बसर हो ज़िंदगी 'इज़्ज़त में तेरी चाहे ज़िल्लत में
बसर हो ज़िंदगी 'इज़्ज़त में तेरी चाहे ज़िल्लत में
तिरे क़ब्ज़े में बंदे कुछ नहीं है दस्त-ए-क़ुदरत में
ख़ुदा भी चाहता है और मोहब्बत का तक़ाज़ा है
हमारी ज़िंदगी गुज़रे फ़क़त आक़ा की मिदहत में
नबी-ए-पाक की 'अज़्मत पे क्यूँ अँगुली उठाता है
अगर हो देखना 'अज़्मत तो आ शहर-ए-मोहब्बत में
जहाँ को छान कर रूहुल-अमीं कहते हैं आक़ा से
नहीं है आप के जैसा कोई भी सारी ख़िल्क़त में
ग़ुलाम-ए-मुस्तफ़ा को ग़म हो क्यूँ महशर का ऐ लोगो
वकालत रहमत-ए-'आलम की होगी उस 'अदालत में
कहीं हम भी अगर सरकार-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास हो जाए
कभी जाएँगे हम भी सरवर-ए-'आलम की ख़िदमत में
मिरे आक़ा अगर चश्म-ए-'इनायत आप फ़रमा दें
ख़ुदा भी बख़्श देगा और हम जाएँगे जन्नत में
मिरा दा'वा है बा'द अज़ अंबिया सारी ख़ुदाई में
नहीं है हज़रत-ए-सिद्दीक़-ए-अकबर सा सदाक़त में
यही कह कर तसल्ली देते हैं दिल को उवैस 'अम्बर'
मदीना हम भी जाएँगे अगर लिक्खा है क़िस्मत में
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