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इंद्रावति -जीव कहानी खंड

नूर मोहम्मद

इंद्रावति -जीव कहानी खंड

नूर मोहम्मद

MORE BYनूर मोहम्मद

    सुनहु मित्र अब जीव कहानी। जो लिखि गई सहचरी ज्ञानी।

    जीउ एक राजा को नांऊ। सो सरीरपुर पायेउ ठांऊ।

    रह वह जिउ के एक नरेसू। सो दीन्हा जिउ को वह देसू।

    जब ठाकुरसों आयेसु पावा। तब जिउ राय सीरहि आवा।

    साथी बहुत साथ जिउ लीन्हा। तब सरीरपुर आपन कीन्हा।

    आइ पाट पर बैठा, भा सरीर को राय।

    देखि नगर की सोभा, रहसा परमद पाय।।1।।

    आधी नगर सरीर मझारा। दुर्जन नाम निर्प बरियारा।

    बूझ बुद्ध सों बोला राजा। एक नगर दुइ निर्प छाजा।

    यह राजा दुर्जन है दुसरा। माया मोह भरम में परा।

    हमसों अंत करै सतुराई। कहां सत्रुसों होइ भलाई।

    है यह कांट बाट मों मोही। पगमों धँसत दाया बोई।

    यह बनाव कैसे बनै, एक नगर दुइ राज।

    राज करै नहिं पावऊं, दुर्जन करै अकाज।।2।।

    बुद्ध सयाना मंत्री रहा। राजा साथ बात अस कहा।

    राज करहु होइ निडर भुवारा। दुर्जन सरवर करइ पारा।

    जबसों आएउ राजा पाऊ। बसा सरीर पूर हो राऊ।

    बुद्ध बूझ जिउ कँह समुझावा। तब जिउ ध्यान राज पर लावा।

    भा बरियार राज के कीएं। दुर्जन डरा बूझिकै हीएं।

    छल संचर पगु राखा, आपन छाड़ेउ राज।

    दुर्जन भा जिउ सेवक, कीन्हा सेवन राज।।3।।

    रहा जीउ एक पुत्र पियारा। रहा नाम मन रहा दुलारा।

    मन चाहै रूपवंती नारी। पै मिली कोउ प्रेम पियारी।

    मन यह नित-नित व्याकुल रहई। जिउकों जिउता नित दुख सहई।

    दुर्जन कँह दिन एक हँकराएउ। तासों मन की विथा सुनाएउ।

    कहा करहु कछु एक उपाई। जासों मन जिउ को दुख जाई।

    मनको यह प्रकीर्त है, देखि सरूप लोभाइ।

    पै मिली रूपमंती, जो तेहि स्वांत समाइ।।4।।

    बोला दुर्जन आज्ञा पाऊं। तो राजहि एक बात सुनाऊं।

    आज्ञा दीन्हा दुर्जन बोला। मन द्वारा को ताला खोला।

    कायापुर है दरसन राजा। राज गगन पर सूर विराजा।

    तेहि राजा कर एक सुता है। रूप नाम सब रूप सरा है।

    एक समय में रूपहिं देखा। देखत रीझा जीउ सरेखा।

    जो मन पावै रूप को, मानै बहुत अनन्द।

    मन परभाकर जोगैं, है वह रानी चन्द।।5।।

    दुर्जन रूपहि बहुत बखाना। सुनि राजा जिउ को मन माना।

    वासो कहा जतन कस कीजे। रूप मेलाय पुत्र को दीजे।

    कहेउ उपाय आन है कहां। दिष्ट बसीठहिं भेजउ तहां।

    गयेउ दिष्ट कायापुर देसू। कायापति सों कहेउ संदेसू।

    सुनि दरसन मन चिन्ता किन्हा। जिउ कंह बलि संजोगी चीन्हा।

    कहा निर्प कन्या सों, जीउ संदेसा जाइ।

    मन कारन तोहि चाहत, प्रीत सँदेस पठाइ।।6।।

    सुनिकै रूप पितहि समझावा। जिउ राजा एक मनुज पठावा।

    जो राजा मन पुत्र पियारा। है उभार वह चाहन हारा।

    काहें एक बसीठ पठायेउ। काहेन आपुहिं मन चलि आयेउ।

    एक मनुज भेजे जो जांऊ। छोटा होइ जगत मों नांऊ।

    दिष्ट साथ तब उतर पठावा। मै कन्या कँह बहुत बुझावा।

    कन्या कहा मानत, है नहि दोष हमार।

    मरम हमार जनाइहै, जाइ बसीठ तोहार।।7।।

    जाइ जीव सों दिष्ट सुनायेउ। जिउ के हिएं कोप चढ़ि आयेउ।

    बूझै कहा बुद्धि चलि आवै। मोहि संग होइ कयापुर धावै।

    तब लग दुर्जन छल कै भला। जिउ कँह कायापुर लै चला।

    कोपवंत वह जीउ सयाना। कायापूर जाइ नियराना।

    रूप भेद पावै के कारन। भेजा बुद्ध बसीठ बिचच्छन।

    बूझ भेद लै आयेउ, राजहिं दींन्ह सुनाइ।

    रूप रहै सै पट मों, तहां पवन समाइ।।8।।

    कबहूं-कबहूं रूप पियारी। आवत जहँ निर्मल फुलवारी।

    फुलवारी द्वारें दुइ वीरा। काढे खडग रहै रनधीरा।

    बुद्ध चतुर पहुँचा तब तांई। कहा विनय कर सेवक नांई।

    आप रूप मद पन्थ लीन्हा। मान सखी तेहि मानिनि कीन्हा।

    मोहि अस मन लोचन सों सूझा। आवहि जांहि दिष्ट बूझा।

    जिउ राजा कहँ फेरा, बुद्ध गेयानी नाहिं।

    दिष्ट बूझ आवागमन, करहिं कयापुर मांहि।।9।।

    चेरी एक रूप के ठाऊं। रहिउ कटाछ रहेउ तेहि नांऊ।

    कहा रूप सों भेजहु चेरी। लखि आवै मूरति मनकेरी।

    बात पियारी के मन भायेउ। चेरी चितवन जाय पठायेउ।

    चितवन मन-मन देखि लोभाना। रूपवन्ति सो जाइ बखाना।

    प्रेम बढेउ तब मन के हियरें। भेजा निलज बुद्ध के नियरें।

    बुद्ध पठायेउ लाजकों, मनहि बुझायेउ आय।

    दिन दुइ मन धीरज धरा, पुनि अधीर भा राय।।10।।

    दुर्जन आपन बन्धु पठावा। आइ मनहि अभिलाष बढ़ावा।

    बिनु जिउ अज्ञा मन गा तहां। रहा देस कायापुर जहां।

    साहस सेवक मनको रहा। मन के साथ बात अस कहा।

    भेंट करै चितवन सों चाही। आपन विथा सुनावहु ताही।

    रूप गली निस कँह मन आयेउ। बूझै चितवन पास पठायेउ।

    चितवन आयेउ मन नियर, मन की बातहि पाइ।

    जहां रूप बैठी रही, तहां सुनायेउ जाइ।।11।।

    सुनि मन बात रूप अभिमानी। चितवन ऊपर अधिक रिसानी।

    कहा मन पास फेर जिन जाहू। मनसों दूर करहु यह चाहू।

    मन सेवक दरसन ढिग आई। मन के नेह की बात सुनाई।

    दरसन बात सुता पर थापा। छाड़ेउ आप सो आपन आपा।

    मन राय आस धै हियरें। भेजा प्रीत रूप के नियरें।

    प्रीत पियारी नारि, गई रूप के ठांउ।

    आपन बास बतायेउ, निर्मलतापुर गांउ।।12।।

    चेरी समा रही होइ नारी। भइल प्रीत रूप की प्यारी।

    रही पियत धन सुरा सुबासा। मन तेहि गली गयेउ तजि त्रासा।

    चितवन कँह तब प्रीत देखावा। चितवन रानी कहँ निर्खावा।

    देखि रूप मन रूप लोभानी। मन जिउ सो रीझी रानी।

    मन सनेह दुख जेतो पावा। प्रीत रूप मन पाइ सुनावा।

    सुना रूप मन को दुख, दाया संचर लीन्ह।

    आयसु आवागमन को, चितवन कँह तब दीन्ह।।13।।

    चितवन आपने सदन मँझारा। मन राजा कँह आनि उतारा।

    देवस चारि पर रूपहि आना। मन कहँ भेटो मन-मन माना।

    पिता कि लाज रही तेहि हियरें। आवै दूरि-दूरि मन नियरें।

    नार एक विभिचारिन रही। रूप की बात पिता सों कही।

    पिता रूप मन साथ वियाहा। भा दोउ हाथ मिलन को लाहा।

    मन की इच्छा पूजी, भये दोउ एक ठांउ।

    रूप सहित मन आयेउ, पुनि सरीरपुर गांउ।।14।।

    दिन-दिन अधिक बढ़ी परभूता। जनमे मन घर सुत सुता।

    चिन्ता गै परमद बउसाऊ। चन्द्र सुरज उतरे घर ठांउ।

    जिउ रीझा दोउ बालक ऊपर। राजकाल सब छोड़िउ भूपर।

    राज संउपि दुर्जन कँह दीन्हा। आप प्रेम को संचर लीन्हा।

    जिउ के सेवक निर्बल भए। दुर्जन दास बली होइ गए।

    जिउ कँह बुद्ध बुझायेउ, जिउ पुजायेउ आस।

    बुद्ध बटाऊँ होइ गयेउ, साहस जोगी पास।।15।।

    साहस तें जिउ मरम सुनावा। सुनिकै तपी उपाय बतावा।

    प्रीतपूर है निर्मल ठांऊ। तहां महीपत क्रीपा नांऊ।

    चलहु-चलहु क्रीपा के ओरा। होइ संवारै कारज तोरा।

    गये दोऊ क्रिपा के पासा। जिनको राज बहोरै आसा।

    क्रीपा आदर बहुतै कीन्हा। ठांउ परम मंदिर में दीन्हा।

    क्रीपा के राजा रहा, सुखदाता तेहि नांउ।

    जीउ मनोरथ कारने, गयेउ महीपति ठांउ।।16।।

    सुखदाता क्रीपहिं वै दीन्हा। कह सोई जो चाहस कीन्हा।

    विवि लोने बुद्धि संग लगावा। बुद्धि जिउ निकट तिन्है लै आवा।

    दूनउ रूप भूलाना राजा। मन मों प्रेम दमामा बाजा।

    वे दोऊ जिउ कँह लै आए। क्रीपा नियरें भेंट कराए।

    प्रेस प्रेममद प्याला दीन्हा। तब जिउ सुख दाता कँह चीन्हा।

    होइ दयाल सुखदाता, चार देस तेहि दीन्ह।

    जीऊ महाराजा भयेऊ, पुनि सरीरपुर लीन्ह।।17।।

    कहेउ संपूरन जीउ कहानी। बूझे जो मानुष है ज्ञानी।

    जीउ कहानी खंड मंझारा। चित्र मनोरम कवित सँवारा।

    जो चाहत तो करत गरन्था। पै कवि चला कुंअर के पन्था।

    होइ-है जो कोउ भाषन हारा। सो करिहै तिनकर विस्तारा।

    दीन्हेउ मैं एक भीत उठाई। कोउ कवि चित्र सँवारै भाई।

    अरे मित्र मन बूझिकै, मन राजा को प्रेम।

    झारु रूप के सीस पर, मधुर बचन को हेम।।18।।

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