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क़िस्सा चोर

शाह अब्दुल अली

क़िस्सा चोर

शाह अब्दुल अली

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    सो क़िस्सा कता हूँ सुनो चोर का

    आसमान ज़मीं बीच कोई चोर था

    कतें के गुजरात यक शहर था

    के चोर उस जा पे रहता अथा

    सो उस चोर का बाप चोरी करे

    वले भूक होर प्यास सूँ मरे

    के चोर चोरी करे नित बड़ी

    किया तो खुशी, ना पड़े एक घड़ी

    चोरी बग़ैर कुछ गुज़रता था

    कथें पेट भर खाना खाया था

    विसी वज़ा उसका सो गुज़रान था

    लेकिन विसे कोई फ़रज़न्द था

    एक रोज़ दिल में अन्देशा किया

    फिकर ते वर्ई भुर्ई पै सिज़दा किया

    खुदा या तूँ दे यक फ़रज़न्द मुज़े

    भोत आस कर बोलता हूँ तुजे

    मेरें मन के तूँ बाग कूँ बार कर

    फल फूल डालियाँ हरे झाड़ कर

    तूँ साहब अहै तख़्त होर ताज़ का

    दुनिया दीन अर्श कुरसी लोलाक का

    यकायक हुआ उस खुदा मेहरबान

    दिया उसकूँ फ़रज़न्द दया कर सुभान

    हुआ पूत उसकूँ साहेब अवल

    सो ज्यों चाँद चँदना पुनम का निछल

    खुशहाली हुई बाप होर माई कूँ

    सुलक्खन हुआ पूत उस जाई कूँ

    कितक दिन कूँ ज्यो के श्याना हुआ

    हर एक हुनर-मन में दाना हुआ

    के चौदा बरस का हुआ वर्ई उनें

    वर्ई आया पिदर की जो ख़िदमत मनें

    बुला कर पिदर कूँ कहा तूँ मेरा

    कह्या यों के फ़रज़न्द हूँ मैं तेरा

    बजिद होके पूछन लग्या उसके तर्ई

    तू क्या किस्ब करता है सो बोल मेरे तर्ई

    तेरा किस्ब मुज कूँ तूँ शिकलाव ना

    हुनर फ़न तेरा मुँज कूँ दिखलाव ना

    सदा किस्ब में तू करता अछो

    भोत धात न्यामत ल्याता अछों

    सुन्या, मिठियाँ बाताँ जो फ़रज़न्द तें

    हुआ खुश अधिक मन में भोत धात तें

    के सुन यो तू मेरी यक बात

    मेरे किस्ब में है तो जिव का घात

    मेरा काम तुज कू माफ़िक नहीं

    अगर चे अछे तो वफ़ाई नहीं

    सदा मैं तो चोरी करता अथा

    कोई इस हद तलक मजु कू पूछा था

    खुदा के तुजे मैं हवाले किया

    के जिव उसकी कुदरत पे कुरबान दिया

    कुदरत का साहब है परवर दिगार

    ज़मीं पर किया बाग़ कूँ अपने बार

    तमाम आम खासॉ कू पैदा किया

    रिज़क उनका माताद उनकू दिया

    साहब बड़ा होर मेहबान है

    यो आलम सब उस पर ते कुरबान है

    कोई मेहनत मशक्कत हमेशा करे

    सुन्या बाव के मूँ ते बाताँ तमाम

    उबल कर उठे उसमें घाताँ तमाम

    सो घोड़ कोड़ मगा कर घर में रख्या

    कहीं से वर्ई मच का हुनर का सिख्या

    छिप्या सूरजा बीच पाताल में

    आया चाद सूँ मिल भार में

    आधी रात अँधारे में आया उने

    कहा बाप दे तूँ रज़ा जावने

    के देखूँगा मैं जा शहर के भितर

    महल बादशा का जो है किधर

    करूँगा महल के भितर मैं गुज़र

    यो बातां पिदर सुन के हैराँ हुआ

    कलमला के कुरबान उस पर हुआ

    कहा यों नको जा मेरे मन के पूत

    तूँ मँगता सो मैं ल्याकर देऊँगा तुरूत

    कधैं तू तो चोरी किया सो नहीं

    के तुज बिन मुजे कोई दूजा नहीं

    अगर तूँ जायगा तो मैं आऊँगा

    चोरी करके मैं तुजकूँ दिखलाऊँगा

    के तसलीम कर कर बोल्या बाप कूँ

    नको मेरे सात इसी रात कूँ

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