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Sufinama

।। रसप्रबोध ।।

रसलीन

।। रसप्रबोध ।।

रसलीन

MORE BYरसलीन

    ।। मंगलाचरण ।।

    अलह नाम छबि देत यौं ग्रंथ के सिर आइ।

    ज्यों राजन के मुकुट तें अति सोभा सरसाइ।।1।।

    अलख अनादि अनंत नित पावन प्रभु करतार।

    जग को सिरजनहार अरु दाता सुखद अपार।।2।।

    रम्यौ सबनि मैं अरु रह्यौ न्यारो आपु बनाइ।

    याते चकित भये सबै लह्यौ काहू जाइ।।3।।

    जब काहू नहिं लहि परयौ कीन्हौं कोटि विचार।

    तब याही गुन ते धरयौ अलह नाम संसार।।4।।

    ।। नबी की स्तुति ।।

    लहि परत तेहि गुन कह्यै बरनि सकत है कौन।

    याते नामुहि सुमिरि कै चित गहि रहिए मौन।।5।।

    अति पवित्र रसना करौ मेघन जल ते धोइ।

    तऊ नबी गुन कथन के जोग कबहूँ होइ।।6।।

    जिनके पावन ते भई पावन भूमि बनाइ।

    तिनको सुमिरन जो करैं सो पावन ह्वै जाइ।।7।।

    नबी हुते जग मूल पुनि पीछे प्रकटे सोइ।

    ज्यौं तरु उपजत बीज तें अंत बीज फिरि होइ।।8।।

    जाको गहि सुरलोक जग चल्यौ नरक पथ छोरि।

    ऐसी बाँधि नबी दई सत्य धर्म की डोरि।।9।।

    सहस जीभ लहि सेस लौं सब जग बरनै आइ।

    तऊ नबी की नेकऊ किय अस्तुति नहिं जाइ।।10।।

    तिन संतनि के पगन पै धरौं सदा सिर नाइ।

    पुनि तिनके हित कारियन देंहु असीस बनाइ।।11।।

    ।। कवि कुल कथन ।।

    प्रगट हुसेनी बासती बंस जो सकल जहान।

    तामैं सैद अब्दुल फरह आए मधि हिंदुवान।।12।।

    तिनके अबुल फरास सुत जग जानत यह बात।

    पुनि सैयद अबुलू फरह तिनके सुत अवदात।।13।।

    पुनि सैयद सु हुसेन सुत तिनके सबल सरूप।

    तिनके सुत सैयद अली विदित भए जग भूप।।14।।

    सैयद महमद प्रगट भे जिनके सुत बलधान।

    बिलग्राम श्रीनगर मैं जिन कीन्हौं निज थान।।15।।

    तिनके सैयद उमर भे तिनसुन सैद हुसेन।

    तिनकै सैद नसीरुद्दीन भे यह सब जानत ऐन।।16।।

    पुनि भे सैद हुसेन अरु पुनि सैयद सालार।

    लूतुफूलाह लाधा भये तिनके बुद्धि अपार।।17।।

    पुनि सैयद दारन भए खुदादादि तिहि नाम।

    पुनि सैयद महमूद जो भए सिद्ध अभिराम।।18।।

    सैद खान मुहमद भए तिनके सुत जग आइ।

    चारु अबुल कासिम भए तिनके अति सुखदाइ।।19।।

    सैद अबुल कासिम भये पुनि सैयद सुर ग्यान।

    तिनके सैद हमीर सुत जानत सकल जहान।।20।।

    पुनि सैयद बाकर भये तिनके तनुज प्रसिद्धि।

    सब लोगन की सिद्धता जिनकी प्रगटी रिद्धि।।21।।

    भयौ गुलाम नबी प्रगट तिनको सुत जग आइ।

    नाम करौ रसलीन जिन कविताई में जाइ।।22।।

    ।। ग्रंथ-परिचय ।।

    दोहा मै यहि ग्रंथ को कीन्हौं तेहि रसलीन।

    अपने मन की उक्ति सो रचि जुक्ति नवीन।।23।।

    नवहूँ रस को जब भयो यामै बोधु बनाइ।

    रसप्रबोध या ग्रंथ को नाम धरयौ तब ल्याइ।।24।।

    सत्रह सै अट्ठानबे मधु सुदि छठ बुधवार।

    बिलगराम मैं आइ कै भयौ ग्रंथ अवतार।।25।।

    बाँचि आदि ते अंत लौ यहि समझै जौ कोई।

    तेहि औरनहि ग्रंथ मैं फेरि चाह नहिं होइ।।26।।

    कविजन सौं रसलीन यह बिनती करत पुकारि।

    भूलि निहारि बिचारि कै दीजै... बरन सुधारि...।।27।।

    ।। रस वर्णन ।।

    बरनि मंगलाचरण अरु कविकुल को अब आनि।

    रस कौं बरनन करत हौं ग्रंथ मूल जिय जानि।।28।।

    ।। रस लक्षण ।।

    स्रवन सुनत रस सब्द को ग्रंथनि देख्यौ जाइ।

    रस लच्छन तिनके मते समुझि परयौ यह आइ।।29।।

    जब विभाव अनुभाव अरु विविचारी ते आनि।

    परिपूरन थाई जहाँ ऊपजै सब रस जानि।।30।।

    ।। रस-रूप।।

    जो धाये रस बीज विधि मानुस चित छिति माहिं।

    ताके अंकुर जो कछू सो थाई कहि जाहि।।31।।

    अवसर सम उपजावने सरसावत जल रूप।

    आलंबन उद्दीप सो जान विभाव अरूप।।32।।

    अनुभावहु तरु प्रकट करि जानि लेहु यह बात।

    विविचारी है फूल सौं छिन छिन फूलत जात।।33।।

    ।। तिन संजोग मकरन्द लौं रस उपजत है आनि।

    रसिक णधुप कवि चित्र करि ताहि करै पहिचानि।।34।।

    ।। सर्वप्रथम भाव वर्णन का कारण ।।

    भावहि ते रस होत है समुझि लेहु मन माहिं।

    याते पहले भाव कविं बरनत है ठहराहिं।।35।।

    ।। भाव लक्षण ।।

    जो रस को अनकूल ह्वै बदलै सहज सुभाव।

    बिन बस ताको भाव कहि भाषत है कविराव।।36।।

    सोइ भाव ग्रंथनि मते द्वै विधि लीजै जानि।

    इक थाई अरु दूसरो उद्दीपन जिय मानि।।37।।

    थाई है मन भाव सों रत्यादिक नौ गाइ।

    ते निज निज रस मैं रहै वै थिर ह्वै ठहराइ।।38।।

    विविचारी तिनकों कहैं कोबिद बुद्धि अपार।

    बहुर सकै सब रसन मैं जिनको होइ सँचार।।39।।

    नौ थाई सो मूल है नवरस के पहचानि।

    विविचारिन को काज सब दैहौं सकल बखानि।।40।।

    तिन विविचारिन को सुमति द्वै विधि करत विवेक।

    तन विविचारी एक है मन विविचारी एक।।41।।

    अष्ट स्वेद आदिक सोई तन विविचारी जान।

    तैंतिस निरवेदादि सों मन विविचारी मान।।42।।

    तन विविचारिन थाइयन प्रगटै ज्यों अनुभाव।

    सहचारी थाईन के मन विविचारी भाव।।43।।

    नौ थाई अरु आठ तन विविचारी परकास।

    तैंतिस मन विविचारियन मिलि हैं भाव पचास।।44।।

    ।। स्थायी भाव-लक्षण ।।

    जब भावन मैं यह लख्यौ थाई है रसमूल।

    तब इनकौ प्रथमै करयौ बरनन ह्वै अनुकूल।।45।।

    जो रस सनमुख ह्वै कछू बदलै सहज सुभाव।

    तेहि बदलनि को कहत हैं कविजन थाई भाव।।46।।

    जा रस सनमुख जो कछू तनक बदल हिय होइ।

    ता रस को थाई वहै यह बरनत कवि लोइ।।47।।

    ।। स्थायी भावो के नाम ।।

    रति हाँसी अरु सोक पुनि कोप उछाह सु आनि।

    भय घृण अचरज समुझि पुनि निरवेदहि थिर जानि।।48।।

    ।। विभाव-लक्षण ।।

    थाई कारन को सुकवि कहत विभाव विशेषि।

    सो द्वै विधि आलंब अरु उद्दीपन अवरेषि।।49।।

    उपजै थाई जाहि लै सो अनिभावन जानि।

    अधिक जाहि ते होइ सो उद्दीपन पहिचानि।।50।।

    ।। अनुभव-लक्षण ।।

    जो थाई को आनि कै प्रगट करै अनयास।

    सोई है अनुभाव यह बरनत बुद्धि निवास।।51।।

    ।। स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, विविचारी भाव के रस होने का वर्णन ।।

    रत्यादिक थिर भाव को कारन जान विभाव।

    कारज है अनुभाव अरु सहकारी चर भाव।।52।।

    प्रकटत थिरहि विभाव पुनि कछू प्रगटत अनुभाव।

    अति प्रगटत है आनि पुनि जे अनुभव चर भाव।।53।।

    थाई के यौं प्रकट भय रस कहियत हैं सोइ।

    जेहि स्वादन मैं भूलि सब महामगन मन होइ।।54।।

    थाई के यौं प्रकट भय रस कहियत हैं सोइ।

    जेहि स्वादन मैं भूलि सब महामगन मन होइ।।54।।

    सो रस चित्रित कवित मैं कविजन चित्र समान।

    जाहि लखतहूँ रीझि कै मोहत चतुर सुजान।।55।।

    याही को रस कहत हैं सो कवि ग्रंथनि ल्याइ।

    अपने अपने रूप पै नौ विधि लिखे बनाइ।।56।।

    ।। नवरसों के नाम ।।

    रसें सिंगार सुहस करुन रौद्र बीर कौ आनि।

    अरु भ्यानक बीभत्स पुनि अद्भुत सांत बखानि।।57।।

    काव्य मते यै...नवरसहु... बरनत सुमति विसेषि।

    नाटक मति रस आठ हैं बिना सांत अविरेषि।।58।।

    सो रस उपजै तीनि विधि कविजन कहत बखानि।

    कहुँ दरसन कहुँ स्रवन कहुँ सुभिरन ते पहिचानि।।59।।

    ।। श्रृंगार रस ।।

    ।। सर्वप्रथम वर्णन का कारण ।।

    रस को रूप बखानि कै बरनौ नौ रस नाम।

    अब बरनत सिंगार कों जाही ते सब काम।।60।।

    तेहि सिंगार को देवता कृष्ण लीजिऔ जानि।

    और बरनहूँ कृष्ण लौं कृष्ण बरन पहिचानि।।61।।

    सोइ देवतादिकन मैं सब के हैं सिरताज।

    याते उनको रस भयउ सबन माहि रसराज।।62।।

    अरु विबिचारी सकल कवि याही रसमय होत।

    याहू ते सब रसनि मैं यह रसराउ उदोत।।63।।

    ।। श्रृंगार रस में आठों रसों के व्यभिचारी के उदारण ।।

    मोहन लखि यह सबनि ते है उदास दिन राति।

    उमहति हँसति बकति डरति विगचति विलखि रिसाति।।64।।

    जब निकस्यो सब रसन मैं यह रसराज कहाइ।

    तब बरन्यौ याकौ कविन सब तें पहिले ल्याइ।।65।।

    ।। श्रृंगार रस का स्थायी भाव ।।

    ।। रति का लक्षण ।।

    प्रियजन लखि सुन जो कछुक प्रीति भाव चित होइ।

    सो रति भाव सिंगार को थाई जान्यौ सोइ।।66।।

    ।। रतिभाव का उदाहरण ।।

    तुव हित नव तरु नेह को उपज्यौ हरि हिय आइ।

    सुरति सलिल सींचति रहति सफल होनि के चाइ।।67।।

    वै चिकनी बतियाँ रहीं तिय हिय जोति जगाय।

    पूरन करिये नेह तो अति दीपति सरसाय।।68।।

    ।। रति के विभावों का वर्णन ।।

    प्रथमहि कारन होत है कारज ते नित आइ।

    थाते आदि विभाव को उचित बरनिबो ल्याइ।।69।।

    रति कारन जो कवित मैं सो विभाव द्वै जान।

    इक आलंबन दूसरो उद्दीपन पहिचान।।70।।

    जाते रति अवलम्बई सो आलम्बन होइ।

    रति की दीपति जाहि ते उद्दीपन है सोइ।।71।।

    सो आलंबन नायका अरु नायक जिय जानु।

    पिय प्रति तियहिं तियाहि प्रति पिय चित मैं यह आनु।।72।।

    ।। रसिक प्रिया का दोहा ।।

    बरनत नारी नरनते लाज चौगुनी चित्त।

    भूख दुगुन साहस छगुन काम अष्ठगुन मित्त।।73।।

    ।। नायिका-लक्षण ।।

    निरखथ ही जिहि नारि के नर हिय उपजै प्रीति।

    ताहि कहत है नायका जो जानत रसरीति।।74।।

    ।। नायिका के तीन गुणों का वर्णन ।।

    गौरी तुलित अनूप मनहरनी कमला रूप।

    बानी लौं अति चतुर तिहि तिय बरनत कविभूप।।75।।

    ।। तीनो गुणों का उदाहरण ।।

    मुख ससि निरखि चकोर अरु तन पानिप लखि मीन।

    पद पंकज देखथ भँवर होत नयन रसलीन।।76।।

    गिरिजा सिव तन मैं रही कमला हरि हिय पाइ।

    तू तन हरि पिय हिय बसी हिय हरि प्रानन जाइ।।77।।

    सुरन निकारे सिन्धु ते रतन चतुर्दस जोइ।

    वेधा मेधहु सिन्धु तें एकै तुही बिलोइ।।78।।

    ।। नायिका भेद ।।

    पतिहि सौं जिहि प्रीति सो सुकिया सलज सुरीति।

    परकीयहि पर पुरुष सों गनिकहि धन सों प्रीति।।79।।

    ।। स्वकीया उदाहरण ।।

    मनचिंता धन चखन तें चिंतामनि की रीति।

    सखी सील कुलकानि अरु प्रीतम पावत प्रीति।।80।।

    धरति चौकी नगजरी यातें उर में ल्याइ।

    छाँह परे पर पुरुष की जिन तिय धर्म नसाइ।।81।।

    ।। स्वकीया-भेद ।।

    मुग्धा जामें पाइये जोबन आगम रीति।

    मध्या में लज्जा मदन प्रौढ़ा में पति प्रीति।।82।।

    ।। मुग्धा वर्णन ।।

    चख चलि भवन मिल्यौ चहत कच बढ़ छुबत छवानि।

    कटि निज दर्बि धरयौ चहत बच्छस्थलु मै आनि।।83।।

    जिनको लच्छन नाम ते प्रकट होत अन्यास।

    तिनको लच्छन भिन्न करि मैं नहिं करत प्रकास।।84।।

    ।। मुग्ध के पाँच भेद ।।

    ।। अंकुरितयौवना मुग्धा-वर्णन ।।

    विधि किसान जो उरि बए बीज तरुनता ल्याइ।

    सो वय अवसर लहि भये अब कछु अंकुर आइ।.85।।

    यौं बाला जोबन झलक झलकति उर में आइ।

    ज्यौं प्रकटत मन को वचन बिय पुतरिन दरसाइ।।86।।

    ।। शैशवयौवना मुग्धा-वर्णन ।।

    तिय सैसव जोबन मिले भेद जान्यो जात।

    प्रात समै निसि घौस के दोउ भाव दरसात।।87।।

    जो तिय सिसुता सम भयेउ जोबन आनि उदोति।

    मीन रासि को भानु मैं ज्यौं निसि सम दिन होति।।88।।

    ।। नवयौवना-मुग्धा ।।

    ज्यौ वय तिथि बाढ़ति कला जोबन ससि अधिकाति।

    त्यौं सिसुता निसि तिमिरु घटि छबि द्युति फैलति जाति।।89।।

    उकसत ही तुव उरज अरु निकसति लंक सुभाइ।

    उकस निकस सब तियन के परी जिअन मैं आइ।।90।।

    ।। नवयौवना के दो भेदों में से ।।

    ।। प्रथम भेद-अज्ञातयौवना ।।

    वा दिन बाँधी साँस मैं होड़ सखिन सों ल्याइ।

    सो... मेरे विय ठौर ह्वै हिय में उकसी आइ...।।91।।

    धाइ धाइ लखु कौन यह भई बाल तन पीर।

    दुहूँ ओर उर मैं धरै सेंकि सेंकि कैं चीर।।92।।

    ।। द्वितीय भेद-ज्ञातयौवना ।।

    सखी गुनत जो तिय नयन कुच तकि बिहँसि लजाति।

    मानौ कमल कलीन बिच अली बिहँसि रहि जाति।।93।।

    तन सुबरन के कसत यों लसत पूतरी स्याम।

    मनौ नगीना फटिक मैं जरी कसौटी काम।।94।।

    ।। नवलअनगा-मुग्धा ।।

    ताजन मदन मानही परे लाल बस माहिं।

    हठे तुरँग लौं तिय नयन उचकतहूँ रहि जाहिं।।95।।

    ।। नवलअनगा के दो भेदों में से ।।

    ।। प्रथम भेद-अविदितकामा ।।

    भई ब्याधि ऐसी कछू छूटों खल तें हेत।

    द्यौत चारितें चाँदनी मों चित करत अनेत।।96।।

    ।। द्वितीय भेद-विदितकामा ।।

    खेलतिहीं गुड़िया धरी गुड़वन संग मिलाइ।

    निरखि निरखि फिरि आपु ही दृगन रही सकुचाइ।।97।।

    ।। नवलवधु-मुग्धा ।।

    सौतिन मुख निसि कमल भे पिय चख भए चकोर।

    गुरजन मन सारंग भये लख दुलही मुख ओर।।98।।

    तुव दीपति के बढ़त हीं हरि लीनो मन पीय।

    दृग खोले बोले कहा अब हरि लै हौ जीय।।99।।

    ।। नवल वधू के दो भेद ।।

    है नवोढ़ पति संग जो सोवति अधिक डराइ।

    अरु विस्रब्धनबोढ़ जो पति कौ नेकु पत्याइ।।100।।

    ।। नवोढा-उदाहरण ।।

    सखी कहे लालाभरन नैकु पहिरति बाभ।

    मन ही मन सकुचति डरति मरति लाल के नाम।।101।।

    मोर मुकुट धरि एक सखि बधू दिखाई छांह।

    भगी पन्नगी लौं लपकि धाइ लगी उर मांह।।102।।

    ।। बिश्रब्धनवोढ़ा-उदाहरण ।।

    जतन जोर तें नवल तिय यौं पिय पै ठहराइ।

    औषधि बल तें अगिनि में ज्यौं पारो रहि जाइ।।103।।

    सौं है आवति भावती जब पिय सौंहैं खात।

    सुरति बात हिमिबात लहि सुखत मूल जलजात।।104।।

    हँसति हँसति रति बात लहि यौं रोई गहि देह।

    दमकि दमकि ज्यौं दामिनी पीछे बरसै मेह।।105।।

    तिय अक्षन अरु ज्ञान मधि प्रीति देत जनाइ।

    जमुन गंग कौ पाइकै रहे सरस्वति भाइ।।106।।

    ।। नवलवधू में तृतीय भेद ।।

    ।। लज्जा-आसक्त रतिकोविदा लक्षण ।।

    एक मत बिस्रब्ध सों लाजपरा रति होति।

    सरसति जेहि रति लाज ते पियहि काम की जोति।।107।।

    मों दृग खोलन को लला बिनै करी हिय लाइ।

    पै इन नैननि नहिं लख्यो रही लाज सो छाइ।।108।।

    हौं रीझी वा केलिको लखि चरित्र अभिराम।

    जिती बढ़ति है लाज तिय तितो बढ़त पिय काम।।109।।

    ।। मुग्धा का मुड़ कर बैठना ।।

    नवला मुरि बैठनु चितै यह मन होत विचार।

    कोमल मुख सहि ना सकत पिय चितवन को मार।।110।।

    ।। मुग्धा की सैन ।।

    सब निसि जागी पिय डरनि सोई मुख धरि हाथ।

    प्रातहि ससि अरिको गह्यौ द्वै कमलन मिलि साथ।।111।।

    ।। मुग्धा की सुरतारंभ ।।

    यों भाजति नवला गही उरमधि स्याम निसंक।

    मानौ तरपति बीजुरी धरी मेघ निज अंक।।112।।

    ।। मुग्धा की सुरति ।।

    यों रति राचति नवबधू नैकु नहीं ठहराइ।

    ज्यौ हरनी बेधा गहै छूटन कौं अकुलाइ।।113।।

    यौ नवला रति में करति भाँति भाँति किलकार।

    ज्यौं फेरत ही साज के फिरत जात सुर तार।।114।।

    ।। मुग्धा का सुरतांत ।।

    यौं मींजत कोऊ लला अबलन अंग बनाइ।

    मले पुहुप की बास लौं साँसु पाई जाइ।।115।।

    टपकावति अँसुवा कुचन ओट किये पटलाज।

    आली शिव के सीस इनि जमुन बहाई आज।।116।।

    ।। मुग्धा की मान ।।

    सखिन कहे रूसी तिया लखि पिय कियौ विचार।

    कंट गड़यौ तब धन कह्यौ आवत हमैं निकार।।117।।

    पिय परतिय कुच गहत लखि लली चली अनखाइ।

    तब पिय धाइ लड़ाइ मुख चूमि लियौ उर लाइ।।118।।

    ।। मध्या-भेद ।।

    ।। समानलज्ज-मदना ।।

    इति उति दोऊ ओर झुकि आनि बीच ठहराइ।

    लाज मदन मैं धन रहै तुला सूचिका भाइ।।119।।

    रमनी मन पावत नहीं लाज मदन को अंत।

    दोउ ओर ऐंची फिरै ज्यौं बिवि तिय को कंत।।120।।

    तिय हिय पलन कपाट गति निरखि लेहु दृग कोर।

    खुलत प्रेम के जोर तें मुँदत नेम के जोर।।121।।

    बिजुकावत ही मदन के खिचत लाज गुन आइ।

    बँधी कुरंगिनि लौं तिया उचकि उचकि मुर जाइ।।122।।

    ।। मध्या के चार भेदों में से ।।

    ।। प्रथम भेद उन्नतयौवना ।।

    लिखि बिरंचि राख्यौ हुतौ यह सँजोग इक संग।

    कुच उतंग तिय उर बढ़ै पिय उर बढ़ै अनंग।।123।।

    ।। द्वितीय भेद-उन्नतकामा ।।

    यौं तिय नैननि लाज मैं लसत काम के भाइ।

    मिले सलिल मैं नेह ज्यौं ऊपर ही दरसाइ।।124।।

    ।। उन्नतकामा-उदाहरण ।।

    जो घट दीपक पूरि कै उमगौ नेह बनाइ।

    सो तुव बतियाँ तें तिया प्रगट चुवत हैं आइ।।125।।

    ।। तृतीय भेद प्रगल्भवचना ।।

    प्रगलभ वचना नायिका मध्या के यह भाइ।

    जो रिस धुनि सों आगहि रौकैं पियहि बनाइ।।126।।

    ।। प्रगल्भबचना-उदाहरण ।।

    पिय अविवेकी कमल ये नैकु मोंहि सुहाहिं।

    प्रति फूलन के मधुप कौ ठौर देत हिय माहिं।।127।।

    ।। चतुर्थ भेद-सुरतविचित्र ।।

    छिन रति छिनि विपरीत रुचि पूरित हियौ अनंग।

    टुटत तार अरु जुटत है कूजत खग धुनि संग।।128।।

    अधर निदर नासा चढञै दृगन फेरि सतराइ।

    ठुनकि ठुनकि धन सुरति छिन पिय मन हरति बनाइ।।129।।

    ।। लघुलज्जा मध्या-लक्षण ।।

    लघु लज्जाहू इक मते मध्या बरनी जाइ।

    जामैं कछु इक आनि कै लाज लेस रहि जाइ।।130।।

    ।। लघुलज्जा मध्या- उदाहरण ।।

    होउ जीति अकबारि की खेल बीच ते हारि।

    ललन रहे अँगिया चितै ललना दियै निहारि।।131।।

    लाज पाछिली संग तिनि तिय हिय निति नियराइ।

    प्रीति नई हितकारिनिहि लखि रिसाइ फिरि जाइ।।132।।

    ।। मध्या का मुड़कर बैठना ।।

    पिय लखि मुरि बैठति नहीं कर घूँघुट को भाव।

    चोरी कै मन लाल की गोरी करति दुराव।।133।।

    ।। मध्या का सुरतारंभ ।।

    रति आरंभ निहारि जब झझकि बाँह सतिराति।

    मृग दृग नासा अधर तें कोटि कला करि जाति।।134।।

    बाँह गहत सतरात जब कर झझकति सुकुमारि।

    चूर चूर मन करति है चूरिन की झनकारि।।135।।

    ।। मध्या की सुरति ।।

    छिनक रहत थिर थकित ह्वै छिनही मैं अकुलात।

    रति मानति मनभावती ठनगन ठानति जात।।136।।

    यौं रति मैं सुकुमारि के दृग उघरत मुँदि जात।

    ज्यौं तारे आकास के झलकत दुरत प्रभात।।137।।

    कान परत मृग लौं परें मुरछि ललन के प्रान।

    कंठ ठुनुक नूपुर झुनुक दुहुन लई जब तान।।138।।

    ।। मध्या की विपरीत रति ।।

    रमति रमनि विपरीत यौं लाज मदन मैं थाकि।

    ज्यौ रथ हाँकत सारथी दुहूँ लोक कौ ताकि।।136।।

    ।। मध्या का सुरतांत ।।

    बिगरे भूखन तन सजति घनि बैठी परजंक।

    पिय तन हेरति अनख सौं फेरि फेरि दृग बंक।।140।।

    खिन मुकुराति है ढीठ ह्वै छिन लजि हेरत गात।

    कौतुक लाग्यौ सखिन कौ पूछत रति की बात।।141।।

    ।। प्रौढ़ा ।।

    ।। पति-अनुराग-वर्णन ।।

    बीते दिन डर लाज के अब आवत यह प्रान।

    एको पल निज कंत कौ अंत दीजै जान।।142।।

    जब वनिता वृषरासि मैं रवि जोबन चमकाइ।

    मदन तपति प्रति द्यौस बढ़ि लाज सीत छटि जाइ।।143।।

    ।। प्रौढ़ा के चार भेद ।।

    ।। प्रथम भेद-उदभटयौवना प्रौढ़ा ।।

    गजगौनी तुव गुन चितै रीझि गई सब बाल।

    कुच कुंभनि ते पेलिकै बसि करि लीन्हों लाल।।144।।

    ।। द्वितीय भेद-नरनमदमाती प्रौढ़ा ।।

    कुच पिय हियहि लगाइ तिय अंग मोरि अँगराइ।

    उऱज गहत अठिलाइ कै नैन मिलै मुसुकाइ।।145।।

    ।। तृतीय भेद लुब्धा प्रतिप्रौढ़ा ।।

    धन सरूप अरु सुमति कौं सरस सबनि तें जानि।

    गुरजन दुरजन ईस सम सीस नवाए आनि।।146।।

    ।। चतुर्थ भेद-रति कोविदा प्रौढ़ा ।।

    विमल गंग सी धनि रची बिधि अखंग रसदानि।

    जा प्रसंग मैं पाइये सुख तरंग को खानि।।147।।

    रति सरूप धरि औतरै सिखै भारती भाइ।

    तऊ रावरी सुरति गुन सकै केहूं पाइ।।148।।

    ।। रतिकोविदा के दो भेद ।।

    ।। रतिप्रिया, आनन्दातिसंमोहा-प्रौढ़ा ।।

    ये द्वै प्रौढ़ाहूँ कोऊ कबि बरनत यह जानि।

    इनहुँन को बरनन कियो उदाहरन मैं आनि।।149।।

    ।। रतिप्रिया-उदाहरण ।।

    पियत रहत पिय अधर नित भूख प्यास बिसराइ।

    चखै ऊख मयू। वरु वा पियूष कौं पाइ।।150।।

    लाल रंग मैं पग रही बहिर अंत इक बानि।

    सदा सोहागिनि फूलती सदा दामिनी जानि।।151।।

    ।। आनन्दातिसंमोहा-उदाहरण ।।

    गहत बाँह पिय के अली छुटयो कंप तन आइ।

    भगी दृगन लौं लाज सुधि हिय सों गई बिलाइ।।152।।

    ललन गहत सुख ते गयौ मोह नींद लौं छाइ।

    मार करन की सुधि अली जागी मोरहिं आइ।।153।।

    ।। प्रौढ़ा का मुड़कर बैठना ।।

    पिय चितवत पिय मुरि गई कुलहित पट मुख लाइ।

    अमी चकोरन के पियत धन लीन्हौं ससि छाइ।।154।।

    ।। प्रौढ़ा का सुरतारंभ ।।

    बाह गहत सीबी करति कुच परसत सतराति।

    तिय निज महत बढ़ाइ कै रुचि उपजावति जाति।।155।।

    ।। प्रौढ़ा की सुरति ।।

    आलिंगन चुंबन करत कोक कलन के घात।

    दंपति रति रस लेत हूँ कहूँ नैकु अघात।।156।।

    यौं उर लागत सेज तें बाम स्याम गहि बाँह।

    ज्यौं बिजुरी घन सेत की दुरै असित घन माँह।।157।।

    ललन मुकुत टूटत परे बाल हाथ कुच आइ।

    बूँद बचाये सिव मनौं सरसीरुह सिर लाइ।।158।।

    ।। प्रौढ़ा की विपरीत रति ।।

    टीका छुटि विपरीति खिन परयौ उरोजन आइ।

    हाथ चलायौ ससि मनो कमल कली अरि पाइ।।159।।

    छिनिक लेति है सुरति सुख छिन राचति विपरीति।

    अध ऊरध पलटत रहै विब्ब कैतकी रीति।।160।।

    ।। प्रौढ़ा का सुरतांत ।।

    ढुरकि परी कहुँ उरबसी नख कुच सीस सुहाइ।

    तरणि छप्यौ मनु गिरि सिखर द्वैज कला दरसाइ।।161।।

    जिन अभरन साजे हते करिबे को रस रंग।

    तिनते अति छबि देत है स्वेद बुंद तुव अंग।।162।।

    ।। पति दुःखिता-वर्णन ।।

    इनि भेदन मैं जो कोऊ रसभासा बिख्यात।

    मुग्धा कुलटा हूँ विषै सो पुनि पायो जात।।163।।

    ।। मूढ़पति दुःखिता ।।

    अति मीठे अरु रस भरे लाल रसाल सुभाइ।

    तनिक कचाई कठिनई प्रगट करति है आइ।।164।।

    ललित सलोने ललन पै तजि गुरजन की आनि।

    गरे लगति है आइ ज्यौं नेहप को पकवानि।।165।।

    ।। बालपति दुःखिता ।।

    बारे पिय के हाथ तिय राखति कुच पै लाइ।

    कमलन पूजत शिव मनों बली मदन को पाइ।।166।।

    ।। वृद्धपति दुःखिता ।।

    धरति धीरज काम ते वृद्ध नाह को पाइ।

    बाल सेत अवलोकि मुख बाल सेत ह्वै जाइ।।167।।

    ।। मुग्धा तथा धीरादि का अन्तर ।।

    मुग्धा मैं जो मान को बरनत हैं कवि ल्याइ।

    सो बिस्रब्ध नवोढ़ मैं आनि कछू ठहराइ।।168।।

    मान हेत धीरादि को यह जानत सब कोइ।

    पै मुग्धा मैं कैसहूँ धीरादिक नहिं होइ।।169।।

    धीरादिक मैं मूल है बिग्यादिक की टेक।

    सो मुग्धा मैं होत नहिं विग्य अविग्य विवेक।।170।।

    ।। धीरा खंडिता का विवेक-प्रसंग-वर्णन ।।

    मान हेत धीरादि अरु खंडिताहुँ को जानु।

    तिन दुनहुन के भेद मैं यह कवि करतु बखानु।।171।।

    लघु मध्यम गुरू मान सब हेतन को पाइ।

    धीरादिक के भेद सों होत तियन मो आइ।।172।।

    हेत खंडिता को कहै सुरत चिन्ह ही जानि।

    तहाँ मिटै गुरमान हित धीरादिकहूँ आनि।।173।।

    पुनि धीरादिक साथ मैं मिलै जो खंडित साथ।

    सों यह मध्य अधीर है यह जानत बुधिनाथ।।174।।

    थासो कोइ इनहूँन मैं भेद धरति नहिं लाइ।

    कोउ धरे यहि भाँति सौं भिन्न भिन्न ठहराइ।।175।।

    चिन्ह हेत गुरमान के ते द्वै विधि जिय जानि।

    इक साधारन दुतिय जिय असाधारनहिं मानि।।176।।

    निहचै रति प्रगटै नहीं सो साधारण जोइ।

    चिन्ह असाधारण सु तो रति परगट करि होइ।।177।।

    पग छूटी दृग अरुनई अलसानादिक भेद।

    ये लाधारन चिन्ह हैं जानि लेहु बिनु खेद।।178।।

    दृगन पीक अंजन अधर नख रेखादिक और।

    चिन्ह असाधारन बिषै बरनत कवि सिरमौर।।179।।

    सो इन द्वै बिधि चिन्ह मैं धरे आनि यहि टेक।

    धीरादिक अरु खंडिता याते लहै विवेक।।180।।

    साधारण चिन्है धरै हेत व्यंग को पाइ।

    केवल वरनादिक विषै यह मनु समुझि बनाइ।।181।।

    चिन्ह असाधारण सु तो जानु खंडिता हेत।

    खंडित ही मैं धरतु हैं जे कवि बुद्धि निकेत।।182।।

    जो कोउ यह परमान की साखी चहै बनाइ।

    सो देखै रसमंजरी उदाहरन को जाइ।।183।।

    ।। मध्या, प्रौढ़ा, धीरादि का भेद-वर्णन ।।

    मान भेद ते तीनि बिधि मध्या प्रौढ़ा होइ।

    धीरा और अधीर तिय धीराधीरा जोइ।।184।।

    कोप करै जो व्यंगजुत सो धीरा जिय जानि।

    जो रिस करै अविज्ञ सो सो अधीर पहिचानि।।185।।

    विग्य अविग्य दोऊ विषै कोपै धीर अधीर।

    मध्या प्रौढ़ा दुहुँन मैं यह बरनत कवि धीर।।186।।

    विंग बचन धीरा कहै प्रगट रिसाइ अधीर।

    मध्या धीराधीर सों रोइ जनावै पीर।।187।।

    ।। रममंजरी के मत से ।।

    ।। धीरादिभेद साधारण सुरति चिन्ह के उदाहरण ।।

    ।। मध्याधीरा ।।

    चलत अलिनयुत कुंज पिय स्वेद चल्यौ जो गात।

    तेहि सुखवति हौं बात मैं लै पुरइन कौ पात।।188।।

    तुम अवसेरत मो दृगन गई जु नींद हिराइ।

    सोइ लाल लागी मनो दृगन रावरे आइ।।189।।

    सिथिल अंग पियरो बदन अंग अंग अलसात।

    कौन माल सों लाल तुम लरि आये हौ प्रात।।190।।

    ।। मध्याधीरा उदाहरण ।।

    कहूँ ठगे कितहूँ खँगे अति सगबगे सनेह।

    लाज पगे दृग रगमगे जगे कौन के गेह।।191।।

    लाल एक दृग अगिनि ते जारि दियौ सिव मैन।

    करि ल्याये मो दहन को तुम द्वै पावक नैन।।192।।

    यही बड़ाई तुम लखी मेरे हिय ठहराइ।

    हाथ परत हौ और के पाय परत मो आइ।।193।।

    रीत सँजोगी बरन की राखत हौ सिरमौर।

    गुरुताई यह मोहि दै मिले रहत हौ और।।194।।

    ।। मध्याधीरा अधीरा-उदाहरण ।।

    निसि बिछुरी कटु बचन कहि यौं रोई लखि कंत।

    औंटि बोलि उफनाइ ज्यौं छीर चुवत है अंत।।195।।

    कत बोलियत निठुर के यौं पूछत गहि हाथ।

    धन अँसुवा धन बूँद लौं झरें बात करे साथ।।196।।

    ।। सादरा वर्णन ।।

    आकृति गोपन सादिरा निज निज मति के तंत।

    मध्याधीर अधीर कौ प्रौढ़ा धीर कहंत।।197।।

    रीति सो व्यंग्याविंग्य की जामै पाई जाति।

    मध्या धीराधीर तें यातें सुभ ठहराति।।198।।

    ।। मध्याधीरा अधीर आकृति-गोपना-उदाहरण ।।

    पिय बिनवत तू सुनत नहिं दयै तूल सै कान।

    लाल बोर हेंरत क्यौं दृग दुख देति निदान।।199।।

    ।। मध्याधीरा अधीरा सादरा ।।

    जे कहियत आदर बचन मधुर चीकने ल्याइ।

    बिष की संकु प्रकट करत सहत धीव इक भाइ।।200।।

    ।। प्रौढाधीरादिक-लक्षण ।।

    धीरा रिस रति खिन करै हनै अधीर रिसाइ।

    प्रौढ़ा धीर अधीर रिस गोप हनै अनखाइ।।201।।

    ।। प्रौढ़ाधीरा-उदाहरण ।।

    पिय आवत आधर कियो बोली कछु मुसुकाइ।

    तनी कंचुकी के गहत धन भ्रू तानि बनाइ।।202।।

    दुरी गाँठि जो बाल हिय लखहु काहू नाथ।

    प्रगट बाल मधि गाँठ लौं भई गहत ही हाथ।।203।।

    ।। प्रौढ़ाअधीरा-उदाहरण ।।

    पाग ढुरी पीरी खरी पिय मुख परी निहारि।

    फूल छरी कर मैं धरी अनख भरी झिझिकारि।।204।।

    स्याम हारि कर नारि सों यौं छुटि लाग्यौ नाह।

    मनु चंदन की डार तें अहि तमाल तन माह।।205।।

    ।। प्रौढ़ा धीराअधीरा-उदाहरण ।।

    नैन लाल तकि रिसभरी कछू बोलति बाल।

    बाँह गहत ही लाल उर हनी तोरि उर माल।।206।।

    जाहि करत पिय प्यार अति ताहि ज्येष्ठा नाम।

    जापर कछु घटि प्यार ह्वै सो कनिष्ठका बाम।।206।।

    ।। ज्येष्ठाकनिष्ठा-उदाहरण ।।

    किन विचित्र यह खेल बलि दीन्हौ तुम्हहिं सिखाइ।

    मूठि मारि वाके दृगन मो मुख मीडत धाइ।।207।।

    अधिक ठगी हौं रावरी लखि चतुराई नाथ।

    इक दिखाइ ससि एक के हिये धरत हौ हाथ।।208।।

    ।। ज्येष्ठाकनिष्ठा के भेदों में से ।।

    ।। धीरादि-कथन ।।

    धीर तु आदिक भेद षट जें बरने कवि जान।

    ज्येष्ठ कनिष्ठ प्रकार तें द्वादस होत निदान।।209।।

    मुग्धा मैं ह्वै भेद इन द्वादस भेदनि संग।

    तेरह बिधि सुकियान को बरनत बुद्धि उतंग।।210।।

    ।। स्वकीया पतिव्रता-भेद-कथन ।।

    सुकिया और पतिव्रता मैं यह भेद विचारि।

    वह सनेह यह भगति सों सेवति है निरधारि।।211।।

    ।। परपुरुषनुरागिनी ।।

    ।। परकीया-उदाहरण ।।

    निज दुति देह दिखाइ कै हरै और के प्रान।

    नेह चहति निसि दिनि रहै सुंदरि दीप समान।।212।।

    ।। परकीया के उभय भेद ।।

    ।। ऊढ़ा अनूढ़ा ।।

    ऊढ़ा ब्याही और सों करै और सों प्रीति।

    बिनु ब्याही परपुरुष रत यहै अनूढ़ा रीति।।213।।

    ।। ऊढ़ा-उदाहरण ।।

    नैन अचल चल मंज तिय दोऊ विधि मनरंज।

    निज पति लागत कंज अरु उपपति लागत खंज।।214।।

    सासु खरी डाहति रहै ननदी जुदी रिसाइ।

    नेह लगत हरि सों सबै रूखी भईं बनाइ।।215।।

    ।। अनूढ़ा-यथा ।।

    रूखे होतेहु बासु लैं चोरी देति जनाइ।

    बिना चढ़े सिर नेह ज्यौ चढ़यौ नेह सिर आइ।।216।।

    ब्याह सुनति उर दाह ते खरी होति बेहाल।

    नेह दही तैं ल्याइ कै नेह दही मैं बाल।।217।।

    लरिकाई सबते भली जामै फिरिहि निसंक।

    अब आई यह वैस जँह निकसत लगै कलंक।।218।।

    ।। द्वितीय भाग ।।

    ।। असाध्या परकीया-लक्षण ।।

    पुन परकीया उभै बिधि बरनत हैं कवि लोइ।

    एक असाध्य दूसरी सुखसाध्या जिय जोइ।।219।।

    प्रेम लगै नहिं मिलि सकै सोइ असाध्या जानि।

    चहै मिलन जो सहज ही ते सुखसाध्या मानि।।220।।

    बुधिबल मन की लाग कौ प्रगट दोष ठहराइ।

    परकीया ही मैं धरै असाध्यादि कौं लाइ।।221।।

    कोउ असाध्यादिकन को बरनत तीनि प्रकार।

    प्रथम असाध्य दुसाध्य अरु सुखसाध्या निरधार।।222।।

    दुतिय असाध्य दुसाध्य है धरम सभीता आदि।

    वृद्ध बधू आदिक रहत सुखसाध्या कवि बादि।।223।।

    ।। असाध्या परकीया ।।

    ।। प्रथम भेद-समीता असाध्या ।।

    अधर धरै किन पै नहीं अपनो धर्म गँवाइ।

    बंसी लौं तजि बंस कौं मोहन मिलिहौं जाइ।।224।।

    ।। द्वितीय भेद ।।

    ।। गुरुजनसभीता-असाध्या ।।

    स्याम मधुप निसि दिन बसै हिये तामरस माहिं।

    गुरुजन उर दुरजन भये देखन देत छाहिं।।225।।

    ।। तृतीय भेद ।।

    ।। दूतीवर्जिता-असाध्या ।।

    जो निज हियहूँ सो कहति मो जिय खरो डराइ।

    सो अन्तर दुख और सों कहौं कवनि बिधि जाइ।।226।।

    ।। चतुर्थ भेद ।।

    ।। अतिकांता असाध्या ।।

    सजल स्याम निसि स्याम मैं सेत जोनि मैं बाल।

    दुहु पटधनु मैं तन तड़ित कैहू दुरति लाल।।227।।

    ।। पंचम भेद ।।

    ।। खलपृष्ठ असाध्या ।।

    समुझि बोलिये बात यह खरो चवाई गाँउ।

    नाउ लेत हरि को अली हर में दीजत पाँउ।।228।।

    ।। सुखसाध्या ।।

    ।। प्रथम भेद-वृद्धबधू सुखसाध्या ।।

    बृद्ध कामिनी काम ते सुनहु धाम मैं पाइ।

    नेवर झमकावत फिरै देवर के ढिग जाइ।।229।।

    ।। द्वितीय भेद ।।

    ।। बालबधू सुखसाध्या ।।

    जो छतियाँ बारे ललै नहिं दरसी कर लाइ।

    चहति परोसी हाथ ते खरी मसोसी जाइ।।230।।

    ।। तृतीय भेद ।।

    ।। नपुंसकवधू-सुखसाध्या ।।

    तुम साँचो बिर रतिक ते सुत उपजै जेहि आइ।

    नाम हेत फल मांगिये पति देवतन मनाइ।।231।।

    ।। चतुर्थ भेद ।।

    ।। विधवाबधू सुखसाध्या ।।

    ओप भरी निज रूप छबि देखत दरपन माँह।

    रोइ नाह को काम के हाथ गहाई बाँह।।232।।

    काह भयो नथ लौ तजे सब सिंगार जो बाम।

    तुव तन तजहि नेकहू मन हरिबे को काम।।233।।

    ।। पंचम भेद ।।

    ।। गुनीबधू-सुखसाध्या ।।

    बाँकी तानन गाइ कै टाँकी सी हिय देइ।

    ढाँकी छतियाँ को कछू झाँकी दै जिय लेइ।।234।।

    गावति है सुरताल सों नागरि ढोल बजाइ।

    स्रुति धारन के मन रही तारन माँहि नचाइ।।235।।

    ।। षष्ठ भेद ।।

    ।। मुनरिझावती-सुखसाध्या ।।

    होत राग बस एक यह सब जग जानत ऐन।

    ये रागहु बसि करति है उलरि ऐन तिय नैन।।236।।

    या रमनी की बात कछू मन समझी नहिं जाइ।

    रीझि रही है बीन सुनि कै परबीन रिझाइ।।237।।

    ।। सप्तम भेद ।।

    ।। सेवकबधू-सुखसाध्या ।।

    बिकल होनि नहिं देउँगी अपने प्रभु को जीय।

    दिनि सेवा करि पिय अरु निसि सेवा करि तीय।।238।।

    ।। अष्टम भेद ।।

    ।। निरंकुस-सुखसाध्या ।।

    जोबनवन्ती जो डरु पिय को माने नैक।

    और तिया छल छंद पढ़ि गावैं तान अनेक।।239।।

    देवन पूजन जाहि अरु करै बाग को सैल।

    और निरअंकुस नारि जे फिरै तियन की गैल।।240।।

    जेहि पिय अटक्यौ और सों अति रोगी की नारि।

    और दुसरी बात यह सुखसाध्या निरधारि।।241।।

    ।। परकीया के दो भेद और नाम ।।

    ।। लक्षण-कथन ।।

    ऊढ़ अनूढ़ा दुहुन मैं ये द्वै भेद बिचारि।

    पहिले अदभूता बहुरि अदभूदिता निहारि।।242।।

    मिलन पेच अपने करै अदभूता तिहि जानि।

    जो नायक पेचनि मिलै उदभूदिता बखानि।।243।।

    ।। अदभूता-उदाहरण ।।

    एते हैं रँग लाल ते करै कौन उपाइ।

    बिनु पीतमबर पीर नहिं इन आँखिन की जाइ।।244।।

    ।। नायिका स्वयंदूती ।।

    मो अँगिया तन तकि रहे क्यौं हरि दीठि लगाइ।

    जौ नीकौ है तो तुमैं दैंहौं आजु पठाइ।।245।।

    सुधि लेति यहि बाग की मालिबहू रिस ठानि।

    बनमाली क्यौं थभि रहे कृपा कीजिए आनि।।246।।

    ।। उद्भूदिता-उदाहरण ।।

    दीपक लौं काँपति हुती ललन होति जँह बात।

    तहीं चलत अब फूल लौं बिगसन लाग्यौ गात।।247।।

    ।। अवस्था भेद के अनुसार ।।

    ।। षट बिधि परकीया-कथन ।।

    उद्बुद्धादिक दुहुन मैं यै गुपुतादिक जानि।

    ते सब षट बिधि होत हैं यह सब करत बखान।।248।।

    गुप्त सुरति गोपन करै भयो होइगो होत।

    करै विदग्धा चतुरई निज क्रम माँझ उदोत।।249।।

    जाको हित पर पुरुष सों प्रकट होइ अनयास।

    वहै लच्छिता सो त्रिविध हेत सुरति परकास।।250।।

    कुलटा ताको जानिये जो चाहै बहु मित्र।

    इच्छा बात भये मुदित मुदिता को यह चित्र।।251।।

    बिनसै ठौर सनेह कौ अरु सँकेत सन्देह।

    जाइ समै सँकेत तिहु दुख अनसैना एह।।252।।

    ।। प्रथम भेद ।।

    ।। वर्तमान सुरतिगोपना-उदाहरण ।।

    अलि हौं गुंजन हित गई कुञ्जन पुञ्जन आजु।

    कंट लगे बस्तर फटे अंग कटे बिनु काजु।।253।।

    ।। प्रत्यक्षमान सुरति गोपना-उदाहरण ।।

    हौं जाउँगी कैसेहूँ फूल लैन को बाग।

    मलिन होइगो गात यह लागे पुहुप पराग।।254।।

    ।। वृतवृत क्षमामान ।।

    ।। सुरतिगोपना-उदाहरण ।।

    जेहि गुंजन तोरत परे ये खरोंट तन आइ।

    कहा करो अब ल्याइहौं फिरि तेरे हित जाइ।।255।।

    ।। वर्तमान सुरतिगोपना-उदाहरण ।।

    रे यह ढोटा कौन को मेरो मही चुराइ।

    मुँह सुँघाइ कै आपनो साह भयौ है जाइ।।256।।

    बड़ो अनोखो छोहरो देखौ री यह आनि।

    मेरी नीबी पाँति जिनि तोरी गेंदा जानि।।257।।

    ह्वै अचेत यह चेत मैं गई हुती बौराइ।

    प्रेम जानि इन हेत कै झारयौ मोहि बनाइ।।258।।

    लखति कहा हौ सो जौ करि काहू सो मीति।

    उदर लगावत नेह मिसि रचि राख्यो विपरीति।।259।।

    ।। द्वितीय भेद-विदग्धा ।।

    ।। उसमे स्वयंदूती-बचन ।।

    ।। विदग्धा-विवेक-कथन ।।

    घर है बचन विदग्ध अरु स्वयंदूति कौ एक।

    याते है इन दुहुन मैं करिबो कठिन बिबेक।।260।।

    यही बात को समुझि कै कवि अपने मन माहिं।

    जो राखति हैं एक को दूजी राखत नाहिं।।261।।

    जिन राख्यो हैं दुहुन को तिनकर यहै बिचार।

    इन दुहुमन कै भेद मैं यह कीन्हौं विस्तार।।262।।

    जो तिय सैन सँकेत की करैं मीत को कोइ।

    काहू को दै बीच तौ बचन विदग्धा होइ।।263।।

    करै सैन संकेत वा रचै नई जो प्रीति।

    नित अंतर तिय पुरुष सों स्वयंदूति विधि रीति।।264।।

    क्रिय विदग्ध अरु बोध कौ याही बिधि मिलि जात।

    तिनि दुनहुन के भैद मैं जानि लेहु यह बात।।265।।

    क्रियबिदग्ध करि चतुरई करै आपनौ काम।

    सैन बुझावै करि क्रिया सो बोधक अभिराम।।266।।

    ।। बिदग्धा मे वचनविदग्धा-उदाहरण ।।

    रे रंगिया करि राखिहौ सकल रंग के काज।

    साँझ परे हौं आइहौं स्याम बसन को आज।।267।।

    स्याम बार पग परत सुनु बाम कह्यौ मुसुकाइ।

    लगो नेह उठाइतौ निसि लौं नेह सुखाइ।।268।।

    ।। क्रिया विदग्धा-उदाहरण ।।

    थाकित भई हौं हाल हीं लखि चरित्र यहि बाल।

    डारि उरबसि लाल की लखै उरबसी लाल।।269।।

    खिनि खिनि घटिको काढ़ि तीय मुरि मुरि लखि लखि नाहिं।

    कूप सलिल घट मैं भरै कूप सलिल घट माहिं।।270।।

    ।। क्रियाविदग्धा ।।

    ।। पतिवंचिता-लक्षण ।।

    पति देखति ही होय जो उपपति के रसलीन।

    ताहि कहत पतिवंचिता जे पंडित परबीन।।271।।

    रोग ठानि कै ढीठ तिय निपुन वैद करि ईठि।

    बैठी पति सों पीठि दै जोरि ईठि सों दीठि।।272।।

    ।। क्रियाविदग्धा मे दूतीवचिता ।।

    दूती सों सब तूति करि मिलै ताहि जताइ।

    सोइ वंचिता दुतिका यह बरनत कविराइ।।273।।

    ।। उदाहरण ।।

    दूतिहिं जो छलि आपुते मो सँग ल्यायौ नेह।

    तू अछेह इन चतुरई अति कीन्हौ हिय गेह।।274।।

    बारेन की मति ते भई बूढ़िन की मति नीच।

    बीच पारि कै मोहिं इन मो सो पारयौ बीच।।275।।

    ।। तृतीय भेद-लक्षिता ।।

    ।। उसमे हेतुलक्षिता ।।

    तेरि ओर चितवत हि जब हरि दीन्हों मुसुकाइ।

    तूँ कत रदन धरे अधर दीजै भेद बताइ।।276।।

    ।। सुरतिलक्षिता-उदाहरण ।।

    को है माली चतुर जिन सरस सींचि रस जाल।

    या कंचन की बेलि मैं मुकुत लगाये लाल।।278।।

    कौन महावत जोर जिन बसि करिबे की चाइ।

    तुव जोबन गज कुंभ पै अंकुस दीन्हौं आइ।।278।।

    ।। प्रकाशलक्षिता-उदाहरण ।।

    प्रगट भई तुव रूप की नेह लगत ही जोति।

    सब जग जानत नेह ते बालन सोभा होति।।279।।

    ।। प्रकाशलक्षिता-द्वितीय मत से ।।

    जेहि कारो पट पीयरो सो मेरो मन माहिं।

    आवत लोगनि के बदन कारी पीरी छाहिं।।280।।

    ।। चतुर्थ भेद-कुलटा उदाहरण ।।

    बिधि सुनार अदभूत गढ़ी तिय की सुबरन देह।

    जेहि अनेक नग जटन कौ तुलित एक ही गेह।।281।।

    पति समान सब जग बसै कामवती मन माहिं।

    ज्यौं मुदाज सिल मैं सबै होत भोर की छाँहिं।।282।।

    ।। पंचम भेद ।।

    ।। मुदिता-उदाहरण ।।

    काल्हि ननद घर काज है जैहैं सब मिलि प्रात।

    चलत बात यह फूल सो फूलि गयौ सब गात।।283।।

    बधू रहै घर हम चलैं चलत बात रसलीन।

    तरकी कदली पात लौं तिय कंचुकी नबीन।।284।।

    ।। षष्ठ भेद-अनुसैना मध्यम ।।

    ।। उसमे प्रथम भेद-स्थानविघटना उदाहरण ।।

    बन बीतत बीतो जो कछु कहो जात सो हाल।

    ऊख ऊँखारति निपटहीं सूखि गयो मुख बाल।।285।।

    पावस देन सराहिये पति ऊपर पति सोइ।

    दीबो कौन बसंत को जो दीन्हौं पति जोइ।।286।।

    ।। द्वितीय भेद ।।

    ।। भाव-सकेतसोचिता उदाहरण ।।

    करि उजारि नैहर चली सोचत कौन सुभाइ।

    देंउ जाइ ससुरारि के ऊजर गेहु बसाइ।।287।।

    फूल माल मो करि चितै तू कत भई उदास।

    कहा भयो तू सासुरे जो फुलवारी पास।।288।।

    ।। तृतीय भेद-अनुसयना ।।

    ।। उसमे प्रथम भेद-स्वैनधिष्ठित संकेत रचनानुगवन ।।

    तीसरि अनुसैना विषै प्रथम भेद बह गाइ।

    मीत गयो संकेत धन सकत केहू जाइ।।289।।

    गुहत माल नँदलाल जेहि काल सुनी बन जात।

    मदन ज्वाल की जालते छयो बाल को गात।।290।।

    बंसी लै मनु मीन कौ खींचत बंसी टेरि।

    निकसि चलनि को धाम तें वा मन पावत फेरि।।291।।

    ।। द्वितीय भेद स्थानाधिष्ठित संकेत ।।

    ।। वर्णवनुगवन अनुसयना ।।

    पुनि अनुसयना त्रितिय मैं इहै भेदि कहि जाइ।

    जो पिय पास सँकेत के चिन्ह लखे पछिताइ।।292।।

    ।। उदाहरण ।।

    घरी टरी टरी कहूँ सोचन भरी विसेखि।

    परी छरी सी ह्वै रही हरी छरी करि देखि।।293।।

    फूलछरी संकेत की मोहन कर मैं पाइ।

    अवसर चूकी डोमनी सों रमनी पछताइ।।294।।

    ।। पिय मनोरथा ।।

    नैन चहै मुख देखिये मनसों कछू दुराइ।

    मन चाहत दृग मूँदि कै लीजै हिये लगाइ।।295।।

    ।। परकीया का सुरतारंभ ।।

    मो कर दोउ भरि दिये मनचीते फलु आजु।

    अलप वृक्ष की छाँह इनि किन्हें कलपतरु काजु।।296।।

    बैन मिलत मुख में बसी मुखु बोलत हिय आइ।

    हिय लावत कछु सुधि नहीं कित गइ लाज लगाइ।।297।।

    ।। परकीया की सुरति ।।

    यौं सँकेत सुख लखत हरि पिय आतुर गरि ल्याइ।

    ज्यौं चोरी गुर पाइ कै तुरंत लीजिये खाइ।।298।।

    राधा तन फूलन मिल्यौ पातन हरि गो गात।

    नूपुर धुनि खग धुनि मिली भले बने सब भाँत।।299।।

    ।। परकीया का सुरतांत ।।

    फूल माल सो बात जो मैं ल्याइ उभराइ।

    ऐसी अंग लगाइ सो कत डारी कुँभिलाइ।।300।।

    पट झरति पोंछति बदन सुंदरि दरपन हेरि।

    दूती सों अनुखाति है लाजवती दृग फेरि।।301।।

    सब जग हारयौ ये अलख काहू को लखात।

    कुंजन मैं रति कै दोऊ पंछी लौं उड़ि जात।।302।।

    ।। स्वकीया-परकीया ।।

    ।। बिना नेम कथन ।।

    सुकिया परकीया दोऊ बिना नेम परमान।

    कामवती अनुरागिनी प्रेम असकता जान।।303।।

    ।। कामवती उदाहरन ।।

    कत मो कर लावत कुचनि कत गहियत लपटाय।

    आली चाटे ओस के कैसै ताप बुझाय।।304।।

    पिय कुंडल को चिन्ह जो परयौ बाल की बाँह।

    खिन चूमति, खिन लखि रहत खिन लावत उर माँह।।305।।

    नाइ नाइ जेहि चपक में मधु पिय दयो पियाइ।

    बार बार तिय चखति है तेहि अधरनि पै ल्याइ।।306।।

    ।। प्रेमआसक्ता उदाहरण ।।

    ये रस लोभी दृग सदा रोके हूँ अकुलाइ।

    मन भावन मुख कमल लखि परत भँवर लौं धाइ।।309।।

    हरि लखि इनि नैननि लये करिकै दुहूँ सुभाइ।

    खींचे आवत बल किये छुटे लगत चढ़ जाइ।।308।।

    अधिक रूप दरसाइ इनि दृग दुतन मिलि साथ।

    यो मन मानिक सेत ही बेची हरि के हाथ।।309।।

    ।। सामान्य भेद ।।

    गरब कोटि राखै तऊ लहै लोटि के भाइ।

    दाम मोट ये लेति हैं काम चोट उपजाइ।।310।।

    ल्याये पायल है भली परी रहैगी पाइ।

    लाल दीजिये माल जो राखै हिय सो लाइ।।311।।

    मुकुत माल लखि धनि कहयौ यह अचिरिजु है नाह।

    गंग तिहारे उर बसी शिव मेरे उर माह।।312।।

    ।। मध्यस्वतंत्र-सामान्या ।।

    सिगरी बार बधून मैं प्रभुता लहै जो बाम।

    अपनी इच्छा सो रमै ताहि सुतंत्रा नाम।।313।।

    ।। उदाहरण ।।

    रसिक पाइ मन मोद सों रचि सुभनाद विनोद।

    बैठि मोद मैं धनि करति छलि बलि सो धन मोद।।314।।

    ।। द्वितीय-जननी आधीना ।।

    बार बिलासिनि होइ जो जननी के आधीन।

    कै गुरजन सासन रमै खो जननी आधीन।।315।।

    ।। उदाहरण ।।

    परहथ बसि ये निरदई धन भोजन के चाइ।

    धनी प्रान पच्छीन को हनत कुही लौ घाइ।।316।।

    ।। तीसरी-नेमता सामान्या ।।

    दिन प्रमान कै दरबि दै जो तिय राखी होइ।

    बारिबधू के भेद मैं कही नेमता सोइ।।317।।

    ।। यथा ।।

    तिय के नित वित देन लौं चितहि बढ़ावत नाइ।

    हेम नेम घट जात ही प्रेम नेम घट जाइ।।318।।

    ।। चुतर्थ-प्रेमदुःखिता ।।

    एक ठौर बसि प्रेम जो होइ बार तिय आनि।

    बिछुरत ही दुख लहहि सो प्रेमदुःखिता जानि।।319।।

    ।। उदाहरण ।।

    मोहिं रावरे हाथ दै धन कीन्हौं जिन हाथ।

    अब छूटत वह पापिनी छुटयौ वाको साथ।।320।।

    वित हित बाढ़त नेह यह बँध्यौ जीय सुख पाइ।

    अब अलि छूटत होत दुख कीजै कौन उपाइ।।321।।

    ।। सामान्या का सुरतिआरंम ।।

    बरनि कहतै है बार तिय रति आरंभन कोइ।

    सुख औरनि की सुरति को याके प्रथमहि होइ।।322।।

    ।। सामान्या की सुरति ।।

    सुरति रंगिनी यों लपकि धनी-गरे लपटाइ।

    ज्यो तरंगिनी सिन्धु को करि तरग मिलि जाइ।।323।।

    ।। सामान्या का सुरतात ।।

    नये रसिक देखे नये लेत तियन के प्रान।

    काह कीजिये कनक लै जातें टूटे कान।।324।।

    ज्यौं आवत निसि मीत को चितवत रही लजाइ।

    त्यौं अब धनहित ह्वै खरी माँगत चित सकुचाइ।।325।।

    सुखहित कै तन आपने चित राखति नित गोइ।

    करि धन अपने हाथ फिरि धन अपनी मति होइ।।326।।

    ।। सुरति-दुःखिता ।।

    ।। बक्रोक्ति गर्विता-वर्णन ।।

    अन्य सुरति दुखिता बहुरि तीन गर्विता आनि।

    और मानिनी नेम बिनु सकल तियन मैं जानि।।327।।

    पराचीन मत माहि ये भेद लखे नहिं जात।

    करयौ नवीनन काटि कै यह विध सो अवदात।।328।।

    अन्य सुरति दुखिता कहीं खँडिता ते यह जानु।

    स्वाधिनपतिका ते कढ़ो भेद गर्विता भानु।।329।।

    मानिनि को कढ़ि मानतें तिहूँ भेद तब लाइ।

    अष्ट नाइका भेद तें भिन्न दियो ठहराइ।।330।।

    जदपि धरे नहिं जात पै अष्टनायिका माँहि।

    तऊ अवस्था भेद तें सकल भिन्न ह्वै जाहिं।।331।।

    जब नबीन मत पै भयौ तिहूँ भेद अविदात।

    ग्यारह सै बावन तियन माह गने नहिं जात।।332।।

    ।। अन्यसुरतिदुखिता-लक्षण ।।

    निज पति रति को चिन्ह जो लखै और तिय अंग।

    अन्य सुरति दुखिता सोई जेहि दुख बढ़ै अनंग।।333।।

    पिय तन लखि रति चिन्ह जो दुखित खंडिता होइ।

    ज्यौं यहि दुख पिय सुरति छत और बाल तन जोइ।।334।।

    इहै भेद इनि दुहुन मैं जानत है कवि जान।

    जातरु पिय औगुननिते दुखी दोउ पहिचान।।335।।

    ।। अन्यसुरतिदुखिता-उदाहरण ।।

    तेरे पास प्रकास बर नेह बास सरसाइ।

    मो कारन ल्याई नहीं आयो आपु लगाइ।।336।।

    गई बाग कहि जाति हौं तुव हित लैन रसाल।

    सो नहि ल्याई आपुहि छकि आई है बाल।।337।।

    काह कहौं तोसों अली अपने अपने भाग।

    मोहि दियो तन कनक बिधि दिनों तोहि सुहाग।।338।।

    ।। गर्बिता-लक्षण ।।

    गरब उपजत है तियहि जौं लौं नहिं बस नाह।

    या ते गरबित को भवन स्वाधिनपतिका माह।।339।।

    बात कहै जो गरब को सोइ गरबिता जानि।

    बरने पति आधीनता स्वाधीनपतिका मानि।।340।।

    सोइ गरबिता उभय विधि बरनत हैं कवि लोइ।

    बक्रोकति है एक पुनि दुतिय सुगरबित होइ।।341।।

    ।। बक्रोक्ति गर्बिता-उदाहरण ।।

    पिय मूरति मेरी सदा राखत दृगन बसाइ।

    डरियत गोरी देह यह मति सौंरी परि जाइ।।342।।

    ।। सुधि-प्रेमगर्बिता ।।

    मो पिय चख पक्षी नहीं जो जल जल पै जाहि।

    मीन रूप तामें परे सदा रहै तेहि माहि।।343।।

    मोहि भूषन की भूख नहिं बृजभूषन को प्यार।

    मन सों रहो सिंगार करि तन सोरहो सिंगार।।344।।

    ।। वक्रोक्ति रूपगर्बिता ।।

    जोबन लहि रूप ढिग अद्भुत गति यह कीन।

    आपु जगत को मारि कै मो सिर हत्या दीन।।345।।

    ।। सुच्छरूपगर्बिता ।।

    जो दृग कमलन दुखित नहिं मेरे रूप सुजान।

    तो मो आनन जनि कही सरखिज सत्र समान।।346।।

    हौं लहोंगी बात अब तों सो कहति निसंक।

    मेरे मुख को चंद कहि लावत लाल कलंक।।347।।

    ।। बक्रोक्ति गुनगर्बिता ।।

    मो पै गुन कछुए नहीं ऐसो तैं हित पाइ।

    अपनी बारीहूँ पियहि मो घर जाति पठाइ।।348।।

    ।। सुच्छ गुनगर्बिता ।।

    तौ प्रवीन जो छीन कै सौतिन सो रसलीन।

    झीन तार जो बीन कै करौं बाँधि आधीन।।349।।

    को चतुराई जो हौं एक कला मैं जीति।

    आजु लालु मनको करी हाथ छाल की रीति।।350।।

    ।। मानिनि लक्षण ।।

    पिय सो कछु अपराध तकि तिय उदास जो होइ।

    ताहि मानिनी कहत हैं सब पंडित कवि लोइ।।351।।

    तीनि भाँति पिय सो करै मानिनि कोप प्रकास।

    मुख परि कै पीछे किधौं चुप ह्वै रहै उदास।।352।।

    मुख पर कहै सो खंडिता पीछे अन्य सँभोग।

    और तीसरी मानिनी जहाँ मौन परयोग।।353।।

    पिय अपराध जानियत को जानै किहि काज।

    बैठी भौंह चढ़ाइ कै ग्रीव नवाये आज।।354।।

    ।। मानिनी-उदाहरण ।।

    पिय अपराध जानियत को जानै किहि काज।

    बैठी भौंह चढ़ाइ कै ग्रीव नवाये आज।।354।।

    ।। अवस्था भेद से ।।

    ।। अष्ट नायिका कथन ।।

    जेहि गुन पिय आधीन है स्वाधिनपतिका नाम।

    पिय आवन दिन तन सजै बासकसज्या बाम।।355।।

    कौनहु देहु आवही पीतम जाके गेह।

    ताको सोचु करै हियै उत्कंठित सो एह।।356।।

    करै चलन चरचा चले पहुचे लौं पिय पास।

    बोलि पठावै सिख सुनै अभिसारिका प्रकास।।357।।

    सँजि सिंगार जौं जाइ तिय ललन मिलन के हेत।

    बिन पिय भेटै रिस करै विप्रलब्ध तेहि चेत।।358।।

    पर रति चिन्हित पिय चितै बलि खंडिता रिसाइ।

    कलहन्तरिता कलह करि फिरि पीछे पछिताइ।।359।।

    प्रोषितपतिका जाहि पिय गयौ होइ परदेस।

    गमषित जेहि दिन कतिकमैं चलन चहै प्रानेस।।360।।

    गछितपतिका जाहि पिय चलन समै में होइ।

    पतिया सगुन संदेस लखि आगमपतिका जोइ।।361।।

    आइ मिलै जो विदेस तें आगतपतिका जानु।

    बिछुरे पति आयो सुन्यौ अगछित पतिका जानु।।362।।

    है अरु होनो ह्वै चुक्यो बिरह जो तीनि प्रमानु।

    एकै करि सब को गनै अष्ट नायका जानु।।363।।

    उचित इन नारीनु मैं मुग्धा बरनन ल्याइ।

    ये विश्रब्ध नवोढ़ गुन दीनो है ठहराइ।।364।।

    सातों पतिकादिकन मैं मुग्धाऊ पुनि होति।

    पै बिन चाह निति दुहुन के रस की होइ जोति।।365।।

    ।। स्वाधीनपतिका में ।।

    ।। मुग्धा स्वाधीनपतिका ।।

    रूप आयौ है कछू जो धन करिहौ हाथ।

    अबहीं ते चाकर भये कहाँ डोलियत नाथ।।366।।

    ज्यौं ज्यौं लालन प्रेम बस सँग तजत दिन राति।

    त्यौ त्यौ लाज समुद्र मैं तिय बूडति सी जाति।।367।।

    ।। मध्या स्वाधीनपतिका ।।

    पिय पग धोवत भावती कौतुक करति बनाइ।

    खिनिक झवावति पाइ खिनि खैंचि लेति सकुचाइ।।368।।

    निरखि निरखि प्रति दिवस निसि पिय चख तिय मुख ओरि।

    कमल जानि अलि होत हैं ससि अनुमानि चकोरि।।369।।

    निकसत ही पीछें परत आवत आगे होत।

    रविग्रह सनमुख छाह लौं तुव प्रिय प्रकृत उदोत।।370।।

    ज्यौं ज्यौं पिय चित चाय सों देत महाउर पाइ।

    त्यौ त्यौं पिय अति रीझि कै नैनन मैं मुसुकाइ।।371।।

    ।। परकीया-स्वाधीनपतिका ।।

    यौं ही लाज खोइये फिरि फिरि मेरे साथ।

    परकीया आवति कहूँ घात परेही हाथ।।372।।

    मो मन पक्षी प्रीति गुन बाँधि रह्यौ है नाथ।

    जो उदास ह्वै लड़त है तौ फिरि ल्यावत हाथ।।373।।

    ।। सामान्या-स्वाधीनपतिका ।।

    किती रूप अरु गुनभरी कत मोही को लाल।

    कंकन दै कर गहत है हिय लावत दै माल।।374।।

    ।। मुग्धा-बासकसजा ।।

    इक भूषन सखि सजति है पिय को आगम जानि।

    दूजे नवला स्वेद ते निजतन राचति आनि।।375।।

    सौति हार तकि नवल तिय मिस गस को ठहराइ।

    पिय आवत गुन मुकुत को गूँदति माल बनाइ।।376।।

    ।। मध्या-वासकसजा ।।

    लाल मिलन गुनि तन सजति बाल बदन की जोति।

    खिनिक कमल सी मलिन खिनि अमल चंद सी होति।।377।।

    बदन जोति भूषनन पर चख चकचौधति बाल।

    मोहि सोचु यह अंग तुव कैसे लखि हैं लाल।।378।।

    तिय पिय सेज बिछाइ यौं रही बाट पिय हेरि।

    खेत बुवाइ किसान ज्यौं रहे मेघ अवसेरि।।376।।

    ।। परकीया-वासकसज्जा ।।

    दिन अन्हाइ साजै बसन मीत मिलन सुख पाइ।

    निसि दिव रानी संग ले द्वारै पौढ़ी जाइ।।380।।

    ।। सामान्या-वासकसज्जा ।।

    नखसिख करति सिंगार तन धनी आइबो जानि।

    अंग अंग साजति सिलरु सुभट जुद्ध अनुमानि।।381।।

    ।। मुग्धा-उत्कठिता ।।

    खेलन बैठी सखिन सँग नवल बधू चित लाइ।

    पिय बिनु आये सोचु मैं खेल भूलि सब जाइ।।382।।

    लालन आयौ बाल सों कह्यौ लाजन जाइ।

    खुल्यौ कुमुद सों हिय गयौ मुँद सरोज के भाइ।।383।।

    ।। मध्या-उत्कठिता ।।

    आवन कहि आयो पिय गई जाम जुग राति।

    सोच सँकोचन मैं परी खरी बाल बिललाति।।384।।

    पिय नहिं आये यह व्यथा रही जु बाल दुराइ।

    मुँदी नेह की बासु लौं मुख पै प्रगट दिखाइ।।385।।

    ।। प्रौढ़ा-उत्कंठिता ।।

    सखी कह्यौ जिय साजि कै आजु आयो नाह।

    ग्रह भूले खग लौं फिरे मो मन सोचन माह।।386।।

    ।। परकीया-उत्कठिता ।।

    थल बताइ आयो पिय यहै सोचु जिय लाइ।

    पिंजर पंछी लौं तिया कुंज माँहि बिललाइ।।387।।

    ।। सामान्य-उत्कठिता ।।

    पिय नहीं आयो अवधि बदि नैन रहे मग जोइ।

    औरन के ग्रह जान की दई बेर सब खोइ।।388।।

    ।। मुग्धा-अभिसारिका ।।

    नैन चकोरन चंद्रिका प्यारी आज निसंक।

    आस पास आवत नखत लीन्हे बीच ससंक।।389।।

    चलि ये नवला बदन ते नाम तिहारे लाल।

    हाँसी बातन मैं कहूँ हाँसी निकसति हाल।।390।।

    ।। मध्यामिसारिका-उदाहरण ।।

    ऐसे कामिनि लाज ते पिय पै अठकति जाइ।

    जैसे सरिता को सलिल पवन सामुहे पाइ।।391।।

    ।। प्रौढामिसारिका।।

    दुहुँ दिसि कचकुच भार तें झुकति जाति यौं बाल।

    मानौ आसव ते छकी चली छकावत लाल।।392।।

    ।। परकीया अभिसारिका ।।

    यौं ऐंचति पग मग धरति उरझे उरग अधीर।

    ज्यौ मदमत्त मतंग छुटि खैंचे जात जंजीर।।393।।

    ।। कृष्णाभिसारिका ।।

    पिय के रंग भये बिना मिलन होत नहिं बाम।

    याते तूँ रँग स्याम ह्वै मिलन चली है स्याम।।394।।

    अंग छपावति सुरति सों चली जाति जो नारि।

    खोलत बिज्जुछटा चितै ढाँपति घटा निहारि।।395।।

    ।। (शुक्ला) जोतिअभिसारिका ।।

    सजे सेत भूषन बसन जोन्ह माहि लखाइ।

    पट उघटत खिन बदन दुति चमक द्वैज सी जाइ।।396।।

    सेत बसन जुति जोन्ह मैं यौं तिय दुति दरसाति।

    मनौ चली छीरघिसुता छीर सिन्धु मैं जाति।।397।।

    ।। दिवाभिसारिका ।।

    पहिरि दुपहरी अरुन पट चली सोचि जिय नाहिं।

    नैकु जानी परति तिय फूली किंसुक माहिं।।398।।

    ।। सामान्याभिसारिका ।।

    चली बार तिय मीत पै जेहि धन हेत लुभाइ।

    सो तन छबि तें छकि रह्यौ अभरन ह्वै लपटाइ।।399।।

    ।। मुग्धा बिप्रलब्धा ।।

    सखिन संग नवला गई पिय को मिलन सँकेत।

    अरुन कमल सो मुख भयो दिन हिम संक समेत।।400।।

    ।। मध्या विप्रलब्धा ।।

    लख्यौ पिय गति भवन मैं तब सखि सौ समुहाइ।

    बैनन मैं अनखाइ तिय नैनन रही लजाइ।।401।।

    ।। प्रौढ़ा विप्रलब्धा ।।

    लखि सँकेत सूनो रही यौं तिय सारि नवाइ।

    मनौ विनय सिव की करै सबल काम को पाइ।।402।।

    ।। परकीया विप्रलब्धा ।।

    जो सँग लै कुंजन गई बाल मालती फूल।

    मधुप मिले बिनु ह्वै गये सो गुड़हर के तूल।।403।।

    ।। सामान्या विप्रलब्धा ।।

    निज घर आयौ रसिक तजि गई जेहि धनि चाइ।

    सो मिल्यौ यौंही गयौ धन मेरे कर आइ।।404।।

    ।। मुग्धा खंडिता ।।

    सखिन सिखाये तिय कह्यौ लखि जावक पिय भाल।

    ताही के घर जाइये जेहि पग लागे लाल।।405।।

    ।। मध्या खंडिता ।।

    पिय तन नख लखि जो करत तिय बेदन अधिदात।

    कछू खुलति कछु नहिं खुलति तू तुरकी सी बात।।406।।

    ।। प्रौढा खंडिता ।।

    लाल तिहारे भाल को जावक पावक नैन।

    जिनि मेरे मन मैन कौ जारि दियो ज्यौ मैन।।407।।

    ।। परकीया खंडिता ।।

    मीन नहीं यह पेखियत जिनि जिमि लागी दागि।

    दृगन रावरे की लला पलकन लागी आगि।।408।।

    जो कछु कहियत ठीक धरि सब ही होत अलीक।

    मिटिगै अंजन लीक सो नेम निरंजन लीक।।409।।

    पीक रावरे दृगन की कहे देति यहि ठौर।

    मोसे नैन लगाइ तुम नैन लगाये और।।410।।

    ।। सामान्य खंडिता ।।

    जान्यौ बिन गुन माल कौं माल ठाम लखि कंत।

    मो मन मानिक लै दयो मन निक तुव अत।।411।।

    ।। मुग्धा कलहन्तरिता ।।

    लाल बिनै मानी तिय अब मन मैं पछिताइ।

    विपुल मध्य को दुख तनिक मुख पै होत ललाइ।।412।।

    ।। मध्या कलहन्तरिता ।।

    पिय बिनती करि फिरि गयो सो कलेस सरसाइ।

    तिय मुख अंबुज तें निकसि मधुप रीति दुरि जाइ।।413।।

    ।। प्रौढा कलहतरिता ।।

    जिय नहि आन्यौ पिय बचन नाहक ठान्यौ रोसु।

    अमृत तजि बिष मैं पियो देउँ कौन कों दोसु।।414।।

    तब लखौ पिय बदन ससि कीन्हौं कोटि प्रकार।

    अब अलि नैन चकोर ये लीलत फिरत अंगार।।415।।

    ।। परकीया कलहतरिता ।।

    जाहि मीत हित पति तज्यौ तज्यौ ताहि जिहि हेत।

    सो यह कोपहु तजि गयौ करि हिय विपति निकेत।।416।।

    अली मान अहि के डसे झारयौ हरि करि नेह।

    तऊ क्रोध बिष ना छुटयौ अब छूटति है देह।।417।।

    ।। सामान्या कलहतरिता ।।

    जाके मिलत मिटी सकल हुती साध जो प्रान।

    ताकी बात सुनी मैं नेह तूल दै कान।।418।।

    ।। मुग्धा प्रोषितपतिका ।।

    पिय बिछुरन दुख नवल तिय मुख सों कहति लजाइ।

    बदन मुँदे नलनीर के जल सम रुके बनाइ।।419।।

    ।। मध्या प्रोषितपतिका ।।

    पिय बिनु तिय दृग जल निकसि यौं पुतरीन बिलात।

    ज्यौं कमलन तें रस झरत मधुकर पीवत जात।।420।।

    तिय उसास पिय बिरह ते उससि अधर लौ आइ।

    कछु बाहर निकसत कछु भीतर कों फिरि जाइ।।421।।

    ।। प्रौढा प्रोषितपतिका ।।

    निसि जगाइ प्रातहिं चलत प्रान मजूरी हाल।

    अंग नगर मैं बिरह यह भयो नयो कुतबाल।।422।।

    निसि दिन बरखत रहत हूँ तँह कहुँ घटन सूल।

    नैन नीर हिय अगनि कौ भयो धीव के तूल।।423।।

    ।। परकीया प्रोषितपतिका ।।

    रकत बूँद काजर भरयौ रोवति यौं डरि बाल।

    मनौ निसानी वा दृगन दई गुंज की माल।।424।।

    ।। सामान्या प्रोषितपतिका ।।

    जो सिंगार तन करति नित घन के हित सुकुमारि।

    धनी बिरह ते होत सो अँग अँग माँहि अँगार।।425।।

    व्यथा धनी सो कहन कों निज गुन पथिक लुभाइ।

    रोइ जनावै नेह तिय नेह दृगन में लाइ।।426।।

    ।। गमिष्यतिपतिका ।।

    ।। जाको पिय कछु दिन मै चलनहार होइ तामे ।।

    ।। मुग्धा गमिष्यतिपतिका ।।

    जो नवला मन मैं दयो नयो नेह तरु लाइ।

    बिरहताप रितु बात तै जनु डारयो कुँभिलाइ।।427।।

    रवन गवन सुनि कै स्रवन दृग देखन मिसि ठानि।

    तिय अंजन धोवन लगी अंसुवन को जल आनि।।428।।

    ।। मध्या गमिष्यतपतिका ।।

    कहन चहत पिय गवन सुनि कह्यौ मुख ते जाइ।

    लाज मदन को झगरिबो धन हिय होत लखाइ।।429।।

    ।। प्रौढा गमिष्यतपतिका ।।

    कातिक पून्यौ अंत सुनि परबा पिय प्रस्थान।

    कामिनि मुख ससि को भयौ अगहन गहन समान।।430।।

    पहिले पाँखन आइ हैं पिय असाढ़ के मास।

    प्रथमहिं झरि छिति बासु लौं निकसी पैहों सांस।।431।।

    ।। परकीया-गमिष्यतिपतिका ।।

    मिलन धरी लौ ज्यौं प्रथम दुख दीन्हौं तुव स्याम।

    सो चाहत हौ अब दयौ लै विदेस को नाम।।432।।

    ।। सामान्या-गमिष्यतपतिका ।।

    रच्यो गवन तो करि कृपा मोहि दीजियौ लाल।

    जिय राखन कों उरबसी नाम जपन कों माल।।433।।

    ।। गच्छतपतिका ।।

    ।। जिसको पिय चलने के समय में हों तामे ।।

    ।। मुग्धा-गच्छतपतिका ।।

    ज्यौं ज्यौं लालन चलन की प्रात धरी नियरात।

    त्यौं त्यौं तियमुख चंद की जोति घटत सी जात।।434।।

    ।। मध्या-गच्छतपतिका ।।

    पिय के चलत विदेस कछु कहि नहिं सके लजोरि।

    चरन अँगूठा ते रहे दाबि पिछौरी छोरि।।435।।

    पिय बिछुरन खिन यौ डरै तिय अँसुवा चख आइ।

    मनु मधुकर मकरंद कौ उलगि गयो फिरि खाइ।।436।।

    रे तन जड़ तेरो कही कहा होइगो रंग।

    घरी एक में चलत है जिय तो पिय के संग।।437।।

    गवन समै पिय के कहति यौं नैनन सों तीय।

    रोवन के दिन बहुत हैं निरख लेहु खिनि पीय।।438।।

    ।। परकीया-गच्छतपतिका ।।

    करी देह जो चीकनी हरि नित लाइ सनेह।

    बिरह अगिन परि छिनिक मैं होइ चहत अब खेह।।439।।

    ।। सामान्या-गच्छतपतिका ।.

    पहिले वितु दै आपुनो जो कीन्हौ चित हाथ।

    सोहित तोरि विदेस कों कत चलियत अब नाथ।।440।।

    ।। आगमिष्यतपतिका ।।

    ।। जिसका पति विदेस से आनेवाला हो उसमे ।।

    ।। मुग्धा-आगमिष्यतपतिका ।।

    दिन द्वै मैं मिलिहैं इन्हैं पिय विदेस तें आइ।

    सखियन सों यह सुनि तिया अखियन रही लजाइ।।441।।

    बाम नन फरकत भयो बाम जो आनँद आइ।

    खिनि उघरति खिनि मुँदति है बादर धूप सुभाइ।।442।।

    ।। प्रौढा-आगमिष्यतपतिका ।।

    पतिया आई अरु सुनौ पिय आगमन प्रकास।

    याते कामिनि प्रान को उपज्यो दुगुन हुलास।।443।।

    नैन बाम की फरकि लहि अरु बोलत सुनि काग।

    अंग अंग तिय पै लग्यो बरसन आनि सोहाग।।444।।

    ।। परकीया-आगामिष्यतपतिका ।।

    हरि आगम सुनि पथिक मुख उमगे सहित सनेह।

    नख ते सिख लौं नारि की भई चीकनी देह।।445।।

    ।। सामान्या-आगमिष्यतिपतिका ।।

    आबत सुनि परदेस तें धनी मित्र तेहि आस।

    बारविलासिन के भयो बारहि बार विलास।।446।।

    ।। आगच्छतपतिका ।।

    ।। जो तिय विदेश से आगमन सुने उसमें ।।

    ।। मुग्धा-आगच्छतपतिका ।।

    पिय आये यह सुनि भयौ हरख जो नवला आइ।

    कमल कली लौं अरुनता कछु मुख पै दरसाइ।।447।।

    ।। मध्या-आगच्छतपतिका ।।

    लाजवती परदेस तें पिय आयौ सुधि पाइ।

    निसिदिन मधु के कमल सम सकुचत विकसत जाइ।।448।।

    ।। प्रौढा-आगच्छतपतिका ।।

    पिय आवत सुनि कै तिया यह मन मैं पछिताइ।

    पंख नहीं जौं उड़ि मिलौं सब तें पहिले जाइ।।449।।

    ।। परकीया-आगच्छतपतिका ।।

    आवन सुनि घनस्याम की आन देस तें बात।

    चपला ह्वै चमकन लग्यौ नेहन हीं को गात।।450।।

    ।। सामान्या-आगच्छतपतिका ।।

    धनी मित्र आगमन सुनि सजि सिंगार अभिराम।

    बैठी बाहर नगर के डगर बाँधि कै बाम।।451।।

    ।। आगतपतिका ।।

    ।। जिसके पिय परदेश से मिलें उसमे ।।

    ।। मुग्धा-आगतपतिका ।।

    बिछुरि मिल्यौ पिय बाँह गहि ज्यौं ज्यौं पूछत जात।

    बूड़ी लाज समुद्र तिय मुख ते कढ़त बात।।452।।

    पिय आयौ आनंद जो भयो नवल तिय आइ।

    घटमधि दीपत जोति लौं मुख तें कछुक लखाइ।।453।।

    ।। मध्या आगतपतिका ।।

    आयो पिय परदेस ते तिय बैठी सकुचाइ।

    तिरछी आँखिन तें कछू लखत कनाखि जनाइ।।454।।

    ।। प्रौढा आगतपतिका ।।

    पिय लखि यौं तिय दृगन कै अंजन अँसुवा ढारि।

    प्यौ ससि निरखि चकोर दे बुझी चिनगिनी डारि।।455।।

    तिय हंसि बतिया करन में अँसुवा ढारति जाइ।

    मिलन बिरह सुख दुख कहति भई फूलझरी भाइ।।456।।

    सुख बिछुरन सिसिर की ह्वै लहलही तुरंत।

    बेलि रूप प्रफुलित भई लहि बसंत सो कंत।।457।।

    ।। परकीया-आगतपतिका ।।

    गये बीति दिन बिरह के आयी निसि आनंद।

    प्रेम फँदी कुमुदिनि भई निरखत ही बृजचंद।।458।।

    ।। सामान्या-आगतपतिका ।।

    तुव बिछुरत तन नगर में बिरह लुटेरे आइ।

    मेरे सुबरन रूप कौ लीन्हौं लूटि बनाइ।।459।।

    ।। आगतपितका ।।

    ।। सजोगगर्विता-लक्षण ।।

    पिय आये परदेस ते गरब होइ जेहि बाल।

    सो सँजोग गर्वित तिया जानत सुकवि रसाल।।460।।

    ।। उदाहरण ।।

    कहाँ गये है जलद ये नित उठि जारत आइ।

    गाइ मलार बुलाइयतु तऊ परत लखाइ।।461।।

    ।। नायिका-भेद ।।

    ।। गुण क्रम से कथनम ।।

    होइ नहीं ह्वै कै मिटै नाहक हूँ जिहि मान।

    कहै उत्तमा मध्यमा अधमायुक्त प्रमान।।462।।

    ।। उत्तमा उदाहरण ।।

    कहूँन औगुन कंत को लखौ हित के जोर।

    पिय मयंक मुख के भये रमनी नैन चकोर।।463।।

    जदपि मधुर रस लेत है सब फूलन मैं जाइ।

    तदपि मालती के हिये औगुन नहिं ठहराइ।।464।।

    ।। मध्या-उदाहरण ।।

    पिय सनमुख सनमुख रहति विमुख विमुख ह्वै जाति।

    धन दरपन प्रतिबिंब लौं तेरी गति दरसाति।।465।।

    बिनु सनेह रुखी परति लहि सनेह चिकनाइ।

    पिय सुभाइ कुच कवन के तिन मैं होति लखाइ।।466।।

    ।। अधमा-उदाहरण ।।

    ज्यौं ज्यौं आदर सों ललन पानिय देत बनाइ।

    त्यौं त्यौं भामिनि मैन लौं खिन खिन ऐंठति जाइ।।467।।

    बिन ही औगुन पगन परि जदपि मनावहि लाल।

    तद्पि मान हूँ पै सदा रहै अनमनी बाल।।468।।

    ।। नायिका-भेद ।।

    ।। जाति-कथन ।।

    ।। पद्मिनी-लक्षण ।।

    तन अमोल कुंदन बरन सुभ सुगंध सुकुमारि।

    सूछम भजोन रोस रति सो पदमिनी निहारि।।469।।

    ।। उदाहरण ।।

    तन सुवास दृग सलज सुभ मन सुचि करम सुनीति।

    इनि सुबरन बरुनी लई जगत निकाई जीति।।470।।

    सोनों और सुगंध है बाल सलोनो गात।

    जापै तिय चख भौंर लौ सदा रहत मँडरात।।471।।

    जेहि मृगनैनी को रहै नृत्त मैं ध्यान।

    चोंप सदा पिय चित्र सों वह चित्रिनी सुजान।।472।।

    ।। चित्रणी-उदाहरण ।।

    तिय निजु पिय को चित्र मैं सौतुष दरसन पाइ।

    गाइ गाइ नृत्तति रहति भाँति भाँति के भाइ।।473।।

    मित्रन चितवत है कहा चित्र रही चितु लाइ।

    पत्री हेरति है कोऊ पतरो सनमुख पाइ।।474।।

    ।। सखिनी-लक्षण ।।

    देह छीन मोटी नसैं कुच लघु निलज निसंक।

    कोपवती नख देइ रति संखिनि पीकौ अंक।।475।।

    ।। उदाहरण ।।

    सनक हियो लखि लाल कों यह मन होति संदेहष

    नखन खोदि चाहत जियो लालन को मन गेह।।476।।

    ।। हस्तिनी-लक्षण ।।

    थूल अंग लोभन छयो गोरी भूरे केस।

    गजगौनी उरगंधिनी यहे हस्तिनी भेस।।470।।

    ।। उदाहरण ।।

    ठेगनी मोटी गोरटी जोबन मद ऐडाति।

    सखिन संग गजगाभिनी चली ठान सों जाति।।471।।

    जेहि मृगनैनी को रहै नृत्त गीत मैं ध्यान।

    चोंप सदा पिय चित्र सों वह चित्रिनि सुजान।।472।।

    ।। चित्रणी-उदाहरण ।।

    तिय निजु पिय को चित्र मैं सौतुष दरसन पाइ।

    गाइ गाइ नृत्तति रहति भाँति भाँति के भाइ।।473।।

    मित्रन चितवत है कहा चित्र रही चितु लाइ।

    पत्री हेरति है कोऊ पतरी सनमुख पाइ।।474।।

    ।। सखिनी-लक्षण ।।

    देह छीन मोटी नसैं कुच लघु निलज निसंक।

    कोपवती नख देइ रति संखिनि पीकौ अंक।।475।।

    ।। उदाहरण ।।

    सनक हियो लखि लाल को यह मन होति संदेह।

    नखन खोदि चाहत जियो लालन को मन गेह।।476।।

    ।। हस्तिनी-लक्षण ।।

    थूल अंग लोभन छयो गोरी भूरे केस।

    गजगौनी उरगंधिनी यहे हस्तिनी भेस।।477।।

    ।। उदाहरण ।।

    ठेगनी मोटी गोरटी जोबन मद ऐडाति।

    सखिन संग गजगाभिनी चली ठान सों जाति।।478।।

    ।। नायिका भेद ।।

    ।। लोक-भेद के अनुसार ।।

    इंद्रानी दिव्या कहै नर तिय कहै अदिव्य।

    सिय लौ जो तिय औतरे सो कहि दिव्यादिव्य।।479।।

    ।। नेम-वर्णन ।।

    कामवती अनुरागिनी प्रौढ़ा भेद प्रमानि।

    ज्येष्ठ कनिष्ठा हूँ बिषे मानवती जिय जानि।।480।।

    तिय अभिलाष दसा भई लालस मती कहाइ।

    ताहि वृत्तके मति कहैं चुंबन आदि घिनाइ।।481।।

    सुकियन मौ धीरादि को बरनि गये प्राचीन।

    मान हेत सब तियन मैं ठहरावत परबीन।।482।।

    कुलटा छुटि जो भेद सो परतिय कौ सब आइ।

    सुकिया हू ये ह्वै सकत त्रिया हास कों पाइ।।483।।

    त्यौही परिकीयान मैं है मुग्धादिक कर्म।

    ज्यौं विद्या वाँचत सबै है ब्राह्मन को धर्म।।484।।

    लोक भेद दिव्यादि है यह जिय मैं अचिरेषु।

    इतनी बिधि सब नायिका बरनत बुद्धि विशेषु।।485।।

    ।। नायिका भेद-मध्या ।।

    ।। पिवेक कथन ।।

    सुकियादिकहूँ भेद को कर्म भेद जिय जानु।

    मुग्धादिक को चित विषे भेद वहिक्रम मानु।।486।।

    अन्य सुरत दुखदादि को अष्ट नायिका संग।

    गनत अवस्था भेद मैं जिनकी बुद्धि उतंग।।487।।

    उत्तिमादि को बूझिये प्रकृत भेद हिय माँहि।

    पदुमिनि आदिक कबित मैं जाति भेद ठहराँहि।।488।।

    ।। नायिका का गणना ।।

    इक सुकिया द्वौ पर परकिया सामान्या मिलि चारि।

    अष्ट नायिका मिलि सोई बत्तिस होत विचारि।।489।।

    उत्तमादि सो मिलि वहै पुनि छियानबे होत।

    पुन चौरासी तीन सैं पदुमिनि आदि उदोत।।490।।

    तेरह सै बावन बहुरि दिव्यादिक के संग।

    यौ गनना में नायिका बरनी बुद्धि उतंग।।491।।

    ।। नायिका की गणना ।।

    ।। भरत के मत से ।।

    सुकिया तेरह भाँति पुनि परकीया द्वै नारि।

    सामान्या मिलि ये सकल सोरह भेद विचारि।।492।।

    अष्ट नायिका मैं गुने सत अट्ठाइस जानि।

    पुनि चौरासी तीनि सै उत्तमादि मिलि मानि।।493।।

    तेरह सै बावन बहुरि दिव्यादिक के संग।

    यौ गनना मैं नायिका बरनी बुद्धि उतंग।।494।।

    ।। सुकीया-तेरह विधि ।।

    ।। भरत के मत से ।।

    सात बरस लौं जानिये देवी सुद्ध प्रमान।

    बहुरि देवि गंधर्व ह्वै चौदह लौ यह जान।।495।।

    तेहि पीछे इक्कीस लौ सुच्छ गंध्रवी होइ।

    पुनि गंध्रवी मिलि मानुषी अष्ठाइस लौ जोइ।।496।।

    सुच्च मानुषि को बरनि पैंतिस लौं उरधारि।

    सात बरस प्रति लहति है पांच नाम ये नारि।।497।।

    पुनि इन पाँचो भेद मैं तीनि भेद यौं जानि।

    साढ़े दस लौं रहति है गौरी बैस प्रमानि।।498।।

    पुनि पौने दस लौं रहे ओही गौरी लेस।

    सवा बारही बरस लौं पुनि लच्छिमी सुदेस।।499।।

    साढ़े चौबीस लौं रहे बैस लच्छिमी आनि।

    तेहि ऊपर पैंतीस लौं बैस सरस्वति जानि।।500।।

    पैंतिस ऊपर नारि के और बैस को लाइ।

    नहिं बरनत रस ग्रंथ में यह कवि कहत बनाइ।।501।।

    गौरी पूजन जोग है लक्ष्मी योग समर्थ।

    बहुरि सरस्वति जानिय मतो पूछिए अर्थ।।502।।

    ताहि लच्छिमी बैस मैं सुकिया तेरह जानि।

    तामें मुग्धा पाँच...विधि...भरत मते पहिचानि।।503।।

    पुनि मध्या है चारि बिधि प्रौढ़ा हूँ है चारि।

    सो इनि तेरह भेद मैं मुग्धा ये उर धारि।।504।।

    प्रथम अंकुरित यौबना तीन मास लौं होइ।

    नवल बधू षटमास लौं यह निश्चै जिय जोइ।।505।।

    बहुरि चौदहे बरस पुनि नव यौबना निवास।

    नवलअनंगा पंद्रहे बरस करत परकास।।506।।

    होय सोरहे बरस मैं पुनि सलज्ज रत नारि।

    अब मध्या को बरन पुनि प्रौढ़ा कहौं विचारि।।507।।

    मध्या नूढ़ा जोबना बरस सत्रहे माह।

    प्रकटै मदन अठारहें बरस कहे कवि नाह।।508।।

    होत बरस उनईस में प्रगलभ बचना आनि।

    बहुरि बीसयें बरस मैं सुरति विचित्रा मानि।।509।।

    प्रौढ़ा लुब्धा इति बहुरि इकईसे में होति।

    बाइसवें रति कोविदा जानत है सब गोति।।510।।

    तेइस में बसि बल्लभा नाम धरत बुधिवंत।

    साढ़े चौबीस लौं बहुरि रहै सुभ रमा अंत।।511।।

    ।। द्वितीय भेद ।।

    ।। वय के क्रम से-कथन ।।

    सात बरस लौं जानिये कन्या को परमान।

    तेरह लौं गौरी बहुरि बाला बैस निदान।।512।।

    तरुनि कहैं तेईस लौं प्रौढ़ा पुनि चालीस।

    यहि बिधि तिय बथ कोक मत बरनि गये कवि ईस।।513।।

    ।। नायक वर्णन ।।

    कही नायिका कहत हौं अब नायक रसलीन।।

    आलंबन मैं दूसरो जेहि कवि कहत प्रबीन।।514।।

    ।। नायक-लक्षण ।।

    उपजै जेहि नर निरखि कै नारिन हिय रति भाय।

    ताही को नायक कहत जो...प्रबीन कवि राय।।515।।

    ।। नायक-गुण कथन ।।

    धरे रूप गुन धन मनी सबल अमल रसखानि।

    दानी धीर गंभीर तें नायक सागर जानि।।516।।

    ।। नायक उदाहरण ।।

    इंद्र रूप गुन ग्यान अरु रवि तप सागर... दान।

    काम कला धरि औतरे सो तुव होइ समान।।517।।

    ।। त्रिविध नायक-कथन ।।

    सुकिया परकीया पितिहि पति उपपति है नाम।

    सामान्या मित्रहि कहैं बैसुक कवि अभिराम।।518।।

    ।। पति का उदाहरण ।।

    जिनि चाही कुल कानि तिनि धरी कानि यह ल्याइ।

    पति नीको नहि पाइये बिनु पति नीके पाइ।।519।।

    जब ते लालन रमनि को गबनु लै आये संग।

    तब ते सिव लौं आपनो करि राखी अरधंग।।520।।

    ।। पति के चार भेद ।।

    इक तिय रति अनुकूल है दच्छिन सील समान।

    सठ कपटी मिठ बोलनो धृष्ट जो ढीठ निदान।।521।।

    ।। अनुकूल-उदाहरण ।।

    नये बसन जब हौं सजौ तब पिय भरम लजाहिं।

    बिनु परुषे धुनि बचन के हेरि सकत है नाहिं।।522।।

    पातन लै पग तल धरत करत सीस पठ छाहिं।

    यहि बिधि पिय प्यारी लिये बिहरत उपबन मांहि।।523।।

    ।। दक्षिण-उदाहरण ।।

    सागर दच्छिन दुहन की सम बरनत हैं प्रीति।

    वह नदियन यह तियन सों मिलत एक ही रीति।।524।।

    सजि सिँगार आई तिया तनु पिय दीप दुराइ।

    बोल्यो हँसि हँसि निज करन ल्यावैं दिया जराइ।।525।।

    यौं बनितन पिय बात सो अति आनंद सरसाँत।

    ज्यो बेलिन सुख होत है सुनि बसंत की बात।।526।।

    चहुँ दिसि फेरत हैं बदन यौं रवि रास अनूप।

    मनहु तियन के हेत पिय धरयौ चतुरमुख रूप।।527।।

    ।। शठ उदाहरण ।।

    हेरि हेरि मुख फेरि कत तानत भौंह निदान।

    बानन बधि कोऊ नहीं राखी चढ़ी कमान।।528।।

    रहत टूटि कै बाल सों दृग दुख देत बनाइ।

    ढूढ़ि रहेहूँ बाल कँह नैनन अधिक सोहाइ।।529।।

    ।। धृष्ठ उदाहरण ।।

    क्वाहि गयो ही आपु ही मोरि रिसौहैं खाइ।

    आज सीस जावक लिये फिर लोटत है पाइ।।530।।

    पिय सौतिन के नेह मैं घने सने हैं नैन।

    याते पानिप लाज को केहू बिधि ठहरै न।।531।।

    ।। अनुकूलादि भेद मे ।।

    ।। वैसिका से भी उपपति हो सकने का कथन ।।

    अनुकुलादिक ये चतुर भेद जो पति के आहिं।

    उपपति बैसक बीच हूँ बुधि बल सो ठहराहि।।532।।

    ।। उपपति का उदाहरण ।।

    सुख बाधन के मिलन की केहि बिधि बरनै कोइ।

    चोरी को गुरु विदित यह निपट स्वाद कौ होइ।।533।।

    बंसी टेरी आइ हरि तिय देखन के चाइ।

    खिरकी खोलतही गिरी कछु फिरकी सी खाइ।।534।।

    यह विचित्र तिय की कथा कहिये काहि सुनाइ।

    मो घट आगि लगाय कै घट लै जल को जाइ।।535।।

    आयी वह पानिप भरी रमनी आजु अन्हान।

    जिहि बूड़नि निकसनि लखै निकसत बूड़त प्रान।।536।।

    ।। उपपति ।।

    ।। त्रिबिध भेद ।।

    उपपति तीनि प्रकार पुनि गूढ़ मूढ़ आरूढ़।

    तिनको यहि बिधि आनि कै बरनत है मति गूढ़।।537।।

    ।। गूढ़-लक्षण ।।

    परतिय सो मिलि नेह जो दुरये रहे बनाइ।

    दिन दिन करहि विनोद अति सोइ गूढ़ कहि जाइ।।538।।

    ।। उदाहरण ।।

    पिय निज तिय हिय बसत यौं दुरये परतिय नेह।

    मधुप मालती छकति ज्यौं करति कमल मैं गेह।।539।।

    ।। मूढ़ लक्षण ।।

    पर नारी के नेह को कहि निज धन के पास।

    फिरि धन से रूसे भरै हिय मौं मूढ़ उसाँस।।540।।

    ।। उदाहरण ।।

    पर तिय हित निज नारि सों यौं कहि पिय पछिताइ।

    कुमति चोर ज्यौं आपुनी चोरी देत बताइ।।541।।

    ।। आरूढ़-लक्षण ।।

    सदा पराये गेह जो पर नारी हित जाइ।

    बंधनता उनकौ सहै यह आरूढ़ सुभाइ।।542।।

    ।। उदाहरण ।।

    कुलटनि के सँग पकरि कै मारी बाँधि अभीति।

    तउ छूटै पर कहत हैं भई हमारी जीति।।543।।

    ।। बैसिक का उदाहरण ।।

    सुबरनबरनी द्वार पै बैठी पान चबाइ।

    ऐंठी सी अखियनि चितै जिय मैं पैठत जाइ।।544।।

    लाल अधर हीरा रदन जेहि सुबरन तन साथ।

    दीजै केहि धन लाइये कीजे जेहि धन हात।।545।।

    कौन जतन करि राखिये ताको नित हिय लाइ।

    अष्टापद सो लेत कर जाकै विय पद जाइ।।546।।

    ।। बैसिक दो भेद ।।

    बैसिक है पुनि उभै बिधि प्रथम जानि अनुरत्त।

    ताही को पुनि जानिये भेद दूसरो मत्त।।547।।

    ।। अनुरक्त-लक्षण ।।

    होइ जो मन बच कर्म सो गनिका ही सो लीन।

    ताही सो अनुरक्त कहि भाषत है परबीन।।548।।

    ।। उदाहरण ।।

    था मन मैं अब कौन बिधि दूजी आनि समाइ।

    बार बिलासनि के रह्यौ सदा बिलासिनि छाइ।।549।।

    ।। मत्त-वर्णन ।।

    दूजौ बैसिक मत्त है यह बरनत बुधिधंत।

    सोइ तीनि बिधि काम मत सुरा मत्त धन मत्त।।550।।

    ।। काममत्त-लक्षण ।।

    फिरत रहत नित काम बस कहूँ नैकु अघात।

    दिन निज घर निसि पर घरहिं बारि नारि घरि प्रात।।551।।

    ।। सुरामत-लक्षण ।।

    चंपक बरनि सुबास तनि निज धन कौ सुहाइ।

    बारबधुन के नित फिरे मदै पियन की चाइ।।552।।

    ।। धन मत्त-उदाहरण ।।

    रूप गुनन मैं आगरी नगर नागरी ल्याइ।

    बस के बल इन छुद्र यह बस कर लाइ बनाइ।।553।।

    ।। नायक-त्रिबिध भेद ।।

    ।। प्रकृत गुण के अनुसार ।।

    पति उपति बैसिक तिहूँ उत्तमादि जिय जानि।

    अंथन को मतु देखि कै बरनत हैं कवि आनि।।554।।

    ।। उत्तमादि-लक्षण ।।

    उत्तिम मनुहारिन करै मान मानै आनि।

    मध्यम सम अधम मिलि अरथी निलज निदान।।555।।

    ।। उत्तम नायक-उदाहरण ।।

    काजर दीने अरुनता भई बाल दृग मांहि।

    समुझि ललाई मान की बिनै करत है नांहि।।556।।

    तिय सखियन सौं रिस किए बैठी मौहनि तानि।

    पिय संकति कहि सकत है बात मुँख ते आनि।।557।।

    ।। मध्यम नायक उदाहरण ।।

    आवतहीं तिय मान तकि कछू बोले लाल।

    जब सिंगार साजन लगी तब मे लाल निहाल।।558।।

    बिनु पानिप आदर नहीं रहे राख मन माहिं।

    सुमुखि रूप पानिप लिये मिलति नारि सों नाहि।।559।।

    ।। अधम नायक-उदाहरण ।।

    दई लाज बिसराइ जिन लई कुटिलता साथ।

    दई दयौ है बाँधि कै ताहि निरदयी हाथ।।560।।

    निलज निठुर निज आरथी जेहि हिताहित चेत।

    ऐसे लंगर सों सखी बनै कौन बिधि हेत।।561।।

    ।। मानी नायक ।।

    ।। चतुर नायक-वर्णन ।।

    मानी नायक चतुरको सठ मैं अंतर भाव।

    तिन दोऊ के सकल कवि द्वै बिधि कहत सुभाव।।562।।

    ।। मानी उदाहरण ।।

    जेहि हित बिनै अँकोर दै करत हुते कर जोरि।

    तासों लाल कठोर ह्वै कहा रह्यौ मुख मोरि।।563।।

    ।। मानी नायक-भेद ।।

    मानी के द्वै भेद ये मन मैं लीजै जानि।

    प्रथम रूपमानी बरन गुनमानी पुनि आनि।।564।।

    ।। रूपमानी-उदाहरण ।।

    खरी अगोर रहीं सबै लखी तुम इक बारि।

    यहि कारी अन्हबारि मै यतौ मान बिस्तारि।।565।।

    बार बार हेरत कहा दरपन मैं चित लाइ।

    नैकु लखो निज बदन मैं राधे बदन मिलाइ।।566।।

    ।। गुनमानी-उदाहरण ।।

    अहो निठुर निसि कित बसै इती बात सुनि कान।

    कछु मिसि करि आपू हरी करयौ बाम सौ मान।।567।।

    ।। चतुर नायक-लक्षण ।।

    निपुन होइ जो सकल बिधि सोई चतुर बखान।

    बचन चतुर है एक पुनि किया चतुर पहचान।।568।।

    ।। बचनचतुर-उदाहरण ।।

    मिसि करि सब सो यौं कह्यौ हरि राधिकहि सुनाइ।

    लैहौं पाहन संग ही तौ सुव गाइ मिलाइ।।569।।

    कैसी बिधि चमकत हुती अंबर मैं अभिराम।

    लखी स्याम कोउ कामिनि नहीं दामिनी बाम।।570।।

    ।। नायक स्वयदूत ।।

    चली कहाँ कीजै कृपा सघन कुंज की छांह।

    भुव अकास दोऊ जरत जेठ दुपहरी माँह।।571।।

    यह अँधियारी मैं पिया मिलि चलिये किनि आइ।

    हम सहाइ तुम होइ तुम मुख दुति हमहि सहाइ।।572।।

    ।। क्रियाचतुर-उदाहरण ।।

    बिप्र रूप धरि सौ जलै जमुना के तट जाइ।

    हरि टीको राधे बदन दयो सबन बहिकाइ।।573।।

    आजु लेरुवा देन मिसि मो उर ढिग करि ल्याइ।

    उन चंचल यह अनछुई छतियाँ छुई बनाइ।।574।।

    ।। प्रोषित नायक-लक्षण ।।

    जो तिय नर निजु देस तजि आन देस को जाइ।

    तासों प्रोषित कहत हैं यह बरनत कबिराइ।।575।।

    ।। उदाहरण ।।

    कनक छरी सोभाभरी दामिनि दीपति जाल।

    अँमृत बेलि जिवावनी मो ती बिछुरी हाल।।576।।

    जब तें तिय तजि हौं परो यह बिदेस मैं आइ।

    तब तें इन बतियान सों जीजे हिय दृग लाइ।।577।।

    अगिन रूप बनि रे बिरह कत जारत है मोहि।

    तिय तन पानिप पाइकै बोरि मारिहौं तोहि।।578।।

    ।। अनभिज्ञ नायक-लक्षण ।।

    जो संज्ञा संकेत कौ नैकु राखै ग्यान।

    सो नायक अनभिज्ञ है यह बरनत कवि जान।।579।।

    ।। उदाहरण ।।

    हँसि हँसाइ अठिलाइ पुनि दृगन चाइ करि ठैन।

    ऐठि कामिनि सैन पै लखी मुरु अहुँ सैन...।।580।।

    ।। रस प्रधानता से चतुर्विध ।।

    ।। नायक कथन ।।

    रस प्रधान ते नाम यै नायक पावै चारि।

    जो रस जामैं अधिक है ताको कहौं विचारि।।581।।

    होत सिँगार प्रधान ते धीर ललित जग आइ।

    भई रुधिर की अधिकई धीर उदित कहि जाइ।।582।।

    ।। धीर उदात ।।

    धीर प्रधान लहै कहौ नायक धीर उदात।

    धीर प्रसांत सो जानु जेहि सार सांति की बात।।583।।

    ।। धीरललित ।।

    भूषन बसन बनायबो उज्जलता प्रिय मित्त।

    विशै लालसा जानिये धीर ललित कौ चित्त।।584।।

    ।। धीरोधिता ।।

    रोज घने लघु दोष तें गहिरो गर्व अमर्ष।

    निज मुख जस अस्तुति किये धीर उधित को हर्ष।।585।।

    ।। धीरोदात ।।

    दान दया सत मान सुभ काजन मैं उतसाह।

    प्रिया प्रेम जस धर्म मैं धीरउदातहि चाह।।586।।

    ।। धीर प्रधान ।।

    तत्व ज्ञान रुचि सत्य गुन धर्माधर्म विवेक।

    सोई धीर प्रधान है सज्या की जँह टेक।।587।।

    ।। दिव्यादिव्य नायक ।।

    ।। लोक भेद से कथन ।।

    इन्द्रादिक ये दिव्य हैं मानुस जानि अदिव्य।

    अरजुनादि या जगत मैं जानहुँ दिव्यादिव्य।।588।।

    ।। नायक की गणना ।।

    चारि भाँति पति हैं बहुरि उपपति तीनि प्रमान।

    द्वै बैसक मिलि ये सकल नौ बिधि होत निदान।।586।।

    उतमादिक मैं गुनत सो सत्ताइस पुनि होत।

    गुने धीर ललितादि मैं है सत आठ उदोत।।590।।

    गने सकल ये भेद जब दिव्यादिय मैं जात।

    तब चौबिस अरु तीनि सै सब नायक ठहरात।।591।।

    जैसी बरनी नायका तैसै नायक नाहिं।

    जे बरनन में उचित हैं तेई बरने जाहिँ।।592।।

    ।। दर्शन-चतुर्विध ।।

    रति आलम्बन होत है दम्पति दरसन पाइ।

    याते दरसन को धरौं आलंबन मैं लाइ।।593।।

    सो दरसन ग्रंथन मते बरनत हैं कबि चारि।

    श्रवन सपन अरु चित्र पुनि सौतुष होत बिचारि।।594।।

    श्रवनन हीं दरसन बनै पै दंपति जुत आइ।

    यह रति आलम्बन करत यातें बरनो जाइ।।595।।

    ।। श्रवन दर्शन-उदाहरण ।।

    जब तें मोहि सुनाइ तूँ कही कान्ह की बात।

    तब तें दृग मृग लौं चले कानन ही को जात।।596।।

    तू तिय छबि मद जो दई श्रवन चषक को प्याइ।

    सो मो हिय अति छकित वै नैनन झलकी आइ।।597।।

    ।। स्वप्न दर्शन-उदाहरण ।।

    जागत जोरु जो पाइए दौरि लागिए साथ।

    सपने को चितचोरु क्यौं आवै अपने हाथ।।598।।

    बाम चोरुटी की कथा कहिये काहि सुनाइ।

    जागेहू नहि मिलत है सपनेहु गई चुराइ।।599।।

    ।। चित्र दर्शन-उदाहरण ।।

    चित्रहि चितवत चित्र लौं रही एकटक जोइ।

    मित्र बिलोकति रावरी कहौ कौन गति होइ।।600।।

    निरखि निरखि जिहि चित्र हरि राखत हौं हिय लाइ।

    तेहि देखाइ कै निज गरे डारे पाय बनाइ।।601।।

    ।। सौतुष दर्शन-उदाहरण ।।

    खिनि पिय मन खिनि पिया मन निरख जात यौं भोइ।

    ज्यौ खिनि नदि जल समुद जल नही समुद जल होइ।।602।।

    ज्यौं पिय दृग अलि भँवति तिय बदन कमल की ओर।

    त्यौं पिय मुख ससि लखि भये तिय के नैन चकोर।।603।।

    ।। श्रृंगार रस ।।

    ।। स्थायी उद्दीपन-वर्णन ।।

    आलंबन मैं नायिका नायक प्रथम बखानि।

    सखि दूती रितु आदि दै उद्दीपन मैं आनि।।604।।

    ।। सखी लक्षण ।।

    रहै सदा जो संग अरु करै काज सब आनि।

    हित अनहित कहुँना कहै सोइ सखी पहिचानि।।605।।

    ।। सखी के चार विधि-कथन ।।

    सखी चारि हितकारिनी विग्य बिदग्धा ल्याइ।

    अंतरंगिनी और पुनि बहिरंगिनि कहि जाइ।।606।।

    सखि लच्छन मैं कैस हूँ बहिरगिनि समाइ।

    अंतरंगिनी जोर तें ग्रंथन बरनी जाइ।।607।।

    ।। हितकारिनी सखी-उदाहरण ।।

    छिन बनाइ भषन बसन लखति दिठौना लाइ।

    छिन बारति धन सीस पै राई नोन बनाइ।।608।।

    चित चाहत अलि अंग तुव लहि दीपक परमान।

    लै लै जनम पतंग कों सदा बारिये प्रान।।609।।

    ।। विज्ञ बिदग्धा उदाहरण ।।

    गुंज लैन तू आपु कत कुंज गई यहि काल।

    कटक छत नख चाहि कै चख नचाइ कै बाल।।610।।

    लाल रंग फीको परयौ लीन्हौ मनो निचोइ।

    मिलै जु बारी सुमन यह तौ बर नीको होइ।।611।।

    ।। अतरगनी-उदाहरण ।।

    मन मोहन ल्यावति नहीं मोहन ल्यावति धाइ।

    कारे याहि डस्यौ नहीं फारे डरयौ बनाइ।।612।।

    सबै आपने अर्थ को बिधा जानत कोर।

    प्यारी उर मैं पीर है जवन कछू नहिं होइ।।613।।

    ।। बहिरंगिनी-उदाहरण ।।

    पिय देखत ही काम तें गह्यौ कंप तिय आइ।

    सीत जानि अलि अगिन को ल्याई बेगि जराइ।।614।।

    ।। सखी का काम कथन ।।

    मडग सिच्छा दैन अरु उपालंभ परिहास।

    सखी काज ये चारि विधि बरनत बुद्धि निवास।।615।।

    ।। मडन उदाहरण ।।

    सखिन सँवारी भावती निज निज कारज जानि।

    मालिनि लै पुहुपाभरन भई सामुहे आनि।।616।।

    सखिन परी है कठिन तब भूषन कनक बनाइ।

    बार हार हेरत तऊ दृगन लख्यौ नहिं जाइ।।617।।

    ।। सिच्छा-उदाहरण ।।

    अपने घर बैठी रहौ बाहिर देहू पाइ।

    डरियत है चितवनि हरी हरी तुव मति जाइ।।618।।

    जेहि दृग सों दृग लगि झरी अगिनि हिये मैं आइ।

    तेहि तनु पानिप माँह अब लीजै बेगि बुझाइ।।619।।

    ।। उणलम उदाहरण ।।

    मोहि नहीं यह रावरी नोखा रीति सुहाइ।

    बाँधि रहा रिस मीच कौ सील कपूर उड़ाइ।।620।।

    ।। परिहास ।।

    ।। सखी का नायिका से ।।

    नेवर पिय श्रुति लगन को सुख लीजै भरि पूरि।

    अबहीं दिन छुद्रावली बोलन के अति दूरि।।622।।

    लगे नखन लखि सखि कह्यौ कर चलाइ कुच हाल।

    नख के सिर लागत दई चष के सिर यह बाल।।623।।

    ।। परिहास ।।

    ।। सखी का नायक के प्रति ।।

    एक सखी इक छोहरै राधे रूप बनाइ।

    रीती मटुकी सीस दै हँसी स्याम बहकाइ।।624।।

    तियन मुकुट पट छीनि कै होरी औसर जानि।

    सब सिंगार ललीन के करे स्याम तन आनि।।625।।

    ।। नायिका का परिहास ।।

    ।। नायक के प्रति ।।

    चित्र चित्रिनी चित्र तिलु दीन्हौं अधिक सुजान।

    चित्र और को मानि तिय कियौ मित्र सो मान।।626।।

    सोधा लावत कंचुकी निज पिय चितयो बाल।

    निरखत भाजे सकुच तें डारि कंचुकी हाल।।627।।

    ।। नायक का परिहास ।।

    ।। नायक से ।।

    मुरली आपु लुकाइ कै पूछति है वृजनाथ।

    कहति हमारो हारहू धरयो हुतो तिहि साथ।।628।।

    लाइ बिरी मुख लाल तें खैंच लई जब बाल।

    लाल रहे सकुचाइ तब हँसी सबै दै ताल।।629।।

    ।। दूती-वर्णन ।।

    ।। दूती-लक्षण ।।

    मिलि सकत जो तिय पुरुष तिनि मैं हित उपजोइ।

    छल बल आदि मिलावई दूती कहिये सोइ।।630।।

    ।। जान दूती भेद ।।

    पठए आवै और के दूती कहिये सोइ।

    अपनी पठई हार सों जानु दूतिका जोई।।631।।

    ।। त्रिबिध दूती भेद-वर्णन ।।

    अनसिखई सिखई मिलै सिखई कहै बखानि।

    उत्तिम मध्यम अधम यह तीन भाँति की जानि।।632।।

    ।। उत्तम दूती-उदाहरण ।।

    जिहि मानिक सो मन दया आइ तिहारे हाथ।

    तिहिं यहि अपनो रूपहू चलि दरसैये नाथ।।633।।

    सिर कलंक कत लेति मुख सखि निकलंकी पाइ।

    वह चकोर लो दिन भरति बिरह अँगारन खाइ।।634।।

    ।। मध्यम दूती-उदाहरण ।।

    बेगि आइ सुधि लेहु यह अली कह्यौ घनस्याम।

    हौ देख्यौ वह चातिकी रटति तिहारो नाम।।635।।

    ।। अधमा दूरी-उदाहरण ।।

    मोह कह्यौ कहि यौ उतै बन माली को पाइ।

    नवल बेलि सीचें बिना दिन प्रति सूखत जाइ।।636।।

    ।। नायक बचन-जान दूती के प्रति ।।

    जमुना तट ठाढो हुती पहिरि नील पट आइ।

    वह घूंघुटवारी मिलौ तब जिय की रट जाइ।।637।।

    मोहि कहत घनस्याम तौ सुनि लीजै यह बैन।

    बिन उर लाये दामिनी केहि बिधि राखौं चैन।।638।।

    ।। जान दूती का उत्तर ।।

    कौन मानुषी जेहि लिये एतो करत उपाइ।

    तिल मैं जाइ तिलोत्तमै नम ते मिलऊ ल्याइ।।639।।

    ।। जान दूती-त्रिबिध भेद ।।

    हित की अरु हित अहित की अरु अहितों की बात।

    कहै सोहिता हिताहित अरु अहिता बिख्यात।।640।।

    ।। हितावान दूती-उदाहरण ।।

    कीजै सुख घन स्याम हौं आजु पवन के रंग।

    वहि चपला चमकायहौं ल्याह निहारे अंग।।641।।

    ।। हिता अहितायान दूती-उदाहरण ।।

    समय पाइ हौं दहुँगी प्यारी तुम्हहि मिलाइ।

    विनु घन कैसै बीजुरी कहौ दिखाइ जाइ।।642।।

    आतुर होहुँ लाल अब जतन कीजियत औरि।

    बिन फांदे मृग मिलत नहि जौ उठि कीजै दौरि।।643।।

    ।। अहिताबान-दूती ।।

    लगत बात ताकी कहा जाको सुच्छम गात।

    नैकु सांस के लगत हीं पास नहीं ठहरात।।644।।

    स्याम मधुप लौं जिनि फिरौ वह चंपक सी नारि।

    रस नहि दैहै कैसहूँ मुख की प्रीति निहारि।।645।।

    ।। दूती के काज-कथन ।।

    अस्तुति अरु निंदा बिनै बिरह निवेदनु जाइ।

    अरु परबोध मिलाइबो दूती जान सुभाइ।।646।।

    ।। नायिका की अस्तुति ।।

    निज तन जलसाई रहत करि समुद्र आगार।

    तिन को मन पावत नही तुव तन पानिप पार।।647।।

    दिपति देह छबि गेहकी केहि बिधि बरनी जाइ।

    जिहि लखि चपला गगन ते छित पर फरकत आइ।।648।।

    कसकि कसकि पूछति कहा चसकि मसकि अनुमान।

    खसकि जायगी ठसकि यह नैकु ससकि सुनि कान।।649।।

    ।। नायक की अस्तुति ।।

    तिनके रूप अनूप की केहि बिधि कहिये बात।

    जिन मोहन छबि मनधरै मन मोह्यो सो जात।।650।।

    ।। नायिका की निंदा ।।

    कहा आपने रूप पर फूलि रही है हाल।

    तोहू ते अति आगरी केति नागरी बाल।।651।।

    ।। नायक की निंदा ।।

    सीस मुकुट कटि काछिनी फाटी साटी हाथ।

    मिलन चहत यहि रूप पर राधाजू के साथ।।652।।

    ।। नायिका से विनय ।।

    कामिनि जेहि चितवत हनै ये दृग बान चलाइ।

    तेहि ज्यावन की जतन अब कीजै मुरि मुसुकाइ।।653।।

    ।। नायक से विनय ।।

    जाहि बचायो मेघ तें करि गिरिवर की छांहि।

    ताहि स्याम जिनि जारियो बिरहअनल झरि माँहि।।654।।

    ।। नायिका का विरह-निवेदन ।।

    बाके नननि रावरी बसी लोनाई जाइ।

    लोनखार असुँवान तें पायो भेद बनाइ।।655।।

    कहा कहौं बाकी दसा जब खग बोलत राति।

    पीय सुनति हीं जियति है कहा सुनति मरि जाति।।656।।

    ।। नायक का विरह-निवेदन ।।

    जब तें आई तड़ित लौं नीलाम्बर मैं कौंधि।

    तब तें हरि चकृत भये चखन लागि चकचौंधि।।657।।

    परे सूम अरु सरप की एकै गति दरसाइ।

    धनि मनि बिछुरे दुहुन की सीस धुनत निज जाइ।।658।।

    ।। नायिका के लिए प्रबोध ।।

    अब कीजै आनंद यह बनो ब्यौंत अनयास।

    तेरे मित अरु कंत की दोउ अटारी पास।।659।।

    ।। नायक को प्रबोध ।।

    हरि चिंता नहिं कीजिए अपने मनमें ल्याइ।

    या होरी के खेल में गोरी मिलिहै आइ।।660।।

    ।। दंपति को मिलाना ।।

    रमनी रमनि मिलाइ यों दूती रहत बराइ।

    घन दामिनि को जोरि कै ज्यौं समीर रहि जाइ।।661।।

    ।। नायक-वर्णन ।।

    ।। सखा-कथन ।।

    जो नायक सो नायिका नीके मिलवै आनि।

    नरम सचिव तेहि नर कहै सोइ चारि बिधि जानि।।662।।

    ।। नाम-भेद ।।

    पीठिमर्द बुधि बचन सों मानहि देइ मिटाइ।

    विट जो जानत दूतपन कै सब कला बनाइ।।663।।

    चेटक है वह जो करै औसर देखि सुपास।

    तौन विदूषक जो करै दंपति सो परिहास।।664।।

    ।। पीठिमर्द-उदाहरण ।।

    है कोई देखत नहीं सकै जो तुव तन आहि।

    पिय प्यारी तू कौन की राखति है परदाहि।।665।।

    काह भयौ है कहत हौं कत तू रही रिसाइ।

    तेरे कोप करै कहौ कोप करै नहिं पाइ।।666।।

    ।। विट-उदाहरण ।।

    सेत बसन तैं जोन्हि मैं लखि परत तव गात।

    यौं कहि बोलेउ कामिनि आजु मिलन की घात।।667।।

    सखी बीच नहिं दीजिये मिलिये पिय सँग धाइ।

    बाम बामता नहि तज्यौ अरी परेहूँ पाइ।।668।।

    ।। चेटक-उदाहरण ।।

    पिय तिय सखियन मैं लखी जबै काम की सैन।

    चलौ बोलिहौं जाति हौं देखन अपनी धेन।।669।।

    पिय मधुकर तिय नलिनि को लख्यौ आनि जब दाइ।

    दुहुन मिलाइ सखा चल्यौ साझ समैं लै जाइ।।670।।

    ।। विदूषक-उदाहरण ।।

    रमनी रमन मिलाइ जब भयो कुंज की ओर।

    जाइ आपु की दूर ते बोल्यौ त्यौं तमचोर।।671।।

    जब राधा को ल्याइ कै हरि सो दियो मिलाइ।

    तब धरि जसुमति रूप कौ हेरन लाग्यौ गाइ।।672।।

    ।। उद्दीपन रूप में ।।

    ।। षटऋतु वर्णन ।।

    ।। बसंत-वर्णन ।।

    कहुँ लावति विकसत कुसुम कहूँ डोलावति वाइ।

    कहूँ बिछावति चाँदनी मधुरितु दासी आइ।।673।।

    यह मधुरितु मैं कौन कै बढ़त मोद अनंत।

    कोकिल गावत हैं कुहुकि मधुप गुंजरत तंत।।674।।

    औषधीस सँग पाइ अरु लहि बसंत अभिराम।

    मनो रोग जग हरन को भयो धनंतर काम।।675।।

    फूले कुंजन अलि भँवत सीतल चलत समीर।

    मानि जात काको मनु जात मानुजा तीर।।676।।

    सरबर माहि अन्हाइ अरु बाग बाग भरमाइ।

    मंद मंद आवत पवन राजहंस के भाइ।।677।।

    कल्पवृच्छ तें सरस तुव बाग द्रुमन कौं जानि।

    सागर निकसौ लखन कौ जल जंत्रन मिसि आनि।।678।।

    ।। ग्रीष्म-ऋतु-वर्णन ।।

    धूप चटक करि चेट अरु फाँसी पवन चलाइ।

    भारत दुपहर बीच मैं यह ग्रीषम ठग आइ।।679।।

    छुटत यै नल नीर जल जल सजि छिति तें आइ।

    निरख निदाध अनीति को चल्यौ भानु पै जाइ।।680।।

    कोउ उमकत उछरत कोऊ कोउ जल मारत धाइ।

    लखि नारिन जल केलि छबि पिय छकि रह्यौ लोभाइ।।681।।

    पिय छीटत यौं तियन कर लहि जल केलि अनन्द।

    मनो कमल चहुँओर तें मुकुतन छोरत चंद।।682।।

    ।। पावस ऋतु-वर्णन ।।

    पावस मैं सुरलोक तें जगत अधिक सुख जानि।

    इन्द्रबधू जिहि रितु सदा छिति बिहरति है आनि।।683।।

    सुमन सुगंधन सों सनी मंद मंद चलि आइ।

    प्रौढ़ा लौं मन को हरति हिय लगि बरषा बाइ।।684।।

    अरुन चीर तन मैं सजै यों बिहरति है नारि।

    मानो आई है सुरी बसुधा हरी निहारि।।685।।

    झूलि झूलि तिय सिखति है गगन चढ़न की रीति।

    आजु काल्हि मंह आइहैं सुर नारिन कों जीति।।686।।

    ।। सरद ऋतु-वर्णन ।।

    चन्द्र छत्र धरि सीस पै लहि अनंग उपदेस।

    कमल अस्र गहि जीति जग लीन्हौं सरद नरेस।।687।।

    चन्द्र बदन चमकाइ अरु खंजन नैन चलाइ।

    सकल धरा को छलति यह सरद अपछरा आइ।।688।।

    दिन सोहित जल अमल मैं निरमल कमल अनूप।

    निसि सोहत ही बाद बदि हिय मोहत ससिरूप।।689।।

    ।। हेमत ऋतु-वर्णन ।।

    दिन निसि रबि ससि लहत है हम सीत के जोग।

    भरम चकोरन भोग है, कोकन भरम वियोग।।690।।

    हेम सीत के डरन तें सकति ऊपरि जाइ।

    रह्यौ अगिनि कौ पाइ कै धूम भूमि पै छाइ।।691।।

    ।। सिसिर ऋतु-वर्णन ।।

    प्रगट कहत या सिसिर मैं रूख रूख के पात।

    बिछुरन को सीतहु धरे सूखि जात है गात।।692।।

    मान काहू को रहत ल्याइ दूतिका घात।

    मिलै देति या सिसिर की सीरी सीरी बात।।693।।

    ।। अन्य दूसरे उद्दीपन ।।

    निकसत षटरितु मैं बहुरि उद्दीपन यह पाइ।

    यातें फिरि बरन्यौ नहीं, इन्हे भिन्न करि लाइ।।694।।

    धाम सेज रागादि मिलि यह उद्दीपन जानि।

    इहाँ कछू संछेप ते बरनन कीन्हौं आनि।।695।।

    ।। अगज सभोग-उद्दीपन ।।

    आलंबन चुबन परस मरदन नख रद दान।

    यै अंगज सभोग मैं उद्दीपन परिमान।।696।।

    ।। अनुभाव-कथन ।।

    कहि विभाव को कहत हौं अब अनुभाव प्रकास।

    जो हियते रतिभाव को प्रकट करे अनयास।।697।।

    कटाच्छादि सों चारि बिधि अपने मन पहिचानि।

    तिनिकों कबि यहि भाँति सों बरनत हैं जिय आनि।।698।।

    कायक इक सो जानिये मानसु दूजो होइ।

    आहारिज है तीसरो चौथी सातुकि जोइ।।699।।

    कर की गति आदिक सोई कायक मानु विसेख।

    मन को मोद पराग किय सो मानस अविरेखि।।700।।

    नृत्त समाज बनाव ते कृष्ण गोपिका ग्यान।

    सो आहारिज जानिये बुध जन करत बखान।।701।।

    बहुरो सातुक है सोइ स्वेदादिक ठहिरात।

    इन भावन के भेद ये चारि जानि अविदात।।702।।

    तन बिबिचारिन बिछति है यै सब सातुक भाव।

    थाई परगट करन हित गने जात अनुभाव।।703।।

    नारी नर करत है जो अनुभाव दोत।

    ते वै दुजो और कों नित उद्दीपन होत।।704।।

    ।। अनुभाव-उदाहरण ।।

    स्याम सैन तिय नैन तकि निकरि भीर तें आइ।

    अधर आँगुरी धरि चली चित की चाह चिताइ।।705।।

    मो मन भूल्यौ है कहूँ कोउ देत बताइ।

    मृगनैनी दृग लखि हँसति इनहिन परि ठहिराइ।।706।।

    दृगन जोरि मुसुकाइ अरु भौंहें दुहुन नचाइ।

    औठन आठ बनाइ यह प्रान उमेठति जाइ।।707।।

    चितवत घायल करि हियो हायल कियो बनाइ।

    फिरि हँसि मायल कै लली चली तरायल भाइ।।708।।

    ।। हाव-लक्षण ।।

    तथा

    ।। हाव-अनुभाव-विवेक-वर्णन ।।

    सम संजोग सिंगार की इहाँ कहीयत हाव।

    अनुभव जानि विशेषि अरु यै सामान्य सुभाव।।709।।

    जहाँ बचन क्रम चेष्टा बरनत हैं कवि लोइ।

    सो अनुभावतु हाव है तहाँ भेद ये जोइ।।710।।

    जो रति भाव प्रगट करै सो अनुभाव बखान।

    रति बढ़ि वहै सिंगार पुन हाव होत है आन।।711।।

    बहुत हाव कछु हेत लहि होत रति मैं आइ।

    बरने सहज सुभाव लखि नारिन ही मै ल्याइ।।712।।

    ।। लीलादिक ।।

    ।। हाव दसा-वर्णन ।।

    ।। सुभावक-लक्षण ।।

    सो लीला पिय देखि तिय निज तन राचै ल्याइ।

    वह बिलास पिय लखि करै तिय मन हरन सुभाइ।।713।।

    चितवनादि त्रिय आभरन फवनि ललित है सोइ।

    रिस ते निदरहि भूषननि छबि बिच्छित्ति सम होइ।।714।।

    कपट निरादर गरब तें यह बिब्बोक विचारि।

    पूरन होवै चाह जिहि पिय संग बिहित निहारि।।715।।

    मोटायत प्रगटै जो तिय ऐठिनादि ता पाउ।

    कलह करै जो केलि कै सोई कुट्टुमित हाउ।।716।।

    किलकिंचित रोदन हँसन रिस भय आदि गिनाइ।

    सो बिभ्रम उलटो तिया करै जो काज बनाइ।।717।।

    ।। लीलाहाव-उदाहरण ।।

    आजु राधिका आप कौ हरि के रूप बनाइ।

    बृज बनितनि कौ लै गई बृज बनि तन बहकाइ।।718।।

    स्याम भेस बनि कै गई राधा कुजनि धाम।

    भूल्यौ भेस चकित भई जित देखै तित स्याम।।719।।

    ।। विलासहाव-उदाहरण ।।

    दृगन जोरि अठिलाइ अरु मोंहन को बिलसाइ।

    कामिनि पिय हिय गोद मैं मोद भरत सी जाइ।।720।।

    औंह भ्रमाइ नचाइ दृग अरु अधरन मुसुकाइ।

    पियहि अनन्द बढ़ाइ तिय चली मंद गरुवाइ।।721।।

    ।। ललितहाव-उदाहरण ।।

    रमनी तुव अखियनि चितै अरु अधरन मुसुकाइ।

    मद अनमद दोऊ दये निज प्रीतम को प्याइ।।722।।

    ज्यौं पट भूषन के सजे अंग अंग छबि होति।

    त्यौं भूषन तें ह्वै रही पटभूषन की जोति।।723।।

    ।। विच्छित हाव-उदाहरण ।।

    बिना सजे भूषनन के कहा होत है नारि।

    बिधि के सजे सिंगार सो तूँ नहि सकति उतारि।।724।।

    स्याम लाल इनि तिलक तुव यह रंग कीन्हौं बाल।

    सौतिन को रँग स्याम दै रँग्यौ स्याम को लाल।।725।।

    चाह नही भूषनन को तुव अंगिनि सुकुमार।

    हियौ झुलावनहार है तौ हिय झूलनहार।।726।।

    ।। बिब्बोक हाव-उदाहरण ।।

    बात होइ सो दूरि ते दीजै मोहि सुनाइ।

    कारे हाथनि जनि गहौ लाल चूनरी आइ।।727।।

    ज्यौं ज्यौं छकि छकि नेह तें पगन परत है लाल।

    त्यौं त्यौं रूसी यों परति कौतुक छकी रसाल।।728।।

    ।। विहित हाव-उदाहरण ।।

    लखि सकति तिय नैन भरि धरी सखिन की आनि।

    पीपर भावर तन भरै पी पर भावरि प्रानि।।729।।

    बात कहत हरि सों भई यह तिय की गति आज।

    ज्यौं ज्यौं खोल्यौ मदन मुख त्यौं त्यौं मूँद्यौ लाज।।730।।

    ।। मोटायितहाव-उदाहरण ।।

    स्याम बिलोकत काम तें मो यह बाम सुभाइ।

    करन खुजाइ उठाइ कर अँगरानी जमुहाइ।।731।।

    ।। बिहित-हाव ।।

    तथा

    ।। मोटायित हाव भाव-दूसरे मत से ।।

    प्रगट भए चित चाव तिय पिय सों करै दुराव।

    ताहि बिहित कोऊ कहै कोउ मोट्टायित हाव।।732।।

    ।। उदाहरण ।।

    स्याम बिलोकत कामते भयो कम्प जो बाम।

    सीत नाम लै लाज तें बैठि गई तेंहि ठाम।।733।।

    ।। कुट्टमित हाव-उदाहरण ।।

    खिनि कुच मसकति खिनि लजति खिनि मुख लखति विसेखि।

    छकित भयो पिय पिय हँसति उच्यकति ससकति देखि।।734।।

    केहि बिधि तिहि उर लाइयत जाकी पकरति वाँह।

    एक सी करन मैं छयो अंग सीफरन माँह।।735।।

    ।। किलकिंचित हाव-उदाहरण ।।

    सिव सिर कै ससि लै सिवा तकि निज छाँह भ्रमाइ।ष

    हारि छकी रोई बहुरि हँसी आपुको पाइ।।736।।

    ।। विभ्रम हाव-उदाहरण ।।

    बैठी अरुन कपोल दै लाइ दिठौना भाल।

    इहि बिधि केहि मन हरन यह चली नबेली बाल।।737।।

    ।। बोधकादि दसहाव सुभावक का लक्षण ।।

    सैन बुझावै करि क्रिया बोधक कहिये सोइ।

    सोई मुगुधिता जानिकै तिया अयानो होइ।।738।।

    हसत सरस रस उमँग ते पिय ढिग तिय मुसकानि।

    रूप तरुनता काम ते गरब सोई मद जानि।।739।।

    कौनहु हित संताप तिय होइ तपन है सोइ।

    सो बिछेप मगन भये हानि ग्यान को होइ।।740।।

    चकित सुऔचक चौंकिबो कछु अचिरज को देखि।

    पियहि रिझावै बेष रचि सोइ केलि अविरेखि।।741।।

    कौतुक रचि बन उटि चले कौतुहल सौं गाइ।

    बातन को बिस्तार जहँ उद्दीपन कहि जाइ।।742।।

    ।। बोधक हाव-उदाहरण ।।

    माँग बीच धरि आँगुरी ढापि नील पट भाल।

    अरथ निसा ससि छपति हीं सैन बताई बाल।।743।।

    पिय की चाह सखी कही फूल सुंदरसन लाइ।

    उत्तरु दीन्हौ नागरी जाती फूल दिखाइ।।744।।

    ।। मौगध हाव-उदाहरण ।।

    अधिक अयानी बन चली खेलि खेलि पिय साथ।

    करका बरसत मुकुत रहि धाइ गहत है हाथ।।745।।

    ।। हसित हाव-उदाहरण ।।

    सखिन ओर मुख मोरि कै निज सोहाग सुख पाइ।

    बार-बार अँगराति सो भाग भरी मुसकाइ।।746।।

    ।। मदहाव-उदाहरण ।।

    रूप गरब जोबन नगर मदन गरब के जोर।

    लाल दृगन मैं मदभरी आवत चली हिलोरि।।747।।

    ।। तपनहाव-उदाहरण ।।

    जो सोहाग भूषन सजे तिय पिय सुनत पयान।

    ते जरि कचन ह्वै गिरे उपजत बिरह कृसान।।748।।

    ज्यामु गई जुग जामिनी स्याम आये धाम।

    ठाम ठाम तम बाम ह्वै जारन ल्यागौ काम।।749।।

    ।। बिच्छेप हाव-उदाहरण ।।

    सिगरी चितवत है खरी नगरी तें डराति।

    गगरी भरिबो छाड़ि के तूँ कत डगरी जाति।।750।।

    ।। चकित हाव-उदाहरण ।।

    घन गरजत चकचौंधि यौं डरी नारि गहि नाह।

    ज्यौं दामिनि अति कौंधि कै डरै स्याम घन माँह।।751।।

    ।। केलि हाव-उदाहरण ।।

    फगुवा मिसि तिय छीनि पट अचिरज कियौ बनाइ।

    नटनि दैनि चलि फिरनि मैं दीन्हौं स्याम नचाइ।।752।।

    ।। कौतूहल हाव-उदाहरण ।।

    अंग सिँगारत कान्ह सुनि यहि बिधि दौरी बाल।

    कहुँ बेंदुलि कहुँ उरबसी कहूँ गिरी मनिमाल।।753।।

    ।। उद्दीपन हाव-उदाहरण ।।

    हहा स्याम बेनी तज्यौ बेनी तजियत बाम।

    कौन अकामहि करत हौ प्यारी यह तौ काम।।754।।

    ।। तीन हाव मनोभाव-वर्णन ।।

    भाव हाव हेला तिहूँ मन ते उपजत आनि।

    डरे प्रकट रस अति भरे तीनौं लीजे मानि।।755।।

    ।। भाव-लक्षण ।।

    मन की लगन जो पहिलही सो कहियत है भाव।

    चतुर सहेली जानियति एकै देखि सुभाव।।756।।

    ।। भाव-उदाहरण ।।

    मन औरे सो ह्वै गयो रही तन छाज।

    मोही यो लागत कहूँ मोही है तूँ आज।।757।।

    मोही है अँसुवान तें रही अरुनता छाइ।

    काहू इन तुव दृगनि मैं नेह दयौ है नाइ।।758।।

    ।। हाव-लक्षण ।।

    दृग अंचल हेरै हँसै बोलैं मीठे बैन।

    प्रेम चातुरी बरत जुत हाव कहत तेहि ऐन।।759।।

    ।। हाव-उदाहरण ।।

    चलत साँकरी खोरि मैं हरि तन परसत बाम।

    बदन खोलि कछु मोरि कै हँसि बोलि तकि स्याम।।760।।

    तौ बसन्त कोऊ नहीं आनि खेलि है बाल।

    मुख गुलाब कुच अरगजा जो गहि लावो लाल।।761।।

    ।। हेला-लक्षण ।।

    प्रीत भाव प्रोड़तु मैं छूटै लासु सुभाव।

    ठिठाइक कृत जो कामिनि सोइ हेला हाव।।762।।

    ।। हेला हाव-उदाहरण ।।

    चितवनि बान चलाइ अरु हास क्रिपान लगाइ।

    उरज गुरज पिय हिय हनै भुज फाँसी गर ल्याइ।।763।।

    ।। सात हाव ऐतनुज वर्णन ।।

    स्वाभाविक कहि बीस अरु कहे मनोभव तीन।

    सात ऐतनुज जानि कै अब बरनत रसलीन।।764।।

    ।। रूप प्रकास से--- ।।

    ।। चतुर्विधि स्वाभाविक-लक्षण ।।

    रूप राजि सी फवन को रचभव बरनै जानु।

    अंग झलक अरु विमलता सोइ कांति परमानु।।765।।

    कांतिहि को बिस्तार सों दीपति चित मैं लाउ।

    अतुल रूप की मधुरता सो माधुर जग नाउ।।766।।

    ।। सोभा-उदाहरण ।।

    जित देखत तुव अंग दृग तित सुख लहत अपार।

    मानो लीन्हौ रूप ही नख सिख ते अवतार।।767।।

    एक सखी कर लै छरी हँसत चकोर धाइ।

    एक भौंर की भीर कौं मारत चौंर डुलाइ।।768।।

    ।। काति-उदाहरण ।।

    मुकुर बिमलता लहि गहे कमल मधुरता बास।

    तौ तुव तन के मिलन की तुबरन राखै आस।।769।।

    अमल हिये धन के परी लाल आइ यह छाँह।

    जानि आपनी उर बसी कत भरमत मन मांहि।।770।।

    ।। दीपति-उदाहरण ।।

    चंद छानि बिधि मुख रचे तन चपला सों ठानि।

    तापरि ओप धरै खरी तौ तूँ पूजै आनि।।771।।

    ।। माधुर्य-उदाहरण ।।

    कुमति चंद्र प्रति द्यौस बढ़ि मास मास बढ़ि आइ।

    तुव मुख मधुराई लखै फीको परि घटि जाइ।।772।।

    बिनु सिंगार तुव मधुरई प्रान देत घटि आनि।

    मानो बिधि यह तन रच्यौ सुद्ध सुधा सौ सानि।।773।।

    ।। शोभा काति, दीसि के लक्षण ।।

    ।। दूसरे मत से ।।

    जोबन ते जो उपजई सोभा ताहि विचार।

    जो कछु उपजै मदन तें सोइ कांति निरधार।।774।।

    कांतिहि के बिस्तार कों दीपति जिय मैं जानि।

    तिनहूँ के अब कहत हौं उदाहरन को आनि।।775।।

    ।। शोभा-उदाहरण ।।

    आवत मदन महीप के जोबन आगुहि आइ।

    और और तन नगरियन राखी सरस बनाइ।।776।।

    ।। काति-उदाहरण ।।

    ज्यौं ज्यौं मनमथ आइ उर मनदधि मथत बनाइ।

    त्यौं त्यौं मदघृत बिदित ह्वै ठौरि ठौरि उतराइ।।777।।

    ।। दीप्ति-उदाहरण ।।

    हाव भाव प्रति अगं लखि छबि की झलक निसंक।

    भूलत ग्यान तरंग सब ज्यौं करछाल कुरंग।।778।।

    ।। प्रगल्भता, धीरता, विनय का-उदाहरण ।।

    प्रगलभता जोबन गरब चलै हँसै निरसंक।

    पातिव्रत अरु प्रेम दृढ़ सो धीरत को अंक।।779।।

    विनय नवनि जो सीलजुत रिस मैं रस अधिकाइ।

    अब बरनत हौं तिहुँन के उदाहरन को ल्याइ।।780।।

    ।। प्रगल्भता-उदाहरण ।।

    केसर आड़ लिलार दै बिना आड़ चलि आइ।

    ठाड़ टोन सो मारि यह चाउ भरी मुसुकाइ।।781।।

    निकसि तियनि के जाल सो मुख तें घूँघट टारि।

    अरी हरी मति इनि हरी फूल छरी सों मारि।।782।।

    ।। धीरता-उदाहरण ।।

    किते सप्तरिषि लौं फिरत चहुँदिसि धरि धरि प्रेम।

    तऊ ध्रुव लौं तजति यह थिरताई कौ नेम।।783।।

    हनि हनि मारत मदन सर बैर तियन सों ठानि।

    तऊ सुमट लौ मन डरहिं पकरि खेत कुलकानि।।784।।

    कत मारत मोहि आनि नित रे मनमथ मति हीन।

    मन तो मैं पिय बदन तजि मरयौ ह्वै है लीन।।785।।

    दीप तिहारे नेह को बरत रहत हिय मांहि।

    बात चहूँदिसि की सहै बूझत कैसे हूं नाहिं।।786।।

    ।। विनय-उदाहरण ।।

    बाल यहै जग माहि जिन बालन गहौ सुभाइ।

    सीस चढ़ायै हूँ सदा नैनै परसत पाइ।।787।।

    पिय अपराध जनाइ सखि कितो सिखावत मान।

    सील भरे तिय दृग तऊ तजत अपनी बान।।788।।

    ।। औदार्य-लक्षण ।।

    इक बरनत है बिनय तकि औदारिज को आनि।

    ताहू की लच्छन सुनहुँ अब हौं कहत बखानि।।789।।

    महा प्रेम रस बस परे औदारिज कहि ताहि।

    जीवन तन धन लाज की जहाँ नहीं परवाहि।।790।।

    ।। औदार्य-उदाहरण ।।

    यह मति राधे की भई सुनि मुरली की तान।

    तन कहँ धन कहँ लाज कहँ दैन चहौ तव प्रान।।791।।

    दई जो तुम बनमाल सो हिय लाई वह बाल।

    ह्वै निहाल यहि हाल ही मोहि दई मनि माल।।792।।

    प्राण निछावर करति है छन छन वा पै बाल।

    जो जमुना तट पर दयो निजु बैजंती माल।।793।।

    ।। हाव-गणना ।।

    स्वाभाविक जे बीस अरु मनो भव त्रय अभिराम।

    लहत सात स्वाभाव मिलि अलंकार हूँ नाम।।794।।

    अलंकार नारीन के दीने तीस गनाइ।

    लै बहु ग्रंथन को मतो तेहि राखहु चितलाइ।।795।।

    ।। अनुभाव ।।

    ।। व्यभिचारी-वर्णन ।।

    कहि अनुभावन हाव हूँ बरने तेहि सँग आनि।

    अब बिबिचारिन को कहौं सो द्वै बिधि पहिचानि।।796।।

    तिन द्वै भेदन माँहि जे तन विविचारी आहि।

    लहि अनुभाव प्रसंग को पहिले बरनौं ताहि।।797।।

    तिनही विविचारीनि को सातुक कहिये नाम।

    कहि लच्छन तिनके कहों उदाहर अभिराम।।798।।

    ।। तन-व्यभिचारी ।।

    ।। सात्विक-लक्षण ।।

    सुख दुख आदि जु भावना हदै माँहि कछु होइ।

    सो बिन वस्तुन परगटै सातुक कहियें सोइ।।799।।

    सत्य सबद प्रानी कह्यौ जीवत देह निहारि।

    ताको जो कछु धरम है सो सातुक निरधारि।।800।।

    यै प्रगट थिर भाव को अरु ये हैं तन भाइ।

    या तें कवि इनको गुनौ अनुभावन मैं ल्याइ।।801।।

    भेद सिंगारनु भाव अरु सातुक मैं यह जानि।

    वै प्रगटत रति भाव ये सब थाइन को आनि।।802।।

    दुजो यह अनुभाव अरु सातुक भेद उदोत।

    बै बिनु बस ते होत हैं ये निजु बस ते होत।।803।।

    सोई सातुक आठ हैं यह जानत सब कोइ।

    तिनको बरनन करत हौं ग्रथनि को मति जोइ।।804।।

    सातौं सातुक नाम ते लच्छन प्रगट लखाइ।

    आठों लच्छन प्रलय को अब दैहों समुझाइ।।805।।

    ।। स्वेद-उदाहरण ।।

    घन आवत जे आदि ही चलत स्वेद तन आइ।

    यौं आवत यह कान्ह के स्रम जल रही अन्हाइ।।806।।

    बाम लखत तन स्याम को कढ़यौ स्वेद यौं आइ।

    ज्यौं तरपति ही बीजुरी बरखथ मेघ बनाइ।।807।।

    ।। स्तम-उदाहरण ।।

    हरि के देखत ही कहा थकित भयो तुव गात।

    रई रही लै हाथ मैं दही मथ्यो नहि जात।।808।।

    पाग सजत हरि दृग परी जूरो बांधत बाम।

    रहे पेच कर मैं परे और पेच मैं स्याम।।809।।

    ।। रोमाच-उदाहरण ।।

    हौं तोही पै आनि यह लखी अपूरब बात।

    जित मारत पिय फूल तिय होत कटीले गात।।810।।

    कान्ह भयो रोमांच यह जनि अपने मन चेत।

    रोम रोम ते तन उठयो तव आदर के हेत।।811।।

    ।। सुरभग-उदाहरण ।।

    छकित करयौ मों प्रान तुव ये नहिं नहिं ठहराइ।

    मानों निकसत है सुरा सीसी मुख ते आइ।।812।।

    अबहीं तुम गावत हुते भई कौन यह बात।

    सुरत रग के लेत कत सुरत भंग ह्वै जात।।813।।

    ।। कम्प-उदाहरण ।।

    लख्यौ कहुँ घनस्याम अरु बोल सुन्यौ नहिं कान।

    कहाँ लगी तूँ बेल सी बात चलत थहिरान।।814।।

    तन धन वंदन बदन ससि दुति सीतलता पाइ।

    आजु अंग ब्रजराज के कंप भयौ है आइ।।815।।

    ।। विवर्ण-उदाहरण ।।

    कारो पीरो पट धरे बिहरत धन मन माँहि।

    याते निरमल गात मैं कारी पीरी छाँहि।।816।।

    पदमिनि लखि रस लैनि हित अति अनंग सरसाइ।

    मधुप रीति हरि बदन पै भई पीतता आइ।।817।।

    ।। आँसू-उदाहरण ।।

    पिय लखि नहि तिय चखन मैं सुख असुँवा ठहिराइ।

    आपुन भे सीतल हियौ सीतल कंत बनाइ।।818।।

    परत बाल मुँख छाँह के दृगन कूप मैं आइ।

    हरि के सुख असुँवाँ चलै पारद ह्वै उफनाइ।।819।।

    ।। प्रलाप-लक्षण ।।

    होत हरख दुख आदि तैं नष्ट चेष्टा ग्यान।

    सुख हिताहित की रहै सोइ प्रलाप पहिचान।।820।।

    ।। प्रलाप-उदाहरण ।।

    तब तें सुधि सरीर की परी बाल बेहाल।

    जब तें आए हैं लपटि कारे लौं डसि लाल।।821।।

    जरत नहीं कछु आगि तें जल तें नहिं सियरात।

    राधे देखत ही भई यह गति हरि के गात।।822।।

    ।। आठों सात्विकों का दोहों में उदाहरण ।।

    पिय एक छकि अधबर्न कहि पुलक स्वेद ते छाइ।

    ह्वै बिबरन कंपत गिरे तिय असुँवा ठहराइ।।823।।

    ।। तेंतीस ।।

    ।। मन-व्यभिचारी ।।

    ।। वर्णन ।।

    बरने तन चर भाइ अब बरनी मनचर भाइ।

    जे पाइन के होत हैं नित सहचारी आइ।।824।।

    रहत सदा थिर भाव मैं प्रगट होत यहि रूप।

    जैसे आनि समुद्र ते निकसत लहर अनूप।।825।।

    फिरत रहत सब रसन मैं इनको यहै सुभाव।

    जा रस में नीको जुहै तैसो तहाँ बनाव।।826।।

    पहिले दै निरवेद को थाई माँहि गनाइ।

    पुनि अब राख्यौ आनि यह बिबिचारिन मैं लाइ।।827।।

    तत्व ग्यान बिरहादि जे जहँ जग को अपमान।

    और निदरिबो आपनो सो निरवेद प्रमान।।828।।

    निज रस पूरन होन लौं थाई जानि उदोत।

    गयै रौद्र रस मैं वहै बिबिचारी पुनि होत।।829।।

    त्यौंहीं चिंता आदि जे धरे दसा दस माँहि।

    गये और ठौरन वहै विभिचारी ह्वै जाँहि।।830।।

    ।। निर्वेद-लक्षण ।।

    ध्यान सोच आधीनता आँसू स्वाँस उसास।

    उठि चलिबो सर्वस्व तजि ये अनुभाव प्रकास।।831।।

    ।। निर्वेद-उदाहरण ।।

    यह जिय आवत है अली तजि सब जगते आस।

    बन माली के लखन कौ बन मैं लीजै बास।।832।।

    कत रोकत मोहि आइकै कछु बिवेक है तोहि।

    स्याम रूप आगे कहौ कौन देखि हैं मोहि।।833।।

    ।। ग्लानि-लक्षण ।।

    रति गतादि ते निबलता नहि सँभार सो ग्लानि।

    छीन बचन कपादि ते जानि लेत हौं जाँनि।।834।।

    ।। उदाहरण ।।

    नये रसिक ये गनित हैं रति ही माहि बिलास।

    कहूँ सुन्यौ काहू लई मलिमलि पुहुप सुबास।।835।।

    छीजत हूँ मीजत कुचन रीझत मूठि बनाइ।

    आली बानर हाथ मैं परयौ नारियर जाइ।।836।।

    ।। दीनता-लक्षण ।।

    दुख दारिद्र बिरहादि ते होत दीनता आनि।

    मन सो बवहा हा करता तन मलीनता जानि।।837।।

    हरि भोजन जब ते दये तेरे हित बिसराइ।

    दीन भये दिन भरत हैं तब ते हाहा खाइ।।838।।

    तुव डर भजि बन बन भजत अविनारिन बिलखाइ।

    जब पग पति लागत हुते अब ये कंटक आइ।।839।।

    ।। शका-लक्षण ।।

    निजु ते कछु औगुन भये कै चवाउ कछु देखि।

    उपजै संका जानियै इत उत लखन बिसेखि।।840।।

    ।। उदाहरण ।।

    जब ते काहू है लख्यौ तुम्है वाहि मुसकात।

    तब ते जानत जगत मैं होत मेरियै बात।।841।।

    ।। त्रास-लक्षण ।।

    त्रास भाव प्रगटै सदा घोर दरस सुधि पाइ।

    स्तंभ कंप धकधकहु ते तन मैं होत जनाइ।।842।।

    ।। उदाहरण ।।

    हंसति हँसति तिय कोप कै पिय सों चली रिसाइ।

    निरखि दामिनी तरप कौ डरपि गई लपटाइ।।843।।

    देस देस के पुरुष सब चलत रावरी बात।

    यौं काँपत ज्यों बात ते रूख रूख के पात।।844।।

    ।। आवेग-लक्षण ।।

    अरि दरसन उतपात लहि मित्र सत्रु जँह होइ।

    सो आवेग लच्छन तपन विभ्रम भ्रम ते जोइ।।845।।

    ।। उदाहरण ।।

    परी हुती पिय पास तहिं गई सासु वँहु आइ।

    सटपटाइ सकुचाइ तिय भाजी भवन दुराइ।।846।।

    सुनि तुव दल अरि तियन की ऐसी गति दरसात।

    भजति गिरति गिरि गिरि भजति भजि भजि गिरि गिरि जात।।847।।

    ।। गर्व-लक्षण ।।

    जौं काहू अधिकार तें अहंकार मन होइ।

    पर निदरे तै लखि परे गरब रहत है सोइ।।848।।

    ।। उदाहरण ।।

    पीतम पठई बेंदुली सो लिलार झमकाइ।

    सौतिन मैं बैठी तिया कछु ऐंठी सी जाइ।।849।।

    ।। आँसू-उदाहरण ।।

    परगुन दरब बिलोकि कै होत सु असुँवा आनि।

    दोष कथन उप बचन तें प्रगट लीजिए जानि।।850।।

    ।। उदाहरण ।।

    कमला हरि के उर बसे लह्यौ उरबसी नाउ।

    यहि गुन राधे उर बसी बैठी बाँधे पाँउ।।851।।

    ।। अधर्म-लक्षण ।।

    उपमानादिक ते कछू कोप अवै सु अमर्ष।

    कहियत बचन कठोर तहँ ताप बढ़ै घटि हर्ष।।852।।

    ।। उदाहरण ।।

    जो दासी के बस भए जग कहाइ बृजराज।

    तिनकी ये बतियॉ करत तुम्है आवत लाज।।853।।

    कहा कहौ मो प्रभु नहीं दीन्हौ सासन मोहि।

    ना तर रे राकस कछू हौं दिखावती तोहि।।854।।

    ।। उग्रता-लक्षण ।।

    अवराधादिक ते हियो जो निरदयता सोइ।

    सोइ उग्रता जानिये तरजन ताडन होइ।।855।।

    ।। उदाहरण ।।

    सीस फूल जेहि लाल को सौतिन करे बनाइ।

    तेहि राखौगी आजु हौ पायल माहि लगाइ।।856।।

    ।। उत्सुकता-लक्षण ।।

    सहि सकै जो कालगति उतसुकता तिहि जान।

    उपजै औधि विभाव सो बिकलाइ ते मान।।857।।

    ।। उदाहरण ।।

    पतिया पठवन कहि गए सो नहि पठई लाल।

    ताही की अवसेरि मै बिकल भई है बाल।।858।।

    दिन अवसेरत ही गयौ नहि आये वृजनाथ।

    सजनी अब जिय जात है या रजनी के साथ।।859।।

    ।। स्मृति-लक्षण ।।

    लखै बसन मनि गन चितै फिर वाकी सुधि होइ।

    कै सुधि पूरब अर्थ कै सुमृति कहिए सोइ।।860।।

    हरष सहित अविलोकिबो भौहन को संसार।

    सिर कपन अगुरीन ते तरजन अरु भौचार।।861।।

    निकसत ही पटनील ते तेरे तन की जोति।

    चपला अरु घनस्याम की हिये आनि सुधि होति।।862।।

    जमुना तट मोसो कही तूँ जु बात मुसुकात।

    सदा रहत चित मै चढी भूलिहु बिसरि जात।।863।।

    ।। चिन्ता-लक्षण ।।

    अनपाये प्रिय बचन को ध्यान मॉहि चितु जाइ।

    सो चिंता जँहि ताप अरु आँसू स्वॉस लखाइ।।864।।

    ।। उदाहरण ।।

    दृगन मूँदि भौहन जुरै कर पै राखि कपोल।

    कौन सोचु मै बैठि तिय इहि बिधि भई अडोल।।865।।

    ।। तर्क-लक्षण ।।

    कहिये तर्क बिचारि कै ससै तासु बिभाव।

    सिर चालन भृकुटी चपल ताको है अनुभाव।।866।।

    ससै भई बिचारि मै इति त्रिय अध्योसाइ।

    चौथे विप्रितपत्य चारि तरक समुदाइ।।867।।

    ।। संशयात्मक तर्क-उदाहरण ।।

    मन मोहन छबि लखत ही भूलि गये सब ऐंठ।

    अब जग गति लख सो कहौ हौं भूली को पैठ।।868।।

    ।। विचारात्मक तर्क-उदाहरण ।।

    बोलत है इत काग अरु फरकत नैन बनाइ।

    यातें यह जान्यौ परत पीतम मिलिहै आइ।।869।।

    ।। अध्यवसायात्मक विप्रतिपत्यात्मक ।।

    ।। तर्क-लक्षण ।।

    करि बिवार मेटे सकल सोई अध्यवसहा।

    परै जहँ परतीति सो बिप्रतिपतय गुनाइ।।870।।

    ।। अध्यवसायात्मक तर्क ।।

    ।। उदाहरण ।।

    रच्यौ काम यह मुकर कै कमल भयौ अबिदात।

    किधौ चन्द्र भुव अवतरे कछु जान्यौ नहि जात।।871।।

    ।। विप्रतिपत्यात्मक ।।

    ।। उदाहरण ।।

    अनल ज्वाल नहि कहि सकत करत सीत यह अग।

    कला सरद ससि कहौ तो दिन ते कौन प्रसंग।।872।।

    ।। मति-लक्षण ।।

    ग्यान जथारथ को जहॉ तहँ कहिये मति भाव।

    आगम सोच विभाव अरु सिक्छादिक अनुभाव।।873।।

    ।। उदाहरण ।।

    कोऊ बरने पुरुष जसु कोऊ बरनै बाम।

    सुकवि सकल तजि कै सदा बरनत है हरिनाम।।874।।

    धर्म नीति प्रभु भक्ति जुत साधु प्रीति जँह होइ।

    चित हित पर उपकार मै ग्यान जानिये सोइ।।875।।

    ।। धृति-लक्षण ।।

    धृत कहिये संतोष को सत्या तासु बिभाव।

    दुख को सुख करि मानई धीरजादि अनुभाव।।876।।

    ।। उदाहरण ।।

    हारयौ मदन चलाइ सर ससि कर सेल लगाइ।

    यह पिक कहि रोतो कहूँ कहा डरावत आइ।।877।।

    कौन नवावत जगत को फिरै आपने माथ।

    बाँध दई है जीविका दई जीव के हाथ।।878।।

    ।। हर्ष-लक्षण ।।

    हरष भाव पिय बसत लखि मन प्रसाद जो होइ।

    मन प्रसन्न पुलकादि लहि जानत है सब कोइ।।879।।

    ।। उदाहरण ।।

    तिय घट भरि उमगे हरष यौ भेटत नदलाल।

    ज्यौ बरसत ही स्याम घन जल झिहरत भरि ताल।।880।।

    होत एक ही भवन मै आनँद बन मे नन्द।

    राम जनम ते चौदहो भुवन भयो आनन्द।।881।।

    ।। ब्रीडा-लक्षण ।।

    जो काहू की आनि ते होत ढिठाई हानि।

    मखनावत आदिक जहॉ ब्रीडा लीजै जानि।।882।।

    ।। उदाहरण ।।

    पिय कछु बाचन मिसि दिया तिय ते लयो मँगाइ।

    मुख छबि लखि इति ये छके उत वह मुरी लजाइ।।883।।

    सखिन सग खेलत हुती ठाढी सहज सुभाइ।

    पिय आवत औचकि चितै बैठि गई सकुचाइ।।884।।

    ।। अवहित्था-लक्षण ।।

    सगोपन बेवहार को सो अवहित्था भाव।

    है विभाव हिय कुटलई वहिलावन अनुभाव।।884।।

    ।। उदाहरण ।।

    सौति सिगार निहार तिय घूँघट पट मुँख लाइ।

    खॉसी को मिस ठानि कै हाँसी रही दुराइ।।886।।

    ।। चपलता-लक्षण ।।

    राग द्वेषआदिकन के होत चपलता आइ।

    किए सीघ्रता आदि ते तन मै होत लखाइ।।887।।

    ।। उदाहरण ।।

    इत ते उत उत ते इतै चमक जात बे हाल।

    लखिबे को घनस्याम को भई दामिनी बाल।।888।।

    ।। श्रम-लक्षण ।।

    रति गति कै कछु बल कियौ खेद होत जो आइ।

    सोई श्रम स्वेदादि ते मन मैं होत लखाइ।।889।।

    ।। उदाहरण ।।

    निज कॉधे तिय बॉह धरि तिय कटि तिय धरि बॉह।

    मद मद सखि सेज तें ल्यावत मदिर मॉह।।890।।

    तन तोरनि नासा चढै सीसी भरि अँगिरानि।

    अग दबावत बाल को दाबि लेत मन आनि।।891।।

    ।। निद्रा-लक्षण ।।

    सो निंद्रा जो इन्द्रियन तजि मन तुचा समाइ।

    स्रम आधिक ते होत लखि सप्नादिक ते जाइ।।892।।

    ।। उदाहरण ।।

    खिनिक होत तन मै पुलक खिनि अधरनि मुसकानि।

    याते स्रम तिय को परति पिय सग सोवन जानि।।893।।

    सुपने मे मिलि लाल सो रही बाल लपिटाय।

    बॉह चलावति भुज गहति बिहँसनि देति जनाय।।894।।

    ।। स्वप्न-लक्षण ।।

    तू चह मन तजि जमपुरी बसै सो स्वप्न बखानि।

    होत नींद ते परत है स्वपनादिक ते जानि।।895।।

    नैन मूँदि बेसुधि परी सोवति बाल बनाइ।

    सॉस छुरी के बल रही बेसरि मुकुति नचाइ।।896।।

    ।। वैपथ-लक्षण ।।

    वैपथ जागि बिजानिये नींद छुटे ते होइ।

    दृग मँदनि अँगरान अरु जिम्यादिक ते जोइ।।897।।

    ।। उदाहरण ।।

    दृगन मीजि अलसाय पुनि अग मोरि अँगिराइ।

    बाम जगत तजि स्याम कौ दीन्हौ काम जगाइ।।898।।

    पिय आहट लखि बाल दृग यो जगि उधरे प्रात।

    ज्यौ रवि दुति सनमुख लखे बध्यौ कमल खुलि जात।।899।।

    ।। आलस-लक्षण ।।

    व्याधि खेद गरबादि ते आलस उपजे मानि।

    उठिबे को सामरथता तेहि मन लीजै जानि।।900।।

    ।। उदाहरण ।।

    तिय लावत ही लेत पिय प्यालौ लियौ उठाइ।

    गरभ भार ते उठति नहि मॉगति हा हा खाइ।।901।।

    कौन छक्यौ छबि सो मरो यह ऐडानि विसेखि।

    अरु मग ढीलो डग भरन अरिसीली को देखि।।902।।

    ।। मद-लक्षण ।।

    मदिरा बिद्या दर्बि ते जोबन आये गात।

    उपजत है मदहाव तहँ कढ़त अलसगत बात।।903।।

    ।। उदाहरण ।।

    छिनक रहति कर लै चषक छिन मुख रहति लगाइ।

    आपु करति मद पान पै छकवति पी को जाइ।।904।।

    जब ते कामिनि कान्ह कौ तके मद भरे नैन।

    तब ते वै बिनु मद छके छके रहत रस ऐन।।905।।

    ।। मोह-लक्षण ।।

    मद भय आदि विभाव ते चित जो बेचति होइ।

    वहै मोह अग्यानता ते लहियत है सोइ।।906।।

    ।। उदाहरण ।।

    लकुटि गिरी छुटि हाथ तें मुकुट परयौ झुकि पाइ।

    मोहन की यह गति करी राधे बदन दिखाइ।।907।।

    ।। उन्माद-लक्षण ।।

    दर्बि हानि बिरहादि यै है उन्माद विभाव।

    बिनु विचार आचार अरु बौराई अनुभाव।।908।।

    ।। उदाहरण ।।

    खिनि रोवति खिनि बकि उठति खिनि गहि तोरति माल।

    जमुना के तट जाति यह भयौ बाल को हाल।।909।।

    ।। अपस्मार-लक्षण ।।

    जच्छ रच्छ ग्रह भूत अरु भय दुख आदि विभाव।

    अनुभव वैपथ फेन मुख अपसमार को भाव।।910।।

    ।। उदाहरण ।।

    कहा बजायो बेनु यह नारिन को जिय लेन।

    फर फराति वह छिति परी मुख मैं आयो फेन।।911।।

    कत दिखाई कामिनि दई दामनि को यह बॉह।

    थर थराति सीतन फिरै फरफराति घन मॉह।।912।।

    ।। जडता-लक्षण ।।

    ग्यान घटै अरु गति थकै निरनिमेष रहि जाइ।

    प्रिय अप्रिय रेखै सुनै सोई जडता भाइ।।913।।

    ।। उदाहरण ।।

    पिय लखि यौ लागत अचल तिय दकृग तारे स्याम।

    मनु थिर ह्वै बैठे भँवर कमलन को करि धाम।।914।।

    बाट चलति ननदी कह्यौ कहॉ गिरी तुव माल।

    हिये ओऱ तकि चकित ह्वै थकित ह्वै रही बाल।।915।।

    ।। विषाद-लक्षण ।।

    चाह्यौ ह्वौ इन अनचहाँ भये देखि दुख होइ।

    सो विषाद अनुभाव कहि तीनि भॉति जिय जोइ।।916।।

    उत्तिम ढिग ह्वै कै हिये सोचे कछुक उपाय।

    मद्धिम जो अनमन किये ढूँढै कोउ सहाय।।917।।

    अधम बदन अति सूखि कै पीरो होइ निदान।

    भरि भरि लेत उसास अरु करै भाग अपमान।।918।।

    ।। उदाहरण ।।

    चली स्याम पै बाम तहँ मिलि ननद पथ आइ।

    यहि सोचति किहि छन्द छलि हरि सो मिलिये जाइ।।919।।

    ।। ब्याधि-लक्षण ।।

    काम कलेस भयादि ते ब्याधि जुरादिक होइ।

    कर चरनन को पेरिबो धीर दहादिक होइ।।920।।

    ।। उदाहरण ।।

    निरखि निरखि तिय की बिथा थकित भये सब लोग।

    समुझि परति बियोग है कै कछु डारयौ जोग।।921।।

    अरी बाल छबि स्याम की यो परयक लखाइ।

    मानौ कागद पै लिखी मसि की लीक बनाइ।।922।।

    ।। मरण-लक्षण ।।

    कछुक ब्याधि वा घात ते मरन होत है आनि।

    दृग मृदन स्वॉसा चलनि हिलकत ते रहि जानि।।923।।

    ।। उदाहरण ।।

    तरफि तरफि रन खेत मै तुव बौरिन के लोग।

    कोउ मरै कोऊ मरत कोऊ मरिबे जोग।।924।।

    ।। श्रृंगार-वर्णन ।।

    कहि थिर भाव विभाव पुनि अनुभै अरु चर भाव।

    अथ बरनत सिंगार पुनि जिहि सुनि बाढत चाव।।925।।

    ।। श्रृंगार-रस-लक्षण ।।

    लहि विभाव अनुभाव चर भाउ जबै रति भाव।

    पूरन प्रगटे रस कहत तिहि सिंगार कवि राव।।926।।

    पहले उपजत परस्पर दंपति को रस भाव।

    रितु आदिक उद्दीप ते पुनि चुति बाढत चाव।।927।।

    पुनि रति ही ते आइ कै प्रगट होत अभिलाख।

    पुनि प्रगटत अभिलाष ते चिंता यह मन राख।।928।।

    चिंता ते प्रगटत सकल मन बिबचारी आनि।

    तिन को सहकारी कहै यह मन मै पहिचानि।।929।।

    जब रति करि अनुभाव कौ बाहिर देति लखाइ।

    तब निकसत है सग ही यै सहकारी आइ।।930।।

    ये मन मे रति भाव को ज्यौं सब करत सहाव।

    रति अनुभाव सहकरति त्यौ इनिके अनुभाव।।931।।

    पुनि भै जब अनुभाव ते ये सहकारी आनि।

    तब अति पर परगट भए रति के यह जिय जानि।।932।।

    पूरन ह्वै रति भाव जब यहि बिधि प्रगटै आइ।

    ताही मे मन मगन भै रस सिंगार कहि जाइ।।933।।

    ।। श्रृंगार रस-उदाहरण ।।

    मोहन मूरति लाल की कामिनि देखि लुभाइ।

    रीझि छकी मोही थकी रही एक टक लाइ।।934।।

    पिय तन निरखि कटाच्छ सो यौ तिय मुरी लजाइ।

    मनौ खिची मन मीन कौ लीन्हौ बसी लाइ।।935।।

    पास आइ मुसकाइ कै अति दीनता दिखाइ।

    नेह जनाइ बनाइ हरि मो मन लियो लुभाइ।।936।।

    तरुनि बरन सर करन को जग मे कौन उदोत।

    सुबरन जाके अंग ढिक राखत कुबरन होत।।937।।

    लाल पीत सित स्याम पट जो पहिरत दिन रात।

    ललित गात छबि छाय कै नैनन मे चुभि जात।।938।।

    ।। श्रृंगार रस-भेद-कथन ।।

    कहै सजोग बियोग ह्वै गनि सिँगार सब लोग।

    मिलन कहत संजोग अरु बिछुरन कहत वियोग।।939।।

    जानु सजोग दरसअरु रस बाहिर की रीति।

    दंपति हिय के मोद को करि सजोग प्रतीति।।940।।

    ।। सजोग श्रृंगार-उदाहरण ।।

    निजु चावन सौ बैठि कै अति सुख लेत नवीन।

    दोऊ तन पानिपन मै दोऊ के दृग मीन।।941।।

    लै रति सुख विपरीत ज्यौ रची प्रिया अरु मीन।

    दोऊ नृपुन पर भई इक रसना की जीत।।942।।

    राते डोरन तें लसत चख चचल इहि भाय।

    मनु बिबि पूना अरुन मै खजन बॉध्यौ आय।।943।।

    ।। मिलन स्थान-वर्णन ।।

    सखी सदन सूने सदन उपबन विपिन सनान।

    और ठौर हूँ ह्वै सकति दंपति मिलन स्थान।।944।।

    ।। सदी-सदन का मिलन ।।

    कान्ह बनाइ कुमारिका सखी गेह में ल्याइ।

    चोरमिहिचुनी मैं दई लै राधकहि मिलाइ।।945।।

    ।। सूने सदन का मिलन ।।

    धनि सूने घर पाइ यों हरि लीन्हौं उर लाइ।

    सूने गृह लहि लेत हैं ज्यों धन चोर उठाइ।।946।।

    ।। उपवन का मिलन ।।

    फिरति हुती तिय फूल के भूषन पहिरि अतूल।

    हरि लखि उपबन कूल मैं भई और ही फूल।।947।।

    ।। विपिन का मिलन ।।

    हरि को लखि यहि राधिका ठहिराई यह भाइ।

    मनु तमाल अरु को गई पुहुपलता लपटाइ।।948।।

    ।। स्नान स्थल का मिलन ।।

    दोऊ सरबर न्हात अरु फिरि फिरि चुभकी लेत।

    परसि लहर जल परसपर सुरति परस सुख देत।।949।।

    चुभकी लै लै मिलत अरु उठित दूरि नित जाइ।

    परस कंप रोमांच इनि दुरयौ सरोवर न्हाइ।।950।।

    ।। वियोग-श्रृंगार ।।

    ।। उदाहरण ।।

    इत लखियत यह तिय नहीं उत लखियत नहि पीय।

    आपुस माँहि दुहून मिलि पलटि लहै हैं जीय।।951।।

    ।। वियोग-श्रृंगार-भेद ।।

    पुनि वियोग सिंगार हूँ दीन्हौं है समुझाइ।

    ताही को इन चारि बिधि बरनत हैं कबिराइ।।952।।

    इक पूरुबअनुराग अरु दूजो मान विसेखि।

    तीजो है परवास अरु चौथो करुना लेखि।।953।।

    ।। पूर्वानुराग-लक्षण ।।

    जो पहिलै सुनि कै निरख बढ़ै प्रेम की लाग।

    बिनु मिलाप जिय विकलता सो पूरुबअनुराग।।954।।

    ।। उदाहरण ।।

    होइ पीर जो अंग की कहिये सबै सुनाइ।

    उपजी पीर अनंग की कही कौन बिधि जाइ।।955।।

    ।। पूर्वानुराग मध्य ।।

    ।। सरतानुराग-उदाहरण ।।

    जाहि बात सुनि कै भई तन मन की गति आन।

    ताहि दिखाये कामिनी क्यौं रहि है मो प्रान।।956।।

    ।। पूर्वानुराग मध्य ।।

    ।। वृष्टानुराग-उदाहरण ।।

    आप ही लाग लगाइ दृग फिरि रोवति यहि आइ।

    जैसे आगि लगाइ कोउ जल छिरकत है आइ।।957।।

    हिये मटुकिया माहि मथि दीठि रई सो ग्वारि।

    मो मन माखन लै गई देह दही सो डारि।।958।।

    ।। मान मे लघुमान उपजने का ।।

    ।। उदाहरण ।।

    और बाल को नाउ जो लयो भूलि कै नाह।

    सो अति ही विष ब्याल सौं छलो बाल हिय माह।।959।।

    ।। मध्यमान-उदाहरण ।।

    पिय सोहन सोहन भई भुवरिस धनुष उतारि।

    रस कृपान मारन लगी हँसि कटाछ सो नारि।।960।।

    ।। गुरुमान-उदाहरण ।।

    पिय दृग अरुन चितै भई यह तिय की गति आइ।

    कमल अरुनता लखि मनों ससि दुति घटै बनाइ।।961।।

    लहि मूँगा छवि दृग मुरनि यह मन लह्यौ प्रतच्छ।

    नख लाये तिय अनखइ पियनख छाये पच्छ।।962।।

    ।। गुरमान छूटने का उपाय ।।

    स्याम जो मान छोड़ाइये समता को समुझाइ।

    जो मनाइये दै कछू सो है दान उपाइ।।963।।

    सुख दै सकल सखीन को करिके आपनि औरि।

    बहुरि छुड़ावै मान सो भेद जानि सब ठौरि।।964।।

    मान मोचावन बान तजि कहै और परसंग।

    सोइ उत्प्रेक्षा जानिये बरनत बुद्धि उतग।।965।।

    उपजै जिहि सुनि भावभ्रम कहिये यहि बिधि बात।

    सो प्रसंग बिध्वंस है बरनत बुधि अविदात।।966।।

    जो अपने अपराध सो रूसी तिय को पाइ।

    पाँइ परे तेहि कहत है कविजन प्रनत उपाइ।।967।।

    ।। सामोपाय-उदाहरण ।।

    हम तुम दोऊ एक हैं समुझि लेहु मन माँहि।

    मान भेद को मूल है भूलि कीजिये नाहि।।968।।

    ।। दानोपाय-उदाहरण ।।

    इन काहू सेयो नहीं पाय सेयती नाम।

    आजु भाल बनि चहत तुव कुच सिव सेयो बाम।।969।।

    पठये है निजु करन गुहि लाल मालती फूल।

    जिहि लहि तुव हिय कमल तें कढ़ै मान अति तूल।।970।।

    ।। भेदोपाय-उदाहरण ।।

    लालन मिलि दै हितुन मुख दहियै सौतिन प्रान।

    उलटी करै निदान जनि करि पीतम सो मान।।971।।

    रोस अगिन की अनल तें तूँ जनि जारे नॉह।

    तिहि तरुवर दहियत नहीं रहियत जाकी छाँह।।972।।

    ।। उत्प्रेक्षा उपाय-उदाहरण ।।

    बेलि चली बिटपन मिली चपला धन तन माँहि।

    कोऊ नहि छिति गगन मैं ताय रही तजि नाँहि।।973।।

    ।। प्रसंग बिध्वंस-उदाहरण ।।

    कहत पुरान जो रैनि को बितबति हैं करि मान।

    ते सब चकई होहिगीं अगिले जनम निदान।।974।।

    ।। प्रनत उपाय-उदाहरण ।।

    पिय तिय के पायन परत लागतु यहि अनुमानु।

    निज मित्रन के मिलन को मानौ आयउ भानु।।975।।

    पाँव गहत यौं मान तिय मन ते निकप्यो हाल।

    नील गहति ज्यौं कोटि के निकसि जात कोतवाल।।976।।

    ।। अगमान छूटने की बिधि ।।

    देस काल बुद्धि बचन पुनि कोमल धुनि सुनि कान।

    औरो उद्दीपन लहै सुख ही छूटत मान।।977।।

    ।। प्रवास बिरह-लक्षण ।।

    त्रितिय बियोग प्रबास जो पिय प्यारी द्वै देस।

    जामे नेकु सुहात नहि उद्दीपन को लेस।।978।।

    ।। उदाहरण ।।

    नेह भरे हिय मैं परी अगिनि बिरह की आइ।

    साँस पवन की पाइ कै करिहै कौन बलाइ।।979।।

    सिवौ मनावन को गई बिरिहिनि पुहुप मँगाइ।

    परसत पुहुप भसम भए तब दै सिवहि चढ़ाइ।।980।।

    ।। करुना बिरह-लक्षण ।।

    सिव जारयौ जब काम तब रति किय अधिक विलापु।

    जिहिं बिलाप महँ तिनि सुनी यह धुनि नभ ते आपु।।981।।

    द्वापर में लब होइगो आनि कृष्ण अवतार।

    तिनके सुत को रूप धरि मिलि है तुव भरतार।।982।।

    यह सुनि कै जो बिरह दुख रति को भयो प्रकास।

    सोई करुना बिरह सब जानैं बुद्धि निवास।।983।।

    पुनि याहू करुना बिरह बरनत कवि समुदाइ।

    सुख उपाय ना रहे जो जिय निकसन अकुलाई।।984।।

    जासो पति सब जगत मैं सो पति मिलत आइ।

    रे जिय जीबो बिपत कौ क्यौं यह तोहि सुहाई।।985।।

    सुख लै संग जिहि जियत ज्यौं पियतन रच्छक काज।

    सोऊ अब दुख पाइ कै चलो चहत है आज।।986।।

    ।। वियोग-श्रृंगार ।।

    ।। दसदसा-कथन ।।

    धरे बियोग सिंगार मैं कवि जो दसादस ल्याइ।

    लच्छन सहित उदाहरन तिनके सुनहु बनाइ।।987।।

    मिलन चाह उपजै हियै सो अभिलाष बखानि।

    पुनि मिलिबे को सोचु कौ चिंता जिय में जानि।।988।।

    लखै सुनै पिय रूप कौ सोरे सुमिरन सोइ।

    पिय गुन रूप सराहिये वहै गुन कथन होइ।।989।।

    सो उद्वेग जो बिरह ते सुखद दुखद ह्वै जाइ।

    बकै और की और जो सो प्रलाप ठहिराइ।।990।।

    सो उनमाद जो मोह ते बिथा काज कछु होइ।

    कृसता तन पियराइ अरु ताप व्याधि है सोइ।।991।।

    जड़ता बरनन अचल जहँ चित्र अंग ह्वै जाइ।

    दसमदसा मिलि दस दयो होत बिरह तें आइ।।992।।

    ।। अभिलाष-उदाहरण ।।

    अलि ही ह्वै वह द्योस जो पिय बिदेस ते आइ।

    विथा पूछि सब बिरह कौ लैहैं अंग लगाई।।993।।

    जेहि लखि मोहू सो बिमुख भै चकोर ह्वै नैन।

    रे बिधि क्यौंहू पाइहौं तेहि तिय मुख लखि चैन।।994।।

    ।। चिंता-उदाहरण ।।

    इत मन चाहत पिय मिलन उत रोकति है लाज।

    भोर साँझ को एक छिन किहि बिधि बसै समाज।।995।।

    कौन भाँति वा ससिमुखी अमी बेलि सी पाइ।

    नैनन तपन बुझाइ के लीजै अंग लगाइ।।996।।

    ।। स्मरण-उदाहरण ।।

    खटक रहौ चित अटक जौ चटक भरी बहु आइ।

    लटक मटक दिखराइ कै सटकि गई मुसक्याइ।।997।।

    कहा होत है बसि रहै आन देस कै कंत।

    तो हौं जानौ जो बसौ मो मनते कहु अत।।998।।

    लखत होत सरसिज नमन आली रवि बे और।

    अब उन आँनद चंद हित नयन करयो चकोर।।999।।

    चन्द निरखि सुमिरत बदन कमलबिलोकत पाइ।

    निसि दिनि ललना की सुरति रही लाल हिय छाइ।।1000।।

    बिछुरनि खिन के दृगनि मैं भरि असुवा ठहरानि।

    अरु ससकति धन गर गहन कसकति है मन आनि।।1001।।

    या पावस रितु मैं कहौ कीजै कौन उपाइ।

    दामिनि लखि सुधि होति है वा कामिनि की आइ।।1002।।

    ।। गुणकथन-उदाहरण ।।

    दिन दिन बढ़ि बढ़ि कत देत मोहि दुख द्वंद।

    पिय मुख सरि करि है तू अरे कलंकी चद।।1003।।

    जिहि तन चंदन बदन ससि कमल अमल करि पाइ।

    तिहि रमनी गुन गन गनत क्यौं हियौ सहराइ।।1004।।

    ।। उद्वेग-उदाहरण ।।

    जरत हुती हिय अगिन ते तापैं चंदन ल्याइ।

    बिंजन पवन डुलाइ इनि दीन्हौं अधिक जराइ।।1005।।

    कमलमुखी बिछुरत भये सबै जरावन हार।

    तारे ये चिनगी भए चंदा भयो अँगार।।1006।।

    ।। प्रलाप-उदाहरण ।।

    स्याम रूप घन दामिनी पीतांबर अनुहार।

    देखत ही यह ललित छबि मोहि हनत कत मार।।1007।।

    तू बिछुरत ही बिरह ये कियो लाल को हाल।

    पिय कँह बोलत यह कहत मोहि पुकारत बाल।।1008।।

    ।। उन्माद-उदाहरण ।।

    खिनि चूमति खिनि उर धरति बिन दृग राखति आनि।

    कमलन को तिय लाल के आनन कर पग जानि।।1009।।

    कमल पाइ सनमुख धरत पुहुपलतन लपटाइ।

    लै श्री फल हिय मैं गहत सुनत कोकिलन जाइ।।1010।।

    ।। ब्याधि-उदाहरण ।।

    बिरह तची तन दुबरी यौं परयंक लखाइ।

    मनु सित घन की सेज पै दामिनि पौढ़ी आइ।।1011।।

    मन की बात जानियत अरी स्याम को गात।

    तो सों प्रीत लगाइ कै पीत होत नित जात।।1012।।

    ।। जडता-उदाहरण ।।

    नेक चेतत और बिधि थकित भयो सब गाँउ।

    मृतक सँजीवन मंत्र है वाहि तिहारो नाँउ।।1013।।

    तुव बिछुरत ही कान्ह की यह गति भई निदान।

    ठाढ़े रहत पखान ते राखै मोर पखान।।1014।।

    ।। दसदसा-उदाहरण ।।

    बिदित बात यह जगत में बरन गये प्राचीन।

    पिय बिछुरे सब मरत हैं ज्यौं जल बिछुरत मीन।।1015।।

    ।। पाती-वर्णन ।।

    बिथा कथा लिखि अंत की अपने अपने पीय।

    पाँती दैहैं और सब हौं दैहौं यह जीय।।1016।।

    पिय बिन दूजो सुख नहीं पाती के परिमान।

    जाचत बाचत मोद तन बाँचत बाचत प्रान।।1017।।

    नैन पेखबे को चहै प्रान धरन को हीय।

    लहि पाँती झगरयौ परयौ आनि छुड़ावै पीय।।1018।।

    पकरि बाँह जिन कर दई बिरह सत्रु के साथ।

    कहियो री वा निठुर सों ऐसे गहियत हाथ।।1019।।

    कहि यो री वा निठुर सों यह मेरी गति जाइ।

    जिन छुड़ाइ निज अंग ते दई अनंग मिलाइ।।10120।।

    ।। वियोग से ।।

    ।। बारहमासा-वर्णन ।।

    ।। चैत्र-वर्णन ।।

    धनुष बान दोऊ नए दै फूलन कै चैत।

    जैतवार सब जगत को कियो काम कमनैत।।1021।।

    स्याम संग काके सुनत बाढ़त मोद तरंग।

    सो बिहंग धुनि करत या चैत माह चित भंग।।1022।।

    ।। वैसाख-वर्णन ।।

    लाखु जतन कहि राखिये करै जार तन राख।

    साख साख जो ढाक की फूल रही बैसाख।।1023।।

    पुहुप रूप इनि-दूमनि मैं आगि लागि है आइ।

    तामै जरि ये भँवर सब कारे भये बनाइ।।1024।।

    ।। बसं समीर-वर्णन ।।

    प्राननाथ बिन आइ इन को राखै गहि हाथ।

    पवन प्रान सो गोतु गनि लिये जात निज साथ।।1025।।

    ।। जेठ-वर्णन ।।

    बिंजन लै करि मैं धरति बाहर देति पाइ।

    वृष आतप बिनु स्याम घन दासी करयौ बनाइ।।1026।।

    जेठ पवन करि गवन यह दीन्हौं अवनि जराइ।

    बिनु घन स्याममहि दवनि सहि केहू भवन जाइ।।1027।।

    ।। आसाढ़-वर्णन ।।

    कठिन परयौ बिन प्रानपति अब तन रहिबौ प्रान।

    मारुत चक्र असाढ़ के मारत चक्र समान।।1028।।

    हरि बिन फेरत आइ ब्रज गरजि गरजि ललकार।

    ये असाढ़ घन तड़ित की बाडि धरी तलवार।।1029।।

    ।। सावन-वर्णन ।।

    हाथ सरासन बान गहि मघवा सासन मानि।

    मन भावन बिन प्रान इन सावन लीन्हौं आनि।।1030।।

    ज्यौं सागर सलिता लता द्रुमन लगाई अंग।

    त्यौ सावन मिलवत क्यौं मो मन भावन संग।।1031।।

    ।। भादों-वर्णन ।।

    भादों के दिन कठिन बिन जादव मोहि बेहाइ।

    तापै छनदा की तड़ित छिन छिन दागति आइ।।1032।।

    री दामिनि घनस्याम मिलि कत मो सनमुख आइ।

    हनन लगी है सोति लौं अपनी चटक दिखाइ।।1033।।

    ।। कुवार-वर्णन ।।

    मुकुत भये हैं पितर सो वेऊ आवत धाम।

    तेहि कुँवार मैं जाइ कै अंत बसे हैं स्याम।।1034।।

    आजु कलंकी चन्द यह दोषा को संग पाइ।

    दिन सी जोन्हि कुँवार की जिय मारति है आइ।।1035।।

    ।। कार्तिक-वर्णन ।।

    सबै प्रभात अन्हाय को यहि कातिक मो जात।

    मैं अपने अँसुवानि सों बैठा सदा अन्हात।।1036।।

    और देत है दीप सब जिनके कंत समीप।

    इम बारे हरि नेह ते रोम रोम में दीप।।1037।।

    ।। अगहन-वर्णन ।।

    अंत कहै यह आपने लोपन काज निदान।

    आयो अगहन नाम धरीं गहन तियन के प्रान।।1038।।

    कठिन परयौ है अवधि लौं अब तन रहिबो सांस।

    प्रान सग हरी लै गये मास हरत हरि मास।।1039।।

    ।। पूस-वर्णन ।।

    भान तेज सब तें सरिस जगत माहि दरसाइ।

    सोउ जाइ धन गसि मैं छप्यो सीत डर पाइ।।1040।।

    सीत अनीत निहारि कै तजी प्रान तें आस।

    मित्र होत धन रासि मैं जौन मित्र धन पास।।1041।।

    ।। माघ-वर्णन ।।

    माघ सीत यह मीत बिन करि अनीत लपटात।

    यातें प्रतिनिति अगिनि मैं तन सोधत ही जात।।1042।।

    माघ मास लैं तब तहीं यह दुख भयो अनंत।

    क्यौ बसन्त अब खेलि हैं कंत बसे है अंत।।1043।।

    ।। फाल्गुन-वर्णन ।।

    भागभरी अनुराग सों हिलिमिलि गावत राग।

    मोहिं अभागिनि फागुही बिधि दीन्हौं वैराग।।1044।।

    मन मोहन बिनु बिरह तें फाग रच्यौ इन चाख।

    पीरो रंग अगन छयो असुँवन झरत गुलाल।।1045।।

    ।। सामान्य एवं मिश्रित श्रृंगार वर्णन ।।

    नहि संजोग बियोग जँह ज्यौ पिय बैठे द्वार।

    तहँ सामान्य सिंगार है कविजन कियो विचार।।1046।।

    जह संजोग में बिरह के बिरह माझ संजोग।

    तह मिश्रित सिंगार कहि बरनत है कवि लोग।।1047।।

    सौतुक अरु सपने निरखि सुनि पिय बिछुरन बात।

    दंपति को चित आइ कै सुख में दुख ह्वै जात।।1048।।

    त्यौंही सगुन संदेश अरु पॉतोहू को पाइ।

    अनुरागिनि को बिरह में हरष होत है आइ।।1049।।

    उदाहरन इन दुहुन के निज में मैं अविरेखि।

    गमिषितिपतिका माहि अरु आगमिषित मैं देखि।।1050।।

    ।। वाक्य-भेद ।।

    तिय पिय सो पिय तीय सों तिय सखी सों सखी तीय।

    सखि सखि सों सखि पीय सों कहै सखी सों पीय।।1060।।

    कहूँ प्रस्न उत्तर कहूँ प्रस्नोतर कहुँ होइ।

    सौ तिनि सँभवै होत कहुँ बक एतै विधि जोइ।।1052।।

    ।। अन्य-रस ।।

    ।। हास्य रस आदि आठ अन्य रसों का वर्णन ।।

    कहि सिंगार अब कहत हौं आठो रस सब ल्याइ।

    जिनते पूरन होत हैं नौ रस गिनती आइ।।1053।।

    ज्यों थाई सब रसन की न्यारी न्यारी होति।

    त्यौं आलंबन हूँ सदा भिन्न भिन्न उद्दोति।।1054।।

    आलंबन अंकित विषै उद्दीपन ह्वै जात।

    बहुरि होत अनुभाव हूँ भिन्न भिन्न अविदात।।1055।।

    सातुक तमचर भाव को सब ते अनुभव जानु।

    मन बिबचारिन को सदा सहकारी पहिचानु।।1056।।

    ।। हास्य-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक जो हाँस्य को सोइ हास-रस जानि।

    बिकृत बच क्रम संग तें नित उपजत हैं आनि।।1057।।

    मुख अरुनत परसन्नता ते अनुभाव बिसेखि।

    ब्रह्म देव तेहि कहत कवि बरन सेत अवरेखि।।1058।।

    ।। हास्य के स्थायी भाव का उदाहरण ।।

    बात कहत पिय भूलि फिरि लीनो बरन सँभारि।

    प्रान बसी सुनि कै कछु मन मैं हँसी बिचारि।।1059।।

    ।। त्रिभेद ।।

    दसन खुलत नहि मद मैं धुनि मद्धिम मैं होइ।

    बहु हँसिबो अति हाँस मैं हाँस तीनि बिधि जोइ।।1060।।

    ।। मद-हास-उदाहरण ।।

    ग्वालिनि भेस बनाइ हरि मिले तियन में आनि।

    गरुये मन तब चित बसी हरुवे हँसि पहिचानि।।1061।।

    ।। मद्धिम हास्य-उदाहरण ।।

    भूलि चले जब पीत पट तब सुझाइ ढिग लाल।

    हमैं दयौ यह बचन कहि कल धुनि सो हँसि बाल।।1062।।

    ।। हास्य-उदाहरण ।।

    जो मेरे हित अचर घर ल्याये काजर प्रात।

    तो मुख लावन को लला मेरो मन अकुलात।।1063।।

    खाइ चुनौ तीको गयो पानन मैं जब स्याम।

    देखत ही तब हँसि परी खिलखिलाय कै बाम।।1064।।

    ।। करुण-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक जो सोक को करुना रस सो होइ।

    इष्ट नास बिपतादि सब ये बिभाव जिय जोइ।।1065।।

    भ्रमन तपन बिलपन स्वसन जानि लेहु अनुभाव।

    जम सो देवता कहत हूँ बरन कपोत सुभाव।।1066।।

    ।। करुण रस के स्थायीभाव शोक का उदाहरण ।।

    बिनु तुव दल सनमुख भये अरि नारी बिलखाइ।

    करुन बीज उर में बयो आगे ही ते ल्याइ।।1067।।

    ।। करुण रस के स्थायी भाव करुना का उदाहरण ।।

    तूँ अरि सोकन तिय लई साँस अरनि दृग वार।

    कहुँ जारत बन को फिरै बीरत कहूँ पहार।।1068।।

    बिलखि कहति मदोदरी गहि दसमुख को गात।

    बीस करन हूँ राख तुम सुनत मेरी बात।।1069।।

    सौंपि जागिबो आपुनो मो नैननि के साथ।

    लै सब इनकी नींद को सुख सोये तुम नाथ।।1070।।

    ।। रौद्र-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक जो कोप कै वहै रौद्र रस जानु।

    दुसह बैर बैरी लखन यो बिभाव पहिचानु।।1071।।

    कंप धरम आवेग धृत वर्म अंसु अनिभाउ।

    रुद्र देवता जानिए बरन अरुण चिता लाउ।।1072।।

    ।। रौद्र-रस के स्थायी भाव कोप का उदाहरण ।।

    पिय औगुन सुनि जो जगेउ रिस अंकुर मन आइ।

    सो बिनु बढ़ि निकसे अधर तिय मुखते लखाइ।।1073।।

    ।। रौद्र-रस का उदाहरण ।।

    निकसत जावक भाल पर पावक सी ह्वै बाल।

    अपने उर ते तोरि कै पीय हिय दीन्हों माल।।1074।।

    मुकतन सेलन पथ ही गहि गहि क्रोधन सथ्थ।

    मींजु बालुका हाथ तें करत जात दसमथ्थ।।1075।।

    ।। वीर-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक उत्साह को सोइ बीररस लेखु।

    पूरब की अमसर्थता सो विभाव अविरेखु।।1076।।

    उग्रताइ परसन्नता पुलकादिक अनुभाव।

    जानु देवता इंद्र को गौर बरन तिहि गाव।।1077।।

    ।। वीर-रस के स्थायी भाव उत्साह का उदाहरण ।।

    सत्य दयारत दान को जब अवसर नियराइ।

    उदय करत हैदर हियौ हरखहि आगे आइ।।1078।।

    ।। वीर-रस का उदाहरण ।।

    ।। चतुर्विधि ।।

    बीर चारि जग प्रकट भे सत्त दयारत दान।

    धरम तनय सिव राम बल इत्यादिक ते जान।।1079।।

    प्रगटे चारो बीर जे चारि पुरुष को पाइ।

    सो चारो पूरन भये हैदरनतन मै आइ।।1080।।

    ।। सत्यवीर का उदाहरण ।।

    तिनि सर नाये पगन पर जिन जिय धरी मरोर।

    करयौ नबी ने जगत सब एक सत्य कै जोर।।1081।।

    हैदर ते जीतै कोउ यह जानत सब कोइ।

    धरमहि ते जय होत है पापहि ते छय होइ।।1082।।

    भज्यौ बहत्तर बार जो जुद्ध माहि मुख मोरि।

    हैदर ने मुख बोलि हित दियो राज तिहि छोरि।।1083।।

    ।। दयावीर का उदाहरण ।।

    घेरि लये सुलमान जब गरजि सिंह चहुँ ओरि।

    साहनसाह उमाह सो लिय बचाइ बरजोरि।।1084।।

    ।। रणवीर का उदाहरण ।।

    यौं सुभटन संग लरत है हैदर धारि उछाह।

    ज्यौं नारिन संग आइ कै होरी खेलत नाह।।1085।।

    जेहि खैबर ते जाइ कै आये सब मुख मोरि।

    हैदर ने तिहि द्वार को बिहसत डारयो तोरि।।1086।।

    निकसन को अरि अंग ते हाथ रावरे पाइ।

    नेजा की पोरी रही सबै होड़ सी लाइ।।1087।।

    तुव दल चढ़ काँपत जगत सत्रु अत्र गिरि जात।

    टूटत अगम अखड गढ़ लखी किन यह बात।।1088।।

    तिन हैदर के दान को को करि सकै सुमार।

    जो परहित चित चाव सो बिके बहत्तरि बार।।1089।।

    ।। भयानक-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक भय भाव को सोइ भयानक जानि।

    बसत घोर धुनि घोर लहि सदा होत है आनि।।109)।।

    मुख सूखन हिय धकधकी कम्पादिक अनुभाव।

    स्याम बरन अरु देवता काल कहत कबिराव।।1091।।

    ।। भायनक-रस के स्थायी भाव भय का उदाहरण ।।

    रावन के हैं दस बदन और बीस है बाँह।

    यह सुनि कै हिय भै कछू भयो राम दल माँह।।1092।।

    ।। भयानक-रस का उदाहरण ।।

    भभरि राम दल के भये बदन पीत ज्यौं धूप।

    जब रावन को औचिका लख्यौ डरावन रूप।।1093।।

    ।। वीभत्स-रस ।।

    ।। रस-लक्षण ।।

    परिपोषक घिन को सोई रस बीभत्स गनाइ।

    घिन मैं बसत बिभाव को नित उपजत हैं आइ।।1094।।

    बिरुचि नींद अरु थूकिबो मुख फेरिन अनुभाव।

    महाकाल है देवता बरन नील तेहि गाव।।1095।।

    ।। वीभत्स-रस के स्थायी भाव घृणा का उदाहरण ।।

    हरि सुमिरन हीं राधिका रंग रूप गुन आनि।

    सतभामा कछु मोरि मुख रही ग्वारिनी जानि।।1096।।

    ।। वीभत्स-रस का उदाहरण ।।

    परधन रति सो आसु चलि नैकु उर लपटाइ।

    स्याम निहोरत है तिया नाक सिकोरति जाइ।।1097।।

    कहुँ आभिष कहुँ हाड़ अरु कहूँ चाम दरसात।

    तेहि सदना घर कीन बिधि तुम्है बन्यौ हरि जात।।1098।।

    ।। अद्भुत-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक आश्चर्य को अद्भुत रस वहि जानि।

    नई बात कछु देखि सुनि उपजत है नित जानि।।1099।।

    बिनु बूझे जो चकि रहै सोइ जानि अनुभाव।

    पीत बरन अरु देवता ब्रह्म चित्त मैं ल्याव।।1100।।

    ।। अद्भुत रस के स्थायी भाव आश्चर्य का उदाहरण ।।

    पूँछि जारि कै पवन सुत दी सब लंक जराइ।

    हिये राछसन के दरयौ अचरिज सो धा लाइ।।1101।।

    ल्याइ सँजीवनि मूरि जब ज्यायो लछमन फेरि।

    सब राक्षस चकृत भए यह अचिरिज को हेरि।।1102।।

    जो दल चढ़ि लंका गयो आयो रावन मारि।

    सो लरि कै सरि को करै द्वै लरिकन सो हारि।।1103।।

    प्रगट देखियत जो सकल जग के पोषनहार।

    ठाढ़े हाथ पसार कै माँगत बलि के द्वार।।1104।।

    ।। शान्त-रस ।।

    ।। लक्षण ।।

    परिपोषक निरवेद को सांत कहत है सोइ।

    उपजनि याकी गुरु कृपा देव कृपा तें होइ।।1105।।

    छमा सत्त सूर पूजिबो जोगादिक अनुभाव।

    श्री नारायण देवता चन्द बरन तेहि गाव।।1106।।

    ।। शांत रस के स्थायी भाव निवद का लक्षण ।।

    निजानन्द गुनगान लहि जग ते होइ उदास।

    सो निरबेद जो सांत को थाई है परकास।।1107।।

    ।। शान्त के स्थायी भाव-निवेद का उदाहरण ।।

    जग आन्यौ जेहि भजन को अरु फिरि वासो काम।

    रे मन सुमिरत है नहीं एको दिन तेहि नाम।।1108।।

    खिन हरि ढूँढ़त आप मैं खिन ढूँढ़त असमान।

    घर को भयो घाट को ज्यौं धोबी को स्वान।।1109।।

    रे मन हाथ लगत कछु जगमें लोभ लगाइ।

    ज्यौं ज्यौं फटकै खोखरो त्यौं त्यौं उड़ि उड़ि जाइ।।1110।।

    रे मन अलि सँग भ्रमत कत खोवत द्यौस निकाम।

    चरन कमल बिनु राम कै पै हैं नहिं विश्राम।।1111।।

    ।। शान्त-रस का उदाहरण ।।

    होत कछु न्यारो भये अरु मिलि बैठे साथ।

    तिन्है बन भवन एक है है जिनके मन हाथ।।1112।।

    सुख दुख थिर कोऊ नहीं यह निहचै जिय जोइ।

    दिन बीते निसि होत है निसि बीते दिन होइ।।1113।।

    लाभ हानि की बिधि दोऊ एकै चित ठहिराहिं।

    लहै लेखो है कछू गए परेखो नाहिं।।1114।।

    प्रभु राचे ते आनि कै यह गति करति उदोत।

    भोग जोग मैं होत है जोग भोग मैं होत।।1115।।

    ।। भाव-संधि ।।

    ।। उदय शांत सबल प्रौढौक्ति-वर्णन ।।

    अब यहि भावन कौ सुनौ सधि उदै अरु साँत।

    और सबल प्रौढ़ौक्ति जुत अपनी अपनी भाँत।।1116।।

    ।। त्रास एवं शंका भाव की सधि ।।

    बालम वारे सौति के आवन गये सुनाइ।

    हरष संक के बीच तिय ऐंठी सी दरसाइ।।1117।।

    ।। मास एवं रोस भाव की संधि ।।

    इत प्रभु की आज्ञा नहीं उत रावन अभिमान।

    त्रास रोष के बीच ही थकित भयो हनुमान।।1118।।

    ।। ब्रीडा एवं प्रीति भाव की संधि ।।

    इत निज कुल की लाज उत मोहन प्रीति निहारि।

    अहि निसि नेमअरु प्रेम मधि संध्या हेरे नारि।।1119।।

    ।। गर्व भावोदय ।।

    तुम जो हँसि वा बाम को बेंदी दीनो राति।

    सीस चढ़ाये सबन के चढ़ी सीस पै जाति।।1120।।

    ।। मान भाव में शान्ति का उदय ।।

    पिय हँसि गूँदे सीस जो भयो गरब तिय आइ।

    सो कर जावक अरुनता देखत मिटयौ बनाइ।।1121।।

    ।। अन्तरिज भावोदय शान्त ।।

    अटा दारि मैं निरखि हरि कौंधा कैसी छाँह।

    चकृत ह्वै समुझे बहुरि लखि राधे को बाँह।।1122।।

    ।। सबल-लक्षण ।।

    मिटये निज निज आदि को आवै भाव जो अंत।

    बिनु अन्तर इक काल में सोई सबल कहंत।।1123।।

    ।। भाव सबल का उदाहरण ।।

    को भो को कुल लाज यह बहुरि देखिबो ताहि।

    रे मन थिर ह्वै को धनी यह तिय मिलिहै जाहि।।1124।।

    करत प्रथम तुक मैं दुतिय कै उर संक विशेषि।

    तृतीय माहि धृत चौथ मैं चिंता चित अवरेषि।।1125।।

    ।। प्रीतिभाव की प्रौढ़ोक्ति ।।

    पीतम बँसुरी की सरिस सब जग ते करि ध्यान।

    अधर लगै हरि के जियति बिछुरे बिछुरै प्रान।।1126।।

    बिछुरे पिय सपने निरखि तिय बिदेस अनुमानि।

    चौंकि परी थहरी खरी पुरुष दूसरो जानि।।1127।।

    ।। नेम-कथन ।।

    सबै प्रच्छन्न प्रकास है वहै प्रगट उद्दोत।

    भूत भविष्य वर्तमान पुनि भयो होइगो होत।।1128।।

    सब बिसेख सामान्य है लच्छन सकल विशेखि।

    होइ कछू कुल लछनि ते सो सामान्य अबरेखि।।1129।।

    जो रस उपजै आपसों सो सुनि सत जिय जानि।

    होइ और के हेत तें सो पर निसत बखानि।।1130।।

    ह्वै लच्छन जँह पाइये तिनि मैं अधिक जु होइ।

    ताही को यह कहत हैं यह बरनत कबि लोइ।।1131।।

    एक ओऱ की प्रीत अरु तिय आगे नर प्रीति।

    अधम पूज्य सो प्रीति अरु तिय आगे नर प्रीति।।1132।।

    हाँसी गुरुजन सिरि अरु उत्तम बधु उत्साह।

    चोप बधनि मैं सोक पै रसाभास सब चाह।।1133।।

    भाव पूरन है जहाँ भावाभास है सोइ।

    कृष्ण छाड़ि कै प्रीत ज्यौं और देव सों होइ।।1134।।

    जैसै नायक नायिका इनहूँ कै आभास।

    जेहि इनकी सी रीति तें औरों कहैं प्रवास।।1135।।

    पितु सुत बालक बालकहि बंधु बधु सो नेह।

    थाई भाव जहाँ दया बात सत्य रस एह।।1136।।

    ।। रसजनित रस-वर्णन ।।

    होत हाँस सिंगार ते करुन रौद्र ते जान।

    बीरजनित अद्भुत कह्यौ बीभतस हित भया न।।1137।।

    ।। रस-शत्रु-वर्णन ।।

    रिपु वीभत्स सिंगार को अरु भय रिपु रस बीर।

    .......................................................................।।1138।।

    ।। प्रस्तावक ।।

    जो जैसो गुन करत है तैसो पावत भोग।

    चख मुख कारज के उचित अधर पान के जोग।।1139।।

    बड़े चातुरन ते सखी बड़े पैयत भाग।

    दृगन मीत काजर भयो मॉगन मीत सुहाग।।1140।।

    रे मन तेरो जगत मैं बिधि के हाथ निबाह।

    ढुखी मीन तन धरति है नित चुपरा को चाह।।1141।।

    मैं जब देखो मुरज लौं नीस नरन को बात।

    ज्यौं ज्यौं मुख मैं मारिये त्यौं त्यौं बोलत जात।।1142।।

    है सत्रुन के मिरत यों होत लघुन को चाउ।

    ज्यौं कूकुर कूकुर लरै कौवा पावत दाउ।।1143।।

    ।। सान्तरस को प्रस्तावक ।।

    ससि धरत निज देत सो रग रूप परवेष।

    त्यौं ही आप अभेष पुनि देत सबन को बेष।।1144।।

    यौं आयो प्रभु जगत में जब प्रभु जान्यौ नाहि।

    ज्यौं रवि को जानत दिन रवि वत दिन माहिं।।1145।।

    फेल रह्यौ सब जगत मैं देखि सकत नहिं कोइ।

    रवि दिखाइ अधि रैनि को सो अब झूठो होइ।।1146।।

    ऐसी बिधि सब जगत में प्रभु को सहित लखाइ।

    ज्यौं दिनकर प्रति बिंब गुन दरपन देत जनाइ।।1147।।

    ना पावत गुरु ज्ञान तें निगम अगम ते बात।

    नारायन को नाम लै पारायन ह्वै जात।।1148।।

    भले बुरे सब रावरें सुनि लीजै यह नाथ।

    रचे आपुने हाथ सो लाज तिहारे हाथ।।1149।।

    ।। ग्रंथ की पूर्णता वर्णन ।।

    पूरन कीनो ग्रंथ मैं लै मुख प्रभु को नाम।

    जा प्रसाद ते होत हैं सकल जगत को काम।।1150।।

    सुधरयौ बरन बिगार है कुमति कुदूषन ल्याइ।

    ठौरि ठौरि लखि रीझि है सुमति सरस रस पाइ।।1151।।

    लिख्यौ ग्रंथ यह आगेहू लोकन करि हित बुद्धि।

    पै अब यासों सोधि कै ताहि कीजिये सुद्धि।।1152।।

    ग्यारह सै चौबन सकल हिजरी संवत पाइ।

    सब ग्यारह सै चौवन ने दोहा राखे ल्याइ।।1153।।

    ।। इति श्री हुसैनी बासती बिलगिरामी सैयद बाकर सुत

    सैयद गुलामनबी विरचित रस प्रबोध ग्रंथ समाप्तम।।

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