भक्तधीन विरद प्रभु केरे । गावत वाणी वेद घनेरे ।
भक्ताधीन विरद प्रभु केरे । गावत वाणी वेद घनेरे ।
सतत रहत भक्त के पासा । पुरवत हैं प्रभु तिनकी आसा ।।
जे सप्रेम हरि सो मन लावैं । तिनको कबहुँ नहि बिसरावैं ।।
आह-ग्रसित गजराज छुड़ाये । गरुड़ छाँड़ि तहँ आतुर धाये ।।
पुनि प्रभु पाण्डव जरत बचायो । द्रुपद सुता को बसन बढायो ।।
अजामील यम ते रखि लीन्हों । भजन प्रताप ध्रु वहिं वर दीन्हों।।
जन प्रहलाद अभय करि थाप्या । ताही बार न वारहि व्याप्यो ।।
जो जन मन ते ध्यावहिं जैसे । ताकहुँ प्रभु फल दते वैसे ।।
अग जग सकल विश्व के स्वामी । सर्वमयी सब अन्तरयामी ।।
प्रेम युक्त ब्रज जन मन ध्यायो । ताते प्रेम हृदय हरि छायो ।।
प्रभु के मन यह रहत सदाहीं । ब्रज वासिन तें भेंटयो नाहीं ।।
एक दिन दिनकर प्रहण भयो जब । बहु नर नारी जात चले तब ।।
जानि परम कुरुखेतहिं पावन । सकल चले तहँ ग्रहण नहावन ।।
यह सुनि यदुनंदन मन मानी । एक पंथ द्वे कारज ठानी ।।
कह्यो यदुवपति यदुकुल केतू । हम सब चलों चले कुरुखेतू ।।
जेते अरु पुरजन पुरवासी। तिनहुँ कहहु यह बात प्रकासी ।।
प्रहण नहाहु सकल तहँ जाई । सुनि आयसु सब शीश चढ़ाई ।।
मुदित सकल आँनद रस पागे । गवन साज साजन कहँ लागे ।।
अधिकारिन सब काज सँवारे । नाना बाहन सुभग सिँगारे ।।
सुनत परसपर सब नर नारी । घर घर निज निज सौंज सँवारी ।।
द्वारावति के जिते निवासू । चले जात सब परम हुलासू ।।
कढयो कटक अति परम विशाला । चले सग अगणित भूपाला ।।
कारे करिवर गरजन लागे । सावन घन जनु लखि अनुरागे ।।
अगणित तुरँग चले हिहिनावत । खबर बसह ऊँट अररावत ।।
अपित भीर मग परत न पायो। धूरि धुंध नभ-मण्डल छायो ।।
मग में होत कोलाहल भारी । मुदित करत कौतुक नर-नारी ।।
यों पहुँचे कुरुखेतहिं जाई । परि गो कटक तहाँ छिति छाई ।।
हाट बजार दुकान सुहाई । तहँ सब वस्तु मिलत मन भाई ।।
देश देश के यात्री आये । भये तहाँ मिलि अनँद बधाये ।।
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