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गर मयस्सर रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा होता

अब्दुल्लाह बेदिल

गर मयस्सर रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा होता

अब्दुल्लाह बेदिल

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    गर मयस्सर रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा होता

    सदक़ा हो जाता फ़िदा होता मैं शैदा होता

    दुर-ए-दंदाँ की मोहब्बत में जो रोया होता

    मेरे अश्कों पे फ़िदा 'इक़्द-ए-सुरय्या होता

    बख़्त-ए-बरगश्ता उसी दम मेरा सीधा होता

    इक इशारा जो तिरी चश्म-ए-'अता का होता

    ग़म-ए-उल्फ़त में तिरे ख़ूब बरसते मोती

    काश दिल में मेरे बहता हुआ दरिया होता

    ज़ुल्फ़-ए-जानाँ के लिए दिल की हक़ीक़त क्या थी

    जान भी देता अगर जान पे सौदा होता

    दौर चलते हैं तिरी बज़्म में अक्सर साक़ी

    एक साग़र का तो मुझ को भी इशारा होता

    जब्हा-साई जो तेरे दर की मयस्सर होती

    ताइर-ए-बख़्त मिरा उड़ के सुरय्या होता

    मुझ को तैबा से जो ले जाते फ़रिश्ते सू-ए-ख़ुल्द

    आँख उठा कर कभी ख़ुल्द को देखा होता

    'उम्र-भर भूले रहे रहमत-ए-हक़ पर 'बेदिल'

    कुछ तो ता'अत का भी महशर में सहारा होता

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