रियाज़ उल आरफ़ीन
क्या नस्र क्या नज्म हर एक बात कूँ
ज़ेब व रौनक़ है खुदा के हम्द सूँ
गर्चे हूँ मैं आज मदहर में मुकीम
लेक बीजापुर है वतने क़दीम
बाप मेरा मग़फ़र व मामूर है
सो रन में जग में सब मशहूर है
तोड़ ला राखे अनारॉ होर दिये
तुरूश थे जब उनकूँ फोड़े होर चुके
मुजकूँ बोल्या है सबा करता हूँ शाद
काम सूँ देता हू मज़दूरी जयाद
दिल में भी उमीद नई रखता हू मैं
सुबह कू लाता हूँ मजदूरी कतैं
ज़न कहे क्या, अक्ल तेरी मैं कहूँ
देख नादानी को तेरी दंग हू
रावी अख़बार दाना-ए कुहन
यों कहा आराइशे रू-ए सुख़न
जब गये अधम ने शाही को जब छोड़
मुल्को मालो ऐश सूँ सब दिल को तोड़
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दख़ल इस दरगाह का है मुजको मुहाल
तोसकी के मुल्क का व्हॉ होवे ख्याल
था सफ़ा एक बाग़ इस अतराफ़ में
हो सुख़न मक़सूर जिस औसाफ़ में
मग़ज़े जॉ को जचती राहत का शमीम
याद उसका दिल के गुंचे को नसीम
अज़ क़ज़ा जब शेख गये बस्ती भीतर
नंई रहता उस बाग़ को माली मगर
धर तलब माली का बस ख़ाविन्द बाग़
ढूँढता था चश्मा का लेकर चराग़
देक इब्राहीम कू की अज़ क़ज़ा
बोल उट्ठी ऐ मर्द मज़दूरी गदा
बाग़ इक रखता हू ज्यों बाग़े इरम
बाग़बां हो ले मेरे सूँ दस दिरम
कर क़बूल इस बात कूँ ओ पाक बाज़
बाग़ में रहे ज्यों निगाह सरो सरफ़राज़
बाद केतक रोज़ क़स्दे सैर कर
साहबे बाग़ इस तरफ़ गुज़र्या मगर
देख इब्राहीम कूँ यों पुकार
तोड़ ल्या जल्दी से कोई शीरीं अनार
तोड़ ला राखे अनाराँ होर दिये
तुरूश थे जब उनको फोड़े होर चखे
पस कहा खाविन्दे बाग़ बुल अजब
यो अनाराँ तुर्श लाया क्या सबब ?
बोल उट्ठे अधम के मुझकू ख़बर
कौन शीरीं कौन है जो तुर्शतर
लेके तोड़े जो थे खूब वा साफ़
सुर्ख़तर हो पुख़्त रवूँ शिकाफ़
पस कहा है बाग़ में मुद्दत सूँ तूँ
चाक कर देखा नहीं है अझूँ
बोल उट्ठा अधम तूँ कर ऐतबार
बाग़ पर मुझ कू दिया सब अख़्तियार
जब अमीन हो के निगहबानी करूँ
पस अमानत में ख़यानत क्यू धरूँ ?
मलिके पुस्ता सुना यू बात जब
हो तआज्जुब बोल उट्ठा कुछ अजब
...........इब्राहीम अधम है मगर
जोर यू करता है अपने नफ्स पर
नाम अपना जब सुने मर्दे खुदा
किये दिल में यहॉ तो मैं रुसवा हुआ
बस चले वो बाग़ सूँ फिर कर न सग
हाक मार्या बाग़वॉ तब हो बतंग
जी ज्यादा तुझ कू मैं देता हूँ माल
तूँ न कर यू हरगिज़ जाने का खयाल
आरिफ़े हक़ फिर दिये उसकू जवाब
पारसाई का दिया मुझकू खिताब
पस जो कुछ देवे सो वह मुजकू नई
बादशाही कू देवेगा तूँ यकीं
मत बुला मुझकू मेरी ये बात कोश
मैं बदल दुनिया के नंई दीं फ़रोश
बोल कर इतना क़दम रख राह पर
बर्क़ नमने हो गये ग़ैब अज़ नज़र
बाद चन्दे हज़रते शेख़े शफ़ीक
वाक़िफ़े असरारे हक़ हादी तरीक़
देख कर अधम कू मुल्के शाम में
यू कहे तूँ बोल है किस काम में
जो उठा दर्द लेके सीने के भितर
लबे दर्या के ..................................
जो गये इस शहर सूँ उस शहर कूँ
सैर बादी के नमन करता फिरूँ
लाल हो कब कोह में करता हूँ ठार
कब अछू आहू-ए सहरा का यार
देखता हूँ हर तरफ़ कर कर निगाह
ता मिले कंई एक जुक़मा ........... पाय
शायद मंजिल का ना मुख़ड़ा नझाय
ना करे जो क़ूत हासिल का तलब
याद बेहासिल है कोशिश उनकी तब
देख इक बार चश्म अपना करके बाज़
गर तुजे किस बात का है इम्तियाज़
क़ूते हासिल बेशुबा इन्सान है
क़ूते वेज़ा शिरकते शैतान है
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