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भक्तधीन विरद प्रभु केरे । गावत वाणी वेद घनेरे ।

रत्नकुंवरि बाई

भक्तधीन विरद प्रभु केरे । गावत वाणी वेद घनेरे ।

रत्नकुंवरि बाई

भक्ताधीन विरद प्रभु केरे गावत वाणी वेद घनेरे

सतत रहत भक्त के पासा पुरवत हैं प्रभु तिनकी आसा ।।

जे सप्रेम हरि सो मन लावैं तिनको कबहुँ नहि बिसरावैं ।।

आह-ग्रसित गजराज छुड़ाये गरुड़ छाँड़ि तहँ आतुर धाये ।।

पुनि प्रभु पाण्डव जरत बचायो द्रुपद सुता को बसन बढायो ।।

अजामील यम ते रखि लीन्हों भजन प्रताप ध्रु वहिं वर दीन्हों।।

जन प्रहलाद अभय करि थाप्या ताही बार वारहि व्याप्यो ।।

जो जन मन ते ध्यावहिं जैसे ताकहुँ प्रभु फल दते वैसे ।।

अग जग सकल विश्व के स्वामी सर्वमयी सब अन्तरयामी ।।

प्रेम युक्त ब्रज जन मन ध्यायो ताते प्रेम हृदय हरि छायो ।।

प्रभु के मन यह रहत सदाहीं ब्रज वासिन तें भेंटयो नाहीं ।।

एक दिन दिनकर प्रहण भयो जब बहु नर नारी जात चले तब ।।

जानि परम कुरुखेतहिं पावन सकल चले तहँ ग्रहण नहावन ।।

यह सुनि यदुनंदन मन मानी एक पंथ द्वे कारज ठानी ।।

कह्यो यदुवपति यदुकुल केतू हम सब चलों चले कुरुखेतू ।।

जेते अरु पुरजन पुरवासी। तिनहुँ कहहु यह बात प्रकासी ।।

प्रहण नहाहु सकल तहँ जाई सुनि आयसु सब शीश चढ़ाई ।।

मुदित सकल आँनद रस पागे गवन साज साजन कहँ लागे ।।

अधिकारिन सब काज सँवारे नाना बाहन सुभग सिँगारे ।।

सुनत परसपर सब नर नारी घर घर निज निज सौंज सँवारी ।।

द्वारावति के जिते निवासू चले जात सब परम हुलासू ।।

कढयो कटक अति परम विशाला चले सग अगणित भूपाला ।।

कारे करिवर गरजन लागे सावन घन जनु लखि अनुरागे ।।

अगणित तुरँग चले हिहिनावत खबर बसह ऊँट अररावत ।।

अपित भीर मग परत पायो। धूरि धुंध नभ-मण्डल छायो ।।

मग में होत कोलाहल भारी मुदित करत कौतुक नर-नारी ।।

यों पहुँचे कुरुखेतहिं जाई परि गो कटक तहाँ छिति छाई ।।

हाट बजार दुकान सुहाई तहँ सब वस्तु मिलत मन भाई ।।

देश देश के यात्री आये भये तहाँ मिलि अनँद बधाये ।।

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