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बिजलियाँ कौंदती हैं और है बरसात की रात

कैफ़ी हैदराबादी

बिजलियाँ कौंदती हैं और है बरसात की रात

कैफ़ी हैदराबादी

बिजलियाँ कौंदती हैं और है बरसात की रात

अब कहाँ जाते हो रह जाओ यहीं रात की रात

छेड़ में पास-ए-अदब नाज़-ओ-सितम शर्म-ओ-ग़ज़ब

किस तकल्लुफ़ से कटी पहली मुलाक़ात की रात

रात-दिन होती थी क्या-क्या मिरी ख़ातिरदारी

वो तवाज़ो’ के रहे दिन ना मुदारात की रात

तोहमत-ए-बद-नज़री आँख चुराने का गिला

बह्स क्या छिड़ गई थी शर्ह-ए-इशारात की रात

रोज़-ओ-शब ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बहम रहते थे

अब मुलाक़ात का दिन है ना मुलाक़ात की रात

ज़हे तालेअ‘-ए-बेदार कि हम-ख़्वाब है वो

मैं तो इस रात को समझा हूँ करामात की रात

दिन निकलते ही निकलने लगीं आँखें देखो

तुमने खाई थी क़सम सच्च कहो किस बात की रात

बातों बातों में शब-ए-वस्ल कहीं भोर ना हो

आज की रात नहीं हर्फ़-ओ-हिकायात की रात

रिंद पी पी के गले मिलते हैं क्या एक से एक

ईद का दिन है कि अहल-ए-ख़राबात की रात

ना उजाले से है मतलब ना अंधेरे से ग़रज़

दिन ख़राबात का दिन रात ख़राबात की रात

बे तेरी दीद के आफ़त में है ‘कैफ़ी’ शब-ओ-रोज़

दिन क़यामत का है दिन रात बलिय्यात की रात

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