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मस्ख़रे की बीवी का क़ाज़ी को फ़रेब देकर अपने घर ले जाना -दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

मस्ख़रे की बीवी का क़ाज़ी को फ़रेब देकर अपने घर ले जाना -दफ़्तर-ए-शशुम

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    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    एक मस्ख़रा अपनी मुफ़्लिसी को देखकर बीवी से मुख़ातिब होता और कहता कि जब तुम्हारे पास हथियार मौजूद हैं तो जाओ शिकार करो ताकि तुम्हारे शिकार के थनों से दूध दूहूं। आख़िर उस की बीवी क़ाज़ी के पास ये शिकायत लेकर गई कि मैं अपने बद-निय्यत शौहर से बे-ज़ार हूँ। क़ाज़ी ने कहा कि इस वक़्त हमारे महकमे में भीड़ बहुत है। इस शिकायत की समाअ’त के लिए फ़ुर्सत नहीं। अगर तू मेरे मकान पर आए तो मैं अच्छी तरह तेरी शिकायत सुनूँगा और अगर इन्साफ़ तेरी तरफ़ होगा तो उसे सज़ा दूँगा। तू रंजीदा मत हो। जब मुझे तेरा हाल अच्छी तरह मा’लूम हो जाएगा तेरे शौहर को ख़ूब नर्म कर लूंगा। औ’रत ने कहा कि आपके घर में तो बुरे भले सब क़िस्म के लोग अपने अपने क़ज़िए लेकर आते रहते हैं अगर तकलीफ़ ना हो तो किसी वक़्त मेरे मकान पर तशरीफ़ ले आईए। औ’रत के मक्र की इंतिहा नहीं। वो क़ाज़ी भी रीझ गया और शाम को उस के मकान पर पहुंचा। औ’रत ने दो शमएँ’ रौशन कीं और मज़ेदार बातें शुरूअ’ कीं। क़ाज़ी इस नवाज़िश से क़ाजी का चेहरा और भी खिल पड़ा। मकान भी ख़ाली थी और वो ख़ुश ख़ुश औ’रत के पहलू में हो बैठा और इस नज़दीकी से उस की जान खुश होने लगी।

    ऐ’न उस वक़्त मस्ख़रे ने आकर दरवाज़ा खटखटाया। फ़ौरन क़ाज़ी घबरा कर उठा ताकि वहां से खिसक जाये। औ’रत ने हाथ जोड़ कर कहा कि अगर इस बद-बख़्त हासिद ने आपको यहां से जाते देखा तो मुझको जान से मार डालेगा छुपने की और कोई जगह भी ना थी नाचार औ’रत के घबरा देने से एक बड़े से ख़ाली संदूक़ में जा छुपा। वो मस्ख़रा घर में आया और कहने लगा, अरी सर्राफ़ा तू बहार-ओ-ख़िज़ां दोनों मौसमों में मुझ पर वबाल-ए-जान है। मेरे पास कौन सी चीज़ है जो तुझ पर क़ुर्बान नहीं की, फिर भी तू हमेशा शिकायत कर के मेरे गुनाह समेटी रहती है। एक शख़्स ने मुझसे कहा है कि तू क़ाज़ी के पास गई थी और बहुत सी झूटी शिकायतें कीं। मुझ बे-गुनाह पर तूने ज़बान-दराज़ी की हद कर दी है। कभी तू मुझे मुफ़्लिस बताती है और कभी दय्यूस कहती है। अगर ये ऐ’ब मुझमें हैं तो एक ख़ुदा की तरफ़ से है और तेरी तरफ़ से है सिवा इस संदूक़ के मेरे पास अब क्या रखा है मगर लोग जानते हैं कि मैं दौलत-मंद हूँ और इसी गुमान की बिना पर मुझसे अपना क़र्ज़ तलब करते हैं। अगरचे संदूक़ ज़ाहिर में बहुत ख़ूबसूत है लेकिन सामान और सोने चांदी से बिलकुल ख़ाली है लिहाज़ा कल इस संदूक़ को बाज़ार में ले जाऊँगा ऐ’न चौराहे पर इस को जला दूंगा ताकि हर मुसलमान , ई’साई और यहूदी देख ले कि इस संदूक़ में सिवा ला’नत के और कुछ भी ना था। औ’रत ने कहा। हाएं मियां ख़ुदा के लिए ऐसा ना करना ये क्या दीवानगी है। मस्ख़रे ने क़सम खाई कि मैं तो ऐसा ही करूँगा। फ़ौरन एक रस्सी लेकर संदूक़ को बांध दिया और ख़ुद अंजान हो गया। सुब्ह-सवेरे एक मज़दूर को लाया और फ़ौरन संदूक़ उस की पीठ पर लाद दिया क़ाज़ी मारे तकलीफ़ और ख़ौफ़ के हम्माल को पुकारने लगा। उस हम्माल ने हर तरफ़ देखा कि ये आवाज़ किधर से रही है। ये बुलाने वाला कोई फ़रिश्ता है या कोई परी कि छुप कर आवाज़ दे रही है। जब यही आवाज़ बार-बार आई और बढ़ती गई तो आख़िर-कार पहचाना कि ये आवाज़ और आह-ओ-ज़ारी इस संदूक़ के अंदर से रही थी, हो ना हो इस में कोई पोशीदा है। इस वाक़िआ’ की तफ़्सील की तो हैरत की इंतिहा नहीं रही।

    क़ाज़ी ने कहा कि संदूक़ ले जाने वाले ख़ुदा के लिए महकमा-ए-क़ुज़ात में मेरी ख़बर कर और मेरे नाएब को फ़ौरन यहां बुला ताकि इस संदूक़ को अशर्फ़ियां देकर ख़रीद ले और संदूक़ को जूं का तूं हमारे घर पहुंचाए। हम्माल ने एक राहगीर से कहा कि महकमा-ए-क़ुज़ात को जाओ और नाएब क़ाज़ी से ये वाक़िआ’ बयान करो और कह दो कि क़ाज़ी की डोंडी अब पिटने वाली है। अपने काम को छोड़कर फ़ौरन यहां आओ और मस्ख़रे से इस संदूक़ को बंद का बंद ख़रीद लो। राहगीर गया और पैग़ाम पहुंचा दिया। उधर मस्ख़रे ने आग लगाई कि अब संदूक़ को जला डालूँगा ।सर-ए-बाज़ार अ’वामुन्नास में एक जोश-ओ-ख़रोश फैल गया कि क्या बात है कि मस्ख़रे ने ये हंगामा बरपा कर रखा है ।नाएब क़ाज़ी आया और पूछा कि संदूक़ की क्या क़ीमत है उसने कहा कि नौ सौ से ज़ियादा अशर्फ़ियां देते हैं मैं हज़ार से नीचे नहीं उतरूंगा। अगर मंज़ूर है तो लाओ थैली का मुँह खोलो। नाएब ने कहा अरे शर्म कर भला देख इतनी बड़ी रक़म पर इस को कौन ख़रीदता है। मस्ख़रे ने कहा बे-देखे ख़रीदना नाजाएज़ है ।हमारी फ़रोख़्त चादर में छुपी हुई ठीक नहीं। मैं इसे खोल कर दिखाता हूँ। अगर पसंद ना आए तो ना ख़रीदो कहीं ऐसा ना हो कि ख़रीदने के बा’द अफ़्सोस करो। नाएब ने कहा कि नहीं नहीं बस जाने दो। मैं इस को बंद ही ख़रीद लूँगा, तू मेरी बात मान, अशर्फ़ियों की कमी-बेशी पर तकरार तो बहुत हुई। मगर बहर-हाल नाएब ने हज़ार अशर्फ़ियां दीं और संदूक़ ख़रीद लिया।

    एक बरस के बा’द मस्ख़रा फिर मुफ़्लिस हुआ। बीवी से कहा कि होशयार औ’रत वही चाल फिर चल और क़ाज़ी के पास जाकर मेरी शिकायत कर, अब के वो औ’रत दूसरी ओ’रतों के साथ क़ाज़ी के पास पहुंची और एक दूसरी औ’रत को बीच में डाल दिया ताकि कहीं उस की आवाज़ क़ाज़ी पहचान ना ले और उस को अपनी गुज़श्ता मुसीबत याद ना जाए। औ’रतों का नाज़ –ओ-ग़म्ज़ा तो फ़ित्ना है लेकिन औ’रत की आवाज़ से वो फ़ित्ना सौ गुना हो जाता है। अगर औ’रत आवाज़ ना निकाल सकती तो औ’रत के पोशीदा ग़म्ज़े बे-असर रहते। क़ाज़ी ने शिकायत सुनकर कहा जा अपने शौहर को बुला ला ताकि तेरी शिकायत उस के रू-बरू समाअ’त करूँ। अब मस्ख़रा जो आया फ़ौरन क़ाज़ी ने पहचान लिया क्योंकि संदूक़ के अंदर से उस की आवाज़ भी सन चुका था जो संदूक़ की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त और कमी-बेशी के मुतअ’ल्लिक़ हो रही थी। क़ाज़ी ने पूछा कि अपनी औ’रत का नफ़्क़ा क्यों नहीं देता? मस्ख़रे ने कहा कि अहकाम-ए-शरा’ का जान से ग़ुलाम हूँ, लेकिन अगर मैं मर जाऊं तो कफ़न को भी पैसे नहीं इस औ’रत के छक्के पंजों से मुफ़्लिस हो गया हूँ। इस बात से क़ाज़ी उस को अच्छी तरह पहचान गया और उस को इस का मक्र-ओ-फ़रेब याद गया। क़ाज़ी ने कहा कि वो छक्के पंजे मेरे साथ तू पहले खेल चुका है जा अब कहीं और जा कर लगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 233)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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