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हज़रत शाह बर्कतुल्लाह ‘पेमी’ और उनका पेम प्रकाश

सुमन मिश्रा

हज़रत शाह बर्कतुल्लाह ‘पेमी’ और उनका पेम प्रकाश

सुमन मिश्रा

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    गीता में उल्लेख आया है क्षीणे पुण्ये, मृत्यु लोकं विशन्ति. कहते हैं कि देवताओं में केवल तीन तत्व होते हैं, जब यह क्षीण हो जाते हैं तो वह पांच तत्त्व की धरती पर फिर से पुण्य प्राप्त करने अवतरित होते हैं. इसीलिए धरती को कर्मभूमि भी कहते हैं. नश्वरता का यह बाग़ अनश्वर देवों को भी पोषित करता है. सूफ़ी संतों ने इस बाग़ को सिर्फ़ अपनी रचनाओं से सींचा बल्कि इस बाग़ में ऐसे फ़ना हुए कि सदा के लिए उनका नाम बक़ा रह गया. इतना ही नहीं सूफ़ी संत इस बाग़ में अनश्वरता के बहुमूल्य खज़ाने भी छुपा गए जिनसे आने वाली पीढियां फैज़याब होती रहें.

    आज नश्वरता के इस बाग़ के एक ऐसे ही अनश्वर पुष्प का ज़िक्र है जो अपनी रचनाओं और अपने विचारों से अमर हो गया. यह नाम है हज़रत शैख़ बरकतुल्लाह मार्हर्वी का जो हिंदी में ‘पेमी’ और फ़ारसी में ‘इश्क़ी’ उपनाम से शायरी करते थे.

    हज़रत शेख बर्कतुल्लाह का जन्म बिलग्राम में 1660 AD में हुआ था.वह श्रीनगर (बिलग्राम ) के रहने वाले थे और अपनी पहचान गर्व से पुरबी (हम पूरब के पुरबिया) लिखते थे..कुछ समय पश्चात उन्होंने श्रीनगर छोड़ दिया और मार्हरा में बस गए. हज़रत के पिता का नाम हज़रत शाह उवैस था. मज्मअ उल बरकात के अनुसार हज़रत के दादा हज़रत शाह अब्दुल जलील थे जो निहायत ही तन्हाई पसंद और भ्रमणशील प्रकृति के थे. हज़रत जलील एक बार अपनी इसी प्रकृति के कारण एक बार मार्हरा की ओर चल पड़े. सफ़र के दौरान वह कुछ समय बिलग्राम में ठहरे. यह वो ज़माना था जिन तारीख़ों में हज़रत बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार का उर्स हुआ करता था.मकनपुर जहाँ हज़रत ज़िन्दा शाह मदार की दरगाह है वह बिलग्राम से थोड़ी ही दूर पर स्थित है. मलंगों और मदारी सूफ़ियों की ज़मात हज़रत ज़िन्दा शाह मदार की दरगाह पर हो रहे उर्स में शामिल होने के लिए जा रही थी, हज़रत जलील साहब ने जब यह देखा तो वह उन्ही के साथ हो लिए. बिलग्राम में हज़रत की बहन का घर हुआ करता था. बहन ने उन्हें देख कर पहचान लिया पर हज़रत शाह जलील अपनी बेखुदी की हालत में किसी और ही धुन में थे और उन्होंने अपनी बहन की आवाज़ को भी अनसुना कर दिया. ब-मुशिकल उन्हें पकड़ कर घर लाया गया और बहुत समझाने बुझाने के बाद वह रुकने को तैयार हुए. सूफ़ी हर पल बातिन के सफ़र पर रहता है और हज़रत जलील के लिए ज़ाहिर और बातिन एक हो गए थे. रात को जब सब लोग सो रहे थे, हज़रत उठकर घर से बाहर निकल गए और अपनी यात्रा पर निकल पड़े. इसी सफ़र में आप का गुज़र अतरंगी खेड़े पर हुआ. यहाँ एक बुज़ुर्ग की मज़ार हुआ करती थी जो हुसैन शहीद के नाम से विख्यात थी. सन 570 हिजरी में जब सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी ने मार्हरा में क़त्ल-ए-आम मचाया था उस ज़माने से टीला जो कभी महल हुआ करता था, वीरान पड़ा था. सन 1071 हिजरी में हज़रत शाह जलील यहाँ से गुज़रे थे और कुछ वक़्त उन्होंने हुसैन शहीद की मज़ार पर बिताया था.धीरे-धीरे इनके यहाँ क़ियाम की ख़बर मार्हरा पहुंची और वहाँ के क़ानूनगो चौधरी वज़ीर ख़ान उनके स्वागत के लिए आये और उन्हें ससम्मान मार्हरा ले गए.हज़रत शाह जलील के बाद वहां के लोगों ने बड़ा प्रयास किया कि उनके बेटे हज़रत शाह उवैस भी मार्हरा में रहे पर उन्होंने मना कर दिया. वह कभी कभार यहाँ आया करते थे.सन 1097 हिजरी में बिलग्राम में उनका देहांत हुआ. हज़रत बरकतुल्लाह उनके बड़े बेटे थे. हज़रत बरकतुल्लाह का समय वह बताया जाता है जब औरंगजेब को तख़्त पर बैठे दो साल हो चुके थे.उनका जन्म सन 1070 हिजरी में कस्बा बिलग्राम, हरदोई में हुआ था.अपने पिता के विसाल तक आप का ज़्यादातर समय बिलग्राम में गुज़रा.अपने वालिद के विसाल के बाद हज़रत बरकतुल्लाह कालपी चले गए. हज़रत पर शेख अब्दुल क़ादिर जिलानी की शिक्षाओं का बड़ा प्रभाव था और यही लगाव उन्हें हज़रत शाह फ़ज़लुल्लाह की शरण में ले गया जो कालपी के बड़े क़ादरी संत थे. शैख़ ने उनकी जिज्ञासा शांत की और उन्हें क़ादरी सिलसिले की शिक्षाओं से अवगत कराया. आगे चलकर यह क़ादरी रंग उनकी रचनाओं में बारहा दृष्टिगोचर होता है.कालपी में हज़रत शाह फ़ज़लुल्लाह से बैत होकर हज़रत बरकतुल्लाह मार्हरा गए और यहीं बस गए. जहाँ वह रहते थे वह बस्ती आज बस्ती पीरज़ादग़ान के नाम से प्रसिद्ध है.थोड़े ही दिनों में जब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि वह मार्हरा में ही रहेंगे तब उन्होंने अपने परिवार को भी बिलग्राम से मार्हरा बुलवा लिया. हज़रत के दोनों साहिबज़ादों की पैदाइश बिलग्राम में ही हुई थी. हज़रत का प्रभाव इतना था कि थोड़े ही दिनों में मार्हरा शहर आबाद हो गया. हज़रत का विसाल 1729 AD में हुआ.

    हज़रत के जीवन काल में दिल्ली पर पाँच सुल्तानों का शासन रहा.

    औरंगजेब (1656-1707 AD)

    बहादुर शाह प्रथम (1707 -1712 AD)

    जहाँदार शाह (1712-1713 AD)

    फ़र्रुख्सियर (1713-1719 AD)

    मुहम्मद शाह (1719-1748 AD)

    हज़रत किसी बादशाह के दरबार में नहीं गए ही उनसे कोई उपहार स्वीकार किया.कहते हैं कि एक बार मुहम्मद शाह ने आप के ख़लीफ़ा हज़रत अब्दुल्लाह शाह साहब को कुछ नज्र पेश की थी. जब यह बात हज़रत शाह बरकतुल्लाह को मालूम पड़ी तो उन्होंने बड़े गुस्से का इज़हार करते हुए फ़रमाया- हमें मालूम है कि बादशाह से मिलने का तुम्हारा मन नहीं था लेकिन जब तुम्हें बादशाह के आमद की सूचना थी तो तुम्हें ख़ानक़ाह को छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिए था.

    हिंदी में इनकी एक रचना पेम प्रकाश मिलती है जिसे 1943 में लक्ष्मी धर ने संपादित किया था. यह किताब मूल पाण्डुलिपि से सम्पादित की गयी थी जिसमे 63 पन्ने थे और यह पाण्डुलिपि 9.3 इंच लम्बी और 5.2 इंच चौड़ी थी. संपादक ने उल्लेख किया है कि इस पाण्डुलिपि पर इसके संग्रहकर्ता का नाम हुसैन बैरागी अंकित है जो बहुत सम्भावना है कि वही हुसैन बैरागी मार्हर्वी हैं जिन्होंने राग कल्पद्रुम की रचना की है.

    पेम प्रकाश की रचना 1698 AD में हुई जब हज़रत की उम्र महज़ 38 साल थी. यह रचना अवध की मज्म उल बहरैन है.हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का इस से सुन्दर सम्मिश्रण इस काल में किसी कवि की रचनाओं में नहीं मिलता. हज़रत बर्कतुल्लाह की मातृभाषा हिंदी थी और उनकी हिंदी, संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, फ़ारसी, और अरबी आदि भाषाओँ पर सामान पकड़ थी. उन्होंने फ़ारसी और हिंदी में शायरी की है मगर इनका हिंदी काव्य फ़ारसी शायरी पर भारी पड़ता है. हिन्दू संस्कृति पर भी इनका ज्ञान अद्भुत था. वेदान्त और योग पर इनकी गहरी समझ थी. इनकी कविताओं में जो हिन्दू- मुस्लिम एकता का तत्त्व मिलता है वह इन्हें सूफ़ियों की सुलह कुली पारम्परा का ध्वजवाहक बना देता है.

    सूफ़ी मूलतः एक कलावादी होता है जो अपनी रचनाओं और कर्मों से एक ऐसे संसार की रचना करता है जिसमे पूरे विश्व के लिए जगह होती है.यह एक ऐसा वृहद् संसार होता है जिसमे एक सी ही सूरतें रहती हैं. प्रेम सब को एक बना देता है. अनेकता में एकता और विविधता में सौन्दर्य कल्पना सूफ़ियों के इस संसार में संभव हो जाती है.

    पेम प्रकाश को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- पहले भाग में 202 दोहे हैं, दूसरे भाग में 113 कवित्त और तीसरे भाग में 11 रेख्तों का संग्रह है.पेम प्रकाश की शुरुआत क्रमशः हम्द या ईश्वर स्तुति, हज़रत मुहम्मद(PBUH) की शान में ना’त, हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी की शान में मनक़बत, तत्कालीन बादशाह की चर्चा और उसके बाद दोहों से होती है. दोहों में हिंदी भाषा पर उनकी रचनाशीलता देखते बनती है. दूसरे भाग में कवित्तों का संकलन है जिनमें जगह जगह हज़रत शाह बरकतुल्लाह के निजी रूहानी अनुभवों की झलक मिलती है. कवित्त का मूल विषय प्रेम है जिसे उन्होंने कृष्ण और गोपियों के बीच के प्रेम से समझाया है. यह हिस्सा हमें सूर के भ्रमरगीत की याद दिलाता है. तीसरे हिस्से में रेख्तों का संकलन है और इस हिस्से में हिंदी और फ़ारसी आपस में गलबाहें डालती मालूम होती हैं.

    हज़रत बरकतुल्लाह रीतिकाल के कवि हैं, लेकिन इनकी रचनाओं में प्रेम सांसारिक सीमाओं को तोड़कर एक ईश्वरीय माध्यम बन जाता है.सूफ़ी कवि प्रेम की जब बात करते हैं तो वह प्रेम सार्वभौमिक होता है.हज़रत बर्कतुल्लाह भी सूफ़ी संतों की सुलह-कुली परंपरा को आगे बढाते हुए लिखते हैं

    ‘पेमी’ हिन्दू तुरक में, हर रंग रहो समाय

    देवल और मसीत में, दीप एक ही भाय.

    तसव्वुफ़ की शिक्षाएं भी उनके दोहों के साथ साथ चलती हैं

    ‘पेमी’ तन के नगर में, जो मन पहरा देय

    सोवे सदा अनन्द सों, चोर माया लेय.

    ‘तू मैं’ ‘मैं तू’ एक हैं, और दूजा कोय

    ‘मैं तू’ कहना जब छुटे, वही वही सब होय .

    भक्ति काल के संतों का भी प्रभाव हज़रत बर्कतुल्लाह की कविताओं में दिखता है

    हम बासी उस देस के, जहाँ पाप पुन्न

    विदिसा दिसा होत है, ‘पेमी’ सुन्ने सुन्न .

    तूही तूही सब कहै हौं ही हौं ही जाय

    जल गंगा में मिल गयो, सिर की गयी बलाय

    मन भटको चहुँ ओर ते, आयो सरन तिहार

    करुना कर के नाँव की, करिए लाज मुरार .

    हज़रत बर्कतुल्लाह ने अपनी कविता से आने वाले सूफ़ी शायरों के लिए एक मज़बूत बुनियाद रखी. यही सन्देश आगे चलकर आ’सी ग़ाज़ीपुरी और औघट शाह वारसी जैसे सूफ़ियों का कलाम में फला फूला.हिंदी, फ़ारसी, अरबी आदि भाषाओं पर इनके समान अधिकार होने का प्रभाव पेम प्रकाश में जगह जगह मिलता है जहाँ इनकी लेखनी इन भाषाओँ से खेलती मालूम पड़ती है-

    ‘मन युफ़िल्लहु’ जु हर भयो, भई पाप की मोट

    ‘फ़लाहादिलहु’ होय नहिं, करो जतन किन कोट.

    ‘मन अरफ़ा नफ्सा’ सेतीं, बूझौ मन के भेख

    ‘फ़कद अरफ़ा रब्बा’ सुनों नीरे हर को देख .

    दोऊ जग कूँ कहत है ‘ज़ाहिर बातिन’ रंग

    देह-देवरा पूजियो, तामे दोउ तरंग .

    शैख़ बर्तुकल्लाह ने अपनी मातृभाषा और सूफ़ी प्रतीकों का जो अनोखा सम्मिश्रण किया है वह हिंदी क्या फ़ारसी कवियों में भी दुर्लभ है.

    अपने कवित्तों में हज़रत सूफ़ी प्रेम की भक्तिमयी अभिव्यंजना करते दिखाई पड़ते हैं. शाह तुराब अली क़लन्दर और शाह काज़िम क़लन्दर के कलाम में भी यही रस दिखता है. ऊधो गोपियों को ज्ञान सिखाने गए हैं और गोपियों के प्रेम के आगे उनका ग्यान धरा का धरा रह जाता है. रीति काल में भ्रमर गीत शैली में बहुत काव्य लिखे गए.सूर के भ्रमर गीत की विलक्षणता तो जगत प्रसिद्ध है लेकिन अब हज़रत शाह बर्कतुल्लाह की कविता का भाव भी देखें-

    ऊधो तुम यह मरम जानो

    हम में श्याम श्याम मा हम हैं, तुम जनि अनत बखानो

    मसि में अंक अंक में महियाँ,दुविधा कियो पयानो

    जल में लहर लहर जल माहीं, कंह विधि विरहा ठानो

    जा मन साध समाध श्याम की, सोई बड़ो सयानो

    करे पीत मीत की ‘पेमी’ मन मूरख पछ्तानो .

    हज़रत मुहम्मद (PBUH) की शान में लिखा गया यह छप्पय अद्भुत है

    सिन्धु सलिल विमल सूर, अद्वैत अनंत वत

    नारायण घन गगन मगन परकास तड़ित गत

    नागलोक सुरलोक लोक मधम कुरहै चौदस

    पांचो मन तिन्ही जुगत साध, राखे तींख कस

    अस कवित्त सुकवि जग परकट किये और सब अंतरिच्छ

    हुतौ जो मुहम्मद नाम एक, करत करतार कछ .

    पेम प्रकाश के तीसरे और अंतिम हिस्से में रेख्तों का संकलन है जिनमे हिंदी और फ़ारसी शब्दों का बहुतायत से प्रयोग है. एक ही पद में हिंदी और फ़ारसी इतनी खूबसूरती के साथ गूथी गयीं हैं कि दोनों एक दूसरे की पूरक मालूम पड़ती हैं. हज़रत शाह बर्कतुल्लाह, शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी को बहुत मानते थे और उनकी शिक्षाओं का इनपर बड़ा प्रभाव था. पेम प्रकाश में इन पर भी कई पद मिलते है

    बचें सब पीर छिन में जिन्हों का पीर जीलानी

    करूँ उस नाम क्व ऊपर सों, तन मन जीव कुर्बानी

    क़ुतुब अब्दाल का साहेब, वली और गौस का नायिब

    जपें नित हाज़िरी ग़ायब, हबीबुल्लाह है सानी

    बड़ी सूरत बड़ी कीरत, सीरत बसीरत सों

    ख़िरद अस्तुति कहाँ जाने फ़िरासत रा(अ)स्त हैरानी

    बचाओ रीझि जन प्यारे, सों ‘पेमी’ दरस मतवारे

    हमारे नैन के तारे करो सीतल महा ज्ञानी.

    हज़रत बर्कतुल्लाह द्वारा रचित अन्य किताबों में दीवान उल्लेखनीय है जिसकी भाषा फ़ारसी है. दीवान में ज़्यादातर ग़ज़लों का विषय तसव्वुफ़ ही है . एक ग़ज़ल का हम उदहारण लेते हैं जिसका अनुवाद सूफ़ीनामा टीम के ही अब्दुल वासे साहब ने किया है

    अक्नूँ ख़याल-ए-बादः दर सर फ़िताद मा रा

    हाँ वाइ’ज़ा बरूँ शो पंदे म-देह ख़ुदा रा

    दर सोमिअ’: न-दीदम चंदाँ कि बस दवीदम

    आँ मय कि मस्ती-ए-ऊ शाही देहद गदा रा

    वय पीर-ए-दैर बा-मन मी-गुफ़्त अज़ तरह्हुम

    मय-ख़ुर कि राज़-ए-पिन्हाँ ख़्वाहद शुद आश्कारा

    जामे कि जम नदीदः साक़िया ब-मन देह

    कज़ बे-ख़ुदी न-दानम अहवाल-ए-मुल्क-ए-दारा

    ज़ीं बहर-ए-बे-निहायत दर पेच-ओ-ताब मांदम

    अज़ नोक-ए-ख़ार पुर्सी हाल-ए-बरहनः-पा रा

    हर मश्रबे कि गुफ़्तम हर लूलूए कि सुफ़्तम

    अज़ काशिफ़ी बदाने फ़ैज़स्त इ’श्क़िया रा

    अनुवाद

    अब मुझे बादानोशी का ख़याल पैदा हो गया है

    वाइ’ज़ो दूर हट जाओ और ख़ुदा के लिए मुझे नसीहत मत दो

    मैं ने बड़ी तग-ओ-दौ लेकिन सो’मिआ में मुझे शराब की

    वो मस्ती नसीब हुई जो गदा को मस्नद-ए-शाही पर बिठाती हो

    मय-कदे का पीर मुझ से अज़ राह-ए-शफ़क़त कह रहा था कि

    शराबनोशी कर कि राज़-ए-पिन्हाँ अब आश्कार हो जाएगा

    साक़ी मुझे वो जाम अ’ता कर जो जम को मिला हो इसलिए कि

    मुझे बे-ख़ुदी में दारा के अहवाल की कुछ भी ख़बर नहीं है

    मैं बहर-ए-बे-कराँ के अंदर भंवर में फंसा हूँ

    दोस्तो मेरे यारों को इस बाबत इत्तिलाअ’ दे दो

    मुझे जो हैरानी दरपेश है उस से मुतअ’ल्लिक़ मेरी जान मुझ से मत पूछ

    बरहना-पैर की बाबत तू कांटों की नोक से पूछ ले

    मैं ने जिस मश्रब के बारे में गुफ़्तुगू की और जो मोती पिरोए

    ‘इ’शक़ी’ वो तमाम काशिफ़ी का फ़ैज़ है

    हज़रत द्वारा लिखित महत्वपूर्ण किताबों में से एक किताब रिसाला सवाल जवाब है जिसमे प्रसिद्ध ईरानी कवि शबिस्तरी द्वारा लिखित गुलशन राज़ की ही तरह सवाल –जवाब द्वारा तसव्वुफ़ की जटिल गुत्थियों को सरल शब्दों में सुलझाया गया है. यह किताब भी फ़ारसी में है.

    एक कवि जब नयी भाषा सीखता है तो अक्सर अपनी मातृभाषा द्वारा प्राप्त देसज प्रतीकों और उपमाओं का प्रयोग कर उस भाषा में अपनी एक ख़ास पहचान बना लेता है. हज़रत को ब्रज से बड़ा लगाव था. वह लोगों को तसव्वुफ़ की जटिल गुत्थियाँ भी ब्रज में बोले जाने मुहावरों द्वारा ही समझाना चाहते थे और वह उसमे सफल हुए इस का सबूत उनकी फ़ारसी में लिखी किताब अवारिफ़ हिंदी है जिसमे उन्होंने ब्रज क्षेत्र में बोले जाने वाले मुहावरों द्वारा सूफ़ी सिद्धांतों की सरलतम व्याख्या की है. एक उदहारण प्रस्तुत है

    ‘ताली दोनों हाथ बाजे’ मा’नी-ए-मसल-ए-ज़ाहिर अस्त मन तक़र्रा-ब अलै-य शिबरन त-क़र्रबतु इलैहि ज़िराअ’न फ़ज़कुर्नी अज़कुर्कुम

    तर्जुमा:

    सूफ़ियों के यहाँ इस मसल से उस हदीस की तरफ़ इशारा है जिसमें कहा गया है कि जो मेरी क़ुर्बत के लिए एक बालिशत चल कर आएगा मैं उस की तरफ़ एक हाथ आगे चल कर आऊँगा। इस से क़ुरआन-ए-मजीद की आयत ‘तुम मुझे याद करो मैं तुझे याद करूँगा’ की तरफ़ भी इशारा है.

    हज़रत बर्कतुल्लाह निश्चय ही नश्वरता के इस बाग़ के अनश्वर पुष्प हैं जिनकी सुगंध आने वाली नस्लों की सोंच और हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब को सुगन्धित करती रहेगी

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