अगहन- मास अगहन रहट घरिया, चलत चित दै देख रे ।
अगहन- मास अगहन रहट घरिया, चलत चित दै देख रे ।
तुलसीदास (ब्रजवासी)
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मास अगहन रहट घरिया, चलत चित दै देख रे ।
जात आवत भरी रीती, ऐसही जग लेख रे ।।
तैसही फल चाखिहै, जस करे करनी आप है ।
आन स्वारथ पुण्य सोई, आन पीड़ा पाप है ।।
देख के परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोय रे ।
दोष अपने मेरू सम हैं, तिन्हैं राखत गोय रे ।।
आय जग में बदी तजु, यामें कछू न सवाद रे ।
द्रोह पर परदार निद्रा, छाँड़ मिथ्या बाद रे ।।
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