एक बाग़बान का सूफ़ी-ओ-फ़क़ीह-ओ-अ'लवी को एक दूसरे से जुदा करना- दफ़्तर-ए-दोउम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक बाग़बान ने देखा कि उस के बाग़ में तीन आदमी चोरों की तरह घुस आए हैं।उनमें से एक फ़क़ीह एक सय्यद और एक सूफ़ी है और एक से बढ़कर एक सरकश-ओ-गुस्ताख़ है। उसने अपने जी में कहा , मुझे इनको क़रार-ए-वाक़िई’ सज़ा देना लाज़िम है।लेकिन ये सब एक दिल हैं और जमाअत’ बड़ी क़ुव्वत है। मैं अकेला इन तीन आदमियों से सर बर नहीं हो सकता। लिहाज़ा तदबीर यही है कि पहले उनको एक दूसरे से जुदा कर दो।
ये सोच कर पहले उसने सूफ़ी से कहा कि हज़रत ज़रा मेरे घर जाओ और अपने इन साथियों के लिए एक कम्बल ले आओ।
जब सूफ़ी कुछ दूर चला गया तो उस के साथियों से कहने लगा, क्यों साहिब आप तो फ़क़ीह और ये दूसरे नामदार सय्यद हैं। हम तुम्हारे फ़त्वे पर रोटी खाते हैं और तुम्हारी ही अ’क़्ल के परों पर उड़ते हैं और ये दूसरे शहज़ादे हमारे बादशाह हैं क्योंकि सय्यद और ख़ानदान-ए-हज़रत-ए-मुस्तफ़ा से हैं लेकिन इन बरपेटे सूफ़ी में कौन सा सुर्ख़ाब का पर है जो वो तुम जैसे बादशाहों के साथ रहे। अगर वो वापस आए तो उस को रुई की तरह धुन डालो और तुम लोग एक हफ़्ते तक मेरे बाग़-ओ-सब्ज़ा-ज़ार में क़ियाम करो। अजी बाग़ सदक़े किया था,मेरी जान तुम्हारी है बल्कि तुम तो मेरी दाईं आँख हो। ऐसी चिकनी चुपड़ी बातों से उनको रिझाया और ख़ुद डंडा लेकर सूफ़ी के पीछे चला और उसे पकड़ कर कहा, क्यों रे कुत्ते सूफ़ी तू बे-ग़ैरती से लोगों के बाग़ में दर्राना घुस आता है। ये तरीक़ा क्या तुझको जुनैद ने बताया या बायज़ीद ने । बता तो सही किस शैख़ और किस पीर से ऐसी इजाज़त पहुंची। ये कह कर सूफ़ी को ख़ूब धुना, उस को अध-मुआ कर दिया और सर फाड़ डाला।सूफ़ी ने जी में कहा कि जो कुछ मुझपे आनी थी वो तो आ गई मगर हम-नशीनों ज़रा अपनी ख़बर लो। तुमने मुझे ग़ैर जाना हालाँकि मैं इस बे-हमीयत मर्द से ज़ियादा ग़ैर ना था। जो कुछ मैं ने खाया तुम्हें भी यही खाना है और बात भी ये है कि बदमा’श को ऐसी ही सज़ा मिलनी चाहिए। जब बाग़बान ने सूफ़ी को ठीक बना दिया तो वैसा ही एक बहाना तराशा और कहा कि ऐ मेरे शरीफ़ सय्यद साहिब आप मेरे ग़रीब-ख़ाने पर तशरीफ़ ले जाएं कि मैंने आपके दोपहर के खाने के लिए पूड़ीयाँ तैयार कराई हैं। मेरे दरवाज़े पर जाकर लौंडी को आवाज़ दीजिए वो आपको पूड़ीयां और भुनी हुई क़ाज़ ला देगी। जब उस को रुख़्सत कर दिया तो फ़क़ीह से कहने लगा कि ऐ दीन-दार ये तो ज़ाहिर है और मुझे भी यक़ीन है कि तू फ़क़ीह है मगर ये आपका साथी सियादत का दा’वा बे-दलील करता है। कौन जानता है कि इस की माँ ने क्या किया।ग़रज़ उस सय्यद को ख़ूब सलवातें सुनाईं। फ़क़ीह चुप बैठा सुनता रहा। वो तुझे किस ने बुलाया था। क्या ये चोरी की मीरास तुझको पैग़ंबर से पहुंची है। शेर का बच्चा तो शेर ही हुआ करता है। अब तो बता कि पीग़मबर के मुक़ाबले में तू क्या है। फिर उस लफ़ंगे ने बद-ज़ाती से सय्यद के साथ वो किया जो ख़ारिजी औलाद-ए-रसूल के साथ करे। जब वो सय्यद उस ज़ालिम की मार-धाड़ से निढाल हो गया तो आँखों में आँसू भर कर उसने फ़क़ीह से कहा कि मियां ठहरो। तुम अब अकेले रह गए हो, इस तुम्हारी तोंद पर वो धुवां धूं होगी कि नक़्क़ारा बन जाएगी। अगर मैं सय्यद नहीं और तेरी रिफ़ाक़त-ओ-हमदमी के लाएक़ नहीं हूँ तो ऐसे ज़ालिम से तो मैं बदतर नहीं हूँ।
इधर जब वो बाग़बान इस से भी फ़ारिग़ हो गया तो फ़क़ीह की जानिब मुख़ातिब हुआ और कहा कि ऐ फ़क़ीह तू सारे बद-ज़ातों का सरग़ना है, अरे ख़ुदा तुझे लुंजा टंडा करे। क्या तेरा यही फ़त्वा है कि किसी के बाग़ में बे-धड़क घुस आए और आने की इजाज़त भी तलब ना करे। अरे बद-तमीज़, ऐसा फ़त्वा तुझको अबू-हनीफ़ा ने दिया या शाफ़िई’ ने। क्या तूने ऐसी इजाज़त वसीत (किताब-ए-फ़िक़्ह )में पढ़ी या मस्अला मुहीत (किताब-ए-फ़िक़्ह) में दर्ज है। इतना कह कर उस ने फ़क़ीह की वो मरम्मत की कि दिल का पूरा बुख़ार निकाल लिया। फ़क़ीह ने कहा, बे-शक तुझे हक़ है। मारने में कोई कसर उठा ना रख, जो अपनों से जुदा हो जाए उस की यही सज़ा है। इतनी सज़ा का नहीं बल्कि इस से सौ गुनी सज़ा के लाएक़ हूँ, आख़िर मैं अपने ज़ाती बचाव के मारे अपने हमदमों से क्यों जुदा हुआ।
ग़रज़ जो शख़्स अपने साथियों से अलग हो कर अकेला रह जाता है उस पर ऐसे ही मसाइब आते हैं।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 79)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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