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Sufinama

ज़ुलेख़ा का सिंगार

अमीन गुजराती

ज़ुलेख़ा का सिंगार

अमीन गुजराती

ज़ुलेख़ा का सुनो तुम अब सो सिंगार,

कहता हैगा अमीं अब होकर हुशियार।

ज़ुलेख़ा के थे ऐसे बाल सर में,

ना आवे मुश्क उन आगल नज़र में।

उनूं के रंग आगल मुश्क है कम,

ना अम्बर उन आगे मोर कछू दम।

जुड़ाव का अथा सीस फूल सर पर,

जुड़े थे बहोत उसकूं दूई गौहर।

पेशानी देख चन्दन जाय भूला,

दोहरा उसके उपर टीका अमूला।

टीके के नंग रौशन बोत झलकें,

उने मोती अजायब बोत चलकें।

आँखों आगल ख़जल सारे हरन थे,

कजल सुरमां सूं पर उसके नैन थे।

नासिका कौन देखकर पोपट खज़ल में,

सर्प हैं उड़दे सारे जा जंगल में।

अजब फबती थी बेसर नाक भीतर,

जुड़े थे नंग उसकू ताज़ा-व-तर।

थे गालों के आगल गुल यास्मीन कम,

बतीसी के आगल शरमिंदा शबनम।

अथे कन फूल कानूं क्या अजायब,

जो देखे सो जगत सूं होवे ताइब।

रेती ख़िज़मत भीतर मैं भी उसी ठाँ,

क़यामत लग रेती उस गोर बिच हूँ।

हमेशा लागती यूसुफ़ के क़दमूँ,

हुक्म रब के सो जब वे रोज़ आता।

ख़ुदा क़बरों सेतीं सब कूँ उठाता,

हम दोनों तब उठते एकठे रे।

सो तब मैदान महशर देखते रे,

जदी ख़िजमत मने सूं मैं होती,

उम्र अपनी मैं उस ही ठाम खोती।

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