कबीर नाम दे पींपा रैदास, भवसागर की काटी पासा
कबीर नाम दे पींपा रैदास, भवसागर की काटी पासा
महात्मा कल्याणदास जी
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कबीर नाम दे पींपा रैदासा, भवसागर की काटी पासा।।
गोरख भरथरी गोपीचन्द, जन कल्याणदास मिल करे आनंद।।
काया नगरी मनवा राजा, पवन करै कुटबारा।।
आतम ज्ञान राम रस हीरा, सुरती सहज धर धारा।।
काया नगरी मन उपदेशा, बलिहारी गुर तेरी।।
कल्याणदास जन बुद्धि कर बूझ्या, नांव निरंजन जेरी।।
जन कल्याणदास पलटे नहीं, गुरु अपना की साखि।।
सांचा सतगुरु पाइया, राम रसायन चाखि।।
ऐसी सतगुरु तैं करी, तैसी करै न कोई।।
काया भेद बताय करि, रह्या ज प्रगट होई।।
गुरु जाणै कै आतमा, दूजा जाणै नाहिं।।
कल्याणदास जन यूं कहै, अमी महारस खाहिं।।
करुणा सहित डंडोत है, निशि दिन सुमिरन होई।।
गुरु गोविद हिरदै बसे, विरला जानै कोई।।
मूल मन्त्र सतगुरु दिया, आतम कूं उपदेश।।
समझ पड़ी सतगुरु मिल्या, ब्रह्म हमारा देश।।
तन मन वारूं आतमा, निशि दिन न्हाऊं शीश।।
गुरु गोविन्द हृदय बसै, गुरु ही है जगदीश।।
सांचा इस्ट सांचे मतै, सांचा गुरु शिष ऐक।।
कल्यादास जन यूं कहै, पूरण ब्रह्म अलेख।।
कन फूंका गुरु बहोत है, सतगुरु विरला जाणि।।
जन कल्याणदास कूं गुरु मिल्या, सुरति घर आणि।।
साधां पाया एक रस, सब ही साधु एक।।
कल्याणदास जन यूं कहै, पूरण ब्रह्म अलेख।।
सांचा मन छाडूं नहीं, दूजा पकडूं नाहिं।।
समझ पड़ी सतगुरु मिल्या, अगम तहां चलि जाहिं।।
जाति हमारी वैष्णौ, सुमरि अगम अलेख।।
दरबेस मसत हरि नांव में, ऊपर पहरया भेष।।
सतगुरु पहराई गूदड़ी, पत्तर दीया हाथ।।
जन कल्याणदास सुमिरे रांम कूं, रहै राम के साथ।।
ज्ञान ध्यान की गूदड़ी, मन्त्र दीया विचार।।
समझ पड़ी सतगुरु मिल्या, सांइ अनन्त अपार।।
निराकार निरंजना, अविनाशी गुरुदेव।।
जन कल्याणदास विसरै नहीं, करै अलख की सेव।।
मनवा के उपजनि भई, आत्म कूं गुरु राखि।।
सतगुरु ज्ञान विचारदे, राम रसाइण चाखि।।
मन दीयां सतगुरु मिलै, तन दीयां गुरु नाहिं।।
आतम तो मन सूं कहै, समझि देखि मन मांहि।।
सतगुरु तो कसणी करी, फेरि न करै जवाब।।
आतम तो मन सूं कहै, ता चेला के भाग।।
गुरु गोविंद कसणी करी, गुरु का भया गुलाम।।
आतम तो मन सूं कहै, सरे हमारे काम।।
निर्बल व्है गुरु सूं मिल्या, गुरु गोविन्द सहाय।।
आतम तो मन सूं कहै, निश दिन बलिबलि जाय।।
भेष शबद बाला दई, सतगुरु किया निहाल।।
गुरु गोविंद कूं त्यागि दे, ताका बुरा हवाल।।
अज्ञानी गुरु कूं मेटिये, ज्ञानी गुरु का दोष।।
कल्याणदास जन यूं कहै, कदे न पावै मोष।।
करुणा सेवा बंदगी, सतगुरु धोह बताय।।
शरणै आयो बापजी, मेरी करौ सहाय।।
गुण इन्द्रयां कूँ त्याग दूं, त्यागूं सब संसार।।
गुरु भक्ता गुरु में रहै, सुमिरै सिरजन हार।।
गुरु भक्ता गुरु में रहै, सोई चेला वीर।।
सुमिरे राजा राम कूँ, भरि भरि पीवे नीर।।
चेला गुरु कूँ बूझि करि, मूंड मूडावै वीर।।
गुरु भक्ता गुरु में रहै, मिटै जन्म की पीर।।
गुरु मिल्या तब जानिये, भेद बतावै एह।।
कल्याणदास जन यूं कहै, हरि सुं वधै सनेह।।
ज्ञान दिया है रामजी, महरबान व्है राम।।
समझ पड़ी सतगुरु मिल्या, मन पाया विश्राम।।
राम खजाना दम दिया, खाली काहै खोवे।।
साहिब लेखा मांगिसी, तब मूंड धुनि धुनि रोवै।।
सुख अगाध है राम का, मन पवना लै जोड़ि।।
मार सहेगो जीवड़ो, साहिब से मति तोड़ि।।
मन पवना है राम का, दे करि ऊरण होई।।
कल्याणदास जन यूं कहै, विरला जाणै कोई।।
मन है पूंजी राम की, तूं मति खोवै बीर।।
कल्याणदास जन यूं कहै, लेखा मांगे पीव।।
जेता दम खाली पड़ै, तेती खाजे मार।।
जन कल्याणदास सुमिरे राम कूं, निशिदिन बारंबार।।
साध्यां तें सिद्ध होयगा, काल न घाले चोट।।
कल्याणदास जन यूं कहै, सबल राम को ओट।।
जे कब हूँ काची पड़ै, और जनम है राम।।
कल्याणदास जन यूं कहै, पूरन सिद्धि व्है काम।।
कहा शक्ति है जीव की, दर्लभ सुमिरण राम।।
राम सुमिरावै जीव कूं, पड़या घणी सूं काम।।
कहा शक्ति है जीव की, जीवन समझे पीव।।
पीव समझावै जीव कूं, तो सुख पावै जीव।।
नांव दिया है राम जी, हिरदे सुमिरण जानि।।
समझ पड़ी सतगुरू मिल्या, सुरति सहज घर आनि।।
नांव दिया है राम जी, यह पूरी बकसीस।।
सुमिरण सेवा ध्यान करि, यूं करमां कूं पीस।।
भाग बिना क्यों पाइये, सुमिरण सासों सास।।
कल्याणदास जन यूं कहै, परम ज्योति प्रकास।।
कण छाडै कूकस गहै, ऐसा सब संसार।।
जन कल्याणदास विचार करि, सुमिरै सिरजन हार।।
कर्म भर्म कूकस भया, कण है सुमिरण सार।।
कल्याणदास जन यूं कहै, सुमिरैं सिरजन हार।।
चारि बेद है मांड में, पंचम बेद है न्यारा।।
कल्याणदास जन यूं कहै, ऐसा राम पियारा।।
चारि बेद का मूल है, पंचम बेदका जाप।।
कल्याणदास जन यू कहै, तहां पुण्य नहीं पाप।।
साध सबद में समझ करि, समझर कीजे और।।
कल्याणदास जन यूं कहै, हरि में नाहिं ठौर।।
करणी भिष्ट चाल है ऊंची, पांचू इन्द्री ज्ञान सूं मूछी।।
अंतर मीठा ऊपर खारा, जन कल्याणदास वे हरिका प्यारा।।
हाथ दिया पांव दिया, नयन दिया कान।।
मुख दीया जीभ दई, सुमिरे क्यों नहीं राम।।
गति मति में पाउं नहीं, समर्थ सिरजनहार।।
साहिब तेरी साहिबी, मौकूं दयौ दीदार।।
दुर्लभ महा वैराग है, देखिर दीजे पांव।।
दुर्लभ सेवा साधु की, दुर्लभ हरि सूं भाव।।
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