यूसुफ़ जुलेखा (स्वप्न दर्शन खंड)
एक राति जो आइ सोहावनि। प्रेम सरूप विरह उपजावनि।
प्रेम भरी रजनी उँजियारी। सखिन साथ सोवै सो नारी।
आधि राति लह जागि कुमारी। प्रेम कै बात सुनै सुखकारी।
आई नींद सुमुखि अलसानी। सोइ गई सब सखी सयानी।
सोवा पहरू औ कोतवारा। सोवा जिया जन्तु संसारा।
सोये दुखी सुखी नरनारी। सोये खग मृग कीट करारी।
सब सोवा कोउ जागत नाही। जागत एक प्रेम जगमांही।
सोवै लागि तेहि समय जुलेखा। यूसुफ़ कहँ सपने महँ देखा।
मीठी नींद जगत सब सोवा। प्रेम तेज हिय जाइन गोवा।
।। दोहरा ।।
मानुस रूप तहं आयगे, देखि रही टक लाइ।
लीन्ह प्राण तन काढि कै, रूप अनूप दिखाइ।।1।।
देखत नारि विमोहित भई। निरखि रूप बाउर होइ गई।
नैन बानते बेधेसि हीया। बात न आइ मौन भइ तीया।
छिन यक ठाढ़ रहा रंगराता। पुनि मुसकाइ कीन्हि रसबाता।
हम तुम कहँ चाहहि चित लाई। तुम हिय तें जिनि देहु भुलाई।
कहि यह बात चहा उर लावा। जागि परी कुछ दिष्टि न आवा।
जागत कै चकचोहट लागा। जस पंछी कर ते उड़ि भागा।
हिरदै लागि पेम कै गांसी। भयेउ सो ग्यान हानि तन नासी।
सोवत सुख जागत दुख पावा। रोम-रोम तन बिरह गलावा।
मूर्ति एक जो दरस देखाई। हिये मांहि पुनि गई समाई।।
।। दोहरा ।।
पेम फंद अरुझानी, गयउ ग्यान मति भूल।
सँवरि रूप अकुलाइ मन, उठै हिये मँह सूल।।2।।
उठि बैठी मुख सँवरत सोई। नई लगन कहि सकै न रोई।
जब संवरै मुख तब बिलखाई। पै सुलाजतें रोइ न जाई।
विरह बान बेधा यर वारा। रोम-रोम व्याकुल तेहि झारा।
चिनगी विरह आगि कै लागी। सुलगै लागि हिये मँह आगी।
सखी देखि धन बदन मलीना। मन व्याकुल तन सुध-बुध हीना।
पूछहिं कत तुम चित्त उदासा। कवन सोच कर हिरदै वासा।
तुम सब कर जग प्रान अधारा। काहे लागि भई विकरारा।
सब सुख तुमहि विधातै दीन्हा। मन मलीन केहि कारन कीन्हा।
पान खाहु नहि सूंघहु फूला। अभरन औ सिंगार समभूला।
।। दोहरा ।।
दिन भर मौन गहें रहै, भूख प्यास गै भूल।
पान खाइ न रस पिये, काँट भये सब फूल।।3।।
भूषन रतन उतारि जो डारा। दुखदायक भै सभै सिंगारा।
मनमँह सोच करै मुरझाई। लैगा प्रान सपन देखाई।
नांउ ठांउ कछु जानौं नांही। कहां सो खोज करौ जग मांही।
नेरें ठाढि रहे वह मूरति। जेहि बिन तन-मन प्रान बिसरति।
रूप देखाइ सो चेटक लावा। मधुर बचन कहि अधिक लोभावा।
सेज परै जागै फिर सोवै। लखै न रूप उठै फिर रोवै।
ना वह मूरति औ ना वह ठांऊ। कौन हतेउ औ का तेहि नांऊ।
छूटै आंसु चलै जस मोती। कहै कि ऐ मनभावन जोती।
कहां गयउ वह रूप देखाई। जस हिरदय कोउ जात समाई।
।। दोहरा ।।
तोहि सपथ वहि दई कै, जेहि कीन्हा तोहि भूप।
एक बार फिर आवहु, आनि देखावहु रूप।।4।।
ग्यान हेराई सो मूर्ति हिरानी। लागत आगि न बरसै पानी।
जात वेद होइ सेज जरावै। जाम वेद सभ वेद भुलावै।
पावक झरसै पवन जो लागै। रोम-रोम लै त्रागन दागै।
खन उठि सेज परै विकरारा। खन उठिकै बैठे बेसम्हारा।
खन तन डहै सो अगिनि सुवरना। खन बरसहि चख ऊदक झरना।
खन सो उठहिं तन विरह की ज्वाला। खन मुख सँवरत होइ बेहाला।
कहै कि ऐ वैरी दुखदेवा। कामैं कीन्ह चूक तोरि सेवा।
खिन रोवै खिन नैन छिपावै। खिन सोवै पै नींद न आवै।
विकल सरीर भयउ जस पारा। विरह आगि में सुठि विकरारा।
।। दोहरा ।।
खन चख बरसै अगिनि जल, करत न बनै पुकार।
कल न परै पल ना लगै, सहै दुकूल न भार।।5।।
कोटि जतन करि हारी सोई। एक रइनि विधि आनि सँजोई।
मूंदि चच्छु यह परगट केरा। खोलि विचच्छु हियें कर हेरा।
सोवै तब जागै वह जीऊ। खुले नेन्त्र जेहि देखै पीऊ।
जेहि विधि आदि परगटेऊ सोई। आया फेरि न जानै कोई।
धाइ सो नारि पांउ लै परी। हाथ जोरि आगे भइ खरी।
कहा कि प्रीतम लिन्हेउ न प्राना। दिहेउ बिछोह किहेउ तनहाना।
तोरे दरस परस के आसा। रहेउ आस घट पंजर सांसा।
तुम अस कन्त भुलायहु मोही। सै नित जरिउ सयन लखि तोही।
निसि दिन सीस चढायउ खेहा। भसम किहेउ यह अबुंजदेहा।
।। दोहरा ।।
तुम अस निठुर बिछोही, बहुरि न लीन्हा चाह।
मुर्येउ सो विरह विछोह तें, अब कुछ करहु कि नाह।।6।।
कहा कि मोहि अस उपजेउ सोगू। तुम तें अधिक से विरह पियोगू।
तुम पर कौन विथा अस बीती। हौं जस रखौं सो प्रेम पिरीती।
तुम्हरे विरह भयउ अग्याना। छांड़ेउ नगर औ देस अपाना।
सदा मोहि तुम नेह बिसेखौ। दूजे पुरूष और निजि देखौ।
जो चाहौ हम दरसन राता। दूजे तें जिमि बोलहु बाता।
जब सँवरहु तब हौं तुम पासा। तुम मम आस रखौं तोरि आसा।
तोरे लागि भयेउ परदेसी। मिलै न कोउ प्रेम संदेसी।
सो तुम मोहि भुलायहु नाहीं। राखेउ प्रीति सदा हियमांही।
होय बिलंब सोच जानिमानहु। प्रेम न कबहुँ अँबिरथा जानहु।
।। दोहरा ।।
मोहि भूलेहु जिनि प्यारी, औ सँवरहु दिन रैन।
करहु सदा बैराग जब, तब देखहु भरि नैन।।7।।
कहि यह बात चहा उर लावा। जागि परी कुछ दिष्टि न आवा।
वहै सेज औ वह सोवनारी। अधिक भई व्याकुल विकरारी।
उठि बैठी औ लागी देखै। देखै सबै न ताहि बिसेखै।
कहा कि ऐ पति! पानिप मोरौ। बाझिउ प्रेम फाँस में तोरौ।
दूसर और कहा मन छाया। एक प्रान कर है यह काया।
कब देखै भरि नैन अघाई। केहि दिन हियकै प्यास बुझाई।
कब वह घरी सुफल फिरि आवै। जेहि दिन दरस-परस रस पावै।
मैं वाउरि कुछ सुद्धि न कीन्हा। नांउ ठांउ पिउ पूछि न लीन्हा।
केहिते कहौं सो आपन हारा। पूछहु यह सो अरथ अपारा।
।। दोहरा ।।
पेम आइ हिय महें धसा, लसा सो आठौ अंग।
दिन-दिन वह विरहइं रहै, कोउ न चरचै संग।।8।।
दिन भर रहै मौन की नांई। रैन जाग औ रोई विहाई।
परसन भयउ जो सपने मांहीं। नांउ ठांउ कुछ जानेउ नाहीं।
अबकी बेर फेर तोहि पांऊ। बकनी सजल पग संकर नांऊ।
राखौं नैन थानि विलगाई। मूंदौ पलक देंउ नहिं जाई।
आवत लखेउ न गौनत देखा। भयउ मोर वाउर कै लेखा।
कह विधना अस करै सुभागा। मिलौं कनक जस ओट सोहागा।
तोरि जोति मोरे नैन समानी। दूसर और कहा मैं जानी।
पिव आये मैं पापिन छूंछी। नांउ ठांउ कुछ लिहेउ न पूँछी।
जब लग आवागमन करेहूँ। तब लग अधिक विरह दुख देहूँ।
।। दोहरा ।।
यहि विधि बीती रैनि सभ, भयेउ चराचर रोर।
धाई आई निकट उठि, और सखी चहुँ ओर।।9।।
एक रैनि फिर आइ सुलानी। नाई नींद सुमुखि अलसानी।
तीसर सपन फेर वैं देखा। वहै रूप जो आदि विसेखा।
जानहु आइ फेरि अस बोला। अमी कुंड अधरन तैं खोला।
मैं तोहि लागि तजेउं घर बारा। परेउं कूप मँह मोहि निसारा।
मोर तोर प्रीति आदि लिखि राखा। करहु सो अन्त भोग अभिलाखा।
तब दुख हटै होइ सुख सारा। जब पावौं मैं दरस तुम्हारा।
यह सुनि नारि भई तब ठाढी। अरुझी बेल प्रेम कै गाढ़ी।
अब को बार जान नहिं देऊं। जबलह नांउ पूंछि नहिं लेऊ।
अबलह यह जिउ निकसि न गयऊ। जो फिर दरस परापत भयऊ।
।। दोहरा ।।
नांउ ठांउ बतलावहु, पठवौं जहां संदेस।
होय जोगिन वैरागिन, चलि आवहुं ओहि देस।।10।।
तब मुसुकाइ कहा सुनु प्यारी। मिस्र देस है बास हमारी।
मिस्र-साह कै सचिव सोहावा। आवहु उहँ तो होइ मेरावा।
सचिव नांव जग विदित सो अहई। और नाउं विरला कोउ कहई।
मै अपने बस महैं हौं नाहीं। आवहु वेगि मिसिर कै मांही।
कुछ दिन सहौ विरह दुख डाहू। बिन दुख पेम न प्रापत काहू।
जो दुख ते नहि होइ उदासा। अंत होइ सुख भोग बिलासा।
जस चाही तुम मोकैह प्यारी। तस तोहि चाहौं अन्त कुंमारी।
सपने मेंह सुनि भई हुलासा। जागि परी कोउ आस न पासा।
रोइ उठी गहवर अकुलानी। नांउ ठांउ सुनिकै हुलसानी।
।। दोहरा ।।
जियौ तो जांऊ मिस्र कंह, मरौं त मारग माँहि।
छार होउ उड़ि जाँउ अब, बसै जहां मोर नाँह।।11।।
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