गगन तार गनत गइ रतिआ।। गगन तार गनत गइ रतिआ।।
गगन गहागह अनहद बाजत, बरसत अमृत धार।
जो जन पीवै सोइ जन जीवै, मान गुमान हकार किरतिआ।।
गगन बीच भरि मकर तार धरि, चढ़ि गए चतुर सुजान।
अजपा जाप जाहिर भयो जबते, बिसरि गये दारा सुत नतिआ।।
करनी काम किए जग जबते, करता तीनि सुभाव।
इंगला पिंगला सुषमना सुरते, कटि गए काल कराल कुमतिआ।।
पिय परदेस उदेस न पावों, पिय बेलमे केहि भाव।
का करों लोभी पिया जैसो रहि गयो, राखि पराई थतिया।।
जो पिय पावों अंक भरि लावों, निज परतीत बढ़ाय।
तबहीं सुहागिनी प्रान पुरुषकी, चढ़ि मैदान लड़ी सुरा छतिया।।
जो आया सो जात न देखा, कहां बार कहां पार।
जनमत मरत हाट एक देखा, बकता सांच झूठ दुइ बतिआ।।
बेद पुरान बरन बहु बरनत, भिंन भिंन करि भाग।
सो सुनि भूले मुरुख गंवारा, भटकत फिरहिं जगत भलि भंतिआ।।
केहु नाहिं हीत बंधु एहि जगमें, सभै बिराना लोग।
जात न बनै अकेला जाना, खोजत मिलै न केहु संगतिआ।।
शीवनरायन सुरति निरंतर, निरखि आपनो लीन्ह।
बैठ तखत अमल करि अपना, कहि दिन चलहु मुक्ति की गतिआ।।
गगन तार गनत गइ रतिआ।।
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