पूस- पूस कीट पतंग होते, किधों तरवर पच्छि रे ।
पूस- पूस कीट पतंग होते, किधों तरवर पच्छि रे ।
तुलसीदास (ब्रजवासी)
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पूस कीट पतंग होते, किधों तरवर पच्छि रे ।
किधों जल के जीव होते, किधों सागर मच्छि रे ।।
भ्रमत षटऋतु दिवस निशि, तन सहत है बहु दुःख रे ।
हरि बिमुख शठ जीव कतहूँ, नाहिँ पावत सुख रे ।।
जगत सोवत फिरत इत उत, अवधि छिन छिन घटतु रे ।
सुबस रसना पाइ के, हरि नाम काहे न रटतु रे ।।
फिरत भटकत जगत में, हरि हृदय जीवन मूरि रे ।
नाम को जान्यो नहीं, सब जानिवे में धूरि रे ।।
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