जंगनामा हज़रत क़ासिम
वली अपने च ग़म में सट नको होश
उनके मातम के दरिया कूँ हैं बे जोश
अंकिया के नहर सूँ दीदे का पानी
कर ऐसे बाग़े ग़म की बाग़बानी
के महशर लग रहे ओ ताज़ा होर तर
अछे नित कुदसिया उस पर झू बर
अता खोल आह सूँ गुंचा दहन का
शहादत बोल क़ासिम बिन हसन का
देखे क़ासिम ने अपने भाई का मूँ
जम्याँ है इस पे सारा ख़ाक होर खून
सितमगर ख़ार सूँ ओ फूल-सा तन
पड़े हैं ख़ाक में हो चाक दामन
दुखो जलने लगा रूह वह रोना सब
उठया क़ासिम के सते में धुआँ तब
सो वंई रूमीन च शह के सामने आये
अपस के दिल कु जा दर्द का सोर दिखलाये
कहे ऐ अम्मे बुजुर्गवार व मेरे
दुनियाँ होर दीन के आधार मेरे
मेरे पास भाई का ये सख़्त है ग़म
हुआ है जान व दिल इस ग़म सूँ बरहम
रहा नंई अब मेरे में सबर आराम
रज़ा देना बजाऊँ जाके समसाम
यो सुन कर उस शाह ने फरमाने उनकूँ
मेरा है यार इस जंगल में तूँ
मेरे भाई हसन की है तू निशानी
तुजे मैं क्यो करन देऊ जाँ फिशानी
रज़ा मैं क्यों तुजे देकर जलाऊँ
दिल अपने हात सू अपना जलाऊँ
तलक क़ासिम की मा क़ासिम की खातिर
निकल डेरे सें आई दौड़ बाहर
पकड़ क़ासिम का दामन हात मुहकम
लगी फ़रियाद सू करने कू ला मातम
हुसेन इब्न अली के पाव पड़ कर
लगे कहने कू मल मल अपना सर
मेरे कासिम को हर हाला रखो तुम
रज़ा मैदान पै जाने देव नको तुम
गरज़ हरगिज़ रज़ा नंई पाये क़ासिम
तो वा थे फिर के घर में आये क़ासिम
अपस जानू पे सर रख ग़म सू शहजाद
बैठे थे घर में इतने में किये याद
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