कृष्ण कन्हैया
ऐ देखने वालो
इस हुस्न को देखो
इस राज़ को समझो
ये नक़्श-ए-ख़याली
ये फ़िक्रत-ए-आली
ये पैकर-ए-तनवीर
ये कृष्ण की तस्वीर
मा'नी है कि सूरत
सनअ'त है कि फ़ितरत
ज़ाहिर है कि मस्तूर
नज़दीक है या दूर
ये नार है या नूर
दुनिया से निराला
ये बाँसुरी वाला
गोकुल का ग्वाला
है सेह्र कि ए'जाज़
खुलता ही नहीं राज़
क्या शान है वल्लाह
क्या आन है वल्लाह
हैरान हूँ क्या है
इक शान-ए-ख़ुदा है
बुत-ख़ाने के अंदर
ख़ुद हुस्न का बुत-गर
बुत बन गया आ कर
वो तुर्फः-नज़्ज़ारे
याद आ गए सारे
जमुना के किनारे
सब्ज़े का लहकना
फूलों का महकना
घनघोर घटाएँ
सरमस्त हवाएँ
मा'सूम उमंगें
उल्फ़त की तरंगें
वो गोपियों के साथ
हाथों में दिए हाथ
रक़्साँ हुआ ब्रिजनाथ
बंसी में जो लै है
नश्शा है न मय है
कुछ और ही शय है
इक रूह है रक़्साँ
इक कैफ़ है लर्ज़ां
एक अक़्ल है मय-नोश
इक होश है मदहोश
इक ख़ंदः है सय्याल
इक गिर्यः है ख़ुश-हाल
इक इश्क़ है मग़रूर
इक हुस्न है मजबूर
इक सेह्र है मसहूर
दरबार में तन्हा
लाचार है कृष्णा
आ श्याम इधर आ
सब अहल-ए-ख़ुसूमत
हैं दर पए इज़्ज़त
ये राज दुलारे
बुज़दिल हुए सारे
पर्दः न हो ताराज
बेकस की रहे लाज
आ जा मेरे काले
भारत के उजाले
दामन में छुपा ले
वो हो गई अन-बन
वो गर्म हुआ रन
ग़ालिब है दुर्योधन
वो आ गए जगदीश
वो मिट गई तशवीश
अर्जुन को बुलाया
उपदेश सुनाया
अम-ज़ाद का ग़म क्या
उस्ताद का ग़म क्या
लो हो गई तदबीर
लो बन गई तक़दीर
लो चल गई शमशीर
सीरत है अदू-सोज़
सूरत नज़र-अफ़रोज़
दिल कैफ़ियत-अंदोज़
ग़ुस्से में जो आ जाए
बिजली ही गिरा जाए
और लुत्फ़ पर आए
तो घर भी लुटा जाए
परियों में है गुलफ़ाम
राधा के लिए श्याम
बलराम का भय्या
मथुरा का बसय्या
बिंद्रा में कन्हैया
बन हो गए वीराँ
बर्बाद गुलिस्ताँ
सखियाँ हैं परेशाँ
जमुना का किनारा
सुनसान है सारा
तूफ़ान हैं ख़ामोश
मौजों में नहीं जोश
लौ तुझ से लगी है
हसरत ही यही है
ऐ हिन्द के राजा
इक बार फिर आ जा
दुख-दर्द मिटा जा
अब्र और हवा से
बुलबुल की सदा से
फूलों की ज़िया से
जादू-असरी गुम
शोरीदा-सरी गुम
हाँ तेरी जुदाई
मथुरा को न भाई
तू आए तो शान आए
तू आए तो जान आए
आना न अकेले
हों साथ वो मेले
सखियों के झमेले
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-हफ़ीज़ जालंधरी (पृष्ठ 86)
- रचनाकार : हफ़ीज़ जालनधरी
- प्रकाशन : फ़रीद बुक डिपो (2008)
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