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अध्यात्मिक

अनस ख़ान

अध्यात्मिक

अनस ख़ान

बदन अंधेरी कोठरी खोजो दियासलाई

'अनस' जगाओ चेतना रौशन करो ख़ुदाई

आँखे मूँदी दिन हुआ जो खोलीं सो रैन

अंतस से दिखने लगा व्यर्थ हुए ये नैन

डूब गए तन में नयन रात बढ़ा जो भार

दिन होते ही झील ने नैनन दिए उभार

चीरहरण होने लगा हुई धरा बेचैन

घूमी तभी वसुंधरा बदल दिए दिन रैन

कोलाहल जैसे मचा लिया समुंदर थाम

उग्र भंवर नख पर लिए खड़े रहे घनश्याम

रूह नहीं ये रुई है इंसाँ एक लिहाफ़

जब जब ये मैला हुआ बदला गया ग़िलाफ़

ये कहकर तलवार ने छोड़ी आज मयान

क़ैद हिसारे-जिस्म में अब रहेगी जान

माज़ी कब का सो गया सर पर चादर तान

'अनस' कहाँ से जिस्म पर आने लगे निशान

पंछी उड़ कर चल दिया सूख गयी जब झील

मौत है असली ज़िन्दगी मौत नहीं तकमील

अंतर्मन की रौशनी उजियारे का स्रोत

अखियन की बुझ जाए पर रहे ज्ञान की ज्योत

लौ जो बाहर जल रही है चराग़ की जान

मैं तो उसका अक्स हूँ साया है इंसान

सूफ़ी जोगी औलिया सूझ बूझ के फेर

तन कपड़ों को छोड़ दे तंग लगे जब घेर

जितना मन खुलता गया खुल गए उतने राज़

परत परत जितनी छिली उतनी निखरी प्याज़

तू मुझमें महदूद है मैं तुझ में महदूद

मेरे साये में तिरा दिखने लगा वजूद

बाहर की इक ठेस भी पैदा कर दे खोट

अण्डा जीवन पाए जब हो अंदर से चोट

सूर्य लाल ही रह गया उड़ गए बाक़ी रंग

हुई मुक्त वो आत्मा जिसकी बढ़ी तरंग

इक पल मौत इक पल जनम है वजूद का जाल

घायल तन पर पेड़ के लौट आइ है छाल

सब ज़हनों को जोड़ कर बन जाये इक जाल

'अनस' तरंगित हो उठे अगर सोच का ताल

बदन कभी मरता नहीं केवल बदले नाप

बर्फ पिघल कर नीर हो नीर बने फिर भाप

अपने अंदर मैं गया इक दिन करने सैर

इतना आगे बढ़ गया पीछे छूटे पैर

ज़हन है छत्ता शहद का भिनभिन गूँजे पोर

बाहर से खामोश है मचा है अंदर शोर

कूजागर की उँगलियाँ रूह मिरी मढ़ जाएँ

हौले से तन को छुएँ अंदर तक गढ़ जाएँ

मुस्लिम जन्नत में रहें हिंदू स्वर्ग बसाएँ

लेकिन मर कर जानवर किस दुनियाँ में जाएँ

नज़र अक़ीदा बन गई और अक़ीदा दीन

गर्दिश करते चाँद को ठहरी दिखी ज़मीन

दुनिया को दिखता नहीं उसका असली रूप

सूरज की परछाईं भी हो सकती है धूप

ज़मीं गोल है चर्च ये करता था यक़ीन

चाँद आइना बन गया दिखने लगी ज़मीन

अनस परत ओज़ोन की होने लगी महीन

चलो खला में ढूँढ लें अपने लिए ज़मीन

ऊँच नीच में हट गया पुनर जनम से ध्यान

आरक्षण करता नहीं रूहों का भगवान

ग़ुस्सा है इक ऊर्जा समझो इसका दाम

लिया नहर की धार से पंचक्की ने काम

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