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गर ब-चश्म-एआशिक़ाँ बीनी जमाल-ए-ख़्वेशतन

अज्ञात

गर ब-चश्म-एआशिक़ाँ बीनी जमाल-ए-ख़्वेशतन

अज्ञात

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    गर ब-चश्म-एआशिक़ाँ बीनी जमाल-ए-ख़्वेशतन

    हम-चू मन आशुफ्ता: गर्दी दर ख़याल-ए-ख़्वेश्तन

    अगर आ’शिक़ों की आँखों से तू अपना जमाल देखेगा

    तो मेरी तरह तू भी अपने ख़याल में गुम हो जाएगा

    मन चू मिर्रात-ए-ऊयम हुस्न अज़ जमालश बुर्द:अम

    जुज़ जमाल-ए-ऊ नमी बीनम मिसाल-ए-ख़्वेशतन

    मैं उस का आईना हूँ और मुझ में हुस्न उस के जमाल से है

    मैं सिवाए उस के जमाल के और कुछ नहीं देखता

    आईनः मग़रूर-ए-हुस्न-ए-ख़्वेशतन हरगिज़ न-शुद

    बल्कि मी-बीनद जमाले दर जमाल-ए-ख़्वेशतन

    आईना अपने हुस्न पर हर्गिज़ गर्व नहीं करता

    वो तो अपने जमाल में एक और जमाल देखता है

    बादःई ख़्वाहम कि ब-सितानद मरा अज़ मन तमाम

    ता चु मंसूर आँ ज़माँ याबम विसाल-ए-ख़्वेशतन

    मैं उस शराब का तालिब हूँ जो मुझे बे-ख़ुद कर दे

    ताकि मैं मंसूर की तरह अपने विसाल को पा सकूँ

    आँ गुले कंदर सहर ब-शगुफ़्त दर बाग़-ए-दिलम

    बुलबुल-ए-तबअ'-ए-'मुईन' रा कर्द: लाल-ए-ख़्वेशतन

    वो फूल जो मेरे दिल के बाग़ में सुब्ह के वक़्त खिला

    उसने ‘मुई’न’ के मन की बुलबुल को गूँगा कर दिया

    स्रोत :
    • पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 292)
    • प्रकाशन : नूरुलहसन मौदूदी साबरी (1935)

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