। निज़ाम उनसे मुतास्सिर हुआ और अपने यहाँ रहने की दावत दी लिहाज़ा एक लम्बे अर्से तक निज़ाम के पास रहे और ख़ूब माल कमाया ।
इस दौरान अपने पीर-ओ-मुर्शिद से बहुत दूर हो गए। जब ज़िंदगी ढलने लगी तो आवाज़ भी वक़्त के साथ तब्दील होने लगी इस तरह आप आगरा अपने पीर की बारगाह में हाज़िर हुए। हज़रत शाह अकबर दानापूरी ने आप को देखते ही आगरे की नर्म ज़बान में फ़रमाया -अरे मियाँ सिद्दीक़ ! कहाँ थे? सुनो! ये ताज़ा ग़ज़ल लिखी है ज़रा इस पर धुन तो बिठाओ ! एक अर्से बाद हाज़िर होने पर भी पीर के लहजे में ज़रा भी दबदबा नहीं था। अपनी धुन में ये हज़रत की यह ग़ज़ल पढ़ने लगे-
तालिब–ए–वस्ल ना हो आप को बेदार न कर
हौसला हद से ज़ियादा दिल–ए–नाशाद न कर
ख़ाक जल कर हो पर उफ़ ऐ दिल–ए–नाशाद न कर
दम भी घुट कर जो निकल जाए तो फ़र्याद न कर
जब इस शेर पर सिद्दीक़ ख़ाँ पहुँचे तो रोते हुए अपने पीर के क़दमों को थाम लिया-
आके तुर्बत पे मेरी ग़ैर को याद न कर
ख़ाक होने पे तो मिट्टी मेरी बर्बाद न कर
उस के बाद उन्होंने अपने पीर के क़दमों में ही अपना पूरा जीवन गुज़ार दिया।
आगरा की मशहूर गायिका ज़हरा बाई भी हज़रत शाह अकबर दानापूरी की मुरीदा थी। ज़हरा बाई पटना में बस गई थी और अपनी एकलौती बेटी के देहान्त के पश्चात उनका रुझान आध्यात्म की ओर हो गया था। वो पहले शाह अकबर दानापूरी से शाइरी की इस्लाह लेती थी मगर बाद में वो हज़रत की मुरीदा हो गई। ज़हरा बाई ने हज़रत का कलाम अपनी आवाज़ में पढ़ा है –
जो बने आईना वो तेरा तमाशा देखे
कहते हैं कि ज़हरा बाई ने इन अशआर पर हज़रत शाह अकबर दानापूरी से इस्लाह ली थी –
पी के हम तुम जो चले झूमते मयख़ाने से
झुक के कुछ बात कही शीशे ने पैमाने से
हम ने देखी किसी शोख़ की मय–गूँ आँखें
मिलती जुलती हैं छलकते हुए पैमाने से
ज़हरा बाई का इंतिक़ाल 1910 ई. के आस-पास हुआ। इनका मज़ार पटना सिटी में स्थित है।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी नक़्शबंदिया अबुल-उलाइया सिलसिले के महान सूफ़ी सन्त थे। नक़्शबंदी सूफ़ियों में भ्रमण करना आध्यात्मिक साधना का ही एक अंग है। हज़रत ने भी अपनी ज़िन्दगी में बहुत यात्राएँ कीं। ये यात्राएँ कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। हज़रत द्वारा लिखित सफ़रनामों में सैर-ए-दिल्ली प्रमुख है जिस में ग़दर के बाद की दिल्ली के हालात का उल्लेख है। इस किताब में न सिर्फ़ उस समय के सूफ़िया और दिल्ली की प्रसिद्ध दरगाहों का ज़िक्र है बल्कि हज़रत ने एक कुशल वास्तुकला विशेषज्ञ की तरह दिल्ली की प्रसिद्ध इमारतों का वर्णन भी ब-ख़ूबी किया है। उन्होंने जहाँ हुमायूँ के मक़बरे के गुम्बद की तुलना इटली के सैंट पीटर चर्च से की है और इसे उस से बड़ा बताया है, वहीं जामा मस्जिद की तुलना (आगरा) की जामा मस्जिद से करते हुए लिखते हैं कि पहले तो यह आगरे की मस्जिद से छोटी मालूम पड़ी मगर जब नापा तब बड़ी निकली। वो आगे लिखते हैं कि पूरब से पश्चिम की तरफ़ दिल्ली की जामा मस्जिद 154 क़दम है वहीं आगरे की मस्जिद 100 क़दम है। हज़रत आगे इसकी तुलना हैदराबाद की मक्का मस्जिद से भी करते हैं और लिखते हैं कि मक्का मस्जिद की लम्बाई 114 क़दम है और चौड़ाई 84 क़दम है।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी के कई मुरीद प्रसिद्ध हुए परन्तु उनकी शाइरी की परम्परा में कुछ नाम उल्लेखनीय हैं। हज़रत निसार अकबराबादी आप के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे जिन्हें बेदम शाह वारसी अपना उस्ताद मानते थे। आप के बेटे और ख़लीफ़ा हज़रत शाह मोहसिन दानापूरी भी अपने समय के प्रसिद्ध शाइर थे।
शाह अकबर दानापूरी ने देश की बेहतरी और खुशहाली का स्वप्न देखा था। एक स्वतंत्र भारत का स्वप्न जहाँ सभी धर्मों के लोग एक साथ मिलकर देश की तरक्की में भागीदार बनें। आप ने बच्चों के लिए हुनर नामा नामक एक बड़ी नज़्म लिखी थी। यह नज़्म सब को साथ मिलकर रहने और पढ़ने की शिक्षा देती है। हमने यह नज़्म इस किताब में भी शामिल की है। इस का एक अंश हम यहाँ लिख रहे हैं –
क़ौम के वास्ते सामान–ए–तरक़्क़ी है हुनर
बादशाहों के लिए जान–ए–तरक़्क़ी है हुनर
अहल–ए–हिर्फ़त के लिए कान–ए–तरक़्क़ी है हुनर
बाग़–ए–आलम में गुलिस्तान–ए–तरक़्क़ी है हुनर
क़द्र जिस मुल्क में इसकी न हो बर्बाद है वो
जिस जगह अहल–ए–हुनर होते हैं आबाद है वो
हज़रत अकबर दानापूरी की शाइरी में हज़रत अमीर ख़ुसरौ का भी रंग दिखता है। उनके यह शेर देखें –
आशिक़ो पाँव न उखड़े वहीं ठहरे रहना
पर्दा उठता है रुख़–ए–यार से सम्भले रहना
डूब कर बहर–ए–मोहब्बत में निकलना कैसा
पार होने की तमन्ना है तो डूबे रहना
अपनी शाइरी में शाह अकबर दानापूरी ने तसव्वुफ़ के विभिन्न विषयों पर भी शाइरी की है। उदाहरणार्थ –
तवक्कुल – (ख़ुदा पर यक़ीन; ईश्वर पर निर्भरता) –
है तवक्कुल मुझे अल्लाह पर अपने अकबर
जिस को कहते हैं भरोसा वो भरोसा है यही
और देखें –
क्यों मारे मारे फिरते हो अकबर इधर उधर
बैठो तो घर में पहुँचेगा अल्लाह का दिया
दुनिया – (संसार) ׃इच्छाओं का घर-
फ़क़ीरी और दुनिया की मोहब्बत
ख़ुदा ऐसी फ़क़ीरी से बचाए
और देखें –
फ़क़ीर वो है जो दुनिया को छोड़ बैठा है
ख़ुदा की याद में मुँह सब से मोड़ बैठा है
वहदतुल-वुजूद- (अद्वैतवाद) ׃ वहदतुल-वुजूद के अनुसार वास्तविक सत्ता ‘एक’ है। उस सत्ता के सिवा अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व नहीं और वह एक मात्र सत्ता ईश्वर है।
कोई शय ख़ाली नज़र आई न इस्म–ए–ज़ात से
नक़्श–बंदी हूँ नज़र आता है नक़्श अल्लाह का
और देखें –
देखें ख़ुश हो के न क्यूँ आप तमाशा अपना
आईना अपना है अक्स अपना है जल्वा अपना
इश्क़-(प्रेम) ׃ आध्यात्मिक प्रेम, सूफ़ी साधना का केन्द्र बिन्दु इश्क़ है। कई सूफ़ियों में इश्क़ पहले किसी सुन्दर वस्तु से प्रारम्भ होता है, इसे इश्क़-ए-मजाज़ी (लौकिक प्रेम) कहते हैं। यही इश्क़-ए-हक़ीक़ी (परम प्रेम) की सीढ़ी है। इश्क़ ईश्वर का भी प्रतीक होता है, क्योंकि सूफ़ी इश्क़, आशिक़ ओर माशूक़ को एक ही चीज़ समझते हैं।
ऐ इश्क़ अता कर दे ऐसा मुझे काशाना
जो काबे का काबा हो बुत–ख़ाने का बुत–ख़ाना
दाइम उन्हीं हाथों से पीते रहे हैं मतवाले
या–रब यही साक़ी हो या–रब यही मय–ख़ाना
“पहला शेर मुज़्तर ख़ैराबादी की ग़ज़ल के मतले से मेल खाता है। मगर शाह अकबर दानापूरी के यहाँ भी यह शेर मिल जाता है। मुज़्तर ख़ैराबादी उम्र में शाह अकबर दानापूरी से 19 साल छोटे हैं।”
फ़ना-(आत्मलय की अवस्था) ׃ साधक का अपने अस्तित्व को खो कर अपने आपको परम सत्ता में विलीन करना।
हम तिरी राह में मिट जाएँगे सोचा है यही
दर्द–मन्दान–ए–मोहब्बत का तरीक़ा है यही
और देखें –
हम साथ लेते आए हैं तस्वीर–ए–यार को
क्यूँ कर कहें न ख़ल्वत–ए–जानाँ मज़ार को
ये मुश्त–ए–ख़ाक बाद–ए–फ़ना हद से बढ़ गई
कहते हैं लोग ढेर हमारे मज़ार को
शाह अकबर दानापूरी का ज़्यादा-तर समय आगरे में बीता। उनके लहजे में भी आगरे की बोली का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। जब शाह अकबर दानापूरी की उम्र 62 साल की हुई तब उनकी तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। इलाज होता रहा मगर धीरे-धीरे बीमारी भी बढ़ती रही। आख़िर-कार 1909 ई. में हज़रत इस जगती के पालने से कूच कर गए और अपने हक़ीक़ी महबूब से जा मिले। विसाल के बाद जब हज़रत को ग़ुस्ल के लिए लेकर जाने की तय्यारी हो रही थी तब तकिये के नीचे एक पर्ची मिली जिस पर यह अशआर लिखे थे –
ख़ुदा की हुज़ूरी में दिल जा रहा है
ये मरना है इस का मज़ा आ रहा है
तड़पने लगीं आशिक़ों की जो रूहें
ये क्या रूहुल–क़ुदुस गा रहा है
अदम का मुसाफ़िर बताता नहीं कुछ
कहाँ से ये आया कहाँ जा रहा है
आप के विसाल के बाद इस अजीब-ओ-ग़रीब बात का इन्किशाफ़ हुआ कि आपने दानापुर और आगरा में बेवाओं का माहाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर रखा था। आप हर शख़्स से मोहब्बत से पेश आया करते थे। हज़रत की दरगाह शाह टोली दानापुर में स्थित है।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी ने आने वाली नस्लों के लिए प्रेम का जो पौधा लगाया था आज वह विशाल वटवृक्ष बन चुका है। उन्होंने जिस हिन्दुस्तान का स्वप्न देखा था वो हिन्दुस्तान आज 75 साल का हो चुका है। आज भी हज़रत के कलाम ख़ानक़ाहों पर कसरत से पढ़े जाते हैं और सुनने वालों को प्रेम के सफ़र पर चलने का आमन्त्रण देते हैं।
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