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राहतुल क़ुलूब, पहली मज्लिस :-

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

राहतुल क़ुलूब, पहली मज्लिस :-

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

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    रोचक तथ्य

    मल्फ़ूज़ात : क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी जामे : बाबा फ़रीद

    बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम

    अलहम्दु-लिल्लाहि रब्बिल आ’लमीन वल आक़िबतु लिल-मुत्तक़ीन वस-सलातु अला रसुलिहि मुहम्मद अ’ला आलिहि अजमईन।

    वाज़िह रहे कि ये असरार-ए-इलाही का सुलूक और ला-इन्तहा अनवार के फ़वाइद मशाइख़ों के सुल्तान,हक़ीक़त की दलील,बुज़ुर्ग शैख़,परहेज़गारों के रईस,अहल-ए-जहाँ के इमाम,औलियाओं के चिराग़,सूफ़ियों के सरताज,क़ुतुबुल-हक़ वद्दीन बख़्तियार औशी ख़ानदान के तक़्वा और मुबारक ज़ात को हमेशा रखे,आपकी ज़बान-ए-गौहर-बार और अल्फ़ाज़-ए-दुर्र-बार से सुने हुए लिखता हूँ। अल्लाह तआ’ला की तौफ़ीक़ से इस मजमूआ’ में सालिकीन के फ़वाइद लिखे जावेंगे।उस के बा’द फ़क़ीर हक़ीर मसऊद अजोधनी जो कि दरवेशों का ग़ुलाम बल्कि उनकी ख़ाक-पा है यूँ अ’र्ज़ करता है कि जब दूसरी माह रमज़ान 584 हिज्री को पा-बोसी का शरफ़ हासिल हुआ तो उस वक़्त चार तुर्की कुलाह जो आप पहने हुए थे,इस दुआ’-गो के सर पर रखी और निहायत शफ़क़त-ओ-मेहरबानी मेरे हाल पर फ़रमाई।

    क़ाज़ी हमीदउद्दीन नागौरी और मौलाना शमसुद्दीन तुर्क,ख़्वाजा महमूद,मौलाना अलाउद्दीन किरमानी,सय्यद नूरुद्दीन ग़ज़नवी,शैख़ निज़ामुद्दीन अबुल मुवय्यिद और कई बुज़ुर्ग हाज़िर थे। औलिया की कश्फ़ और करामात के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई।ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि शैख़ में इस क़दर दिल की क़ुव्वत और ज़मीर की सोहबत होनी चाहिए कि जब कोई शख़्स उस के पास बैअ’त होने के लिए जाए तो उस पर वाजिब है कि अपनी क़ुव्वत-ए-बातिनी से उस शख़्स के सीने के ज़ंगार को जो दुनियावी आलाईशों से आलूदा हो सैक़ल करे ता कि खोट,दग़ा फ़रेब,हसद,बुराई और दुनियावी आलाईशों से कोई कुदूरत भी उस के सीने में ना रहे।उस के बा’द उस का हाथ पकड़ कर मारिफ़त के भेदों से वाक़िफ़ कर दे।अगर पीर को इस क़दर क़ुव्वत हासिल ना हो तो तहक़ीक़ जान कि पीर और मुरीद दोनों गुमराही के जंगल में सरगर्दां होंगे।

    इस मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि किताब “असरारुल आरिफ़ीन” में ख़्वाजा शिबली लिखते हैं कि एक दफ़ा' मैं बदख़्शाँ की तरफ़ सफ़र कर रहा था।एक बुज़ुर्ग को देखा जिसकी बुजु़र्गी की सिफ़त बयान नहीं हो सकती।मैं ने उसे सलाम किया।उसने फ़रमाया कि बैठ जाएँ।मैं बैठ गया।चंद रोज़ मैं उस की ख़िदमत में रहा।इफ़्तार के वक़्त जौ की दो रोटियाँ आ’लम-ए-ग़ैब से मिल जातीं।एक से वो बुज़ुर्ग रोज़ा इफ़्तार करता और एक मुझे देता।अल-ग़र्ज़!उस बुज़ुर्ग ने वाली-ए-बदख़्शाँ को फ़रमाया कि मेरे लिए ख़ानक़ाहें तैयार करा।वाली-ए-बदख़्शाँ ने शैख़ के हुक्म के बमूजिब चंद रोज़ में ख़ानक़ाह तैयार करा के अ’र्ज़ किया कि जनाब!ख़ानक़ाहें तैयार हो चुकी हैं।तब उस बुज़ुर्ग ने फ़रमाया कि हर-रोज़ बाज़ार से एक कत्थक ख़रीद लाओ!उन्होंने इसी तरह किया।जब वो बाज़ार से ख़रीद लाते तो वो बुज़ुर्ग उस कत्थक का हाथ पकड़ कर सज्जादे पर बिठा देता और कहता कि मैं ने उसे ख़ुदा-रसीदा कर दिया।आख़िर कार वो कत्थक ऐसे हुए कि हर एक उन में से पानी पर चल सकता था और जिस शख़्स को वो कत्थक दुआ’’ देते ठीक उसी तरह ज़ुहूर में आता। ख़्वाजा शिबली फ़रमाते हैं कि मुझे उन कत्थकों की कश्फ़-ओ-करामात से हैरानी हुई तो उस बुज़ुर्ग ने फ़रमाया शिबली सज्जादे पर बैठना और बैअ’त करना उस शख़्स के लिए मुनासिब है जिस में क़ुव्वत हो कि दूसरे को साहिब-ए-सज्जादा कर सके और अगर विलायत की क़ुव्वत ना होतो वो शैख़ नहीं होता बल्कि वो अहल-ए-सुलूक के नज़दीक महज़ मुद्दई और दरोग़-गो है।

    इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि अहल-ए-सुलूक अपनी ख़सलतों के बारे में लिखते हैं कि आदमी की कमालियत इन चार चीज़ों या'नी कम खाने,कम सोने,कम बोलने और ख़िलक़त से कम मेल-जोल करने में है।

    फ़रमाया कि गज़नी में एक दरवेश था जो हर-रोज़ तजरीद में सब्र करता।अगर दिन के वक़्त कोई चीज़ ज़ाइद उसे मिल जाती तो रात तक एक पैसा भी पास ना रखता था।जो छोटे बड़े दौलत-मंद या दरवेश उस के पास आते वो महरूम ना जाते।चुनांचे अगर कोई भूका आता तो उसे खाना खिलाता और अगर कोई नंगा आता तो अपने बदन के कपड़े उतार कर उसे पहनाता। वो दरवेश और दुआ’-गो एक ही जगह पर रहते थे।उस को मैं ने ये कहते सुना कि चालीस साल मैं ने मुजाहिदे और बंदगी में सर्फ़ किए लेकिन कोई रौशनी अपने आप में ना पाई।जब से मैं ने चार मज़कूरा बाला चीज़ें कीं तब से रौशनी इस क़दर हासिल हुई कि अगर किसी वक़्त आसमान की तरफ़ देखता हूँ तो अर्श-ए-अ'ज़ीम तक कोई पर्दा नहीं रहता और अगर ज़मीन की तरफ़ निगाह करता हूँ तो सतह-ए-ज़मीन से लेकर तहत-उस-सुरा तक जो कुछ उस में है सब दिखाई देता है।

    यही वजह है कि आज तीस साल का अर्सा होने को है कि मै लब बंद किए हुए बैठा हूँ।फिर मुझे मुख़ातिब कर के फ़रमाया।ऐ दरवेश!जब तक तू कम ना बोलेगा और लोगों से मेल-जोल कम ना करेगा दरवेशी का जौहर हरगिज़ तुझ में पैदा ना होगा क्योंकि दरवेश लोगों का वो गिरोह है जिसने अपने लिए नींद हराम की है और बात करने में ज़बान गूँगी बना ली है और उम्दा खाने को मिट्टी में मिला दिया है और लोगों की सोहबत को ज़हरीले साँप की तरह ख़्याल किया है तब कहीं क़ुर्ब-ए-इलाही हासिल किया है।

    फ़रमाया कि अगर दरवेश उम्दा लिबास पहने यानी ख़िलक़त के दिखावे के लिए तो ठीक जानो कि वो दरवेश नहीं बल्कि राह-ए-सुलूक का राह-ज़न है। और जो दरवेश नफ़्स की ख़्वाहिश के मुताबिक़ उम्दा खाना पेट भर कर खाए तो यक़ीन जानो कि वो भी राह-ए-सुलूक में दरोग़-गो और झूटा मुद्दई और ख़ुद-परस्त है।और जो दरवेश कि दौल-तमंद की हम-नशीनी करता है उसे दरवेश ना ख़्याल करो बल्कि वो तरीक़त का मुर्तद है।और जो दरवेश नफ़्सानी ख़्वाहिश के मुताबिक़ ख़ूब दिल खोल कर सोता है यक़ीन जानो कि उस में कोई ने’मत नहीं।

    फ़रमाया कि मैं एक दफ़ा’ एक दरिया की तरफ़ सैर कर रहा था।एक बुज़ुर्ग और मालदार दरवेश को देखा।लेकिन साथ ही उसे मुजाहिदे में यहाँ तक पाया कि उस के वजूद-ए-मुबारक पर हड्डियाँ और चमड़ा भी नहीं रहा था।अल-ग़र्ज़ उस दरवेश की ये रस्म थी कि जब नमाज़-ए- चाश्त अदा करता और सज्जादे पर बैठता तो उस के दस्तर-ख़्वान पर तक़रीबन अढ़ाई मन तआ’म होता।चाश्त से ज़ुहर की नमाज़ तक जो शख़्स आता खाना खा कर चला जाता। अगर कोई नंगा होता तो उसे हुजरे में ले जाकर कपड़ा पहनाता और जब तआ’म ख़त्म हो जाता और कोई मिस्कीन और आ’जिज़ जाता तो मुसल्ला के नीचे हाथ डाल कर जो कुछ उस का नसीब होता उसे दे देता।अल-ग़र्ज़ दुआ’’-गो चंद रोज़ उस बुजु़र्गवार की ख़िदमत में रहा।जूँही कि इफ़्तार का वक़्त होता चार खजूरें आ'लम-ए-ग़ैब से पहुंच जातीं।उनमें से दो मुझे देता और दो ख़ुद खा लेता।इस के बा’द कहता कि जब तक दरवेश कम ना खाए और कम ना सोए और कम ना बोले और लोगों के मेल-जोल को तर्क ना करे किसी मर्तबे को नहीं पहुंचता।

    इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि दरवेश!ईसा बावजूद इतनी दरवेशी और क़ुर्ब के चौथे आसमान पर पहुंचे तो हुक्म हुआ कि उसे चौथे ही आसमान पर रहने दो क्योंकि दुनियावी आलाईश इस में अभी बाक़ी है।जब ईसा ने तलाश किया तो एक लकड़ी का पियाला,सूई और ख़िर्क़ा मौजूद पाया।आवाज़ दी कि इसे मैं क्या करूँ?हुक्म हुआ कि तूने अपने पांव पर अपने हाथ से कुल्हाड़ी मारी है जो पियाला सूई बाहर नहीं फेंक आया।अब इसी जगह रहो।बस दरवेश!वो अस्बाब जो बिलकुल हेच हैं उस के बदले में हज़रत-ए-ईसा अलैहिस-सलाम चौथे ही आसमान में रखे गए तो ये किस तरह हो सकता है कि ये इंसान बावजूद इतनी आलाईशों के बारगाह-ए-इलाही में बार-याब हो।

    फ़रमाया कि दरवेश को मुजर्रद होना चाहिए और उसे एक मुल्क से दूसरे मुल्क में सैर करनी चाहिए।

    फ़रमाया कि एक दफ़ा’ का ज़िक्र है कि एक दरवेश साहिब-ए-तफ़क्कुर था।वो हमेशा हैरानी में रहा करता था।जब उस से लोगों ने पूछा कि आप जो आ’लम-ए-तहय्युर में मुसतग़रक़ हैं इस में क्या हिक्मत है।उसने कहा जहाँ तक मैं निगाह करता हूँ,जब एक मुल्क से गुज़रता हूँ तो उस से सौ गुना और मुल्क देखता हूँ और जब मैं उन्हें देखता हूँ तो एक से एक नहीं मिलता।इस वास्ते मैं एक मुल्क से दूसरे मुल्क में जाता हूँ और उन्ही ख़्यालात में मुसतग़रक़ रहता हूँ।ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन अदामल्लाहु तक़वाह आँसू भर लाए और रो पड़े और फ़रमाया कि एक मर्तबा मैं ने एक दरवेश से ये मसनवी सुनी थी।

    हर आँ मुल्के कि वापस मी-गुज़ारम

    दो सद मुल्के दिगर दरपेश दारम

    तर्जुमा : वो मुल्क जो पीछे छोड़ आता हूँ वैसे ही दो सौ और मुल्क मेरे आगे आते हैं।

    आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि अहल-ए-सुलूक और मुतहय्यरों का गिरोह ये फ़रमाता है कि दरवेश को सुलूक की राह में हर-रोज़ एक लाख मुल्क से गुज़रना चाहिए और फिर क़दम आगे बढ़ाना चाहिए।पस जिसे आ’लम-ए-ग़ैब से कुछ हासिल नहीं है उस की निगाह ख़ुद दरवेश है।इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि जो औलिया असरार को ज़ाहिर करते हैं वो शौक़ के ग़लबा में होते हैं और उसी ग़लबा की वजह से कह बैठते हैं।और बा’ज़ ऐसे कामिल हैं जो हाल में भी किसी क़िस्म का भेद ज़ाहिर नहीं करते।पस इस राह में अहल-ए-सुलूक का हौसला वसीअ’ होना चाहिए ताकि असरार-ए-इलाही को पोशीदा रख सकें इस वास्ते कि ये भेद दोस्त के भेद हैं।पस जो कामिल-ए-हाल है वो कभी भेदों को ज़ाहिर नहीं करता।

    इसी मौक़ा पर आप ने फ़रमाया कि मैं कई साल तक शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी की ख़िदमत में रहा लेकिन ये कभी नहीं देखा कि आपने दोस्त का भेद ज़ाहिर किया हो और ना उन अनवार को ज़र्रा भर भी ज़ाहिर किया जो उन पर नाज़िल होते।एक रोज़ फ़क़ीर की तरफ़ मुख़ातिब हो कर फ़रमाया फ़रीद!कामिल-ए-हाल वो शख़्स हैं जो दोस्त की हिदायत में मुकाशफ़ा नहीं करते ताकि दूसरे उस से वाक़िफ़ ना हो जाएँ। आपने फ़रमाया फ़रीद!तू ने देखा कि अगर मंसूर हल्लाज कामिल होता तो हरगिज़ दोस्त का भेद ज़ाहिर ना करता लेकिन चूँकि कामिल नहीं था,इस वास्ते दोस्त के असरार के शर्बत का ज़र्रा भर उसने ज़ाहिर कर दिया और जान से मारा गया।

    आपने फ़रमाया कि जब ख़्वाजा जुनैद बग़्दादी आ’लम-ए-सुक्र में होते तो सिवाए एक बात के और कुछ ना फ़रमाते। वे ये थी कि उस आ’शिक़ पर हज़ार अफ़्सोस है जो अल्लाह तआ’ला की दोस्ती का दम मारे और जो असरार-ए-इलाही उस पर नाज़िल हों उनको फ़ौरन दूसरों के सामने ज़ाहिर कर दे।

    इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि मैं ने शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी की ज़बानी सुना है कि एक बुज़ुर्ग ने सौ साल से कुछ ऊपर तक अल्लाह तआ’ला बुज़ुर्ग-ओ-बुलंद की इबादत की और जो कुछ मुजाहिदे का हक़ था अदा किया।उस के बा’द असरार-ए-इलाही से एक भेद उस पर ज़ाहिर किया गया।चूँकि वो बुज़ुर्ग तंग हौसला था,इसलिए उस की ताब ना लाकर उसे ज़ाहिर कर दिया।दूसरे रोज़ जो ने’मत उसे अ'ता की गई थी सब छीन ली गई और वो दीवाना हो गया कि ये क्या हुआ।ग़ैब से आवाज़ आई कि ख़्वाजा!अगर तू इस भेद को ज़ाहिर ना करता तो दूसरे भेदों के लाएक़ बनता लेकिन जब हमने देखा कि तू अभी सातवें पर्दा में है इसलिए हमने अपनी ने’मत तुझसे छीन कर दूसरे को दे दी।

    ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि फ़रीद!इस राह में अहल-ए-सुलूक के दरमियान ऐसे लोग भी हैं जो कि असरार के लाखों दरिया पी जाते हैं और उन्हें मा'लूम नहीं होता कि हमने क्या पिया है बल्कि फिर भी ‘हल मिन मज़ीद’ की फ़रियाद करते हैं।

    इसी मौक़ा’ पर आपने फ़रमाया कि एक बुज़ुर्ग ने किसी दूसरे बुज़ुर्ग को ख़त लिखा कि वो शख़्स कैसा है जो मोहब्बत के एक ही प्याले से मस्त हो जाए और असरार-ए-इलाही ज़ाहिर कर दे।उस बुज़ुर्ग ने जवाब में लिखा कि वो बहुत ही कम हिम्मत और तंग-हौसला है लेकिन यहाँ ऐसे मर्द हैं कि अज़ल और अबद के दरिया और दोस्त के असरार और मोहब्बत के प्याले पिए हैं और आज क़रीबन पच्चास साल का अ’र्सा होने को आया है कि ‘हल मिन मज़ीद’ की फ़रियाद करते हैं।ये क्या बात है जो तू ने कही है।मैं तुझे मन्अ’ करता हूँ कि ये बात ना कहना कि अहल-ए-सुलूक के पीर जो असरार ज़ाहिर कर देते हैं कुछ हासिल नहीं करते क्योंकि इस से हमें शर्म आती है।

    इस के बा’द फ़रमाया कि जब तक दरवेश सबसे यगाना ना बन जाए और हर वक़्त मुजर्रद ना रहे और कोई दुनिया की आलाईश बाक़ी ना रहे तो वो हरगिज़ क़ुर्ब के मक़ाम को नहीं पहुंचता।

    फिर उसी मौक़ा पर फ़रमाया कि ख़्वाजा बायज़ीद बुस्तामी सत्तर साल के बा’द मक़ाम-ए-क़ुर्ब पर पहुंचे तो हुक्म हुआ कि इस को वापस कर दो क्योंकि दुनियावी आलाईश इस में अभी बाक़ी है। ख़्वाजा बायज़ीद ने फ़ौरन अपनी तलाश की।पुरानी पोस्तीं और टूटा हुआ कूज़ा अपने हमराह पाया,इसी सबब से बार-याब ना हुए।जब ऐसे बुज़ुर्गों की ये हालत है तो तुम जैसे कब बार-याब हो सकते हैं जिनमें इतनी दुनियावी आलाईशें पाई जाती हैं।पस भाई दरवेशी की राह पर चलना और बात है और ज़ख़ीरा जम्अ’ करना और बात है या तो दरवेश बन या ज़ख़ीरा जम्अ’ करने वाला।

    इसी मौक़ा’ पर आपने फ़रमाया कि जब दरवेश कामिल हो जाता है तो जो कुछ कहता है वही होता है और ज़र्रा भर भी उस बात में फ़र्क़ नहीं आता।

    फिर फ़रमाया कि एक दफ़ा’ का ज़िक्र है कि मैं और क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी जो इस दुआ’-गो के यार-ए-ग़ार हैं,दरिया की तरफ़ सैर कर रहे थे और अल्लाह तआ’ला की क़ुदरत के अ’जाइबात का नज़ारा कर रहे थे जिसकी सिफ़त बयान नहीं हो सकती।दरिया के नज़दीक एक मक़ाम था जहाँ पर हम दोनों बैठ गए और भूक ने हम दोनों को लाचार कर दिया।बयाबान में तआ'म कहाँ से मिल सकता था।अल-ग़र्ज़ कुछ वक़्त के बा’द एक बकरी मुँह में दो रोटियाँ लिए हुए आई और रोटियाँ हमारे सामने रखकर वापस चली गई।हमने दो रोटियाँ खालीं।इस के बा’द हमने आप में कहा कि अल्लाह तआ’ला ने ये दोनों रोटियाँ अपने ख़ज़ाना-ए-ग़ैब से अ’ता की हैं।वो बकरी नहीं थी बल्कि वो मरदान-ए-ग़ैब से कोई होगा।हम यही बातें कर रहे थे कि एक बिच्छू एक बड़े ऊंट के क़द का ज़ाहिर हुआ,उसी तरह जैसे कमान से तीर निकलता है और दौड़ता हुआ आया।जूंही कि दरिया के पास पहुंचा अपने तईं बे-धड़क पानी में फेंक दिया।मैं ने क़ाज़ी की तरफ़ देखा और क़ाज़ी ने मेरी तरफ़।हम दोनों ने कहा कि इस में कुछ भेद है जो बिच्छू जल्दी जल्दी रहा है।मुनासिब है कि हम भी उस के पीछे चल कर देखें लेकिन दरिया के इस किनारे पर कोई कश्ती मौजूद ना थी जिस पर सवार हो कर हम पार जाते।जब आ’जिज़ हो गए तो दुआ’’ की परवरदिगार!अगर हम दरवेशी में मुकम्मल हो चुके हैं तो हमें दरिया रास्ता दे दे ताकि हम चल कर उस बिच्छू का तमाशा देखें कि कहाँ जाता है।जूंही ये मुनाजात हमने की अल्लाह तआ’ला के हुक्म से ये दरिया फट गया और ख़ुशक ज़मीन निकल आई।हम दोनों पार गए।वो बिच्छू हमारे आगे था।हम पीछे पीछे चल दिए।हम एक दरख़्त के पास पहुंचे जहाँ एक आदमी सोया पड़ा था और दरख़्त से एक बड़ा साँप नीचे उतर रहा था ताकि उस शख़्स को हलाक करे।उस बिच्छू ने साँप को डसा और हलाक कर दिया।हमारे सामने से वो बिच्छू ग़ायब हो गया और साँप उस आदमी के पास ही मुर्दा हो कर गिर पड़ा।हमने नज़दीक जा कर साँप को देखा जो तक़रीबन अढ़ाई मन वज़्न में होगा।हम ने कहा जब वो आदमी जागे तो हम दरयाफ़्त करें कि अल्लाह तआ’ला ने जो उसे बचाया तो ये ज़रूर कोई बुज़ुर्ग होगा।जब हम उस के पास गए तो क्या देखते हैं कि शराब पी कर पड़ा है और क़ै की हुई है।हम अज़-हद शर्मिंदा हुए और कहा कि काश हम ना ही आते ताकि इस तरह की हालत ना देखते।इस के बा’द हम दोनों ने कहा कि अल्लाह तआ’ला ने ऐसे शराब-ख़ोर और ना-फ़रमान को बचाया।अभी ये ख़्याल पूरे तौर पर हमारे दिल में ना गुज़रा था कि ग़ैब से आवाज़ आई कि अज़ीज़ो!अगर हम सिर्फ़ परहेज़गारों और सालिह आदमियों को बचाएं तो गुनह-गारों और मुफ़्सिदों को कौन बचाएगा?अभी हम इसी गुफ़्तुगू में थे कि वो मर्द जाग पड़ा और साँप को पास मरा हुआ देखा तो बहुत ही हैरान हुआ और इस फे़’ल से तौबा किया।कहते हैं कि जवान ख़ुदा-रसीदा बन गया और सत्तर हज नंगे-पाँव किए।

    इस के बा’द आपने फ़रमाया कि जब लुत्फ़-ए-इलाही की नसीम चलती है तो लाखों शराबियों को साहिब-ए-सज्जादा बना देती है और बख़्श देती है।और ख़ुदा ना करे अगर क़हर की हवा चले तो लाखों सज्जादा नशीनों को रांदा-ए-दरगाह बना देती है और सब को शराब-ख़ानों में धकेल देती है।पस भाई!इस राह में बे-ग़म नहीं होना चाहिए इस वास्ते कि इस राह में कामिल सुलूक वाले दिन रात हर वक़्त फ़िराक़ के डर और ख़ौफ़ से हैरान और ग़मगीन रहते हैं क्योंकि किसी को मा’लूम नहीं कि किस तरह होगा।

    इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि अगर ला’नती शैतान अपने अंजाम को जानता तो आदम अलैहिस सलाम को सज्दा करने से इंकार ना करता और बे-शुबहा सज्दा करता लेकिन चूँकि उस ला’नती को अंजाम मा’लूम ना था,और अपनी ताअ’त पर-ग़ुरूर था इसलिए ये कह दिया कि मैं हरगिज़ ख़ाकी को सज्दा ना करूँगा।इसलिए वो बिला-शक-ओ-शुबहा ला’नती हो गया और उस की सब ताअ’तें ज़ाएअ' और अकारत गईं और वापस उस के मुँह पर मारी गईं।

    इसी मौक़ा के मुनासिब आपने फ़रमाया कि मैं एक मर्तबा एक शहर में गया।अहल-ए-इस्लाह के एक गिरोह को देखा कि बीस बीस की टोली आ’लम-ए-तहय्युर में खड़ी है और उनकी आँखें आसमान की तरफ़ लग रही हैं।जब नमाज़ का वक़्त होता तो नमाज़ अदा करते फिर आ’लम-ए-तहय्युर में मशग़ूल हो जाते।मैं भी कुछ मुद्दत उनके पास रहा।एक दिन उन में से चंद आदमी आ’लम-ए-सह्व में आए तो इस दुआ’-गो ने उनकी ख़िदमत में अ’र्ज़ किया कि आप कब से इस आ’लम में मशग़ूल हैं।उन्होंने कहा कि तक़रीबन साठ या सत्तर साल का अर्सा गुज़र चुका है कि हम ला’नती शैतान के क़िस्से के ख़्याल में हैं कि उसने छः लाख छत्तीस हज़ार साल अल्लाह तआ’ला की इबादत की लेकिन जब आदम अलैहिस-सलाम को सज्दा करने से इंकार किया तो मर्दूद हो गया।इस ख़ौफ़ और हैरत से हम काँप रहे हैं और इस आ’लम-ए-तहय्युर में पड़े हैं और इसी सोच बिचार में पड़े हैं।हमें ये मा’लूम नहीं कि अंजाम क्या होगा?इस ख़ौफ़ से ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम अदामल्लाहु तक़वाहु रो पड़े और ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि कामिल मर्दों का हाल यूं है कि वो ख़ौफ़-ए-इलाही के मारे हैरान रहते हैं।मुझे मा’लूम नहीं कि हम किस गिरोह में हैं।

    जूंही कि ख़्वाजा साहिब ने इन फ़वाइद को ख़त्म क्या आप उठकर आ’लम-ए-तहय्युर में मशग़ूल हुए।अल्हम्दुलिल्लाहि अ’ला ज़ालि-क।

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