इक गोपाल संग मम जाई । बस्यो नृपति ह्वै सोइ पुर छाई ।।
इक गोपाल संग मम जाई । बस्यो नृपति ह्वै सोइ पुर छाई ।।
हम कहँ छौंड़ि भयो सो न्यारे । ताही बिनु सब भये दुखारे ।।
तुम लशकरिये भूप उदारा । कत पूछत हम जात गँवारा ।।
सुनि यादव कछु मन बिहँसाना । तुम ब्रजवासी हौ हम जाना ।।
जिनको तुम भाषत गोपाला । उनहीं को यह कटक रिसाला ।।
अब दुख मेटहु भेंटहु तिनते । गयो ग्वाल हरि-कटकहि सुनते ।।
तिनकहँ आगम सगुन बनायो । कछु अनंद ह्वै है मन आयो ।।
ग्वालहिं आवत रहे निहारी । गदगद कठ न सकत सँभारी ।।
दूरहिं ते बोल्यो गोपाला । मनमोहन आये नँदलाला ।।
जिन बिन सब ब्रज भये दुखारे । त आये इहँ प्रान-पियारे ।।
सुनि गोपिन नहिं परत पत्यारो । कहँ ऐसो है पुण्य हमारो ।।
सुनत नंद-नैनन जल छाये । ऐसे भाग कहाँ हम पाये ।।
लोग लोग सब पूछत सारे । कहँ उतरे प्राणन के प्यारे ।।
सुनतहिं यशुमति ह्वै गई बौरी । ता ग्वालहिं पूछत उठि दौरी ।।
आये श्याम सत्य कहु भैया । मोहिं दिखावहु नेक कन्हैया ।।
निज लालन को कंठ लगाऊँ । दुसह विरह को ताप नसाऊँ ।।
कह अब गहरु करत वेकाजहि । भेंटहु वेगि सकल ब्रजराजहि ।।
तब ऐसे भाष्यो नँदराइ । अब हरि होंहि न ब्रज की नाईं ।।
माणिन खचित बैठत सिंहासन । चँवर छत्र कर गहे खवासन ।।
अतिहि भीर नृप वास न पावें । द्वारहि ते बहु फिरि फिरि जावें ।।
छत्रपतिहि छरियन विलगावत । तहँ हमसब की कौन चलावत ।।
छपन कोटि यदु छाड़ि सगाते । क्यों मानै धायन के नाते ।।
कोउ कह ऐसे कैसे जैहैं। हमकहु लखि हरिमनहिं लजैहैं ।।
कोउ कह मणि आभूषण पहिरे । अंबर वर विचित्र रँग गहिरे ।।
कोउ कह हम तो ऐसहि जाहीं । अब तो कछु बनिआवत नाहीं ।।
हरि को देखि परम सुख पैहैं । ता अनुचर कर मारहु खैहैं ।।
कोउ कह हम नीके भुज परि हैं । भे राजा तो का धौं करि हैं ।।
करत मनोरथ कोउ मन माही । कोऊ खोज लेन उठि जाहीं ।।
कहत परस्पर मुदित गुवाला । अब तो फिरि आये गोपाला ।।
इक कह अब गोकुल लै जैहैं । हमते बहुरि जान कहँ पैहैं ।।
कोउ नाचत है दै कर तारी । बहुविधि करत कुलाहल भारी ।।
एक एकन ते देत बधाई । मानहुँ सबन गई निधि पाई ।।
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