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Sufinama

।। शरद ऋतु ।।

नज़ीर अकबराबादी

।। शरद ऋतु ।।

नज़ीर अकबराबादी

जब माह अघहन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की।

और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की।

दिन जल्दी-जल्दी चलता हो तब देख बहारें जाड़े की।

पाला भी बर्फ़ पिघलता हो तब देख बहारें जाड़े की।

चिल्ला ख़म ठोंक उछलता हो तब देख बहारेंजाड़े की।।1।।

दिल ठोकर मार पछाड़ा हो और दिल से होती हो कुश्ती सी।

थर थर का ज़ोर अखाड़ा हो बजती हो सबकी बत्तीसी।

हो शोर भभू हू हू हू का और धूम हो सी सी सी सी की।

कल्ले पर कल्ला लग लग कर चलती हो मुँह में चक्की सी।

हर दाँत चने से दलता हो तब देख बहारें जाड़े की।।2।।

हर एक मकाँ में सरदी ने बाँध दिया हो यह चक्कर।

जो हर दम कपकप होती हो हर आन कड़ा कड़ और थर थर।

बैठी हो सरदी रग रग में और बर्फ़ पिघलता हो पत्थर।

झड़ बाँध महावट पड़ती हो और तिस पर लहरें ले ले कर।

सन्नाटा बाव का चलता हो तब देख बहारें जाड़े की।।3।।

हो फ़र्श बिछा ग़ालीचों का और पर्दे छूटे हों आकर।

एक गर्म अँगीठी जलती हो और शम्अ' हो रौशन तिस ऊपर।

वह दिलबर शोख़ परी चंचल है धूम मची जिसकी घर घर।

रेशम की नर्म निहाली पर सौ नाज़ अदा से हँस-हँस कर।

पहलू के बीच मचलता हो तब देख बहारें जाड़े की।।4।।

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