साए में तुम्हारे दामन के जिस दिन से गुज़ारा करते हैं
रोचक तथ्य
منقبت در شان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد-عراق)
साए में तुम्हारे दामन के जिस दिन से गुज़ारा करते हैं
सब अपने 'अमल पर नाज़ाँ हैं हम ज़ो'म तुम्हारा करते हैं
है अपना वज़ीफ़ा सुब्ह-ओ-मसा हर हाल में या ग़ौस-उल-अ'ज़म
जो नाज़ हमारे सहता है हम उस को पुकारा करते हैं
इक हुस्न मुकम्मल होता है और चश्म-ए-’अक़ीदत होती है
हम आप के रू-ए-अनवर का जिस वक़्त नज़ारा करते हैं
आँखों में हमारे साक़ी की रहते हैं छलकते पैमाने
मय-ख़्वार उन आँखों का सदक़ा आँखों से उतारा करते हैं
ये अहल-ए-नज़र ये दिल वाले बनते हैं निशाना सब उन का
हर तीर ठिकाने लगता है वो ताक के मारा करते हैं
उस बंदा-नवाज़ी के क़ुर्बां हम उन की नज़र के सदक़े में
इक पर्दा-नशीं का घर बैठे बे-पर्दा नज़ारा करते हैं
कुछ रब्त-ए-मोहब्बत के ग़ुर्रे कुछ पुश्त-पनाही के भर्रे
जब कोई नहीं भरता हामी उन को पुकारा करते हैं
फ़ुर्क़त में किसी की बेचैनी हम से तो नहीं देखी जाती
क्या अपने किसी बंदे की तड़प सरकार गवारा करते हैं
दुनिया के हसीनों को 'कामिल' महबूब-ए-ख़ुदा से क्या निस्बत
वो ख़ुद को सँवारे रहते हैं ये सब को सँवारा करते हैं
- पुस्तक : वारदात-ए-कामिल (पृष्ठ 107)
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