बन्दन करौं कृपानिधान श्रीसुक सुभकारी।
सुद्ध ज्योतिमय रूप सदा सुन्दर अविकारी।।
हरि लीला रस मत्त मुदित नित विचरत जग में।
अद्भुत गति कतहूं न अटक ह्वै निकसत मग में।।
नीलोत्पलदल श्याम अंग नव जोबन भ्राजै।
कुटिल अलक मुखकमल मनो अलि अवलि विराजै।।
ललित बिसाल सुभाल दिपति जनु निकर निसाकर।
कृष्ण भगति प्रतिबन्ध तिमिर कहँ कोटि दिवाकर।।
कृपा रङ्ग रस ऐन नैन राजत रतनारे।
कृष्ण रसासव पान अलस कछु घूम घुमारे।।
श्रवण कृष्ण रसभवन गण्ड मण्डल भल दरसै।
प्रेमानन्द मिलिन्द मन्द मुसुकनि मधु बरसै।।
उन्नत नासा अधर बिम्ब शुक की छबि छीनी।
तिन मंह अद्भुत भांति जु कछुक लसित मसि भीनी।।
कम्बुकण्ठ की रेख देखि हरि धरमु प्रकासै।
काम क्रोध मद लोभ मोह जिह-निरखत नासै।।
उरवर पर अति छवि की भीर कछु बरनि न जाई।
जिहि भीतर जगमगत निरन्तर कुंअर कन्हाई।।
सुन्दर उदर उदार रोमावलि राजति भारी।
हियो सरोवर रस भरि चली मनो उमगि पनारी।।
जिहि रस की कुण्डिका नाभि अस शोभित गहरी।
त्रिवली तामहं ललित भांति मनु उपजत लहरी।।
अति सुदेस कटि देस सिंह सोभित सघनन अस।
जोबन मद आकरसत बरसत प्रेम सुधारस।।
गूढ़ जानु आजानु-बाहु मद-गज-गति लोलैं।
गंगादिक पवित्र करत अवनी पर डोलै।।
जब दिनमनि श्रीकृष्ण दृगन तें दूरि भये दुरि।
पसरि परयो अंधियार सकल संसार घुमड़ि घिरि।।
तिमिर ग्रसित सब लोक-ओक लखि दुखित दयाकर।
प्रकट कियो अद्भुत प्रभाव भागवत विभाकर।।
श्रीवृन्दाबन चिदधन कछु छबि बरिन न जाई।
कृष्ण ललित लीला के काज गहि रह्यो जड़ताई।।
जह नग खग मृग लता कुंज वीरुध तृन जेते।
नहिं न काल गुन प्रभा सदा सोभित रहै तेते।।
सकल जन्तु अविरुद्ध जहां हरि मृग सग चरही।
काम क्रोध मद लोभ रहित लीला अनुसरही।।
सब दिन रहित बसन्त कृष्ण अवलोकनि लोभा।
त्रिभुवन कानन जा विभूति करि सोभित सोभा।।
ज्यों लक्ष्मी निज रूप अनूपम पद सेवित नित।
भूबिलसत जु विभूति जगत जग मग रही जित कित।।
श्री अनन्त महिमा अनन्त को बरनि सकै कवि।
संकरषक सो कछुक कही श्रीमुख जाकी छबि।।
देवन में श्री रमारमन नारायन प्रभु जस।
बन में बृन्दाबन सुदेस सब दिन सोभित अस।।
या बन की बर बानिक या बन ही बन आवै।
सेस महेश सुरेस गनेस न पारर्हि पावै।।
जहं जेतिक द्रुमजात कल्पतरु लगि रही जगमग ज्योती।
पात मूल फल फूल सकल हीरा मनि मोती।।
तहं मुतियन के गन्ध लुबध अस गान करत अलि।
बर किन्नर गन्धर्व अपच्छर तिन पर गइ बलि।।
अमृत फुही सुख गुही अति सुही परत रहत नित।
रास रसिक सुन्दर प्रिय को स्रम दूर करन हित।।
ता सुरतरु महं और एक अद्भुत छवि छाजै।
साखा दल फल फूलनि हरि प्रतिबिम्ब बिराजै।।
ता तरु कोमल कनक भूमि मनिमय मोहत मन।
दिखियतु सब प्रतिबिम्ब मनौ धर महं दूसर बन।।
जमुनाजु अति प्रेम भरी नित बहत सुगहरी।
मनि मण्डित महि मांह दोरि जनु परसत लहरी।।
तहं इक मनिमय अंक चित्र को सङ्ग सुभग अति।
तापर षोडश दल सरोज अद्भुत चक्राकृति।।
मधि कमनीय करिनिका सब सुख सुन्दर कन्दर।
तहं राजत ब्रजराज कुंअर वर रसिक पुरन्दर।।
निकर विभाकर दुति मेटत सुभ मनि कौस्तुभ अस।
सुन्दर नन्द कुंअर उर पर सोइ लागति उड्ड जस।।
मोहन अद्भुत रूप कहि न आवत छबि ताकी।
अखिल खण्ड व्यापी जु ब्रह्म आभा है जाकी।।
परमातम परब्रह्म सबन के अन्तरजामी।
नारायन भगवान धरम करि सब के स्वामी।।
बाल कुमर पौगण्ड धरम आक्रान्त ललित तन।
धरमी नित्य किसोर कान्ह मोहत सब को मन।।
अस अद्भुत गोपाल लाल सब काल बसत जहं।
याही ते बैकुण्ठ बिभव कुण्ठित लागत तहं।।
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