कहानी-27- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक बार हिजाज़ के सफ़र मे मेरे साथ कुछ फ़क़ीर भी जा रहे थे। लोग आपस में दोस्ती और हमदर्दी रखते थे। रास्ता काटने के लिए वे सभी गाना गाते और शे’र पढ़ते जा रहे थे।
इसी क़ाफ़िले में एक फ़क़ीर था जो सबसे अलग-अलग रहता। न तो वह अल्लाह को याद करने में उनके साथ शामिल होता और न उनके दुख दर्द की चिन्ता करता। वह अपने ऊँट पर बैठा अकेला चला जा रहा था।
जब हम नख़्ल-ए-बनी-हिलाल पर पहुँचे तो अ’रब के किसी क़बीले में एक हब्शी लड़का निकला। उसने अल्लाह को पुकारते हुए ऐसा गाना गाया कि पक्षी आकाश से उतर आए। मैंने देखा कि उस फ़क़ीर का ऊँट मस्त होकर नाचने लगा और उसे ज़मीन पर पटक कर जंगल की और भाग गया।
मैंने उस फ़क़ीर से कहा, शैख़ साहब! उस हब्शी ने अल्लाह की प्रशंसा में जो गाना गाया उससे जानवर तक प्रभावित हो गए; किन्तु आप वैसे-के-वैसे ही रहे।
जानते हो मुझसे सुबह के वक़्त चहचहाने वाली बुलबुल ने क्या कहा? उसने मुझसे कहा, 'तू कैसा आदमी है, जो इ’श्क़ में बे-ख़बर है? अ’रबी शे’र से ऊँट भी मस्ती में आ जाते हैं और ख़ुदा की याद में खो जाते है। क्या तू उलटे मिज़ाज का जानवर है, जो तू उसकी याद में मस्त नहीं होता?
'जंगल में जब हवा चलती है तो बान की शाखें झूमने लगती हैं किन्तु पत्थर ज्यों का त्यों रहता है।'
'संसार की हर चीज़ उसी पैदा करने वाले का नाम ले-लेकर शोर मचा रही हैं। लेकिन इसे सुनता वही है, जिसके कान सुन सकते हों।'
'केवल बुलबुल ही फूल पर उसका नाम नहीं जपती है। हर एक काँटा उसका नाम जपने के लिए ज़बान बना हुआ है।'
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