जुलेख़ा का क्रोध
ज़ुलेख़ा ने सुनी जब दाई की बात,
गुस्सा खाकर सुख़न बोली उस धात।
हक़ीक़त मेरी कूँ तूँ जानती है,
मुजे ननपन सूँ तूँ पहचानती है।
न मेरी उम्र के भीतर किसी ने,
है देखा भर नज़र इन अखियों सें।
रहेती हूँ मैं हज़ारों पर्दां के माँ,
किसी कूँ देख कर आशिक हुई काँ।
ये तेरी बात मुज कूँ लागें भारी,
कलेजे के भीतर ज्यूँ घाव कारी
ज़माने का सितम बिसयार है रे,
ज़मानां तूँ बड़ा ख़ूँख़्वार है रे।
किसी को इश्क़ भीतर है जलाता,
किसी कूँ हिज्र भीतर है रुलाता।
मुहब्बत की किसी के सर में तरवार,
लगाता है अने है डालता मार।
नहीं ए देख सकता जग में शादी,
इसे गमती है सब की नामुरादी।
जुलेख़ा इश्क भीतर शाद रहती,
ज़ दर्दो ग़म हमेशा आज़ाद रहती।
यकायक इश्क़ में जाकर पड़ी ओ,
अमीं बोले बयां धर कान सुन लेजो।
रैन कूँ ग़म की ओ मसनद बिछाकर,
बैठी बादर्दो जारी ऊसके ऊपर
अकेली सबसूँ छुप बैठी ज़ुलेखा,
किया तब याद उन क़िस्सा रैन का।
नैन सूं पूर आँझूँ के बहाई,
ज़बां सूं उन सुख़न यूंकर चिल्लाई।
कि ऐ मोती तूं कह किस कान का है,
कि तूं बेमिस्ल और बेशान का है।
अगर तूं शाह है तो धाम बतला,
वगर माशूक है तो नाम बतला।
अगर सूरज अहे तो किस गगन का,
वगर चन्दर अहे तो किस अंगन का।
मिरे दिल कूँ छुपाकर ले गया तें,
अपस का नाम मुझ कूँ नां किया तें।
हबी मैं नाम तेरा किसकूं पूछूं,
मुक़ाम और थाम तेरा किसकूं पूछूं।
बिरह में तन जलाया है तें मेरा,
हबीं तू डाल पानी वस्ल केरा।
मिसाले फूल खिला था मेरा मुख,
हबीं कुमला गया अब तेरे रे दुःख।
तिरे इस इश्क़ रे तीर कारी,
लगे मेरे कलेजे बीच कारी।
तिरे इस इश्क़ का खंजर जो है तेज़,
हुवा है मेरे कारन रे खूंरेज़।
तिरे इस इश्क़ का डसिया मुझे नाग,
उठी सगले बदन बिच ज़हर की आग।
अथे दो हौज़ उस बाड़ी के भीतर,
न थे छोटे बड़े दोनों बराबर।
बनाए थे वे हौज़ अज़ संगमरमर,
न था उनके भीतर और दूजा पत्थर।
न थे मालूम उनमें कोई सांधे,
ऐसी कारीगरी बेहौज़ बांधे।
चन्दर सुरज के मानिन्द थे झलकते,
बल्कि चन्द सूर-सीं रौशन वे लगते।
ज़ुलेख़ा बाग़ भीतर जब सो आती,
हुकम कर उन दोनूं हौज़ां भराती।
भराती एक भीतर दूर निर्मल,
अने दूजे के भीतर शहद अव्वल।
बिछा था तख़्त उन दोनूं के दरम्याँ,
ज़ुलेख़ा बैठी उसके उपर हाँ।
सहेलियां खेलतियां हौज़ों उपर आ,
ज़ुलेखा देखती बैठी तमाशा।
ओ पीतियां शहद ईधर से ऊधर दूद,
ज़ुलेख़ा देखकर होती थी ख़ूश्नूद।
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