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फ़िरदौसी - सय्यद रज़ा क़ासिमी हुसैनाबादी

ज़माना

फ़िरदौसी - सय्यद रज़ा क़ासिमी हुसैनाबादी

ज़माना

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    ताज़ा ख़्वाही दाश्तन गर दाग़-हा-ए-सीनः रा

    गाहे-गाहे बाज़ ख़्वाँ ईं क़िस्सा-ए-पारीनः रा

    अबुल-क़ासिम मंसूर, सूबा-ए-ख़ुरासान के इब्तिदाई दारुस्सुल्तनत तूस में सन 935 ई’स्वी में पैदा हुआ था। उसके बाप का नाम इस्हाक़ बिन शरफ़ था जो सूबा-दार-ए-तूस मुसम्मा अ’मीद की एक जाएदाद का मुहाफ़िज़ था। उस मिल्कियत का नाम फ़िरदौस था।इसी रिआ’यत से अबुल-क़ासिम ने अपना तख़ल्लुस फ़िरदौसी रखा।

    एक रात फ़िरदौसी के बाप ने एक ख़्वाब देखा कि एक बच्चा छत पर खड़ा हुआ लोगों को पुकार-पुकार कर कुछ कह रहा है और लोग अपनी-अपनी समझ के मुताबिक़ उसका जवाब दे रहे हैं।दूसरे दिन इस्हाक़ शैख़ नजीबुद्दीन अ’लैहिर्रहमा की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अपने ख़्वाब की ता’बीर पूछी। उन्होंने फ़रमाया कि तेरा बच्चा बहुत बड़ा शाइ’र होगा।अल्लाह तआ’ला को ऐसा ही करना मक़्सूद था। ख़्वाब सच्चा हुआ और फ़िरदौसी अपने मक़सद में कामयाब हुआ।

    फ़ारसी शाइ’री में उसने इंतिहाई कमाल पैदा किया, जिसके सुबूत में उसकी मशहूर-ए-आ’लम नज़्म शाह-नामा एक बे-नज़ीर क़ौमी दास्तान की हैसियत से आज भी दुनिया के सामने मौजूद है। यक़ीनन उसका ये कार-नामा रहती दुनिया तक बाक़ी रहने वाला है जिसमें सासानी नस्ल के अव्वल फ़रमा-रवा से लेकर आख़िरी बादशाह की मौत तक ईरान की तारीख़ क़लम-बंद की गई है।

    फ़िरदौसी ने इब्तिदाई उ’म्र में काफ़ी ता’लीम हासिल कर ली थी। जब वो क़दीम तारीख़-ए-अदबियात और शाइ’री में पाया-ए-तकमील को पहुंच चुका तो उसके बा’द चश्मों के किनारे बैठ कर अश्आ’र कहना उसकी ख़ास दिल-चस्पी और मश्ग़ला था। अ’रुज़ी के चहार मक़ाले की वरक़-गरदानी करने पर ये पता मिलता है कि उसके पास कुछ थोड़ी सी जाएदाद भी थी और उसी के महासिल पर वो ज़िंदगी बसर करता था।अपने वारिसों में मरते वक़्त उसने सिर्फ़ एक लड़की छोड़ी थी जो बाप ही की तरह क़ाने’ और बा-हिम्मत होने के अ’लावा निहायत मुतीअ’-ओ-फ़रमां-रवा भी थी।

    फ़िरदौसी दूसरे ईरानी शो’रा की तरह ग़ज़लें या आ’शिक़ाना नग़्मे नज़्म करता था। उसकी रगों में ख़ालिस ईरानी ख़ून दौड़ रहा था। उसके क़ल्ब में वतन-परवरी की आग मुश्तइ’ल थी। अ’रबों की ताराजी को गो अ’र्सा हो गया था लेकिन ये ख़लिश उसको अब भी सताती थी।वो अपने नस्ली वक़ार को किसी तरह घटा हुआ नहीं देख सकता था।उसके दिल ने उसको मजबूर कर रखा था कि वो अपने आबा-ओ-अज्दाद की शुजाअ’त-ओ-दिलावरी के कारनामों को सफ़हा-ए-क़िर्तास पर इस तरह सब्त कर दे कि उनको पढ़ कर अहल-ए-ईरान अपनी अ’ज़्मत-ए-रफ़्ता की याद ताज़ा रख सकें। चुनाँचे शाह-नामा की तस्नीफ़ के वक़्त उसने इन्हीं ख़यालात को मद्द-ए-नज़र रखा।

    शाह-नामा, फ़िरदौसी के कमाल-ए-शाइ’री और क़ुदरत-ए-कलाम का ऐसा नादिर और अ’ज़ीमुश्शान कार-नामा है जिसका अब तक दुनिया की किसी ज़बान में जवाब हो सका।उस के अश्आ’र का ज़ोर और असर, शान-ओ-शौकत हैरत-अंगेज़ है, और उसमें इतनी आमद-ओ-बर्जस्तगी है कि एक शे’र के बा’द दूसरा और फिर तीसरा आहिस्ता-आहिस्ता चश्मे की रवानी की तरह सामने आता जाता है।रज़मिया शाइ’री, महाकात और जज़्बात-आफ़रीनी फ़िरदौसी पर ख़त्म हो गई है।वो जिस वाक़िआ’ को बयान करता है अल्फ़ाज़ में हू-ब-हू उसकी तस्वीर खींच देता है।कोई वाक़िआ’ उस के क़लम से ऐसा नहीं निकलता जिसमें वो महाकात-ए-शे’री के ला-जवाब कार-नामे पेश करता हो। उसका ये ख़ास वस्फ़ है कि दूसरों के जज़्बात को इस तरह अदा करता है कि मा’लूम ही नहीं हो सकता कि उसके सीने में उस शख़्स का दिल नहीं है जिसकी वो तर्जुमानी कर रहा है।

    मशरिक़ में शाइ’री हमेशा इ’ज़्ज़त की निगाहों से देखी गई और फ़िरदौसी के कमाल का ए’तराफ़ उसके अहल-ए-वतन ने निहायत पुर-जोश अल्फ़ाज़ में किया है। चुनाँचे एक ईरानी शाइ’र कहता है।

    दर शे’र सिह तन पयम्बर अंद

    हर-चंद कि ला-अंबिया-अ बा’दी

    अदबियात-ओ-क़सीदः-ओ-ग़ज़ल रा

    फ़िरदौसी-ओ-अनवरी-ओ-सा’दी

    जामी लिखते हैं कि फ़िरदौसी,अनवरी और सा’दी ईरानी के यही तीन बुज़ुर्ग-तरीन शो’रा हैं और ख़ुद मोहम्मद औहदुद्दीन अनवरी का फ़िरदौसी के मुतअ’ल्लिक़ बयान है कि वो मेरा आक़ा है और मैं उसका ग़ुलाम हूँ।शौख़ सा’दी रहमतुल्लाहि अ’लैह ने भी फ़िरदौसी का नाम एहतिराम-ओ-इम्तिनान के साथ लिया है।निज़ामी गंजवी का क़ौल है कि फ़िरदौसी तूस का मर्द-ए-दाना और माहिर-ए-फ़न्न-ए-क़वाफ़ी-ओ-नज़्म था।चुनाँचे फ़िरदौसी की शागिर्दी-ओ-बंदगी पर फ़ख़्र करते हुए निज़ामी गंजवी लिखते हैं।

    आफ़रीं बर रवान-ए-फ़िरदौसी

    आँ सुख़न-आफ़रीन–ए-फ़र्ख़ंदः

    उस्ताद बूद-ओ-मा शागिर्द

    ख़ुदावंद बूद-ओ-मा बंदः

    वाक़ई’ ये ना-क़ाबिल-ए-तरदीद हक़ीक़त है कि रज़्म-निगारी में फ़िरदौसी जैसा मशरिक़ में कोई दूसरा शा’र नहीं गुज़रा है।उसने शाह-नामा में ख़ालिस-तरीन फ़ारसी ज़बान इस्ति’माल की है और ता-इम्कान अ’रबी अल्फ़ाज़ से इज्तिनाब किया है।अपने मुल्की इ’ल्म-ओ-अदब से ज़ौक़ और उसकी तरवीज-ओ-तरक़्क़ी का ख़याल हुब्ब-ए-वतन का बैइन सुबूत है।चुनाँचे फ़िरदौसी ने शाह-नामा लिख कर अपनी मादरी ज़बान को इ’ल्मी ज़बान साबित कर दिया।

    मग़रिब में हमेशा यही दस्तूर रहा है कि किसी के कलाम की ता’रीफ़ नहीं की जाती, जब तक कि उसमें किसी क़िस्म का कमाल पाया जाए। चुनाँचे अहल-ए-मग़रिब ने फ़िरदौसी की नज़्मों को परखा और अपनी क़ीमती और बे-लौस रायों का ऐ’लान कर दिया।जिसका इक़्तिबास दर्ज ज़ैल है।

    “फ़िरदौसी ने अपने मुल्क को अदबियात से ख़ाली पाया और उसने एक ऐसी नज़्म छोड़ी है कि तमाम आने वाली नस्लें महज़ उसकी नक़्ल करेंगी और कभी भी उस से बढ़ सकेंगी।उस की तन्हा एक नज़्म उन तमाम नज़्मों का मुक़ाबला कर सकती है जो मुख़्तलिफ़ उ’न्वान-ओ-अंदाज़ में लिखी जाएंगी और ग़ालिबन आज उसकी ये नज़्म (शाह-नामा) तूल-ओ-अ’र्ज़-ए-एशिया में उसी तरह अपनी नज़ीर नहीं रखती जिस तरह यूरोप में ह्यूमर की दास्तानें”।

    सुल्तान महमूद ग़ज़नवी, बड़ा रौशन-दिमाग़ और शो’रा का क़द्र-दान था। उसकी वसीउ’ल- अख़लाक़ी फ़िरदौसी को भी उसके दरबार में खींच बुलाया और जब वो ग़ज़नी पहुंचा तो उसको उं’सुरी, अ’सजुदी और फ़र्रुख़ी जैसे दरबारी शाइ’रों का मुक़ाबला करना पड़ा।

    दरबार-ए-सुल्तानी में पहुंचने और सुल्तान तक रसाई हासिल करने के मुतअ’ल्लिक़ बहारिस्तान-ए-जामी में ये पुर-लुत्फ़ वाक़िआ’ लिखा है कि एक मर्तबा फ़िरदौसी पर किसी ने कुछ ज़्यादती की जिसकी फ़रियाद लेकर वो ग़ज़नी पहुंचा।इत्तिफ़ाक़न उस का गुज़र एक बाग़ में हुआ जहाँ उसने देखा कि तीन आदमी बैठे हुए आपस में कुछ गुफ़्तुगू कर रहे हैं। फ़िरदौसी ने उन्हें देखकर ये मौक़ा’ ग़नीमत जाना कि उनसे मिलकर ग़ज़नी के कुछ हालात मा’लूम कर ले।फ़िरदौसी को अपने क़रीब आता देख कर महज़ टालने की ग़र्ज़ से उन तीनों शख़्सों ने ये तय किया कि उसके आते ही ये कहेंगे कि हम लोग सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के दरबारी शाइ’र हैं और जो शाइ’र हो उस से बात नहीं करते और इस मक़सद के लिए हमें तीन मिस्रे’ मौज़ूं कर लेने चाहिए।और चौथे मिस्रे’ के लिए कहना चाहिए कि जो शख़्स चौथा मिस्रा’ मौज़ूं कर देगा उसे हम अपने पास बैठने की इजाज़त देंगे

    उन तीनों शाइरों ने एक-एक मिस्रा’ ऐसा मौज़ूं कर लिया था जिसका क़ाफ़िया रौशन, गुलशन और जोशन थ।जब फ़िरदौसी उनके क़रीब पहुंचा तो उन्होंने उस मुजव्वज़ा मुक़ाबले का उससे ऐ’लान किया।फ़िरदौसी ने कहा कि वो तीनों मिस्रे’ क्या हैं? आप बराह-ए-करम ज़रा मुझे भी सुनाएँ।चुनांचे उं’सुरी,अ’स्जुदी और फ़र्रुख़ी ने यके बा’द दीगरे अपने मौज़ूं कर्दा मिस्रे’ पढ़े।

    उं’सुरी ने कहा-

    चूँ आ’रिज़-ए-तू माह न-बाशद रौशन

    अ’स्जुदी ने कहा-

    मानिंद-ए-रुख़त गुल न-बुवद दर गुलशन

    उसके बा’द फ़र्रुख़ी ने कहा-

    मिज़गान-ए-तू हमी गुज़र कुनद दर जोशन

    फ़िरदौसी ने इन मिस्’रों को सुनकर फ़िल-बदीह उसी क़ाफ़िया में चौथा मिस्रा’

    मानिंद-ए-सिनान गिव दर जंग-ए-पशन

    नज़्म कर के रुबाई’ को मुकम्मल कर दिया।

    तीनों शो’रा फ़िरदौसी के इस मिस्रे’ को सुनकर मुतअ’ज्जिब-ओ-शश्दर हो गए और गिव-पशन के हालात सुनने का इश्तियाक़ ज़ाहिर किया। फ़िरदौसी ने ऐसी तफ़्सील के साथ उस क़िस्से को बयान किया जिससे मा’लूम होता है कि क़दीम ईरान की तारीख़ पर उसको ऐसी ज़बरदस्त वाक़फ़िय्यत हासिल थी, जिसमें उसका कोई हरीफ़ था।

    फ़िरदौसी की ज़बान से ये हाल सुनकर तीनों शो’रा बेहद ख़ुश हुए और उन्होंने उसको अपना उस्ताद तस्लीम कर लिया।अपने हम-राह दरबार-ए-सुल्तानी में ले गए और सुल्तान को सारा हाल कह सुनाया।सुल्तान महमूद ग़ज़नवी को जब फ़िरदौसी की इस क़ाबिलिय्यत और शाइ’राना कमाल का हाल मा’लूम हुआ तो वो बेहद ख़ुश हुआ और उसे अपने दरबार में बुलाकर अल्ताफ़-ए-ख़ुसरवाना-ओ-मरहमत-ए- मुलूकाना से सरफ़राज़ फ़रमाया।

    कुछ अ’र्सा बा’द सुल्तान महमूद ने उसे शाह-नामा लिखने का हुक्म दिया।फ़िरदौसी ने एक हज़ार अश्आ’र कह के पेश किए। सुल्तान ने एक हज़ार दीनार-ए-सुर्ख़ ब-तौर-ए-सिला इ’नायत फ़रमाए और इस तरह अपनी इ’ल्म-दोस्ती का मुज़ाहरा किया। और उसकी आग़ाज़ कर्दा तस्नीफ़ को ब-ईं शर्त मुकम्मल कर देने की फ़रमाइश की कि अगर इस नज़्म की तकमील हो जाएगी तो फ़ी शे’र एक अशर्फ़ी ब-तौर-ए-हक़्क़ुल-मेहनत शाही खज़ाने से उसको अ’ता की जाएगी।

    फ़िरदौसी ने शाही सर-परस्ती शुक्रिया के साथ मंज़ूर की और पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ अश्आ’र नज़्म करना शुरूअ’ कर दिया।उसका सिन उस वक़्त चालीस साल से कुछ ज़ाएद हो चुका था और तीस बरस तक मुतालाआ’ और तस्नीफ़ की शाक्क़ा मेहनत ब-र्दाश्त करने के बा’द साठ हज़ार अश्आ’र पर उसने नज़्म को ख़त्म किया।ये नज़्म इतनी उ’म्दा है कि जब तक फ़ारसी ज़बान दुनिया में बाक़ी है उसकी शोहरत कभी कम होगी।जब ये नज़्म मुकम्मल हो चुकी तो फ़िरदौसी ने उसका एक निहायत ख़ुश-ख़त नुस्ख़ा सुल्तान की ख़िदमत में पेश किया।उसे उ’म्मीद थी कि पहले की तरह हर शे’र पर मुआ’वज़ा एक दीनार-ए-सुर्ख़ उसको फ़ौरन मिल जाएगा लेकिन

    ‘ऐ बसा आरज़ू कि ख़ाक शुदः’

    हासिदों ने उसकी उ’म्मीद पूरी होने दी।सितम तो ये हुआ कि अपने क़याम-ए-ग़ज़नी के दौरान में फ़िरदौसी ने वोज़रा को ख़ुश करने की कभी कोई कोशिश की। चुनाँचे उन्होंने सुल्तान के कान ख़ूब भरे।

    उस बाशादाह में जहाँ बहुत सी खूबियाँ थीं वहाँ एक सख़्त ऐ’ब ये भी था कि बा’ज़-औक़ात इन्साफ़ पर तमअ’ ग़ालिब हो जाती थी। चुनाँचे सुल्तान महमूद ने फ़िरदौसी की तस्नीफ़ को निहायत सर्द-मेहरी से देखा और अपनी दून हिम्मती से सिर्फ़ चार-सौ अशरफ़ियाँ देना चाहीं जिसको फ़िरदौसी ने क़ुबूल नहीं किया।

    जब फ़िरदौसी ने उस रक़म को लेने से इन्कार कर दिया, तब वोज़रा ने सुल्तान को ये मशवरा दिया कि बजाए अशरफ़ियों के साठ हज़ार दिरहम या’नी चाँदी के सिक्के भेज दिए जाएं।इस सूरत से शाही ख़ज़ाना भी ख़ाली होगा और क़ौल-ए-सुल्तानी की तक्ज़ीब भी होगी।ऊँघते को ठेलते का बहाना, सुल्तान ने वोज़रा के मशवरे के मुताबिक़ चाँदी के सिक्के भिजवाए।

    जिस वक़्त शाही मुलाज़िम थैलियाँ लेकर गए तो उस वक़्त फ़िरदौसी हम्माम में था। सुल्तान की इस हरकत से उसके तन-बदन में आग लग गई और खड़े ही खड़े उसने कुल दिरहम मुलाज़िमीन-ए-सुल्तानी के रू-ब-रू हम्माम के ख़िदम्तगारों, शर्बत-फ़रोशों और ग़ुलामों को तक़्सीम कर दिए और सुल्तान की अ’ह्द-शिकनी का इंतिक़ाम अपने ज़ोर-ए-क़लम से इस तरह लिया कि रातों रात अपना शरर-बार क़लम उठा कर सुल्तान महमूद ग़ज़नवी की हज्व में कम-ओ-बेश चालीस शे’रों की एक बे-मिस्ल नज़्म लिख डाली। जिसके बा’ज़ अश्आ’र अब तक ज़बानज़द–ए-ख़लाइक़ हैं जो नाज़िरीन के तफ़न्नुन-ए-तबअ’ के लिए दर्ज किए जाते हैं।

    अगर शाह रा शाह बूदे पिदर

    बसर बर निहादे मरा ताज-ए-ज़र

    दिगर मादर-ए-शाह बानो बुदे

    मरा सीम-ओ-ज़र ता ब-ज़ानू बुदे

    दरख़्ते कि तल्ख़स्त रा सरिश्त

    गरश दर निशानी ब-बाग़-ए-बहिश्त

    परस्तार-ज़ादः आयद ब-कार

    अगर्चे बुवद ज़ादः-ए-शहर-यार

    बसे रंज बुर्दम दरीं साल सी

    अ’जम ज़िंद: कर्दम ब-दीं पारसी

    ब-सी साल बुर्दम ब-शह-नामः रंज

    कि ता शह ब-बख़्शद ब-मन माल-ओ-गंज

    ब-पादाश-ए-मन गंज रा बर-कुशाद

    मरा जुज़ ब-हा-ए कफ़ाए न-दाद

    कनूँ उ’म्र नज़्दीक-ए-हफ़्ताद शुद

    उम्मीदम ब-यक-बार बर्बाद शुद

    फ़िरदौसी की तस्नीफ़ कर्दा ये हज्व हमेशा उस ग़ज़नवी सुल्तान की सीरत को बे-नक़ाब रखेगी।ये हज्व नज़्म करने के बा’द वो तोशा-ख़ाना के दारोग़ा के पास गया और किसी तरीक़े से शाह-नामा का वो नुस्ख़ा जो उसने सुल्तान को ज़िंदा किया था हासिल कर के उस हज्व के कुल अ’श्आर उसमें नक़ल कर दिए।उस के बा’द वो ग़ज़नी से फ़िल-फ़ौर रवाना हो कर बग़दाद चला गया और फिर वहाँ से अपने वतन तूस को रवाना हो गया।सुल्तान महमूद को जब उसकी इस हज्व की ख़बर हुई तो उसने हुक्म दिया कि फ़िरदौसी को हाथी के पैर तले कुचलवा दिया जाए।इस ख़बर को सुनकर बहुत दिनों वो अपने वतन में पोशीदा ज़िंदगी बसर करता रहा।

    अब जबकि वो ग़म-ओ-फ़िक्र और ज़ई’फ़ुल-उ’म्री के बाइ’स बहुत कमज़ोर हो गया था,एक दिन वो एक गली से गुज़र रहा था कि उसने एक लड़के को अपनी मंज़ूमा हज्व के चंद अश्आ’र पढ़ते हुए सुना। मअ’न उसको सुल्तान की अ’हद-शिकनी, ना-इन्साफ़ी-ओ-ना-क़दरी याद गई।उस पर इतना ग़म तारी हुआ कि वो वहीं पर गिर पड़ा और बे-होश हो गया।उसी हालत में वो अपने मकान पर लाया गया जहाँ उस ने निहायत बद-दिली-ओ-मायूसी के आ’लम में सन 1025 ई’स्वी में इंतिक़ाल किया।

    उसी दौरान सुल्तान महमूद को अपनी ग़लती और अ’हद-शिकनी का एहसास हुआ। एक मर्तबा ख़्वाजा हसन महमंदी ने शिकार-गाह में एक ख़ास मौक़े’ पर शाह-नामा के चंद अश्आ’र पढ़े जो सुल्तान को बहुत पसंद आए। सुल्तान ने दरयाफ़्त किया कि ये किसके अश्आ’र हैं? ख़्वाजा हसन ने जवाब दिया कि फ़िरदौसी के। सुल्तान अपनी हरकतों पर बहुत नादिम हुआ और सात हज़ार अशरफ़ियाँ ऊंटों पर बार करा के तूस रवाना कीं।लेकिन अफ़्सोस कि सुल्तान महमूद की ये पशेमानी बा’द अज़ वक़्त साबित हुई क्योंकि जिस वक़्त अशरफ़ियों से लदा हुआ कारवाँ शहर में दाख़िल हुआ उसी वक़्त फ़िरदौसी का जनाज़ा क़ब्रिस्तान की तरफ़ ले जाया जा रहा था।शाही क़ासिदों ने इस की इत्तिला’ सुलतान को दी। उसने अपने कारिन्दों को हुक्म देकर उसी रक़म से तूस के क़ुर्ब-ओ-जवार में एक कारवाँ-सराय ता’मीर करा दी।

    ईरान की उस बे-बदल हस्ती को जिसने अपनी ज़बान-ओ-मुल्क के लिए जान-ओ-दिल से कोशिश की और शाह-नामा जैसी अ’दीमुल-मिसाल नज़्म लिख कर

    ‘सब्त अस्त बर जरीदा-ए-आ’लम दवाम मा’

    का मिस्दाक़ पेश किया है।गर्चे उसे इस दुनिया-ए-आब-ओ-गिल से रुख़्सत हुए हज़ार साल से ज़ाइद अ’र्सा गुज़र चुका लेकिन आज भी उस की याद लोगों के दिलों में ताज़ा है और उसका ये कारनामा ऐसा बक़ा-ए-दवाम हासिल कर चुका है कि दुनिया उसे कभी भी भुला सकेगी।चुनाँचे किसी ने क्या ख़ूब कहा है कि:

    फ़ना के बा’द भी अहल-ए-कमाल ज़िंदा हैं।

    ज़हे वो काम कि जिससे जहाँ में नाम रहे।।

    तीस साल पहले ज़माना सितंबर-ओ-अक्तूबर सन 1908 के मुशतर्का नंबर में शमसुल-ओ’लमा ख़ान बहादुर मौलाना ज़काउल्लाह ख़ान साहब देहलवी का एक मुफ़स्सिल मज़्मून स्वदेशी तहरीक के उ’न्वान से ज़ेब-ए-रिसाला हुआ है। जिसका एक इक़्तिबास दर्ज ज़ेल है:

    दुनिया में हज़ारों बरस तक भारत वर्ष या आर्यावर्त की ज़राअ’त-ओ-काश्त-ओ-कार सन्अ’त-ए-दस्तकार का आफ़्ताब निस्फ़ुन्नहार पर चमकता रहा। वो दुनिया के अंदर ज़राअ’त में सर्फ़राज़ था और सन्अ’त में मुख़्तार, मगर अब फ़क़त ज़राअ’त में वो नामवर रह गया है कि एक आ’लम उस को ज़राअ’ती मुल्क कहता है। वो सन्अ’त में ऐसा गुमनाम हो गया है कि कोई अब उस को सन्अ’ती मुल्क नहीं कहता। पहले उस की सन्अ’त की कार-पर्वाज़ी और नादिरा-कारी और दस्तकारी की इ’ल्मी-ओ-अ’मली कार-शनासी ऐसी शहर-ए-आफ़ाक़ थी कि दूर-दराज़ मुल्कों के काला-शनास यहाँ आते थे, और यहाँ की मस्नूआ’त को ब-तौर-ए-अ’जाइबात के सौग़ात में ले जाते थे। शाल बानी अब्रैशम-तराज़ी, पंबा बनाने में अह्ल-ए-हिंद को वो मल्का था कि यहीं का लिबास रूमियों और मुल्कों के बादशाहों-ओ-शहनशाह बानुओं और तरह-दार ओमरा के हुस्न को दो-बाला करता था। यहीं के ज़ुरूफ़ गली-ओ-बरंजी और हाथी-दाँत और आब-नोस की बनी हुई चीज़ें उन के महलों और क़स्रों को आराइश देती थीं। दुनिया के तमाम ऐ’श-ओ-इ’श्रत के सामान और ज़ेब-ओ-ज़ीनत के अस्बाब यहीं तैयार होते थे। जिनके लेने के वास्ते ममालिक मग़्रबिया के जहाज़ साहिल-ए-हिंद के बंदर-गाहों में खड़े रहते थे।”

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