कहानी -22-सन्तोष- गुलिस्तान-ए-सा’दी
मैंने देखा कि एक सौदागर के पास डेढ़ सौ ऊँट और चालीस ग़ुलाम और ख़िदमतगार थे। एक रात वह मुझे अपने कमरे में ले गया। तमाम रात उसने डींग मारने में गुज़ार दी। न ख़ुद सोया और न मुझे सोने दिया।
मुझसे उसने कहा, मेरा इतना सामान तुर्किस्तान में पड़ा है और इतना हिन्दुस्तान में। यह रहा उस ज़मीन का बै'-नामा। मेरी फ़ुलाँ चीज़ का फ़ुलाँ आदमी ज़ामिन है। कभी वह कहता कि मरा इरादा इस्कन्दरिया जाने का है क्योंकि वहाँ मौसम अच्छा है। फिर कहता कि अभी नहीं जाऊँगा क्योंकि मिस्र की खाड़ी में बाढ़ आई हुई है। थोड़ी देर में उसने कहा, सा’दी साहब, मुझे एक सफ़र और करना है। अगर वह सहीह-सलामत पूरा हो जाए तो बाकी उ’म्र मैं एकान्त में गुज़ारूँगा और सब्र से काम लूँगा।
मैंने पूछा, वह कौन-मा सफ़र है।
वह बोला, मैं फ़ारस से गंधक ख़रीद कर चीन ले जाना चाहता हूँ! मैंने सुना है कि वहा गंधक अच्छे दामों पर बिकता है। वहाँ से मैं चीनी बर्तन रोम ले जाऊँगा और रोम का रेशमी कपड़ा 'देवा' हिन्दुस्तान ले जाऊँगा और हिन्दुस्तान से लोहा हलब ले जाऊँगा। हलब से आईने ख़रीद कर यमन ले जाऊँगा और यमन की चादरें फ़ारस ले लाऊँगा। बस, इसके बा’द कोई सफ़र नहीं करूँगा और दुकान पर बैठ जाऊँगा।
साफ़ बात तो यह है कि उसने पागलपन में आकर इतनी बकवास की कि वह ख़ुद भी थक गया। जब उसमें ज़ियादा बोलने की ताक़त नहीं रही तो मुझसे बोला, सा’दी साहब! आप भी तो कुछ कहिए। आपने क्या देखा और क्या सुना
मैंने कहा, 'तुमने शायद सुना होगा कि ग़ौर के जंगल में पिछले साल एक सौदागर घोड़े से गिर पड़ा तो उसने कहा, 'संसार की लालची आँखों को सब्र ही भर सकता है या फिर क़ब्र की मिट्टी।'
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