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Sufinama

लेखक : अमीर ख़ुसरौ

संपादक : मोहम्मद हामिद अली ख़ान

संस्करण संख्या : 004

प्रकाशन वर्ष : 1916

पृष्ठ : 480

kulliyat-e-anasir-e-dawaven-e-khusrau

लेखक: परिचय

तेहरवीं शताब्दी के आरंभ में, जब दिल्ली का राजसिंहासन गुलाम वंश के सुल्तानों के अधीन हो रहा था, अमीर सैफुद्दीन नामक एक सरदार  बल्ख़ हज़ारा से मुग़लों के अत्याचार के कारण भागकर भारत आया और एटा के पटियाली नामक ग्राम में रहने लगा। सौभाग्य से सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश के दरबार में उसकी पहुँच जल्दी हो गई और अपने गुणों के कारण वह उस का सरदार बन गया। भारत में उसने नवाब एमादुल्मुल्क की पुत्री से विवाह किया जिससे प्रथम पुत्र इज्जुद्दीन अलीशाह, द्वितीय पुत्र हिसामुद्दीन अहमद और सन् 1255 ई. में पटियाली ग्राम में तीसरे पुत्र अमीर खुसरो का जन्म हुआ। इनके पिता ने इनका नाम अबुलहसन रखा था पर इनका उपनाम खुसरो इतना प्रसिद्ध हुआ कि असली नाम लुप्तप्राय हो गया और वे अमीर खुसरो कहे जाने लगे।

चार वर्ष की अवस्था में वे माता के साथ दिल्ली गए और आठ वर्ष की अवस्था तक अपने पिता और भाइयों से शिक्षा प्राप्त करते रहे। सन् 1264 ई. में इनके पिता 85 वर्ष की अवस्था में किसी लड़ाई में मारे गए तब इनकी शिक्षा का भार इनके नाना नवाब एमादुल्मुल्क ने अपने ऊपर ले लिया। कहते है कि उनकी अवस्था उस समय 13 वर्ष की थी। नाना ने थोड़े ही दिनों में इन्हें ऐसी शिक्षा दी कि ये कई विद्याओं से विभूषित हो गए। खुसरों अपनी पुस्तक तुहफ़तुस्सग्र की भूमिका में लिखते है कि ईश्वर की कृपा से मैं 12 वर्ष की अवस्था में शे ‘र और रुबाई कहने लगा जिसे सुनकर विद्वान् आश्चर्य करते थे और उनके आश्चर्य से मेरा उत्साह बढ़ता था। उस समय तक मुझे कोई काव्यगुरु नहीं मिला था जो कविता की उचित शिक्षा देकर मेरी लेखनी को बेचाल चलने से रोकता। मैं प्राचीन और नवीन कवियों के काव्यों का मनन करके उन्हीं से शिक्षा ग्रहण करता रहा।

ख्वाजाः शम्शुद्दीन ख़्वारिज्मी इनके काव्यगुरु इस कारण कहे जाते हैं कि उन्होंने इनके प्रसिद्ध ग्रंथ पंजगंज को शुद्ध किया था। इसी समय खुसरो का झुकाव धर्म की ओर बढ़ा और उस समय दिल्ली में निज़ामुद्दीन मुहम्मद बदायूनी सुल्तानुलमशायख़ औलिया की बड़ी धूम थी। इससे ये उन्हीं के शिष्य हो गए। इनके शुद्ध व्यवहार और परिश्रम से इनके गुरु इनसे बड़े प्रसन्न रहते थे और इन्हें तुर्के-अल्लाह के नाम से पुकारते थे।

खुसरो ने पहले पहल सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन के बड़े पुत्र मुहम्मद सुल्तान की नौकरी की, जो मुल्तान का सूबेदार था। यह बहुत ही योग्य, कविता का प्रेमी और उदार था और इसने एक संग्रह तैयार किया था जिसमें बीस सहस्र शैर थे। इसके यहां ये बड़े आराम से पाँच वर्ष तक रहे। जब सन् 1248 ई. में मुग़लों ने पंजाब पर आक्रमण किया तब शाहज़ादे ने मुग़लों को दिपालपुर के युद्ध में परास्त कर भगा दिया पर युद्ध में वह स्वयं मारा गया। खुसरों जो युद्ध में साथ गए थे मुग़लों के हाथ पकड़े जाकर हिरात और बलख़ गए जहाँ से दो वर्ष के अनंतर इन्हें छुटकारा मिला। तब यह पटियाली लौटे और अपने संबंधियों से मिले। इसके उपरांत ग़यासुद्दीन बल्बन के दरबार में जाकर इन्होंने शे ‘र पढ़े जो मुहम्मद सुल्तान के शोक पर बनाए गए थे। बल्बन पर इसका ऐसा असर पड़ा कि रोने से उसे ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उसकी मृत्यु हो गई।

इस घटना के अनंतर खुसरो अमीर अली मीरजामदार के साथ रहने लगे। इसके लिए इन्होंने अस्पनामा लिखा था और जब वह अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ तब वे भी वहां दो वर्ष तक रहे। सन् 1288 ई. में ये दिल्ली लौटे और कैकुबाद के दर्बार में बुलाए गए। उसके आज्ञानुसार सन् 1289 ई. में क़िरानुस्सादैन नामक काव्य इन्होंने छः महीने में तैयार किया। सन् 1290 ई. में कैकुबाद के मारे जाने पर गुलाम वंश का अंत हो गया और सत्तर वर्ष की अवस्था में जलालुद्दीन ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लिया। इसने ख़ुसरो की प्रतिष्ठा बढ़ाई और अमीर की पदवी देकर 1200 तन का वेतन कर दिया।

जलालुद्दीन ने कई बार निज़ामुद्दीन औलिया से भेंट करने की इच्छा प्रकट की पर उन्होंने नहीं माना। तब इसने खुसरो से कहा कि इस बार बिना आज्ञा लिए हुए हम उनसे जाकर भेंट करेंगे, तुम उनसे कुछ मत कहना। ये बड़े असमंजस में पड़े कि यदि उनसे जाकर कह दें तो प्राण का भय है और नहीं कहते तो वे हमारे धर्मगुरु हैं उनके क्रोधित होने से धर्म नाश होता है। अंत में जाकर उन्होंने सब वृत्तांत उनसे कह दिया जिसे सुनकर वे अपने पीर फ़रीदुद्दीन शकरगंज के यहाँ अजोधन अर्थात् पाटन चले गए। सुल्तान ने यह समाचार सुनकर इनपर शंका की और इन्हें बुलाकर पूछा। इस पर इन्होंने सत्य सत्य बात कह दी।

सन् 1296 ई. में अपने चाचा को मारकर अलाउद्दीन सुल्तान हुआ और उसने इन्हें खुसरुए-शाअरां की पदवी दी और इनका वेतन एक सहस्र तन का कर दिया। खुसरो ने इसके नाम पर कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें एक इतिहास भी है जिसका नाम तारीख़े अलाई है। सन् 1317 ई. में कुतुबुद्दीन मुबारक शाह सुल्तान हुआ और उसने खुसरो के क़सीदे पर प्रसन्न होकर हाथी के तौल इतना सोना और रत्न पुरुस्कार दिए। सन् 1320 ई. में इसके वज़ीर खुसरो ख़ाँ ने उसे मार डाला और इसके साथ ख़िलजी वंश का अंत हो गया।

पंजाब से आकर ग़ाज़ी ख़ां ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और ग़िआसुद्दीन तुग़लक के नाम से वह गद्दी पर बैठा। खुसरो ने इसके नाम पर अपनी अंतिम पुस्तक तुग़लकनामा लिखा था। इसीके साथ ये बंगाल गए और लखनौती में ठहर गए। सन् 1324 ई. में जब निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु का समाचार मिला तब ये वहाँ से झट चल दिए। कहा जाता है कि जब ये उनकी क़ब्र के पास पहुँचे तब यह दोहा पढ़कर बेहोश हो गिर पड़े—–

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरू घर आपने रैन भई चहुँ देस।।

इनके पास जो कुछ था सब इन्होंने लुटा दिया और वे स्वयं उनके मज़ार पर जा बैठे। अंत में कुछ ही दिनों में उसी वर्ष (18 शव्वाल, बुधवार) इनकी मृत्यु हो गई। ये अपने गुरु की क़ब्र के नीचे की ओर पास ही गाड़े गए। सन् 1605 ई. में ताहिरबेग नामक अमीर ने वहाँ पर मक़बरा बनवा दिया। खुसरो ने अपने आँखों से गुलमावंश का पतन, ख़िलजी वंश का उत्थान और पतन तथा तुग़लक वंश का आरंभ देखा। इनके समय में दिल्ली के तख्त पर 11 सुल्तान बैठे जिनमें सात की इन्होंने सेवा की थी। ये बड़े प्रसन्न चित्त, मिलनसार और उदार थे। सुल्तानों और सरदारों से जो कुछ धन आदि मिलता था वे उसे बाँट देते थे। सल्तनत के अमीर होने पर और कविसम्राट् की पदवी मिलने पर भी ये अमीर और दरिद्र सभी से बारबर मिलते थे। इनमें धार्मिक कट्टरपन नाम मात्र को भी नहीं था।

इनके ग्रंथों से जाना जाता है कि इनके एक पुत्री और तीन पुत्र थे जिनका नाम ग़िआसुद्दीन अहमद, ऐनुद्दीन अहमद और यमीनुद्दीन मुबारक था। इन लोगों के बारे में और कुछ वृत्तांत किसी पुस्तक में नहीं मिलता।

मनुष्य के साथ ही उसका नाम भी संसार से उठ जाता है पर उन कार्यकुशल व्यक्तियों और कवि-समाज का जीवन और मृत्यु भी आश्चर्यजनक है कि जो मर जाने पर भी जीवित कहलाते हैं और जिनका नाम सर्वदा के लिये अमिट और अमर हो जाता है। इनका कार्य और रचना ही अमृत है जो उन्हें अमर बना देता है, नहीं तो अमृत कल्पना मात्र है। इन्हीं में अमीर खुसरों भी हैं कि जिनके शरीर को इस संसार से गए हुए आज छ सौ वर्ष हो गए पर वे अब भी जीवित हैं और बोलते चालते हैं। इनके मुख से जो कुछ निकल गया वह संसार को भाया। इनके गीत, पहेलियाँ आदि छ्ह शताब्दी बीतने पर भी आज तक उसी प्रकार प्रचलित है।

खुसरो अरबी, फ़ारसी, तुर्की और हिंदी भाषाओं के पूरे विद्वान थे और संस्कृत का भी कुछ ज्ञान रखते थे। यह फ़ारसी के प्रतिभाशाली कवि थे। इन्होंने कविता की 99 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें कई लाख के लगभग शैर थे पर अब उन ग्रंथों में से केवल बीस बाईस ग्रंथ प्राप्य है। उन ग्रंथों की सूची यह है—-

(1) मसनवी किरानुस्सादैन। (2) मसनवी मतलउल्अनवार। (3) मसनवी शीरीं व खुसरू। (4) मसनवी लैली व मजनूँ। (5) मसनवी आईना इस्कंदरी या सिंकदरनामा। (6) मसनवी हश्त बिहिश्त। (7) मसनवी ख़िज्रनामः या ख़िज्र ख़ां देवल रानी या इश्किया। (8) मसनवी नुह सिपहर। (9) मसनवी तुग़लकनामा। (10) ख़ज़ायनुल्फुतूह या तारीख़े अलाई। (11) इंशाए खुसरू या ख़्यालाते ख़ुसरू। (12) रसायलुलएजाज़ या एजाज़े खुसरवी। (13) अफ़ज़लुल्फ़वायद। (14) राहतुल्मुजीं। (15) ख़ालिकबारी। (16) जवाहिरुलबह। (17) मुक़ालः। (18) क़िस्सा चहार दर्वेश। (19) दीवान तुहफ़तुस्सिग़ार। (20) दीवान वस्तुलहयात। (21) दीवान गुर्रतुल्कमाल। (22) दीवान बक़ीयः नक़ीयः।

इनके फ़ारसी ग्रंथ, जो प्राप्य हैं, यदि एकत्र किए जाएँ तो और कवियों से इनकी कविता अधिक हो जायगी। इनके ग्रंथों की सूची देखने ही से मालूम हो जाता है कि इनकी काव्य-शक्ति कहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी। इनकी कविता में श्रृंगार, शांति, वीर और भक्ति रसों की ऐसी मिलावट है कि वह सर्वप्रिय हो गई है। सब प्रकार से विचार करने पर यही कहा जा सकता है कि खुसरो फ़ारसी कवियों के सिरमौर थे। खुसरो के कुछ फ़ारसी ग्रंथों की व्याख्या इस कारण यहाँ करना आवश्यक है कि उनमें इन्होंने अपने समय की ऐतिहासिक घटनाओं का समावेश किया है और वह वर्णन ऐसा है जो अन्य समसामयिक इतिहास लेखकों के ग्रंथों में नहीं मिलता।

खुसरों की मसनवियों में कोरा इतिहास नहीं है। उस सहृदय कवि ने इस रूखे सूखे विषय को सरस बनाने में अच्छी सफलता पाई है और उस समय के सुल्तानों के भोग विलास, ऐश्वर्य, यात्रा, युद्ध आदि का ऐसा उत्तम चित्र खींचा है कि पढ़ते ही वह दृश्य आँखों के सामने आ जाता है। इन मसनवियों में क़िरानुस्सादैन मुख्य हैं। इस शब्द का अर्थ दो शुभ तारों का मिलन है। बलबन की मृत्यु पर उसका पौत्र कैकुबाद जब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब कैकुबाद का पिता नसीरुद्दीन बुग़रा ख़ाँ जो अपने पिता के आगे ही से बंगाल का सुल्तान कहलाता था इस समाचार को सुनकर ससैन्य दिल्ली की ओर चला। पुत्र भी यह समाचार सुनकर बड़ी भारी सेना सहित पिता से मिलने चला और अवध में सरयू नदी के किनारे पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। परंतु पहले कुछ पत्रव्यवहार होने से आपस में संधि हो गई और पिता का पुत्र का मिलाप हो गया। बुग़रा खाँ ने अपने पुत्र को गद्दी पर बिठा दिया और वह स्वयं बंगाल लौट गया। क़िरानुस्सादैन में इसी घटना का 3944 शैरों में वर्णन है।

मसनवी ख़िज्रनामः में सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के पुत्र ख़िज्र ख़ाँ और देवल देवी के प्रेम का वर्णन है। खिज्र ख़ाँ की आज्ञा से यह मसनवी लिखी गई थी। ग़ोरी और गुलाम वंश का संक्षेप में कुछ वर्णन आरंभ में देकर अलाउद्दीन खिलजी के विजयों का, जो उसने मुग़लों पर प्राप्त की थी, विवरण दिया है। इसके अनंतर खुसरो ने क्रमशः गुजरात, चित्तौर, मालवा, सिवाना, तेलिंगाना, मलाबार आदि पर की चढ़ाइयों का हाल दिया है। गुजरात के रायकर्ण की स्त्री कमलादेवी युद्ध में पकड़ी जाकर अलाउद्दीन के हरम में रखी गई। इसी की छोटी पुत्री देवल रानी थी जिसके प्रेम का वर्णन इस पुस्तक में है। दोनों का विवाह हुआ पर कुछ दिनों में अलाउद्दीन की मृत्यु हो जाने पर काफ़ूर ने ख़िज्र खाँ को अंधा कर डाला। इसके अनंतर मुबारकशाह ने काफ़ूर को मारकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। जो कुछ रक्तपात इसने शाही घराने में किया था उसका हृदयग्राही वर्णन पढ़ने योग्य है।

खुसरो ने इस ग्रंथ में हिंदुस्तान के फूलो, कपड़ों और सौंदर्य को फ़ारस, रूम और रूस आदि के फूलों कपड़ों और सौंदर्य से बढ़कर निश्चित किया है और अंत में लिखा है कि यह देश स्वर्ग है, नहीं तो हज़रत आदम और मोर यहाँ क्यों आते। खुरासानियों की हँसी करते हुए लिखा है कि वे पान को घास समझते हैं। हिंदी भाषा के बारे में इन्होंने जो कुछ लिखा है वह उल्लेखनीय है।

“मैं भूल में था पर अच्छी तरह सोचने पर हिंदी भाषा फ़ारसी से कम नहीं ज्ञात हुई। सिवाय अरबी के जो प्रत्येक भाषा की मीर और सबों में मुख्य है,  रूम की प्रचलित भाषाएँ समझने पर हिंदी से कम मालूम हुई। अरबी अपनी बोली में दूसरी भाषा को नहीं मिलने देती पर फ़ारसी में यह एक कमी है कि वह बिना मेल के काम में आने योग्य नहीं है। इस कारण कि वह शुद्ध है और यह मिली हुई है, उसे प्राण और इसे शरीर कह सकते हैं। शरीर से सभी वस्तु का मेल हो सकता है पर प्राण से किसी का नहीं हो सकता। यमन के मूँगे से दरी के मोती की उपमा देना शोभा नहीं देता। सब से अच्छा धन वह है जो अपने कोष में बिना मिलावट के हो और न रहने पर माँगकर पूँजी बनाना भी अच्छा है। हिंदी भाषा भी अरबी के समान है क्योंकि उसमें भी मिलावट का स्थान नहीं है।“

इससे मालूम पड़ता है कि उस समय हिंदी में फ़ारसी शब्दों का मेल नहीं था या नाम मात्र को रहा हो। हिंदी भाषा के व्याकरण और अर्थ पर भी लिखा है- ‘यदि अरबी का व्याकरण नियमबद्ध है तो हिंदी में भी उससे एक अक्षर कम नहीं है। जो इन तीनों (भाषाओं) का ज्ञान रखता है वह जानता है कि मैं न भूल कर रहा हूँ और न बढ़ाकर लिख रहा हूँ और यदि पूछो कि उसमें अर्थ न होगा तो समझ लो कि उसमें दूसरों से कम नहीं है। यदि मैं सचाई और न्याय के साथ हिंदी की प्रशंसा करूँ तब तुम शंका करोगे और यदि मैं सौगंध खाऊँ तब कौन जानता है कि तुम विश्वास करोगे या नहीं? ठीक है कि मैं इतना कम जानता हूँ कि वह नदी की एक बूँद के समान है पर उसे चखने से मालूम हुआ कि जंगली पक्षी को दजलः नदी (टाइग्रीस) का जल अप्राप्य है। जो हिंदुस्तान की गंगा से दूर है वह नील और दजलः के बारे में बहकता है। जिसने बाग़ के बुलबुल को चीन में देखा है वह हिंदुस्तानी तूती को क्या जानेगा।‘

नुह  सिपहर (नौ आकाश) नामक मसनवी में अलाउद्दीन ख़िलजी के रँगीले उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन मुबारक शाह की गद्दी नशीनी के अनंतर की घटनाओं का हाल है। इस पुस्तक में नौ परिच्छेद है। इसका तीसरा परिच्छेद हिंदुस्तान, उसके जलवायु, पशुविद्या और भाषाओं पर लिखा गया है। हिंदुओं का दस बातों में और देशवालों से बढ़कर होना दिखलाया है। इसमें उस समय के सुल्तानों के अहेर और चौगान खेलने का अच्छा दृश्य खींचा है। यह ग्रंथ अभी छपा नहीं है।

तुग़लकनामः में ख़िलजियों के पतन और तुग़लकों के उत्थान का पूरा ऐतिहासिक वर्णन दिया गया है। दीवान तुहफ़तुस्सिग्र (यौवन की भेंट) में बलबन के समय की घटनाओं पर छोटी छोटी मसनवियाँ है। इसे खुसरों ने 16वें से 19वें वर्ष तक की अवस्था में लिखा था। दूसरा दीवान वस्तुलहयात (जीवन का मध्य) है जिसमें निज़ामुद्दीन औलिया, मुहम्मद सुल्तान सूबेदार मुलतान, दिपालपुर के युद्ध आदि पर मसनवियाँ है जो 24 से 42 वर्ष की वय में लिखा गया है। आरंभ में अपने जीवनचरित्र का कुछ हाल लिखा है। छोटी-छोटी मसनवियाँ ऐतिहासिक घटनाओं पर, जो इनके समय में हुई थीं, लिखी हैं। चौथा दीवान बक़ीयः नक़ीयः (बची हुई बातें) 50 से 64 वर्ष की अवस्था तक में लिखा गया है जिसमें भी समसामयिक घटनाओं पर मसनवियाँ है।

खुसरों ने गद्य में एक इतिहास तारीख़े अलाई लिखा है जिसमें सन् 1296 ई. में अलाउद्दीन की गद्दी से सन् 1310 ई. में मलावार विजय तक 15 वर्ष का हाल दिया गया है। कुछ इतिहासज्ञों ने इस पुस्तक का नाम तारीख़े अलाउद्दीन ख़िलजी लिखा है। इलियट साहब लिखते है कि इस पुस्तक में ख़ुसरो ने कई हिंदी शब्द काम में लाए हैं जैसे काठगढ़, परधान, बरगद, मारामार आदि। इस प्रकार खुसरो के ग्रंथों से ग़ियासुद्दीन बल्बन के समय से ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के समय तक का इतिहास लिखा जा सकता है।

ख़ुसरो का वर्णन अधिक विश्वसनीय है क्योंकि वह केवल उन घटनाओं के समसामयिक ही नहीं थे बल्कि कई में उन्होंने योगदान भी दिया था। ज़िया अल दीन  बर्नी ने अपने इतिहास में समर्थन के लिए कई स्थानों पर इनके ग्रंथों का उल्लेख किया है।

खुसरो प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी थे और नायक गोपाल और जस सावंत से विख्यात गवैए इन्हें गुरुवत् समझते थे। इन्होंने कुछ गीत भी बनाए थे जिनमे से एक को आज तक झूले के दिनों में स्त्रियाँ गाती हैं। वह यों है—

जो पिया आवन कह गए, अजहुं न आए स्वामी हो।
(ऐ) जो पिया आवन कह गए।
आवन आवन कह गए आए न बारह मास।
(ए हो) जो पिया आवन कह गए।।

बरवा राग में लय भी इन्होंने रखी है। यह गीत तो युवा स्त्रियों के लिए बनाया था पर छोटी छोटी लड़कियों के लिए स्वामी और पिया की याद में गाना अनुचित होता इससे उनके योग्य एक गीत बनाया है जो संग्रह में दिया गया है। इनका हृदय क्या था एक बीन थी जो बिन बजाए हुए  बजा करती थी। ध्रुपद के स्थान पर कौल या कव्वाली बनाकर उन्होंने बहुत से नए राग निकाले थे जो अब तक प्रचलित है। कहा जाता है कि बीन को घटाकर इन्होंने सितार बनाया था। इन्हीं के समय से दिल्ली के आस पास के सूफ़ी मुसलमानों में बसंत का मेला चल निकला है और इन्होंने बसंत पर भी कई गीत लिखे हैं। नए बेल बूटे बनाने का इन्हें जन्म ही से स्वभाव था।

खुसरो ने पद्य में अरबी, फ़ारसी और हिंदी का एक बड़ा कोष लिखा ता जो पूर्णरूप में अब अप्राप्य है पर उसका कुछ संक्षिप्त अंश मिलता है जो ख़ालिकबारी नाम से प्रसिद्ध है। इसके कुछ नमूने दिए जाते हैं जिससे ज्ञात हो जायगा कि इन्होंने इन बेमेल भाषाओं को इस प्रकार मिलाया है कि वे कहीं पढ़ने में कर्णकटु नहीं मालूम होतीं।

ख़ालिक़ बारी सिरजनहार।
वाहिद एक बिदा कर्तार।।

मुश्क काफूर अस्त कस्तूरी कपूर।
हिंदवी आनंद शादी और सरूर।।

मूश चूहा गुर्बः बिल्ली मार नाग।
सोज़नो रिश्तः बहिंदी सूई ताग।।

गंदुम गेहूँ नखद चना शाली है धान।
जरत जोन्हरी अदस मसूर बर्ग है पान।।

कहा जाता है कि खुसरो ने फ़ारसी से कहीं अधिक हिंदी भाषा में कविता की थी पर अब कुछ पहेलियों, मुकरियों और फुटकर गीतों आदि को छोड़कर और सब अप्राप्य हो रही है। फ़ारसी और हिंदी मिश्रित ग़ज़ल पहले पहल इन्हीं ने बनाना आरंभ किया था जिसमें से केवल एक ग़ज़ल जो प्राप्त हुआ है वह संग्रह में दे दिया गया है। उसे पढ़ने से चित्त प्रफुल्लित होता है पर साथ ही यह दुःख अवश्य होता है कि केवल यही एक ग़ज़ल प्राप्य है।

ख़ुसरो को हुए छः सौ वर्ष व्यतीत हो गए किंतु उनकी कविता की भाषा इतनी सजी सँवारी और कटी छँटी हुई है कि वह वर्तमान भाषा से बहुत दूर नहीं अर्थात् उतनी प्राचीन नहीं जान पड़ती। भाटों और चारणों की कविता एक विशेष प्रकार के ढाँचे में ढाली जाती थी। चाहे वह खुसरो के पहले की अथवा पीछे की हो तो भी वह वर्तमान भाषा से दूर और, ख़ुसरो की भाषा से भिन्न और कठिन जान पड़ती है। इसका कारण साहित्य के संप्रदाय की रूढ़ि का अनुकरण ही है। चारणों की भाषा कविता की भाषा है, बोलचाल की भाषा नहीं। ब्रजभाषा के अष्टछाप, आदि कवियों की भाषा भी साहित्य, अलंकार और परंपरा के बंधन से खुसरो के पीछे की होने पर भी उससे कठिन और भिन्न है। कारण केवल इतना ही है कि खुसरो ने सरल और स्वाभाविक भाषा को ही अपनाया है, बोलचाल की भाषा में लिखा है, किसी सांप्रदायिक बंधन में पड़कर नहीं। अब कुछ वर्षों से खड़ी बोली की कविता का आंदोलन मचकर हिंदी गद्य और पद्य की भाषा एक हुई है, नहीं तो, पद्य की भाषा पश्चिमी (राजस्थानी), ब्रजी और पूरबी (अवधी) ही थी। सर्वसाधारण की भाषा- सरल व्यवहार का वाहन-कैसा था यह तो खुसरो की कविता से जान पड़ता है या कबीर के पदों से। इतना कहने पर भी इस कविता के आधुनिक रूप का समाधान नहीं होता। ये पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि प्रचलित साहित्य की सामग्री है, लिखित कम, वाचिक अधिक, इसलिए मुँह से कान तक चलते चलते इनमें बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है जैसा कि प्राचीन प्रचलित कविता में होता आया है। यह कहना कि यह कुल रचना ज्यों की त्यों खुसरो की है कठिन है। हस्तलिखित पुरानी पुस्तकों से मिलान आदि के साधन दुर्लभ है। पिछले संग्रहकार आजकल के खोजियों की तरह छान बीन करने के प्रेमी नहीं थे। पहेली में पहेली का खुसरो के नाम और कहानी में कहानी का बीरबल या विक्रमादित्य या भोज के नाम से मिल जाना असंभव नहीं। कई लोग अपने नए सिक्के को चलाने के लिए उन्हें पुराने सिक्कों के ढेर में मिला देते हैं, किसी बुरी नीअत से नहीं, कौतुक से, विद्या के प्रेम से या पहले की अपूर्णता मिटाने के सद्भाव से। प्राचीन वस्तु में हस्तक्षेप करना बुरा है यह उन्हें नहीं सूझता। कई जान बूझ कर भी अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये ऐसा किया करते हैं। पुराणों के भविष्य वर्णन के एक आध पद पृथ्वीराज रासो में और वैसे ही कुछ पद सूरदास या तुलसीदास की छाप से उन कई भोले मनुष्यों को पागल बनाए हुए हैं जो अपनी जन्म-भूमि को संभल और अपने ही को भविष्य कल्की समझे हुए हैं। अभी अभी चरखे की महिमा के कई गीत “कहै कबीर सुनो भाई साधो” की चाल के चल पड़े हैं। जब राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक संसाधन या परिवर्तन या स्वार्थ के लिये श्रुति, स्मृति और पुराण में या उनके अर्थों में वर्द्धन और परिवर्तन होता आया है तब केवल मौखिक, बहुधा अलिखित, लोकप्रिय प्रचलित साहित्य में अछूतपन रहना असंभव है।

इनके जो फुटकर छंद मिले हैं उनमें इनका सांख्य भाव ही अधिक प्रतीत होता है। इनकी पहेलियाँ दो प्रकार की है। कुछ पहेलियाँ ऐसी है जिनमें उनका बूझ छिपाकर रख दिया है और वह झट वहीं मालूम हो जाता है। कुछ ऐसी हैं जिनका बूझ उनमें नहीं दिया हुआ है। मुकरी भी एक प्रकार की पहेली ही है पर उसमें उसका बूझ प्रश्नोत्तर के रूप में दिया रहता है। ‘ऐ सखी साजन ना सखी’ इस प्रकार एक बार मुकर कर उत्तर देने के कारण इन अपन्हुति का नाम कह-मुकरी पड़ गया है। दो-सख़ुने वे हैं जिनमें दो या तीन प्रश्नों के एक ही उत्तर हों।

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