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Sufinama

कहूँ अपनी पीत को में क्या सखियो मोरे दुख की जगत में दवा न रही

मुमताज़ गंगोही

कहूँ अपनी पीत को में क्या सखियो मोरे दुख की जगत में दवा न रही

मुमताज़ गंगोही

MORE BYमुमताज़ गंगोही

    कहूँ अपनी पीत को में क्या सखियो मोरे दुख की जगत में दवा रही

    कियो बेद-तबीब ने सौ दरमन मोरे भाग में अब तो शिफ़ा रही

    मोरो चित्त को लगा है ये रोग नया कभी आग लगी कभी दर्द उठा

    नहीं पैदा हुई जो मेरे लिए कोई ऐसी जगत में बला रही

    मुझे एक अरब ने दिखा के फबन मन छीन दियो कभी दर्शन

    वह तो आप मदीना में जाए बसो मोरी सुध भी पिया को जरा रही

    तो पग में है ज़ोर मदीना चलूँ ये ताब कि हिंद नगर में रहूँ

    यूँ ही बन में अकेली मैं कूकत हूँ मोरी अक़्ल भी अब तो बजा रही

    कोई धर्मी ऐसा जगत में मिला मोरे दुख को सुनाता जो पी को जरा

    मोरा ले के सन्देस गयो कोई करे किरपा किसी में वफ़ा रही

    मुझे पीत का रोग जो लाग गया मोहे अपने-बेगानों ने छाँड दिया

    जो मैं मौत भी चाहूँ वह आती नहीं करे कुछ भी असर वह दुआ रही

    कोई इतना सन्देस पिया से कहे अजी तुम मदीना में जाए बसे

    मुझे दुख में सहन के दियो खबर वह मेहर की नजरिया जरा रही

    यह जो हिंद में जान गँवाता है तो क्योँ सू-ए- मदीना सफ़र कभू

    पड़ा सोच में यूँ ‘मुमताज़’ तू क्योँ तुझे हाए नज़र ब-ख़ुदा रही

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