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शहर आशोब

मलिक मोहम्मद

शहर आशोब

मलिक मोहम्मद

MORE BYमलिक मोहम्मद

    ऐसा वक़्त आया रे भायो,

    जूं हजरत फ़रमाकर गए हैं।

    उघड़ने नहीं अब इस जग में,

    ज़ाहिर देखो परखो मन में।

    नहीं सो परगट सब कहे हरकत,

    नाहक़ तुहमत झूठा बोले।

    मेरी तेरी बहोत करे और,

    बे वज़ू सूं मुसहफ़ खोलें।

    अमर नहीं का करे तफ़ावत,

    हक़ कूं बातिल कर दिखलावें।

    क़ाज़ी मुफ़्ती मुल्ला आलिम,

    देख रुपया दीन फिरावें।

    नहीं मोहब्बत इस जग में,

    अजब रविश दिन दिन सवाद की।

    क्या मादर क्या बाप बिरादर,

    ही उनसत कर ख़ल्क़त सबकी।

    जूं शीरीं फ़रहाद जुलैख़ा यूसुफ़,

    जूं मजनूं और लैली।

    कहो कोई कूं सो वैसा

    अब इस आख़िर दौर मनें भी।

    शर्म हया अब औरतों छोड़ी,

    रोज़ उजाले पर घर जावें,

    क्या हिन्दू क्या मुसलमान,

    बे पर्दे हो आप दिखावैं।

    नहीं सो रोज़ा नहीं कुछ बंदगी,

    हराम हलाल सब एक किया है,

    भंग तंबाकू दारू पीकर

    दोज़ख़ में घर ढूंढ लिया है।

    सब नहीं दुर्वेश मने कुछ

    ज़हद रियाज़त तक़वा कैसा,

    बेसब्री सूं घरघर मांगे

    और सब पर रज़ाक़ सो वैसा।

    बे मज़हब बे क़ैद जामअत

    बे मुर्शद गुमराह हुए हैं,

    हुक्म शरअ का जिन नहीं माना,

    अक्सर वे बे दीन हुए हैं।

    इन्साफ़ अदालत बादशाहों में

    नहीं मुत्लक़ आप ज्यूं फ़रमाया,

    ज़ुल्म तअद्दी सब शहरों में

    लालच पर इन्साफ़ छुपाया।

    राह मुसाफ़िर परदेसी का

    नाहक़ भील कोली सर काटें,

    जो कोई फ़रियाद करे उस

    दे धक्के और बाहर निकालें।

    नहीं सख़ावत दौलतमन्द में,

    क्या हिन्दू क्या कोई सो कैसा,

    लाख करोड़ हौवें जिस घर में

    वो ही शूम देवे पैसा।

    जो क़ारूं सब भू में गाड़े

    माल जक़ात हक़ की देवें,

    आख़िर छोड़ मरे सब वहीं

    या हाकिम दे सर में लेवें।

    क़ाज़ी मुफ़्ती मुल्लां आलिम

    हाकिम क्या मुजरे को जावें,

    अमल करें नहीं ज्यूं फ़रमाया

    नाहक़ बोल वज़ीफ़ा खावैं।

    जो कोई फ़रियादी आवे

    बहुज हाकिम कूं बनाव चुकावे,

    ऐसे बेदीन मुल्लाने जान,

    बुजुज दोज़ख़ में जावें।

    आख़िर दौर नज़दीक आया है

    पूरी क़ौल नबी की देखो,

    हरफ़ मसहफ़ की ओर ईमान,

    दोनूं जान बोज सीखो।

    शाहजहाँ के राज भरुच में,

    मलिक मुहम्मद नी यह देखी,

    एक हज़ार उन्हत्तर थीं तब

    क़ौल नबीं की लेखी।

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