एक शाए’र का रोज़-ए-आ’शूरा हलब में पहुंचना - दफ़्तर-ए-शशुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
आ’शूरा के रोज़ अहल-ए-हलब बाब-ए-अंताकिया मैं रात को इकट्ठा होते हैं। शीआ’ लोग रात-भर वहां नौहा-ओ-बुका करते और कर्बला का आ’शूरा याद करते हैं। यज़ीद-ओ-शिम्र के मज़ालिम से जो कुछ उस ख़ानदान पर गुज़री उन तमाम मुसीबतों और आज़माइशों का ज़िक्र करते हैं। इस क़दर चीख़ें और ना’रे लगाते हैं कि सारा जंगल और मैदान गूंज उठता है। क़ज़ा-रा एक परदेसी शाए’र आ’शूरे के दिन वहां पहुंचा और रोने धोने की आवाज़ें आ रही थीं बड़ी रहम-दिली और हमदर्दी के जोश में पूछता जा रहा था कि काहे का ग़म है और ये मातम कौन कर रहा है? शायद कोई बड़ा अमीर मर गया है क्योंकि इतना बड़ा मजमा’ मा’मूली नहीं है।
उस अमीर का नाम और औसाफ़ मुझे बताओ क्योंकि मैं मुसाफ़िर हूँ। मैं उस की मेहरबानियों और एहसानात पर मर्सिया लिखूँगा। किसी ने कहा अरे दीवाना हो गया, तू शीआ’ नहीं बल्कि ख़ाना-ए-रिसालत का दुश्मन मा’लूम होता है। इतना भी नहीं मा’लूम कि आज आ’शूरे का दिन है और ऐसी रूह-ए-पाक का मातम है जो अपनी सदी की सब रूहों से अफ़ज़ल थी ,भला मोमिन के नज़दीक ये वाक़िआ’ कैसे हक़ीर हो सकता है। जिसे कान से मोहब्बत होगी उसे बाली से मोहब्बत ज़रूर होगी । शाए’र ने कहा ये तो सच है मगर अब यज़ीद का ज़माना कहाँ रहा और ये ग़म किस ज़माने में गुज़रा और कितनी मुद्दत में यहां तक पहुंचा। क्या तुम अब तक सोते रहे कि इस वक़्त मातम में कपड़े फाड़ते हो।
ऐ ग़ाफ़िलो तुम अपना मातम करो क्योंकि तुम्हारी ग़फ़लत मौत से बदतर है। एक बादशाह की रूह क़ैद-ख़ाने से छुट्टी। हम क्यों कपड़े फाड़ें और क्यों हाथ चबाएं? चूँकि वो बुज़ुर्ग दीन के बादशाह गुज़रे हैं, इसलिए तो ख़ुशी का मौक़ा’ है कि उन्होंने क़ैद –ओ-बंद तोड़े और अबदी सल्तनत की तरफ़ चल निकले। और क़ैद-ख़ाने की ज़ंजीरों को यहीं छोड़ गए। अगर तू ज़रा भर भी उनसे वाक़िफ़ है तो अब तो ज़माना उनकी हुकूमत और ख़ुद- मुख़्तारी का है। अब इस पर रोना कैसा।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 204)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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