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Sufinama

लेखक : मीर हसन देहलवी

संस्करण संख्या : 014

प्रकाशन वर्ष : 1966

पृष्ठ : 241

masnawiyat-e-meer hasan

पुस्तक: परिचय

زیر نظر کتاب "مثنویات میر حسن" میر حسن کی تین مثنویوں کا مجموعہ ہے۔ جس میں سحر البیان، گلزار ارم اور رموز العارفین شامل ہیں۔ مجموعہ کے شروع میں عبدالباری آسی کا تفصیلی مقدمہ شامل ہے، جس میں کچھ اہم نکات پیش کئے گئے ہیں۔ اس کے بعد کتاب میں مثنوی سحرالبیان کا دیباچہ شامل ہے، جس کو میر شیر علی افسوس نے تحریر کیا ہے، دیباچہ اہم معلومات کو پیش کرتا ہے۔ اس کے بعد مثنوی سحرالبیان کا متن ہے، جو میر حسن ہی نہیں اردو کی اہم ترین مثنویوں میں سے ایک ہے، میر حسن کی تمام مثنویوں میں قبول عام اور شہرت دوام اسی کو ملی۔ اسی لیے اس کی طرف توجہ بھی سب سے زیادہ کی گئی۔ اس مثنوی پر بہت کچھ لکھا گیا ہے، اس نسخہ میں مشکل الفاظ کے معانی حاشیہ میں رقم کئے گئے ہیں۔ اس کے بعد مثنوی گلزار ارم کو شامل کیا گیا ہے، اس مثنوی میں میر حسن نے اپنے عشقیہ رنگ کو بھی پیش کیا ہے اور اپنے عہد کے فیض آباد اور لکھنو کے نقوش بھی بیان کیے ہیں۔ دہلی سے لکھنو آتے ہوئے فیض آباد میں قیام، لیکن اس سے پہلے میوات میں شاہ مدار کے مزار کا ذکر، چھڑیوں کا بیان، پھر میوات کی حسیناوں کی آرائش و زیبائش کا بیان کیا ہے۔ میر حسن لکھنو کی بے رونقی دیکھ کر بہت دل برداشتہ ہوئے۔ فیض آباد کی رونق لکھنو پر فائق تھی، اس لئے اس مثنوی میں لکھنو کی ہجو اور فیض آباد کی مدح سرائی کی گئی ہے۔ آخر میں مثنوی رموز العارفین ہے، جس میں میر حسن نے بادشاہ ابراہیم ادھم نے بلخ کے سلطنت چھوڑ کر درویش اور فقیری اختیار کرنے کی داستان منظوم کی ہے۔ اس میں میر حسن نے جا بہ جا مولانا روم کی مثنوی کے حصے شامل کئے ہیں اور خود بھی بہت سے اشعار فارسی میں کہے ہیں۔ چھوٹی چھوٹی کہانی پیش کرکے معارف حق اور راہ سلوک کا درس دینے کی کوشش کی گئی ہے۔

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लेखक: परिचय

 

उर्दू अदब पर जितना एहसान मीर हसन के घराने का है उतना किसी का नहीं। मीर हसन ने ख़ुद ग़ज़ल को छोड़कर मसनवी को अपनाया और उसे शिखर तक पहुंचा दिया जबकि उनके पोते मीर बब्बर अली अनीस ने मर्सिया में वो नाम कमाया कि इस विधा में कोई उनका सानी नहीं। इन दोनों के बग़ैर उर्दू शायरी ग़ज़ल तक सीमित हो कर रह जाती। कोई उच्च स्तरीय प्रशंसक न होने के बावजूद क़सीदा को सौदा जिस शिखर तक ले गए थे उसमें और किसी विस्तार की गुंजाइश नहीं थी। मीर हसन और अनीस ने उर्दू शायरी को, ग़ज़ल की प्रचलित रास्ते से हट कर जिस तरह मालामाल किया वो अपनी मिसाल आप है।

मीर हसन के पूर्वज शाहजहानी दौर के अवाख़िर में हिरात से आकर दिल्ली में बस गए थे। यहीं 1727 ई. में मीर हसन पैदा हुए। उनके वालिद मीर ज़ाहिक शायर थे जिनका झुकाओ हज़ल और हजो की तरफ़ था। सौदा से उनकी ख़ूब नोक-झोंक चलती थी। मीर हसन ने आरम्भिक शिक्षा घर पर ही वालिद से हासिल की। शे’र-ओ-शायरी का शौक़ लड़कपन से था, वो ख़्वाजा मीर दर्द की संगत में रहने लगे और वही शायरी में उनके पहले उस्ताद थे। जिस ज़माने में मीर हसन ने जवानी में क़दम रखा वो दिल्ली और दिल्ली वालों के लिए बहुत दुखद समय था। आर्थिक स्थिति ख़राब थी और हर तरफ़ लूट मार मची हुई थी। अक्सर संभ्रांत लोग जान-माल की सुरक्षा के लिए दिल्ली छोड़ने पर मजबूर हो गए थे। सौदा, मीर तक़ी मीर, जुरअत, सोज़ सब दिल्ली छोड़कर अवध का रुख़ कर चुके थे। मीर ज़ाहिक ने भी बीवी-बच्चों के साथ दिल्ली को ख़ैरबाद कहा। मीर हसन को दिल्ली छोड़ने का बहुत ग़म हुआ। उन्हें दिल्ली से तो मुहब्बत थी ही साथ ही किसी दिल्ली वाली को दिल भी दे बैठे थे; 
हुआ आवारा हिंदुस्तान जब से
क़ज़ा पूरब में लाई मुझको तब से

लगा था एक बुत से वां मिरा दिल
हुई उससे जुदाई सख़्त मुश्किल

मिरी आँखों में वो सूरत खड़ी थी
प्याली में वो चुनी सी जड़ी थी

मीर हसन ख़ासे रंगीन मिज़ाज और हुस्नपरस्त थे। बहरहाल सफ़र में मेवाती हसीनाओं के हुस्न और नाज़-ओ-अदा और मकनपुर में शाह मदार की छड़ियों के मेले की रंगीनियों ने किसी हद तक उनका ग़म ग़लत किया। उनकी मसनवी “गुलज़ार-ए-इरम” उसी सफ़र की दास्तान है। फ़ैज़ाबाद जाते हुए वो लखनऊ में ठहरे, उस वक़्त लखनऊ एक छोटा सा क़स्बा था जो उनको बिल्कुल पसंद नहीं आया और इसकी निंदा कह डाली;
जब आया मैं दयार-ए-लखनऊ में
न देखा कुछ बहार लखनऊ में

हर एक कूचा यहां तक तंग तर है
हवा का भी वहां मुश्किल गुज़र है

सिवाए तोदा-ए-ख़ाक और पानी
यहां देखी हर इक शय की गिरानी

ज़-बस कूफ़ा से ये शहर हम-अदद है
अगर शिया कहें नेक इसको बद है

लखनऊ की ये निंदा उनको बहुत महंगी पड़ी। ये आसिफ़ उद्दौला के ख़्वाबों का लखनऊ था जिसे वो रश्क-ए-शाहजहाँ आबाद बनाने पर तुले थे। इस लखनऊ को कूफ़ा कहा जाना (कूफ़ा और लखनऊ के अदद अबजद 111 बराबर हैं और साथ ही ये कहना कि किसी शिया को ज़ेब नहीं देता कि वो इस शहर को अच्छा कहे, आसिफ़ उद्दौला के दिल में चुभ गया। बहरहाल मीर हसन दिल्ली से फ़ैज़ाबाद पहुंचे और पहले आसिफ़ उद्दौला के मामूं सालार जंग और फिर उनके बेटे सरदार जंग मिर्ज़ा नवाज़िश अली ख़ान के मुलाज़िम हो गए। 1770 ई. में जब आसिफ़ उद्दौला ने लखनऊ को राजधानी बना लिया तो सालार जंग भी अपने सम्बंधियों के साथ लखनऊ आ गए जिनके साथ मीर हसन को भी जाना पड़ा। फ़ैज़ाबाद उस ज़माने में हसीनाओं का गढ़ था और यहां मीर हसन के सौंदर्यबोध की संतुष्टि के बहुत सामान मौजूद थे बल्कि वो किसी से दिल भी लगा बैठे थे; 
वहां भी मैंने इक महबूब पाया
निहायत दिल को वो मर्ग़ूब पाया

कहूं क्या उसके औसाफ़-ए-हमीदा
निहायत दिलफ़रेब और शोख़ दीदा
दूसरी तरफ़ लखनऊ में आसिफ़ उद्दौला की नाराज़गी की वजह से मुश्किलात का सामना करना पड़ रहा था। उन्होंने मसनवी “सह्र-उल-बयान” नवाब को राज़ी करने के लिए ही लिखी थी, जिसके साथ एक क़सीदा भी था और नवाब से हज़रत अली और आल-ए-रसूल का वास्ता देकर माफ़ी तलब की गई थी;
सो मैं एक कहानी बना कर नई
दर-ए-फ़िक्र से गूँध लड़ियाँ कई

ले आया हूँ ख़िदमत में बहर-ए-नियाज़
ये उम्मीद है फिर कि हूँ सरफ़राज़

मिरा उज़्र तक़सीर होवे क़बूल
बहक अली-ओ ब आल-ए-रसूल

1784 ई.में ये मसनवी मुकम्मल हुई तो नवाब क़ासिम अली ख़ां बहादुर ने कहा कि मुझे ये मसनवी दो कि मैं उसे तुम्हारी तरफ़ से नवाब के हुज़ूर में ले जाऊं लेकिन मीर हसन ने उनका एतबार न किया और उनको भी नाराज़ कर बैठे, फिर जब किसी तक़रीब से उनकी पहुँच दरबार में हुई तो नवाब क़ासिम ने बदले की भावना से मीर हसन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। मीर हसन ने मसनवी के साथ एक क़सीदा भी पेश किया था जिसमें नवाब की उदारता के संदर्भ में एक शे’र ये था;
सख़ावत ये अदना सी इक उसकी है 
दोशाले दिए एक दिन सात से
क़ासिम ख़ान बोल पड़े, हुज़ूर तो हज़ारहा दोशाले देखते ही देखते बख़्श देते हैं। शायरी में अतिश्योक्ति होती है यहां तो असल बयान में भी कमी है। इसके बाद नवाब का दिल मसनवी सुनने से उचाट हो गया और मीर हसन को अपना इस्तेमाल शुदा एक दोशाला ईनाम में देकर रुख़सत कर दिया। इस घटना के डेढ़-दो साल बाद 1785 ई.में मीर हसन का देहांत हो गया।

मीर हसन को हातिम-ए-दौरां आसिफ़ उद्दौला के दरबार से कुछ मिला हो या न मिला हो, उनकी मसनवी की लोकप्रियता आसिफ़ उद्दौला की नाक़द्री के मुँह पर तमांचा बन गई। मुहम्मद हुसैन आज़ाद के शब्दों में, “ज़माने ने उसकी सेहर-बयानी पर तमाम शोअरा और तज़किरा लिखनेवालों से महज़ शहादत लिखवाया। इसकी सफ़ाई-ए-बयान, मुहावरों का लुत्फ़, मज़मून की शोख़ी और तर्ज़-ए-अदा की नज़ाकत और जवाब-ओ-सवाल की नोक-झोंक हद-ए-तौसीफ़ से बाहर है। ज़बान चटख़ारे भरती है और नहीं कह सकती कि ये कौन सा मेवा है। जगत गुरु मिर्ज़ा सौदा और शायरों के सरताज मीर तक़ी मीर ने भी कई मसनवीयाँ लिखीं मगर स्पष्टता के कुतुबख़ाने की अलमारी पर जगह न पाई। मीर हसन ने उसे लिखा और ऐसी साफ़ ज़बान, स्पष्ट मुहावरे और मीठी गुफ़्तगु में और इस कैफ़ीयत के साथ अदा किया कि असल वाक़िया का नक़्शा आँखों में खिंच गया। उसने ख़वास, अहल-ए-सुख़न की तारीफ़ पर क़नाअत न की बल्कि अवाम जो हर्फ़ भी नहीं पहचानते वज़ीफ़ों की तरह याद करने लगे।”

मीर हसन ने “सह्र-उल-बयान”, “गुलज़ार-ए-इरम” और “रमूज़-उल-आरफ़ीन” के इलावा कई दूसरी मसनवीयाँ भी लिखीं। उनकी एक मसनवी “ख़्वान-ए-नेअमत” आसिफ़ उद्दौला के दस्तर-ख़्वान पर चुने जाने वाले खानों के बारे में है। “रमूज़-उल-आरफ़ीन” अपने वक़्त में बहुत लोकप्रिय थी जिसमें रहस्यवादी और सुधारवादी विषय छन्दोबद्ध हुए हैं। लेकिन जो लोकप्रियता उनकी आख़िरी मसनवी “सह्र-उल-बयान” को मिली वैसी किसी मसनवी को नहीं मिली। इस में शक नहीं “सह्र- उल-बयान” में मीर हसन ने आपसी वार्तालाप और विस्तार लेखन को पूर्णता तक पहुंचा दिया है। यही बात उनके पोते मीर अनीस को विरासत में मिली जिन्होंने मर्सिया के मैदान में इससे काम लिया। मीर हसन के चार बेटे थे और सभी शायर थे, जिनमें अनीस के वालिद मीर मुस्तहसिन ख़लीक़ ने बहुत अच्छे मर्सिये लिखे लेकिन बेटे की शोहरत और लोकप्रियता ने उन्हें पीछे छोड़ दिया।

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