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शिकारनामा मुहम्मद हनीफ़

क़ादरी

शिकारनामा मुहम्मद हनीफ़

क़ादरी

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    इलाही तूँ कुदरत का ग़फ्फार हैं

    दो जगे के बन्धों का तूँ आधार हैं

    तेरा अन्त जो कोई ना पाया अहै

    तेरियाँ कुदरताँ किस नामालूम अहै

    तीर सिफ़त कहना किस ज़बाँ

    सकत क्या ज़बॉ को तुझे है अयाँ

    मेरी धाक ते सब लरजते हैं

    जिते देव राकस सों डरते हैं

    तूँ छोरा अहे तुज मैं क्या करूँ

    पकड़ लिए मेरे बादशाह कन चलूँ

    मोहम्मद हनीफ़ कूँ तलख यो सुख़न

    लग्या सो कहे देक उसके रुखन

    कच्चा है तूँ काफ़िर मुरदार ख़र

    के यक हात मारूँ तो जाता है मर

    बुरा मान काफ़िर ने हमला किया

    गुर्ज़ का तड़ाखा सो सर पर दिया

    सो शाह ने गुर्ज़ ले ढाल पर

    कमर बन्द उसका पकड़ क़ैद कर

    ज़ीन में ते पछाड़ उसे

    सीने पर सो चढ़े बैठ बोले उसे

    बेज़ान वई कमर में गाड़े खंजर

    कहे बोल ................तू मरदूद खर

    तुजे मारने कू नर्ई मुज कूँ आर

    यो खंजर जो मारूँ कलेजे ते पार

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