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सर-ए-ला-मकाँ से तलब हुई

अं’बर वारसी

सर-ए-ला-मकाँ से तलब हुई

अं’बर वारसी

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    सर-ए-ला-मकाँ से तलब हुई

    सू-ए-मुंतहा वो चले नबी

    कोई हद है उन के उ'रूज की

    बलग़-अल-उ'ला बि-कमालिही

    यही इब्तिदा यही इंतिहा

    ये फ़रोग़ जल्वा-ए-हक़-नुमा

    कि जहान सारा चमक उठा

    कशफ़-उद-दुजा बि-जमालिही

    रुख़-ए-मुस्तफ़ा की ये रौशनी

    ये तजल्लियों की हमाहमी

    कि हर एक चीज़ चमक उठी

    कशफ़-उद-दुजा बि-जमालिही

    वो सरापा रहमत-ए-किब्रिया

    कि हर इक पे जिन का करम हुआ

    ये कलाम-ए-पाक है बरमला

    हसुनत जमी-ए’-ख़िसालेही

    ये कमाल ख़ुल्क़-ए-मोहम्मदी

    कि हर इक पे चश्म-ए-करम रही

    सर-ए-हश्र ना’रा-ए-उम्मती

    हसुनत जमी-ए’-ख़िसालेही

    वही हक़-नगर वही हक़-नुमा

    रुख़-ए-मुस्तफ़ा है वो आईना

    कि ख़ुदा-ए-पाक ने ख़ुद कहा

    सल्लू ’अलैहि-ओ-’आलिहि

    मिरा दीन 'अम्बर'-ए-वारसी

    ब-ख़ुदा है इ'श्क़-ए-मोहम्मदी

    मिरा ज़िक्र-ओ-फ़िक्र है बस यही

    सल्लू ’अलैहि-ओ-’आलिहि

    मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा

    बलग़-अल-उ'ला बि-कमालिही

    मौला अ'ली मुश्किल-कुशा

    कशफ़-उद-दुजा बि-जमालिही

    हसनैन जान-ए-फ़ातिमा

    हसुनत जमी-ए’-ख़िसालेही

    या'नी महम्मद-ए-मुस्तफ़ा

    सल्लू ’अलैहि-ओ-’आलिहि

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    साबरी ब्रदर्स

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    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल्लीयातुल-इ’श्क़ हुवल्लाह
    • रचनाकार : अं’बर वारसी

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