Sufinama

मुफ़्लिस और खाओ क़ैदी की मुनादी- दफ़्तर-ए-दोम

रूमी

मुफ़्लिस और खाओ क़ैदी की मुनादी- दफ़्तर-ए-दोम

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    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    एक मुफ़्लिस बे-घर शख़्स क़ैद में डाला गया था। वो ऐसा बड़-पेटा था कि सारे क़ैदियों का खाना खा जाता था। किसी की मजाल ना थी कि पेट भर कर रोटी खा सके क्योंकि हाथ चालाक बहुत जल्द उड़ा लेता था। क़ाज़ी का वकील जो पूछ-गछ के लिए आया तो अह्ल-ए-ज़िंदाँ ने शिकायत की कि हमारा सलाम क़ाज़ी को पहुंचा कर इस कमीने आदमी की ईज़ा-रसानी का हाल कहना

    इसने हाथ चालाकी पुर-ख़्वारी और ईज़ा-रसानी में बड़ा नाम निकाला है। कोई क़ैदी एक लुक़्मा भी नहीं खा सकता चाहे खाने के लिए सौ हीले करे फ़ौरन ही वो बड़-पेटा आन मौजूद होता है और दलील उस की ये होती है कि ख़ुदा ने ''कुलू'' या’नी खाओ का हुक्म दिया है। कम-बख़्त हर खाने पर मक्खी की तरह भनभाता हुआ बे-बुलाए पहुंचता है। इस के आगे साठ आदमियों का खाना भी कोई चीज़ नहीं अगर इस से बस कहो तो बहरा बन जात है ख़ुदा करे कि मौलाना का साया ता-अबद क़ायम रहे, या तो ज़िंदान से इस भैंसे को निकालिए या मद-ए-वक़्फ़ से इस की ख़ुराक मुक़र्रर कीजिए। सरकार आपके इन्साफ़ से सब मर्द-ओ-ज़न ख़ुश हैं हमारी दाद को भी पहुंचिए। बा-मुरुवत वकील ने क़ाज़ी के पास हाज़िर हो कर सब शिकायतें अलग अलग बयान करीं।

    क़ाज़ी ने उस को क़ैद-ख़ाने से अपनी पेशी में बुलाया और अपने मातहत ओ’हदा-दारों के ज़रीये’ से भी तहक़ीक़ात की। क़ैदियों की शिकायत सही साबित हुई। क़ाज़ी ने उस मुफ़्लिस क़ैदी से कहा कि इस क़ैद-ख़ाने से दफ़ा' हो और अपने ही घर में जाकर मरो। उसने कहा मेरा घर-बार तो आप ही का एहसान है और काफ़िर की तरह मेरी जन्नत तो आप ही का क़ैदख़ाना है। अगर तू मुझे मदर्दूद क़रार दे कि क़ैदख़ाना से भी निकालता है तो मैं भूक प्यास और इफ़्लास से मर ही जाऊंगा। क़ाज़ी ने हुक्म दिया कि शहर में इस को गशत कराओ और आ’म ऐ’लान करो कि ये बिलकुल मुफ़्लिस बे-ग़ैरत है कोई शख़्स भूले से भी इस को क़र्ज़ ना दे। अगर आइंदा कोई इस के ख़िलाफ़ दा’वा करेगा तो बा’द सुबूत भी उसे क़ैद में ना डालूँगा। इस का इफ़्लास साबित हो चुका है और किसी क़िस्म का नक़्द-ओ-जिन्स इस के पास नहीं है।

    क़ाज़ी के प्यादे एक लकड़हारे कुर्द का ऊंट पकड़ लाए। उस कुर्द बेचारे ने बहुतेरी वावैला मचाई और सिपाही की मुठ्ठी भी एक इकन्नी से गर्म की मगर कुछ फ़ाएदा ना हुआ पीठ पर वो बड़-पेटा बैठा हुआ था और ऊंट का मालिक पीछे पीछे दौड़ रहा था। इस तरह मुहल्ले मुहल्ले और कूचा कूचा फिराते रहे। यहाँ तक कि सब अह्ल-ए-शहर को इ’ल्म-ओ-शनाख़्त हो गई।हर हम्माम और हर बाज़ार के लोगों ने उस की शक्ल को पहचान लिया। उन मुनादी करने वालों में तुर्क, कुर्द, रूमी और नाज़ी थे सब बुलंद आवाज़ से कहते जाते थे कि ये शख़्स बे-सर-ओ-सामान, बद-अतवार, रोटियों का चोर और सख़्त बे-हया है। ये बिलकुल मुफ़्लिस है इस के पास कुछ नहीं कोई इस को एक छदाम भी क़र्ज़ ना दे , इस का ज़ाहिर-ओ-बातिन बिलकुल ख़ाली है ये बिलकुल मुफ़्लिस, खोटा, दग़ा-बाज़, और ढोल ही ढोल है। इस तरह दिन-भर तश्हीर के बा’द जब रात को वो ऊंट से नीचे उतरा तो कुर्द ने कहा कि मेरा मक़ाम यहाँ से बहुत दूर है पहुंचने में बहुत देर लगेगी,तू सुब्ह से मेरे ऊंट पर बैठा रहा और घास खोदने की मेहनत से ज़ियादा थकन मुझ पर सवार है।

    मुफ़्लिस ने जवाब दिया कि तू कुछ समझा भी कि हम क्यों फिराए गए और आज तमाम दिन क्या हुआ। तेरे होश किधर हैं। क्या दिमाग में शय-ए-लतीफ़ नहीं? तू सरीहन सुन चुका कि फ़लक-ए-हफ़्तुम तक मेरे इफ़्लास की तश्हीर की गई मगर मा’लूम होता है कि मारे हिर्स के तू कुछ सुन ना सका क्योंकि तमअ' आदमी के कानों को बहरा कर देती है। ढेलों और पत्थरों तक ने सुन लिया कि ये मर्द, बे-हमीयत और मुफ़्लिस है। सुब्ह से रात तक लोग तश्हीर करते रहे लेकिन ऊंट का मालिक चूँकि हिर्स में मुब्तला था वो फिर भी ये समझता रहा कि इस मफ़्लूक-उल-हाल से शायद कुछ किराया मिल जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 60)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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