नाथ-योगी-सम्प्रदाय के ‘द्वादश-पंथ’-परशुराम चतुर्वेदी
नाथ-योगी-सम्प्रदाय के ‘द्वादश-पंथ’-परशुराम चतुर्वेदी
विश्वभारती पत्रिका
MORE BYविश्वभारती पत्रिका
नाथ-योगी सम्प्रदाय के इतिहास पर विचार करते समय हमारी दृष्टि, स्वभावतः, इसके उन अनेक पंथों व शाखा-प्रशाखाओं की ओर भी चली जाती है जिनके विभिन्न केन्द्र भारत के प्रायः प्रत्येक भाग में बिखरे पड़े हैं। उनके विषय में कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि वे पहले, केवल 12 पृथक्-पृथक् संस्थाओं के ही रूप में, संघटित हुए थे। इसीलिए, उन्हें ‘द्वादश-पंथ’ की संज्ञा भी प्रदान की जाती है। अतएव, यदि हम उनके प्रवर्तन-काल का कोई समुचित पता पा सके अथवा हमें केवल इतना भी विदित हो जा सके कि वे, अमुक व्यक्तियों द्वारा अथवा अमुक प्रकार की विशिष्ट परिस्थितियों में, स्थापित किये गये थे तो, संभव है, इससे उनके मूल सम्प्रदाय के इतिहास पर भी कुछ प्रकाश पड़ सके तथा उसकी अनेक बातें स्पष्ट हो जाएँ। परन्तु इन द्वादश पंथों का हमें अभी तक ऐसा कोई प्रामाणिक तथा सर्व-स्वीकृत विवरण नहीं मिल पाया जिससे इस विषय में यथेष्ट सहायता ली जा सके अथवा जिसके आधार पर हमें केवल इतना भी ज्ञात हो सकें कि उनका प्रारम्भिक रूप क्या रहा होगा। उनकी आज तक उपलब्ध सूचियों की संख्या लगभग 20 से ऊपर तक चली जाती है, किन्तु इन सभी में हमें पूरी एकरूपता नहीं लक्षित होती। इनमें सम्मिलित किये गये नामों में न्यूनाधिक विभिन्नता पायी जाती है और उनमें से किसी के द्वारा हमें ऐसा कोई स्पष्ट संकेत भी नहीं मिलता जिसके आधार पर इनमें से किसी एक को दूसरी से अधिक प्राचीन वा विश्वसनीय ठहराया जा सके। फिर भी इतना निश्चित है कि यदि इन सारी सूचियों का कोई तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तथा इस प्रकार इनके बीच किसी व्यवस्थित क्रम का अनुमान भी लगाया जा सके तो, अपने अनुसंधानकार्य में कुछ न कुछ प्रगति अवश्य हो सकेगी।
नाथ-पंथीय ग्रंथ ‘गोरक्षसिद्धांत संग्रह’ के अन्तर्गत, ‘शाबरतंत्र’ को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि आदिनाथ, अनादि, काल, अतिकाल, कराल, विकराल, महाकाल, कालभैरवनाथ, बटुक, भूतनाथ, वीरनाथ एवं श्रीकंठ ये 12 कापालिक है। वहीं पर उनके शिष्यों की भी 12 की ही संख्या बतलाकर उनके नाम नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्ष, चर्पट, अवद्य, वैराग्य, कन्थाधारी, जलन्धर एवं मलयार्जुन दे दिये गये हैं तथा इन्हें ‘मार्ग-प्रवर्तक’ तक भी ठहराया गया है। इस दूसरी नामावली के कम से कम दो-तिहाई नाम ऐसे है जो ‘नाथ-योगी सम्प्रदाय’ में भी प्रसिद्ध हैं जिस कारण यह अनुमान कर लेना स्वाभाविक है कि इनके द्वारा सम्बोधित व्यक्ति, कदाचित वे ही हो सकते हैं जिनकी गणना प्राय उसके नवनाथों में भी की जाती है तथा जिनके यहां पर ‘मार्ग प्रवर्तक’ भी कहलाने के कारण, उनका सम्बन्ध उक्त ‘द्वादशपथ’ के साथ होना असंभव नहीं है। परन्तु इनकी सूची के शेष नाम हमें, इस संबंध में उतने परिचित नहीं जान पड़ते और न उन सभी द्वारा कभी प्रवर्तित है जिससे हमें किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई सहायता मिल सके और इस प्रकार, हम यह कह सके कि इनमें से कोई भी व्यक्ति अमुक पंथ का प्रवर्तक रहा भी होगा वा नहीं। यहां पर हमें केवल इतना ही पता चलता है कि उक्त दूसरी सूची के नाम वाले, पहली सूची के नामधारियों का किसी-न-किसी रूप में अनुसरण करने वाले व्यक्ति रहे होंगे तथा उन्होंने किसी समय अपने ‘मार्गों’ वा पंथों की स्थापना भी की होगी।
प्रो. ब्रिग्स ने किसी ऐसी परम्परा का उल्लेख किया है जिसका उन्होंने, गोरक्षटिल्ला (जि. झेलम, पंजाब) में, प्रचलित होना बतलाया है तथा जिसके आधार पर, उनके अनुसार, प्राचीन शैव सम्प्रदायों का भी कुछ न कुछ संकेत मिल जाता है। ‘टिल्ला’ वालों का कहना है कि पहले 18 पंथ ऐसे थे जिन्हें शिव ने प्रवर्तित किया था और 12 वें थे जिन्हें गुरु गोरख नाथ ने चलाया था। फिर पीछे, जब इन दोनों वर्गों वालों में परस्पर संघर्ष होने लगा तो, इसके परिणाम स्वरूप, उक्त प्रथम के 6 तथा, उसी प्रकार द्वितीय के 6, अंत में, शेष रह गये और इन्हीं के नाम, कनफटा योगियों में ‘द्वादशपंथ’ में परिगणित किये जाने लगे। प्रो. ब्रिग्स ने उक्त कुल 18 एवं 12 पंथों की कोई पूरी सूची नहीं दी है और न उन्होंने हमें यही बतलाया है कि इनका सर्वप्रथम संघटन कब हुआ था अथवा इनका 30 में से छँटकर केवल 12 मात्र ही रह जाना किस प्रकार सम्भव हुआ। उन्होंने, इन बचे हुए पंथों की तालिका देते समय, इतना मात्र कहा है कि इनमें से (1) कच्छ प्रांत के भुजवाला, कंथड़ नाथ, (2) पेशावर एवं रोहतक वाला ‘पागलनाथ’, (3) अफगानिस्तान का ‘रावल’, (4) ‘पंख’, (5) मारवाड़ का ‘वन’ एवं (6) ‘गोपाल’, व ‘राम के’ नामों से सूचित होने वाले पंथ शिव के द्वारा प्रवर्तित हैं तथा इसी प्रकार, (7) ‘हेठनाथ’, (8) विमला देवी वाले आई पंथ का ‘चौलीनाथ’ (9) ‘चंदनाथ’ कपलानी, (10) रतढोंढा (मारवाड़ का) ‘वैराग’ वा रतननाथ, (11) जयपुर का पावनाथ (जिसमें जालन्धर या कानिपा और गोपीचंद भी सम्मिलित हैं) एवं (12) ‘घज्जनाथ’ (जिसके सदस्य विदेशी लोग हैं) ये गुरु गोरखनाथ द्वारा चलाये गये हैं। उनके अनुसार ऐसी परम्परा के आधार पर हमारे इस अनुमान को भी बल मिल सकता है कि किस प्रकार गुरु गोरखनाथ ने प्राचीन शैव सम्प्रदायों को नवीन रूप दे दिया होगा। इसके सिवाय इतना और भी समझ लिया जा सकता है कि उक्त प्रथम 6 सूची वाले पंथ, संभवतः दूसरी वालों से प्राचीनतर भी रहे होंगे।
परन्तु एक महानुभावीय ग्रंथ के अन्तर्गत हमें ऐसे 30 पंथों के भी नाम बतलाये गये दीख पड़ते हैं जिन्हें लगभग उक्त प्रकार से ही 18 एवं 12 के दो भिन्न-भिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है, किन्तु जिन्हें वहां पर क्रमशः ‘अठरापंथजती’ एवं ‘वारापंथी योगी’ जैसे पृथक्- पृथक् नाम भी दिये गये हैं। जिस कारण यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाता कि इनमें से किसका मूल प्रवर्तक कौन रहा होगा।
इसके अतिरिक्त यहां पर हमें इस बात की भी कोई सूचना नहीं मिलती कि इनमें से किसी के पंथ का कभी विघटन हुआ भी था या नहीं, उक्त ग्रंथ से उद्धृत किये गये पाठ वाले सभी नाम पाठ स्पष्ट नहीं है और कुछ तो संदिग्ध से भी लगते हैं, किन्तु ये किसी एक मतविशेष की ओर संकेत करते हैं जिस कारण, कदाचित् इनके भी आधार पर हमे तथ्य का परिचय पाने में कुछ न कुछ सहायता मिल सकती है। इस मत के अनुसार (1) नाटेश्वरी, (2) लक्षणपंथी (3) पार्वतीनाथी (4) अभगनाथी (5) कापिल (6) भरथरीवैराग्य (7) पंथ (8) आई पंथ (9) राउल (10) पावपथी (11) यागुल एवं (12) दासमार्गी ये ‘वारापथी योगी’ थे इसी प्रकार (13) सतनाथपथी (14) सांतीनाथी (15) गुललम (?) (16) प्रेमनाथी (17) हायसेखीन (18) उखालपंथी (19) नाथलक्षण (20) रामनाथी (21) वक नाथी (22) वैरागी (23) गमपंथी, (24) चोलीक (25) गगनाथी (26) गोपालपथी (27) हेमार्गी (28) धनंजय (29) गजकथडी एवं (30) नागार्जुनपंथी ये ‘अठरापंथजती’ थे। इन 30 में से कई की गणना उपर्युक्त प्रो. ब्रिग्स की सूचियों में भी की गई दीख पड़ती है। परन्तु यदि इनमें से ‘वारापंथी योगों’ वालों की, उनके अनुसार गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित तथा ‘अठरापंथजती’ वालों को भी, उसी प्रकार, शिव द्वारा चलाया गया मान लिया जाय उस दशा में, एक वर्ग के नामों के दूसरे में पाये जाने की समस्या खड़ी हो जाती है। इस कारण, हमारे लिए किसी एक को दूसरे से प्राचीनतर स्वीकार करने पर लिए उनका असंदिग्ध आधार भी नहीं रह जाता जिससे आवश्यक सहायता मिल सके।
‘द्वादशपंथी की प्रो. ब्रिग्स वाली उप्रुय्कत सूची के नाम उस एक अन्य ऐसी ही तालिका में भी आ गये हैं, जिसे, सत्यनाथ तीर्थ नामक एक छोटे से साम्प्रदायिक ग्रंथ के अंतर्गत ‘बारह पंथ संग्रह’ शीर्षक के, नीचे, प्रथम स्थान दिया गया है। इसके आगे उस पुस्तक में 4 अन्य ऐसी सूचिया भी दी गई हैं तथा, इसी प्रकार, एक 5वीं सूची उसके अंतिम पृष्ठ पर भी आती है। परन्तु इन छह में से किसी के भी सभी नाम ठीक वे ही नहीं जान पड़ते जिनका उल्लेख प्रो. ब्रिग्स ने उक्त प्रकार से किया। इस कारण अधिक से अधिक उपर्युक्त दो ही मात्र का आधार एक समझा जा सकता है शेष के लिए अन्य आधारों का भी अनुमान किया जा सकता है। इन दोनों पंथों वाले नामों से हमें केवल इतना ही अन्तर दीख पड़ता है कि एक तो उन्हें दोनों के अन्तर्गत ठीक एक ही क्रमानुसार दिया गया नहीं पाया जाता और दूसरा यह कि प्रथम के ‘पागल’ को यहां ‘पाकल’ तथा उसके ‘हेठ’ को ‘हेत’- जैसे रूप दे दिये गये दीखते हैं जो, कदाचित् उच्चारण भेद के भी कारण, संभव हो सकता है जिस कारण इस बात को उतना महत्व भी नहीं दिया जा सकता। ‘सत्यनाथ तीर्थ’ वाली उक्त अन्य ऐसी सूचियों में से द्वितीय के अन्तर्गत केवल 9 नाम ही आये हैं, जिससे यह अधूरी भी कहीं जा सकती है। परन्तु इसके ये नाम भी ग्रंथ की तृतीय सूची वाले वैसे नामों से अधिक भिन्न नहीं प्रतीत होते। इन दोनों से न्यूनाधिक मिलती जुलती एक सूची हमें अन्यत्र भी मिल जाती है, जिसका विवरण ‘बारह पंथी की साखी’ नामक एक छोटी सी रचना में उपलब्ध है। यह रचना अभी हस्तलिखित रूप में ही मिल सकी है और यह बीकानेर की ‘अनूप संस्कृत लाइब्रेरी’ में सुरक्षित है। अतएव, यदि हम इन तीनों ही सूचियों के लिए किसी एक सामान्य आधार की कल्पना कर सकें और तदंनर इनके अनुसार उपलब्ध परिणाम का, उपर्युक्त दोनों सूचियों पर आश्रित अनुमान के साथ, कोई तुलनात्मक अध्ययन भी कर सकें तो, यह संभव है कि, हमें इन पांचों के भी विषय में कोई स्पष्ट संकेत अवश्य मिल जाय।
‘बारहपंथी की साथी’ वाले उपर्युक्त विवरण में आये हुए 12 नामों की सूची इस प्रकार दी जा सकती हैः—-
(1) हेतपंथी (2) आई जोगी (3) पांपाचपंथी (4) रावल जोगी (5) खंथड़ जोगी (6) पागल जोगी (7) धजजोगी (8) गमनिरंनज (9) चोली पंथी (10) वनजोगी (11) दास जोगी एवं (12) पंख जोगी।
और यदि ‘सत्यनाथतीर्थ’ वाली द्वितीय सूची 6 को अधूरी मानकर उसे छोड़ दिया जाय तो, उसकी वैसे ही नामों की तृतीय पूरी सूची का नाम-क्रम एवं विवरण इस रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैः—-
(1) पाकल (2) रावल (3) दास (3) दास (4) कंथड़ (5) पाव (6) वन (7) आई (8) हेत (9) धज (10) गोपाल (11) चोली एवं (12) गम।
जिससे स्पष्ट हो जाता है कि इन तीनों में बहुत कम साम्य है और अंतर बहुत कम है। दोनों पूरी सूचियों में ही ‘हेत’, ‘आई’, ‘रावल’, ‘कंथड़’, ‘धज’, ‘चोली’, ‘वन’, ‘गम’ एवं ‘दास’ में 9 नाम प्रायः ठीक एक समान आये हैं, एक के ‘पागल’ एवं दूसरे के ‘पाकल’ में कोई विशेष अंतर नहीं है तथा उसका ‘पांवा’ भी कदाचित इसके ‘पाव’ से अधिक भिन्न नहीं जान पड़ता। केवल पहली के ‘पंख’ का दूसरी में तथा दूसरी के ‘गोपाल’ का पहली में कहीं पता नहीं चलता और न इसका हमें कोई कारण ही ज्ञात होता है। अतएव, यदि पांचों ही सूचियों वाले नामों का एक तुलनात्मक अध्ययन फिर किया जाय तो, हमें कम से कम ‘रावल’, ‘कथड़’, ‘पागल’, ‘धज’, ‘चोली’, ‘वन’ एवं ‘पंख’ प्राय एक समान जान पड़ेंगे, ‘हेत’ का ‘हेठ’ बन गया प्रतीत होगा तथा इसी प्रकार ‘पापा’ का ‘पावा’ और ‘पात्र’ भी एक सिद्ध हो सकेंगे। केवल ‘आई’ तथा ‘चंद’, ‘गम’, तथा ‘वैराग’ तथा ‘दास’ और ‘गोपाल’ के ही एक समान होने में कुछ संदेह किया जा सकेगा। इसी प्रकार, यदि ‘बारह पंथी की माखी वाली सूची उपर्युक्त प्रो. ब्रिग्स वाली सूची से किसी प्रकार प्राचीनतर ठहरायी जा सके तो, यह भी अनुमान किया जा सकता है कि उसके ‘आई’, ‘गम निरंजन’ तथा ‘दास’ नामक पंथों में पीछे कुछ परिवर्तन आ गया होगा। इसके सिवाय, इनके विवरणों के सम्बन्ध में विचार करने पर, हमें ऐसा भी लगता है कि इनमें से किसी एक के लिए शिव द्वारा पूर्व प्रवर्तित तथा दूसरी के लिए गुरु गोरखनाथ द्वारा पूर्व प्रवर्तित मान लेने के लिए भी कोई निरा काल्पनिक आधार ही रहा होगा। इनमें से प्रथम वर्ग के लिए पंथों की संस्था का 18 होना तथा द्वितीय वर्ग के लिए केवल 12 तक ही रह जाना भी, विश्वसनीय प्रमाणों के अभाव में, किसी तथ्य पर आधारित नहीं जान पड़ता। जोधपुर के नाथ पंथी महाराज मानसिंह (सन् 1783-1843 ई.) की कतिपय पंक्तियों से तो हमें ऐसा जान पड़ता है कि योगियों के ‘पावन पंथ’ वस्तुत ‘द्वादश’ ही रहे होंगे और उनके साथ-साथ छह और भी ‘अद्भूत वर्गों की गणना कर दी जाती रही होगी जिनके नाम भी उन्होंने दिये हैं। तदनुसार (1) हेत (2) पाव (3) आई (4) गम (5) पागल (6) गोपाल (7) दास (8) कथड़ (9) वन (10) धज (11) चोली एवं (12) पच (कदाचित् पंख) की गणना उन्होंने द्वादश पंथ में की हैं और (1) नाटेश्वर (2) सतनाथ (3) गगनाथ (4) रामके (5) कपिल (कदाचित् कपिलानी) एवं (6) वैराग को शेष छह में रखा है जिससे कुच की संख्या 18 की हो जाती है।
‘द्वादश पंथ’ वाले नामों की हमें कुछ ऐसी भी सूचियां प्राप्त है जिनके प्रवर्तकों को स्पष्ट शब्दों में गुरु गोरखनाथ का शिष्य कहा गया है और फिर भी ऐसे व्यक्तियों के नामों में बहुत अन्तर भी दीख पड़ता है। मेकलेगैन वाली पंजाब की जन-गणना रिपोर्ट (सन् 1891 ई.) से पता चलता है कि इस प्रकार की सूची के अन्तर्गत जो नाम आये थे वे ये हैः— (1) संतनाथ, (2) रामनाथ, (3) अभंगनाथ, (4) भरंगनाथ, (5) घरनाथ, (6) गंगाई नाथ, (7) अजनाथ, (8) जालन्धर नाथ, (9) दर्पनाथ (10) कनकनाथ, (11) नीमनाथ और (12) नागनाथ। जो मौ. नूर अहमद की पुस्तक ‘तहकीकाते चिश्ती’ में भी प्रायः ठीक इन्हीं रूपों में पाये जाते हैं। एक प्रमुख अन्तर यह है कि उनकी संस्था केवल 9 की है जिस कारण उनमें इसके भरंगनाथ, दर्पनाथ एवं नीमनाथ का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता।
इसी प्रकार वैसे 12 नाम हमें मारवाड़ की जन-गणना सम्बन्धी सन् 1895 ई. वाली रिपोर्ट में भी दीख पड़ते हैं जो इस प्रकार हैः— (1) संतनाथ (2) रामनाथ (3) भृंगनाथ (4) धर्मनाथ (5) वैरागनाथ (6) दरियानाथ (7) गंगनाथ (8) ध्वजानाथ (9) सिद्ध विचारनाथ (10) नागनाथ (11) गंगाई नाथ और (12) लछमननाथ, जिन्हें हम प्रायः इन्हीं रूपों में रोज़ के ग्रन्थ ‘ग्लॉसरी’ में भी पाते हैं। इसके सिवाय इन्हीं नामों को हम, एक अन्य पुस्तक के भी अन्तर्गत, ‘श्री गुरु गोरक्षनाथ जी योगेश्वर के 12 शिष्य शीर्षक के नीचे देखते हैं। रोज़ वाली सूची में केवल 7 ही नाम आये हैं जिस कारण वह अधूरी भी कही जा सकती है तथा उसमें पाये जाने वाले दो नामों अर्थात् ‘कापिक नाथ’ एवं ‘नीमनाथ’ इसके अनुसार, नितांत नवीन भी जान पड़ते हैं। गुरु गोरखनाथ के 12 शिष्यों की एक ऐसी ही सूची विलियम क्रुक ने किसी पंजाब-सम्बन्धी पुस्तक से उद्धृत की है और इसकी चर्चा उन्होंने कनफटा लोगों के प्रसंग में की है। इसका विवरण नीचे लिखे ढंग से दिया गया मिलता हैः— (1) मठेसरी के संस्थापक गोरखशिष्य लक्ष्मण (2) सतनाथ (जो ब्रह्मा का अनुसरण करने वाले कहे गये हैं) (3) सतनाथ (जिन्ह रामचन्द्र का अनुयायी कहा गया है) (4) भर्त्तृनाथ (5) पपख (6) कामधज (7) हैठझौली (8) ब्रजधजपथ (9) चन्दमरग (10) दाम गोपाल (11) मस्तनाथ और (12) आर्यपथ जिनमें से कुछ तो व्यक्तित्वापक जान पड़ते है, किन्तु अन्य केवल संख्या-सूचक से ही लगते हैं। इन सभी के साथ उपर्युक्त नामों की तुलना करने पर यथेष्ट साम्य भी नहीं दीख पड़ता जिसके आधार पर कोई स्पष्ट निष्कर्ष निकाला जा सके। क्रुक मैं यहां पर यह भी बतला दिया है कि कनफटा लोग प्राय केवल चार ही गोरखशिष्यों ब्रह्मा, राम, लक्ष्मण तथा कपिलानी के नाम लिखा करते हैं और अन्य को उतना महत्व देते नहीं जान पड़ते हैं। परन्तु गोरखपंथी ‘जोगियों का परिचय देते समय उस लेखक ने जहां वैसे शिष्यों के नाम लिये हैं वहां पर उसने दो अन्य सूचियाँ भी दी हैं जो इस प्रकार हैः—
(क) सतनाथ, धर्मनाथ, कामनाथ, आडनाथ, मस्तनाथ, अमपथी, कलेपा, धजपथी, हडीविरग, रामके, लछमन के एवं दरियानाथ तथा (ख) आईपथ, रामके, भर्तरी, सतनाथ, कनिक की, कपिलमुनि, लछमण, नटेसर, रतननाथ, संतोखनाथ, धजपंथी और माननाथ जिनके आधार पर भी हमें कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता।
अतएव, इस वर्ग की उपर्युक्त सभी सूचियों की तुलना करने पर, हमें केवल धजनाथ का ही नाम सर्वत्र मिलता है और इसके अनतर फिर सतनाथ एवं रामनाथ का रामके तथा भरग के नाम लगभग एक समान आते हैं। नागनाथ और फिर इससे भी कम धर्मनाथ, दरिया, वैराग, मस्तनाथ, रामनाथ, भर्तरी, नीमनाथ, गगनाथ और गगाई नाथ आये हैं, जिस कारण कहा जा सकता है कि ऐसी सूचियों में हमें उतने नाम-साम्य के उदाहरण नहीं मिलते।
नाथ-योगी सम्प्रदाय के गोरखपुर वाले केन्द्र की परम्परा के अनुसार द्वादशपंथों के नाम इस प्रकार दिये जाते हैं—
(1) सत्यनाथी (2) धर्मनाथी (3) रामपंथ (4) नाटेश्वपी (5) कन्हड, (6) कपिलानी (7) बेराग (8) माननाथी (9) आई पंथ (10) पागल (11) ध्वजपथ और (12) गंगानाथी, जिससे यह भी प्रकट होता है कि ये उपर्युक्त सूचियों वाले नामों से कुछ भिन्न ठहरते हैं। इनमें न तो उनका ‘हेत’ है न ‘पाव’ है, न ‘रावल’ है, न ‘गम’ है, न ‘चोली’ है, न ‘वन’ है, न ‘दास’ है और न ‘पंख’ ही दीख पड़ता है। इनमें उनमें से प्राचीनतम जान पड़ने वाली ‘साखा की सूची के केवल कन्हड़ (कंथड़), पागल, आई और ध्वज (धज) मात्र ही रह गये हैं। इनके अन्तर्गत वैराग और कपिलानी (चंद) भी दिखलाई पड़ते हैं जो ब्रिग्स द्वारा दी गई सूची में भी वहां पर संगृहीत हैं और जिसके आधार पर हम यह भी अनुमान कर सकते हैं कि ये नाम वहां किसी पिछले परिवर्तन के परिणाम स्वरूप आ गये होंगे। प्रो. ब्रिग्स का तो यह भी कहना है कि ‘सत्यनाथ’ भी (जिसे उक्त गोरखपुरी परम्परावाली सूची के अनुसार यहाँ ‘सत्यनाथी’ कहा गया दीख पड़ता है) गोरक्षटिल्ला की परम्परा के अनुसार वस्तुतः प्राचीन ‘पंख’ नामक पंच से संबद्ध माना जाता है। इसी प्रकार संभवतः ‘धर्मनाथी’ भी ‘पंख’ में ही आ जाता है तथा ‘नाटेश्वरी’ को ‘हेठनाथ’ (हेत) के साथ जोड़ दिया जाता है। यह सूची कदाचित् अधिक प्रचलित है और इसके नामों की तुलना में हम 4 अन्य सूचियाँ भी यहाँ पर उद्धृत कर सकते हैं जो इस प्रकार हैः—
1- ‘सत्यनाथतीर्थ’ की पांचवी सूची 19
(1) सत्यनाथ (2) धर्मनाथ (3) वैराग्य (4) राम (5) कपलानी (6) पागल (7) नटेश्वरी (8) मन्नानाथ (9) गंगानाथ (10) रावल (11) पाव और (12) आई।
2- ‘सत्यनाथ तीर्थ’ की छठी सूचीः
(1) सत्यनाथी (2) धर्मनाथी (3) कपिल के (4) राम के (5) गंगानाथ के (6) आई पंथी (7) मन्नानाथी (8) ……………. (9) रावल (10) पागल (11) दरियानाथी और (12) पावपंथी।
3- डा. कल्याणी मल्लिक की सूची
(1) सत्यनाथ, (2) रामनाथ (3) धर्मनाथ (4) लक्ष्मणनाथ (5) दरियानाथ (6) गंगानाथ (7) वैरागनाथ (8) रावल (9) जालंधरिया (10) आई पंथ (11) कपलानी (12) बलनाथ और (13) कानिपा।
4- डा. चन्दोला की सूची
(1) सत्यनाथ (2) धर्मनाथ (4) लक्ष्मणनाथ (5) दरियानाथ (6) गंगानाथ (7) वैरागनाथ (8) पागल (9) पावनाथ (10) आईपंथ (11) कपिलनाथ और (12) धजनाथ।
इन चार तथा गोरखपुरी परम्परा वाली सूची में भी सत्यनाथ, धर्मनाथ, रामनाथ, आई पंथ, कपिलानी एवं गंगानाथी ये 6 एक समान जान पड़ते हैं। इनमें से 4 में वैरागनाथ तथा पागल है 3 में पावनाथ, दरियानाथी, रावल तथा धजनाथ है तथा 2 में नाटेश्वरी, लक्ष्मणनाथ और मन्ननाथी भी किसी न किसी रूप में आ गये दीख पड़ते हैं। केवल 1 में कथड़ और 1 में ही कानिपा भी पाया जाता है और यह दूसरा वस्तुतः 13 वां पथ बनकर वहां प्रवेश कर गया है।
कानिपा पंथ को एक तेरहवां स्थान प्रदान करने की प्रथा हमें प्रो. ब्रिग्स की उस सूची में भी दीख पड़ती है जिसे उन्होंने अन्यत्र कुछ अधिक विवरण के साथ दिया है तथा जिससे 3 अन्य सूचियों को भी एक समान ठहराया जा सकता है। तदनुसार इन चारों के भी नाम क्रमशः निम्न रूप में दिये जा सकते हैं—
1- प्रो. ब्रिग्स की सूची सं.
(1) सतनाथ (2) रामनाथ (रामके) (3) धरमनाथ (4) लक्ष्मणनाथ (5) दरियानाथ (6) गंगानाथ (7) वैरागनाथ (8) रावल वा नागनाथ (9) जालंधरिया (10) आई पंथ (11) कपलानी (12) धजनाथ और (13) कानिपा।
2- ‘सत्यनाथ तीर्थ’ की 4 थी सूची
(1) आई पंथी (2) कपिलानी (3) सत्यपंथी (34) धर्मपंथी (5) वैराग पंथी, (6) गंगानाथी (7) रामपंथी (8) लक्ष्मणपंथी (9) नटेसरी (10) पिंगल पंथी (11) धजपंथी और (12) कान्हपा।
3- डा. ह. प्र. द्विवेदी की सूची
(1) सत्यनाथी (2) धर्मनाथी (3) रामनाथ (4) लक्ष्मणनाथ (5) जालंधरिया (6) कपिलानी (7) वैरागपंथ (8) नागनाथ (9) आई पंथ (10) दरियानाथ (11) धजपंथ (12) गंगानाथी और (13) कानिपा।
4- दबिस्ताने मज़ाहिब की सूची
(1) सत्यनाथ (2) नटीरी (3) वैराग (4) आई पंथी (5) चोली (6) हांडी (7) कश्यप (8) अर्धनारी (9) नामारा (10) अमरनाथ (11) कान्हिवदास और (12) तारानकदास।
इन चारों सूचियों में केवल सतनाथ वा सत्यनाथ, वैराग नाथ, आई पंथ एवं कनिपा ही किसी न किसी रुप में सर्वत्र पाये जाते हैं। उसी प्रकार धर्मनाथ, रामनाथ, गंगानाथ, लक्ष्मणनाथ, कपिलानी एवं धजनाथ भी तीन में लगभग एक समान हैं और दरियानाथ, नागनाथ तथा जालंधरिया केवल दो में ही आते हैं। इनकी तथा गोरखपुर वाली सूची की भी नामावलियों में वस्तुतः विशेष अन्तर नहीं दीख पड़ता और जो कुछ बातें भिन्न-भिन्न जान पड़ती हैं, वे उतनी स्पष्ट नहीं। परन्तु ‘दबिस्ताने मज़ाहिब’ वाली सूची के अन्तर्गत कुछ ऐसे नाम भी आ गये हैं जिनका अन्यत्र पता नहीं चलता।
अतएव, यदि उपर्युक्त सारी सूचियों पर एक साथ विचार किया जाय तो इसके फलस्वरूप हमारे सामने कुछ ऐसे भी परिणाम आ सकते हैं जिनके आधार पर हमें ‘द्वादश पंथ’ के विषय में अनुमान करते समय उतनी कठिनाई नहीं रह जाती। इतना स्पष्ट हो जाता है कि उनमें आये हुए नामों का समावेश एक ही समय तथा एक ही मत के अनुसार भी नहीं किया गया होगा। इन सभी के बनाने वालों का उद्देश्य एकमात्र ‘द्वादशपंथ’ का परिचय देना होने पर भी, उन्होंने ऐसा करते समय अपने यहां की प्रचलित साम्प्रदायिक परम्परा का अनुसरण अवश्य किया होगा तथा उसी के अनुसार उन्होंने अपने लिए विविध नाम भी चुने होंगे। इसके सिवाय, यह भी संभव है कि उन्होंने, अपनी इस प्रकार की मनोवृत्ति के ही कारण, कभी-कभी पहले से आते हुए नामों में से कुछ को निकालकर उनकी जगह ऐसे अन्य नाम भी डाल दिये होंगे जिन्हें उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण समझा होगा। सर्वप्रथम सूची किसने और कब तैयार की होगी इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलता और न हमें इस समय यही निश्चित रूप से ज्ञात हो पाता है कि ‘द्वादशपंथ’ की भावना का वास्तविक मूल आधार क्या रहा होगा। उपर्युक्त सामग्रियों की सहायता से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि या तो इस प्रकार की कल्पना, किसी अन्य सम्प्रदाय में प्रचलित परम्परा के अनुसरण में, कर ली गई होगी अथवा गुरु गोरखनाथ के ‘शिष्य-प्रशिष्यों’ में से किसी को स्वयं इसकी उपयोगिता जान पड़ी होगी और उसने, अपनी साम्प्रदायिक संगठन-पद्धति का वास्तविक रूप निर्धारित करने के प्रयास में, ऐसा कर दिया होगा। यों तो उपर्यक्त ‘बारह पन्नों की साखी’ के अंत में यह भी दिखलाया गया है कि इसे ‘सम्मुनाथ’ ने गोरखनाथ से, गोरखनाथ ने ‘सित्तिनाथ’ से तथा उन सित्तिनाथ ने भी ‘बिरमा पख जी’ से कहा था? और, इस प्रकार वह अत्यंत प्राचीन तक बन जाती है। वहां पर, 12 भिन्न-भिन्न पद्यों के अन्तर्गत, क्रमश द्वादशपंथों के जोगियों की कतिपय विशेषताओं का भी उल्लेख किया गया है, किन्तु इस बात की ओर कोई भी संकेत किया गया नहीं पाया जाता जिसके आधार पर यह ज्ञात हो सके कि उनकी पद्धति का आरंभ कब एवं किस प्रकार हुआ होगा।
इन उपलब्ध सूचियों पर विचार करते समय हमें ऐसा भी लगता है कि यदि हम चाहे तो, इन्हें विभिन्न वर्गों में भी ला सकते हैं। उपर्युक्त ‘साखी’ वाली सूची के साथ हम ‘सत्यनाथ तीर्थ’ वाली सूची सं. 3 एवं 2 को रख सकते है, पंजाब की जन-गणना रिपोर्ट (सन् 1891 ई.) वाली सूची के साथ ‘तहकीकाते चिश्ती’, ‘मारवाड़ की जन-गणना रिपोर्ट (सन् 1898 ई.) तथा रोज़ वाली सूचियों को स्थान दे सकते हैं। इसी प्रकार क्रुक की उन तीन सूचियों पर भी एक साथ विचार कर सकते हैं जिनका उल्लेख उन्होंने अपने यहां ‘जोगियों’ आदि की चर्चा करते समय किया है। इसी नियमानुसार एक तीसरा वर्ग हम उस गोरखपुर वाले केन्द्र की सूची के आधार पर भी कल्पित कर सकते हैं जिसके नाम ‘सत्यनाथ तीर्थ’ की सं. 5 एवं 6 तथा डा. कल्याणी मल्लिक और डा. चन्दोला द्वारा दी गई सूचियों वाले ऐसे नामों से बहुत कुछ मिलते हैं और एक अन्य चौथे वर्ग का भी अस्तित्व उन सूचियों के आधार पर स्वीकार कर लिया जा सकता है जो प्रो. ब्रिग्स, डा. द्विवेदी और ‘सत्यनाथ तीर्थ’ की सूची सं. 4 तथा ‘दबिस्ताने मज़ाहिब’ के अनुसार दी जा चुकी है और जिनकी एक तुलना भी ऊपर कर दी गई है। इन चारों वर्गों की कुछ न कुछ अपनी पृथक्-पृथक् विशेषताएं जान पड़ती हैं जो, उनमें आये हुए नामों के न्यूनाधिक साम्य तथा कभी-कभी उनके रूप एवं क्रमोल्लेख के विचार से भी, निश्चित की जा सकती हैं तथा जिनके आधार पर उनमें से किसी एक का दूसरे से कुछ पहले वा पीछे प्रारम्भ किया जाना अनुमान करने में हमें सहायता मिल सकती है। इसके सिवाय हम इसी के सहारे इन सूचियों वाले कुछ नामों के कभी-कभी क्रमशः लुप्त होते जाने अथवा अन्य रूपों में परिवर्तित होते जाने के विषय में भी अपनी एक धारणा बना ले सकते हैं। तदनुसार यह कह सकते हैं कि उनका क्रमविकास किस प्रकार सम्भव हुआ होगा। इतना तो निश्चित ही है कि ऐसी प्रासंगिक सूचियों वाले नामों तथा आधुनिक सूचियों में पाये जाने वालों में प्रत्यक्ष साम्य का पता लगाना अत्यन्त कठिन है और कम से कम, उनमें इनके समाविष्ट किये जाने का कालनिर्णय प्रायः असम्भव सा भी है।
निष्कर्ष यह कि, यदि इन द्वादशपंथों की उपलब्ध सूचियों में ‘बारहपंथी की साखी’ वाली को सबसे पुरानी मान लें उस दशा में, हमें पता चलेगा कि जो वहां पर ‘निरंजन जोगी’ है वह आगे ‘सत्यनाथ तीर्थ’ वाली सूची में ‘गम’ वा ‘गमी’ का रूप धारण कर लेता है, किन्तु फिर इसके आगे उसका कहीं पता नहीं चलता तथा, इसी प्रकार, उसका ‘चोली जोगी’, भी ‘सत्यनाथतीर्थ’ की सूची सं. 3 तक ही रह जाता है। यही दशा क्रमशः ‘वन जोगी’ एवं ‘दासजोगी’ की भी है जो कम से कम अपने इन रूपों में कभी आगे नहीं दीख पड़ते। इसके विपरीत हमें पता चलता है कि उसका ‘हेतपंथी’ आगे चलकर ‘नटेसरी’, ‘लक्ष्मण नाथी’, ‘दरियानाथी’ तथा ‘कनक नाथी’ तक में अंशतः परिणत हो जाता है, ‘पंख जोगी’, उसी प्रकार ‘सत्यनाशी’ एवं ‘धर्मनाथी’ बन जाता है। ‘पावपंथी’, ‘जालधरी’, ‘कानियापंथी’ अथवा ‘गोपीचंद’ की ‘मृगनाथी’ की स्थितियों में आ जाता है, ‘रावल जोगी’ के दो रूप क्रमशः ‘मादिया’ और ‘गल’ दीख पड़ते लगते हैं, तथा ‘आई जोगी’ का भी एक विकसित रूप ‘मस्तनाथी’ हो जाता है, और जहाँ तक पता चलता है, उसके केवल ‘धजनाथी जोगी’ में ही किसी प्रकार का परिवर्तन आता नहीं जान पड़ता। इसी प्रकार हम देखते हैं कि दूसरे वर्ग वाले ‘अभगनाथ’ ‘दर्पनाथ’ एवं ‘नीमनाथ’ का भी कही अन्यत्र पता नहीं चलता तथा प्रथम वर्ग वाले नामों के परिवर्तित रूप इसकी प्रायः सभी सूचियों में लगभग एक समान ही आ जाते हैं। तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग की सूचियों वाले नामों में अपेक्षाकृत अधिक स्थिरता दीख पड़ती है और उनमें साम्य के उदाहरण भी अधिक ही मिलते हैं। इसके सिवाय ‘कपिलानी पंथ’ संभवतः सर्व प्रथम, हमें तृतीय वर्ग वाली सूचियों में ही दीख पड़ता है तथा कदाचित् उसी की एक शाखा ‘मगानाथी’ का पता हमें इशके पहले से भी लगने लग जाता है।
इस सम्बन्ध में यहां पर एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि जो-जो नाम, पहले पहल, द्वादशंपंथों को दिये गये पाये जाते है उनमें से प्राय सभी हमें प्रतीकों जैसे लगते हैं जिसका कारण इसके आधार पर उनका भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित किया जाना भी स्पष्ट रूप में सिद्ध नहीं हो पाता और न हम यहीं कह सकते हैं कि ऐसे नामों के प्रयोग का उद्देश्य क्या रहा होगा। ‘हेत’, ‘आई’, ‘पाव’, ‘रावल’, ‘कथड़’, ‘पागल’, ‘धज’, ‘चौली’, ‘वन’, ‘दास’ और ‘पंख’ इनमें से किसी को भी हम साधारणत, व्यक्ति वाचक अथवा संख्या वाचक संज्ञा के रूप में भी प्रयुक्त नहीं पाते और ‘निरंजन’ अथवा ‘गम’ भी हमें यहां पर लगभग उन्हीं के मेल में आ गया जान पड़ता है- क्योंकि ‘निरंजन’ भी मूलत परमात्म तत्व को ही सूचित करता है। अतएव, इस प्रसंग में, एक यह प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि क्या ऐसे शब्दों का व्यवहार भी कहीं उसी प्रकार तो नहीं किया गया है जिस प्रकार ‘दशनामी’ कहे जाने वाले संन्यासियों के लिए कभी किया गया था। यदि ऐसी बात हो तो, क्या हम, इन दोनों में से किसी एक को दूसरे से प्रभावित होकर चलाये जाने का भी कोई अनुमान कर सकते है? दशनामियों वाली सूची के शब्दों का प्रयोग उनमें से किसी न किसी समुदाय विशेष को सूचित करने के लिए ही किया जाता है। वह उसके अनुयायियों के नामों के अंत में जोड़ भी दिया जाता है जहां इस प्रकार के उदाहरण यहां पर बहुत कम, और कदाचित् ‘आई’ ‘धज’ तथा ‘पंख’ जैसे दो-चार से ही सम्बद्ध पाये जाते हैं। इसी प्रकार, उक्त प्रथम के अन्तर्गत जहां हम ‘पुरी’, ‘भारती’ एवं ‘सरस्वती’ जैते तीन स्त्रीलिंग शब्द पाते हैं। वहां द्वितीय में हमें केवल ‘आई’ एवं ‘चोली’ जैसे दो ऐसे शब्दों का ही समावेश किया गया जान पड़ता है, किंतु फिर भी दोनों का प्रायः एक समान होना भी स्पष्ट है।
दशनामियों के लिए कहा गया है कि उनकी ऐसी संस्था का प्रवर्तन स्वामी शंकराचार्य अथवा उनके द्वितीय उत्तराधिकारी सुरेश शंकराचार्य ने, अपने समय की प्रचलित संन्यासियों की उस परंपरा को एक सुव्यवस्थित रूप देने के उद्देश्य से किया था जो संभवतः वैदिक युग अथवा उसके पहले से ही चली आ रही थी और जिसका उस काल तक वैसा कोई केंद्रीय संगठन भी नहीं था जिसका अनुशासन सर्वमान्य समझा जा सके। तदनुसार यह भी संभव है कि गुरु गोरखनाथ ने अथवा उनके किसी शिष्य-प्रशिष्य ने ही, कभी नाथ-योगी सम्प्रदाय वाले उक्त द्वादश पंथों को, उन योगियों एवं यतियों को एक सूत्र में संगठित करने के लिए स्थापित किया हो जो अत्यन्त प्राचीन काल से बिखरी दशा में रहते हुए, अपनी साधना करते आये थे तथा जिनकी कोई अपनी केंद्रीय संस्था भी नहीं थी। ऐसे अनुमान के लिए हमें कुछ संकेत महानुभावीय ग्रंथ ‘मतिरत्नाकर’ वाली उन ‘वारापंथी जोगी’ एवं ‘अठरापंथ जती’, नामक दो सूचियों से भी मिल सकता है जिनकी चर्चा इसके पहले की जा चुकी है तथा यह गोरक्षटिल्ला वाली उस परम्परा से भी स्पष्ट हो जा सकता है जिसके अनुसार कुल पंथों का शिव द्वारा तथा दूसरों का गुरु गोरखनाथ द्वारा पूर्व प्रवर्तित होना बतलाया गया है। इसमें कठिनाई केवल यही आ सकती है कि जो 30 नाम इस प्रकार दिये जाते हैं, उनमें, उपर्युक्त ‘बारह पंथी’ की ‘साखी’ वाले नामों के अतिरिक्त, अनेक ऐसे भी सम्मिलित कर लिये गये हैं जिन्हें अन्य वैसी सूचियों के द्वितीय, तृतीय जैसे वर्गों से ही सम्बद्ध मानकर, अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक भी ठहराया जा सकता है और जिनका, इसी कारण, उस प्रथम समझी जाने वाली सूची के निर्माण काल में भी विद्यमान रहना कभी संभव नहीं कहला सकता।
दशनामियों के 10 पृथक्-पृथक् समुदायों में विभाजित होने पर भी उनके प्रमुख केंद्रों की संख्या केवल चार समझी जाती है। उनके ये चारों केन्द्र भारत के चार प्रधान मठों के रूप में अवस्थित चले आते हैं और ये क्रमश दक्षिण में ‘श्रृंगेरी मठ’ (रामेश्वरम), पूर्व में ‘गोवर्धन मठ’ (जगन्नाथपुरी), उत्तर में ‘जोशी मठ’ (बद्रिकाश्रम) ओर पश्चिम में ‘शारदामठ’ (द्वारका) कहलाकर प्रसिद्ध है। इसके सिवाय उक्त ‘श्रृंगेरीमठ’ के अधिकार क्षेत्र में आधू, केरल कणाटक, एवं द्रविड़ प्रदेश माने गये हैं और उसमें दशनामियों में से उक्त ‘पुरी’, ‘भारती’ एवं ‘सरखती’ सबद्ध समझे जाते हैं, ‘गोवर्धनमठ’ के अन्तर्गत अंग, बंग, कलिंग एवं मगध ओर उत्कल का समावेश किया जाता है और इसके साथ ‘वन’ एवं ‘अरण्य’ नामक दशनामियो का संबंध जुड़ा हुआ है, ‘जोशी मठ’ का क्षेत्र कुरु, पांचाल, कश्मीर, कम्बोज, एवं तिब्बतादि तक विस्तृत है और इसमें दशनामियों के ‘पर्वत’, ‘गिरि’ एवं ‘सागर’ आ जाते हैं। इसी प्रकार ‘शारदामठ’ का भी अधिकार-क्षेत्र सिन्धु, सौपीर सौराष्ट्र एवं महाराष्ट्र, तक चला जाता है और इसके भीतर दशनामियों के शेष अंग ‘तीर्थ’ एवं ‘आश्रम’ की गणना की जाती है। परन्तु द्वादश मठ, उत्तर में गोरक्षटिल्ला, पूर्व में गोरखपुर, दक्षिण में बंगलोर एवं पश्चिम में गोरखमण्डी 35 जैसे चार प्रमुख मठ अवश्य बतलाये जाते हैं। किन्तु इनका वैसा कोई निश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। इस विषय में यह भी प्रसिद्ध है कि द्वादशपंथियों में से ‘हेत पंथ’ का प्रधान केन्द्र गोरक्षटिल्ला जि. झेलम, पंजाब, ‘आई पंथ का गोरखकुई जि. दिनाजपुर, बंगाल एवं हरिद्वार (उ. प्र.) ‘पावपथ’ का जयपुर (राजस्थान), ‘रावल’ का रावलपिंडी (पाकिस्तान) ‘धजनाथ’ का अम्बाला पंजाब, एवं सीलोन लंका, ‘पंख की सत्यनार्थी’ केंद्र पाताल भुवनेश्वर उत्कल प्रांत और ‘धर्मनाथी’ केंद्र गोदावरी तट एवं दुल्लु नेपाल, ‘दासजोगी, जोधपुर, राजस्थान, ‘कपिलानी’ का गंगासागर बंगाल एवं ‘गंगानाथी’ का गुरदासपुर पंजाब, ‘कथडनाथी’ का मानफर कच्छ प्रदेश, ‘वैरागनाथी’ का उज्जैन (म. प्र.) तथा ‘रतननाथी’ का पेशावर (पाकिस्तान) और ‘वनपंथी’ का मारवाड़ प्रदेश (राजस्थान) माने जाते हैं, किन्तु ‘निरंजन जोगी’ अथवा गम के लिए कदाचित कोई स्थान निर्दिष्ट नहीं है। इसके सिवाय इन बारहों पंथों का केन्द्रीय व्यापक प्रबंध किसी ‘भेक बारह पंथ’ नामक संस्था के द्वारा चालित हुआ करता है जिसका प्रधान केंद्र हरिद्वार में वर्तमान है तथा जिसकी ‘प्रबंध-समिति’ के सदस्य वहां के कुंभ मेले के अवसर पर बारह वर्षों पर, द्वादशपंथों में से चुनकर, ले लिये जाते हैं तथा इस संस्था का अध्यक्ष ‘महंथ’, प्रत्येक पंथ की ओर से बारी-बारी से नियुक्त किया जाता है जो बारह वर्षों तक रहता है और उसे 12 सौ रुपये भी देने पड़ते हैं। ऐसी विधि सम्पन्न हो जाने पर ‘जोगीश्वर’ के नाम से अभिहित किया जाने लगता है। इस प्रकार ‘दशनामी’ एवं ‘द्वादशपंथ’ इन दोनों का ही प्रभाव क्षेत्र अखिल भारतीय भी कहा जा सकता है तथा इनकी प्रबन्ध-पद्धतियों में कुछ न कुछ अंतर के रहने पर भी, इसके व्यापक उद्देश्य के एक समान होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता।
‘नाथयोगी’ सम्प्रदाय के अन्तर्गत केवल बारह पंथों की ही स्थापना क्यों की गई और उनकी संख्या इससे कम वा अधिक क्यों नहीं हुई, इस प्रश्न का कोई समुचित वा प्रामाणिक उत्तर दिया गया अभी तक नहीं जान पड़ता। प्रो. ब्रिग्स का उपर्युक्त कथन कि ‘गोरखटिल्ला’ वाली परम्परा के अनुसार, संभवतः गुरु गोरखनाथ ने अपने समय के प्रचलित 18 शैव सम्प्रदायों में से 6 को तथा स्वयं अपने वाले 12 योगी सम्प्रदायों में से भी, उसी प्रकार 6 को चुन कर उन्हें कायम रहने दिया होगा और शेष का विघटन कर दिया होगा, ठीक नहीं जान पड़ता और न उनके इस अनुमान की ही पुष्टि होती दीखती है कि ऐसे ही 30 पंथों में से पारस्परिक संघर्ष के फलस्वरूप केवल 12 बच रहे होंगे और शेष नष्ट हो गये होंगे। प्रथम धारणा के अनुसार उक्त विघटन होने के पहले 30 विभिन्न वर्गों का बहुत पूर्व से प्रचलित होता आना अपेक्षित है तथा ठीक उसी प्रकार की बात, उनके परस्पर लड़ने-भिड़ने और इसके कारण उनमें से 18 के नष्ट हो जाने के सम्बन्ध में भी, कहीं जा सकती है। जब तक ऐसे किसी दीर्घकाल की कल्पना न कर ली जाय तथा उतने समय तक उनमें से कम से कम द्वितीय 12 के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ के जीवित रहने की संभावना में विश्वास भी न हो तब तक इस विषय में कोई अन्तिम निर्णय नहीं हो सकता, किन्हीं 30 प्रचलित सम्प्रदायों में से केवल 12 मात्र के शेष रह जाने और 18 के लुप्त हो जाने का अनुमान, उपर्युक्त योगियों एवं यतियों के क्रमशः 12 एवं 18 पंथों वाली सूचियों के आधार पर भी किया जा सकता है, किन्तु वैसा करना भी हमें पूर्णरूप से तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता और न यही कभी संभव सा ही लगता है जिस कारण इसके द्वारा हमें कोई सहायता नहीं मिलती। वास्तव में इन दोनों में से किसी को भी गुरु गोरखनाथ के जीवनकाल के साथ संगीत बैठती नहीं जान पड़ती। इसी प्रकार यदि इन द्वादश पंथों को गुरु गोरखनाथ के किन्ही 12 शिष्यों द्वारा प्रवर्तित किया जाना मान लें उस दशा में भी, इसका निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिया जाना संभव न होगा, न तो इस सम्बन्ध में हमारे सामने वैसे 12 गोरख शिष्यों की कोई सूची प्रस्तुत की जाती है और न इस बात का ही कोई समुचित कारण बतलाया जाता है कि इन 12 पंथों में से केवल कुछ के नाम तक भी उन लोगों के साथ क्यों सम्बद्ध है जिनका गोरख-शिष्य होना किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं किया जा सकता और जो, साथ ही, उनके पूर्ववर्ती, परवर्ती अथवा उनसे भिन्न समसामयिक मात्र माने जाते है तथा इसी कारण ऐसी बातें संदिग्ध भी बन जाती है।
अतएव, यह अधिक संभव है कि ‘द्वादशपंथ’ में सम्मिलित की जाने वाली सभी संस्थाओं की स्थापना एक ही समय में नहीं हुई हो और न इनमें से सभी के संस्थापक अकेले गुरु गोरखनाथ व उनके कोई वैसे 12 शिष्य ही रहे हों, जिन्होंने अपनी अपनी ओर से इनका प्रवर्तन कर दिया हो। हो सकता है कि इनमें से कुछ अधिक प्राचीन रही हों और कुछ दूसरी उनसे अपेक्षाकृत अधिक अर्वाचीन सिद्ध की जा सके और इसी कारण प्रथम वाली गुरु गोरखनाथ के किन्ही ‘पूर्ववर्ती’ योगियों द्वारा भी प्रवर्तित की गई हो सकती हैं, जहां द्वितीय के लिए यह कहा जा सकता है कि इनमें से कुछ को उनके समकालीन तथा शेष अन्य को उनके किंहीं परवर्ती योगियों ने चलाया होगा और सभी ने इन्हें अपने अपने ढंग से नाम भी दे दिये होंगे। इस प्रकार वैसी दशा में, इन द्वादशपंथों के क्रमशः किसी अवधि के भीतर अस्तित्व में आते जाने का अनुमान भी किया जा सकता है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ये ‘द्वादश पंथों’ के रूप में कभी पीछे स्वीकृत किये गये होंगे। इनका भिन्न भिन्न 12 पंथों की दशा में एक ही समय चलाया जाना तथा ऐसा गुरु गोरखनाथ के ही द्वारा किया जाना अनिवार्य नहीं जान पड़ता और न हमारा यह मान लेना ही समीचीन ठहरता है कि इस कार्य को उनके अमुक-अमुक शिष्यों ने एक साल मिल कर किया होगा जब तक हमें इसके आधार स्वरूप कोई स्पष्ट एवं विश्वसनीय प्रमाण भी न मिल जाय और वह तर्क-संगत भी सिद्ध हो सके। अभी तक, उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर, केवल इतना ही कहा जा सकता है, कि द्वादशपंथों की कामना संभवत ‘नाथ-योगी’ सम्प्रदाय के प्रवर्तित होने के कुछ काल पीछे की ही ठहरती है और यह किन्ही पूर्व प्रचलित संस्थाओं को एक सूत्र में बाँधने के उद्देश्य से, की गई होगी तथा उसे साकारता भी प्रदान कर दी गई होगी। इन्हें किस आदर्श के अनुसार स्वीकार किया गया होगा तथा इनकी संख्या केवल 12 तक ही सीमित क्यों रखी गई होगी, इसका पता नहीं। जहाँ तक समझ पड़ता है, इस प्रकार की धारणा नाथ पंथियों में बहुत दिनों से बद्धमूल बनी रहती आई है और इसकी प्रत्येक शाखा अथवा उपशाखा ने अपने को किसी न किसी द्वादशपंथी संस्था के साथ संबद्ध बतलाने की भी चेष्टा की है, जिस कारण, इनकी संख्या में कभी-कभी वृद्धि जान पड़ने अथवा इनके नामादि में न्यूनाधिक परिवर्तन प्रतीत होते रहने को भी, उनके द्वारा किसी समय वैसा महत्व नहीं दिया जा सकता है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.