विरह -बिचालै अंतरो रे, हरि हम भागो नांहि।
बिचालै अंतरो रे, हरि हम भागो नांहि।
को जाणै कद भाजसी, म्हारे पछतावो मन मांहि।।
को जाणै कद भाजसी, म्हारे पछतावो मन मांहि।।
आडा डुंगर बन घणो, नदियां बहै अनंत।
सो पंषडियां पंजर नहीं, हौं मिल-मिल आंऊ नित।।
चरणा पाषैं चालिवोरे, धरती पाषैं बाट ।
परबत पाषैं लंघणा, विषमी औघट घाट।।
जातां जातां धोहड़ा, म्हारे मन पछितावो होइ।
जीवत मेलो हे सषी, मूंवा न मिलिसी कोइ।।
हरि दरसन कारणि हे सषी, म्हारा नैन रह्या जल पूरि।
सो साजन अगला हुवा, भ्वै भारी घर दूरि।।
पाती प्यारा पीव की, हूं क्यौं वाचों का लेइ।
बिरह महाघन ऊनड्यो, म्हारो नैन न वाचण देइ।।
बटाऊ उहि बाट का, म्हारो संदेसो तिहिं हाथि।
आली नाहीं रहूं, काहू साधू जनकै साथि।।
ज्यूं बनकै कारणि हस्ती झुरै, चकवी पैलै पारि।
यों बषना झुरै रामकूं, ज्यूं उलगांणा की नारि।।
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